जयपुर की ये हल्की
फुल्की
रंग बिरंगी रजाइयाँ
कनीज भट्टी
हर
शहर या प्रांत की कुछ चीजें, वहाँ की कला की देन होती
हैं। पर्यटक हो या सगा संबंधी, वह आते ही यह जरूर
पूछता है कि यहाँ की क्या चीज़ मशहूर है। और वाक़ई यह
बात सही है कि किसी भी शहर की कोई खासियत, आने वाला
अपने घर लेकर जाना पसन्द करता है, चाहे वह खाने की
हो, पहनने-ओढ़ने की हो या रखने की हो। यही चीज़ें
देने-लेने में भी काम आती हैं। यह रस्मो-रिवाज़ हरेक
धर्म और हरेक समाज में, दुनिया के कोने-कोने में लागू
होते हैं। और जाने वाले को या लौट के आने वाले को, इस
प्रकार कहा जाता है, भाई फलां जगह जा रहे हो, वहाँ की
यह चीज मशहूर है, हमारे लिए लेते आना। या -
भई वहाँ जाकर आए हो,
वहाँ से हमारे लिए क्या लाए? वगैरह - वगैरह।
और यह बात सही भी है, हर जगह अपनी खासियत लिए होती है
जैसे जोधपुर की मावे की कचौरी, बीकानेर की भुजिया,
रसगुल्ले, अजमेर का सोहन हलुआ, ब्यावर की लिपट्टी,
उदयपुर के लकड़ी के खिलौने, नागौर की जूतियाँ, जैसलमेर
की पट्टू शॉल, इलाहाबाद के अमरूद, आगरे का पेठा,
दिल्ली का करांची हलुआ और जयपुर की पाव भर रूई की
रजाई जो जयपुरी रजाईयों के नाम से दुनिया भर में
प्रसिद्ध है। जयपुर आने वाला हर पर्यटक और मेहमान
सर्दी के मौसम में एक रजाई यहाँ से खरीद कर अवश्य ले
जाता है। इसीलिए जयपुर के लगभग छह हजार कारीगर रोजाना
पाँच हजार रजाइयों का उत्पादन करते हैं। इनमें सिंगल
बेड, मीडियम, डबल बेड, सूती कपड़े की छपाई वाली,
रेशमी, मखमल, बन्धेज और
गोटे-किनारी की होती
हैं।
जयपुरी
रजाइयों के साथ इसकी कारीगरी में एक खास नाम जुड़ा है
इलाही बक्श मन्सूरी पटेल के वर्तमान वंशज,
राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त स्वर्गीय मोहम्मद
हनीफ का जिन्होने देश के अति महत्वपूर्ण व्यक्तियों
को अपने हाथ से पिनाई की हुई रूई की जयपुरी रजाई भेंट
कर, उस रजाई के हल्केपन, खूबसूरती और उसकी गर्माई
बताकर चकित कर दिया और यही कारण है कि स्वर्गीय
श्रीमती इन्दिरा गांधी की सन १९८४ में, जयपुर की अंतिम
यात्रा पर, जब स्वर्गीय मोहम्मद हनीफ ने उनको रजाई
भेंट की, तब वे बोल उठीं, 'अरे हनीफ, तू कब तक ये रजाई
मुझे देता रहेगा।' और उस फोटो के नीचे, इन शब्दों को
लिखवाकर स्वर्गीय हनीफ भाई ने दुकान पर लगी तस्वीर
दिखाते हुए कहा कि न जाने क्यों उनकी यह बात
सुनकर, उस दिन मेरी
आँखें नम हो गईं थीं।
सवाई राजा जयसिंह के जमाने में जयपुर के बसते ही, भारत
के कोने-कोने से विभन्न कला के शिल्पियों को, यहाँ
बसने के लिए, आमंत्रित किया गया। उनमें से एक शिल्पी
स्वर्गीय इलाही बक्श थे, जिन्होंने राजघराने में,
रजाइयाँ बनाने का काम
किया तथा राजा के मेहमान, लखनऊ नवाब को खुश्बूदार
हल्की रजाई से ठण्ड को भगाकर चकित कर दिया।
हर कलाकार की एक उम्र होती है और ढलती उम्र में कला
में तो निखार आता है, किन्तु काम करने की हिम्मत कम
हो जाती है और इस प्रकार स्वर्गीय हनीफ भाई के रजाई
बनाने के सारे गुण, उनके दो बेटों यूसुफ और अयूब ने ले
लिए हैं, जिनका रजाई बनाने का हुनर पिता के समान नाम
कमा रहा है। उनके अनुसार रजाई की रूई की पिनाई मशीन से
न होकर हाथ से होनी चाहिए। रजाई में डोरे पास-पास
डालने चाहिए ताकि रूई खिसककर गुठलेनुमा नहीं बने, रूई
अपनी जगह नहीं छोड़े और उसकी कपड़े से पकड़ ठीक बनी
रहे तो रजाई की रूई की मोटाई बरकरार रखने पर उसकी
गर्माई बनी रहती है। यदि उस मोटाई को पैरों तले, कोहनी
से, या ज्यादा पकड़-पकड़ कर शरीर से दबाया गया तो जो
मोटाई ठण्ड और इंसान के बीच वैक्यूम बनकर, मोटी परत
का काम करती है और दबाने से वो परत पतली कर दी गई तो
ठण्ड को भगाने की, उसकी क्षमता कम हो जाएगी। रजाई के
अंदर का अस्तर हमेशा सूती और पतले कपड़े का हल्का होना
चाहिए जबकि ऊपर का कपड़ा मजबूत, मोटा होना चाहिए,
जिससे रूई तक सर्दी कम पहुँच पाए।
मोहम्मद
यूसुफ और अयूब के मुताबिक खुश्बू वाली जयपुरी रजाई,
जो केवल विशेष आदेश पर बनाई जाती है, की खुश्बू छ:-छ:
महीने तक बनी रहती है, यदि उसको काम में लेकर आहिस्ता
से समेटकर, अधर से बक्से में रख दें। ऐसी रजाई को
खुले में रखने से या धूप लगाने से, उसकी खुश्बू उड़
जाती है। पुराने जमाने में रजाई में खुश्बू के लिए,
रूई भरते समय, रूई की परत के बीच में, चमेली, जूही,
मोगरा आदि के फुल डाले जाते थे, लेकिन आजकल चमेली का
इत्र या आर्टिफिशियल परफ्यूम डाला जाता है।
जयपुरी
रजाइयाँ मलमल, रेशम और मखमल की बनाई जाती हैं। मलमल की रजाई
तीन तीन तरह के छापों में मिलती है- सांगानेरी छींट, बगरू छींट
और दाबू छींट। सांगानेरी छींट में सबसे ज्यादा फूल-पत्तियाँ
बनाई जाती है। बगरू प्रिंट में डिजाइन तैयार करने के लिए रजाई
के कवर को मिट्टी के पानी में उबाला जाता है, जिससे कपड़े का
रंग ऑफ वाइट हो जाता है। शहर की हर छोटी-बड़ी बाजार में मलमल
की रजाइयां आसानी से मिल जाती हैं। मखमल की रजाइयों की खरीद
शादी-ब्याह के अवसर पर सबसे ज्यादा होती है। इसमें सभी तरह के
रंगों की रजाइयाँ मिलती हैं, लेकिन गहरा लाल रंग पसंद करने
वाले लोगों की संख्या अच्छी-खासी है। रेशम की रजाइयों का कवर
रेशमी होता है। इसमें एक ओर छापा होता है तो दूसरी तरफ से ये
सादी होती है। इन रजाइयों की मोटाई दूसरी रजाइयों के मुकाबले
काफी कम होती है। इन्हें बनाने में इस्तेमाल किया जाने वाली
रुई का रेशा अच्छी गुणवत्ता का होता है।
इसके
अतिरिक्त जयपुर में सिंथेटिक रजाइयाँ भी बनाई जाती हैं। ये
रजाइयाँ देखने में तो खूबसूरत होती ही हैं वजन में भी काफी
हल्की होती है। ये ठंड से तो राहत देने के लिये तो उपयुक्त हैं
लेकिन चेहरे और शरीर को पूरी तरह ढक लेने के बाद कभी-कभी साँस
लेने में परेशानी का कारण हो सकती है। सच पूछा जाए तो इन
रजाइयों की गुणवत्ता, रूप और हाथ से हुए बारीक काम का कोई
मुकाबला ही नहीं है। आकर्षक कढ़ाई और सितारों का काम भी इन्हीं
रजाइयों पर देखने
में
मिलता है। देश में ही नहीं, बल्कि विदेश मसलन ब्रिटेन,
ऑस्ट्रेलिया और डेनमार्क में भी जयपुरी रजाइयों की काफी धूम
है।
विश्व भर में
जगह जगह से क्विल्टिंग विशेषज्ञ जयपुरी रजाइयों के विषय में
शोध के लिये पहुँचते हैं। एक ग्रुप के साथ प्रशिक्षक के रूप
में दिल्ली आई, रजाई बनाने में महारथ हासिल कर चुकी और रजाई
बनाने की तकनीकों पर करीब ११ किताबें लिखने वाली अमेरिकी महिला
जेनी बेयर कहती हैं कि जयपुरी रजाई का मुकाबला कोई भी नहीं कर
सकता। वे कहती हैं कि मैं पिछले दो साल से दिल्ली में रहकर
क्विलटिंग तकनीकों पर शोध कर रही हूँ। भारत से प्रेरणा पाकर ही
मैंने अपनी ११ किताबें लिखी जिन्हें इंग्लिश के साथ-साथ
जापानी, स्पेनिश और फ्रेंच भाषा में भी अनूदित किया जा चुका
है।
१३ जून
२०११ |