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खानपान नवाबों के
अनंत राम गौड


दिल्ली में जब मुगल सल्तनत लाल किले की चार दीवारियों में ही सिमटकर रह गई थी, और शहंशाह कमज़ोर होकर मराठों से दबा हुआ महसूस कर रहा था, तब अवध की रियासत नवाबों के आधीन सांस्कृतिक दृष्टि से खूब फूल-फल रही थी। वास्तु और ललित कलाएँ, नृत्य और संगीत, हाथ की कारीगरी और चित्रकारी के साथ-साथ पाक कला भी खूब पनप रही थी। हिंदू और मुसलिम सभ्यताओं की सर्वोत्तम परंपराओं से मिलकर अवध में एक तरह की गंगा जमुनी संस्कृति परवान चढ़ रही थी।

अमीर हसन ने अपनी पुस्तक वैनशिंग कल्चर आफ लखनऊ में लिखा है कि लखनऊ के नवाबों और बेगमों ने स्थानीय रीति रिवाज़ों, भाषा, बोलियो यहाँ तक कि रहन सहन और अंधविश्वासों व शकुन-अपशकुन को भी जस का तस अपना लिया था। कृष्ण तो तत्कालीन नवाबों के चहेते थे जिनके गोपियों के साथ रास की विषय वस्तु को नवाब वाजित अली शाह ने अपनी ठुमरियों में पिरोया था।

शाही रसोईघरों में भी इसी प्रकार अनेक प्रकार की मिश्रित परंपराएँ पनप रही थीं। नवाब और उनके सामंत अपने बावर्चीखानों पर काफी धन खर्च करते थे। बताया जाता है कि नवाब आसिफउद्दौला के रसोइघर पर प्रतिदिन तीन हज़ार रुपये तक व्यय होते थे। इसके अतिरिक्त उनकी बड़ी बेगमों के अपने अलग रसोइघर हुआ करते थे। शेख तसहुक हुसैन के 'रोजनामचा'में बयान किया गया है कि मलिका जमानिया और कुदसिया बेगम, जो नवाब नसीरुद्दीन की बेगम थीं, अपने दस्तरखानों पर प्रतिदिन क्रमशः तीन सौ और चौदह सौ रुपये खर्च करती थीं। इनके बावरचियों, जिनको रकाबदार कहते थे, को वेतन भी बहुत अच्छे मिलते थे। इनमे से कुछ का वेतन तो एक हज़ार रुपये प्रति माह तक था। कुदसिया बेगम का रकाबदार, पीर अली, इस खूबी से समोसे बनाता था कि ज‍़िन्दा लाल (एक छोटा पक्षी जो घरों में पाला जाता है) उनमें इस तरह बिठाया जाता था कि समोसा तोडते ही वह निकल भागता था। अपना यह कमाल उसने हैदराबाद में भी दिखाया था।

'गुजिश्ता लखनऊ' में अब्दुल हलीम शरर ने बताया है की नवाब सालारजंग का बावरची, जो सिर्फ़ उनके लिए खाना तैयार करता था, बारह सौ रुपये मासिक वेतन पाता था। अब समझ लीजिए कि १७५४-७५ मे ये रकम कितनी भारी रही होगी। उनका वह रकाबदार विशेषतया उनके लिए ऐसा भारी पुलाव पकाता था कि उनके अतिरिक्त अन्य कोई उसे पचा नही सकता था। उनके पुलाव की शोहरत सुनकर नवाब शुजाउद्दौला ने एक दिन उनसे कहा, "तुमने कभी हमें वह पुलाव नही खिलाया जो खास अपने लिए पकवाया करते हो? नवाब सालारजंग ने अर्ज किया, "बेहतर है आज ही हाजिर करूँगा।" नवाब सालारजंग के लिए यह बात बहुत गर्व की थी कि स्वयं नवाब शुजाउद्दौला साहब ने फ़रमाइश की थी। अतएव घर लौटकर उन्होंने अपने रकाबदार को आदेश दिया कि जितना पुलाव रोज़ पकाते हो उसका दूना पकाओ। बावर्ची ने कहा, "हुजूर, मैं तो आपके खासे के लिये नौकर हूं किसी दूसरे के लिये नही पका सकता।" किन्तु यह तो नवाब साहब की फरमाइश थी, भला यह क्या मुमकिन था कि उनके लिए वह न ले जाएँ? बहरहाल बावर्ची इस शर्त पर पकाने को तैयार हुआ कि हुजूर खुद लेजाकर अपने सामने खिलाएँ, चंद लुक्मों (ग्रास) से ज़्यादा न खाने दें और एहतियातन पानी के घड़े आदि साथ ले जाएँ।

आखिर बावर्ची ने पुलाव तैयार किया और सालारजंग खुद लेकर पहुँचे। शुजाउद्दौला ने खाते ही बहुत तारीफ़ की लेकिन उन्होंने दो चार लुक्मे ही खाए थे कि सालारजंग ने हाथ पकड़ लिया। शुजाउद्दौला ने आश्चर्य से उनकी तरफ़ देखा और बोले, मेरा इन चार लुक्मों से क्या होगा और यह कहकर उन्होंने दो चार लुक्मे और ले लिए। फिर तो उन्हें बहुत तेज़ प्यास लगी। सालारजंग ने पानी पिलाना शुरू किया पर उनकी प्याज बहुत देर में बुझी। आजकल की रुचि को देखते हुए यह बात किसी पौष्टिक पदार्थ का यही स्थर था कि खाद्य पदार्थ स्वादिष्ठ हो, किन्तु असर में इतने गरिष्ठ हों की हर मेदा उन्हें सहन न कर सके।

इसी तरह का एक किस्सा 'शरर' ने गदर के बाद के लखनऊ में रहने वाले एक हकीम बंदा मेंहदी का सुनाया है जिसे उनके एक वयोवृद्ध मित्र ने इस तरह बयान किया है, "हमारे खानदान में हकीम से बहुत रब्त-जब्त था। एक दिन हकीम साहब ने हमारे बलिद और चचा को बुला भेजा कि एक पहलवान की दावत है आप भी आकर लुफ्त लीजिए।" वहाँ जाकर मालूम हुआ कि वह पहलवान रोज़ सुबह बीस सेर दूध पीता है, ढाई तीन सेर बादाम और पिस्ते खाता है। तथा दोपहर और शाम को ढाई सेर आटे की रोटियाँ और एक दरम्याने का बकरा खा जाता है। उसका शरीर भी इस खुराक के अनुरुप था।

"उन्होंने वहाँ पहुचकर यह भी देखा कि वह पहलवान नाश्ते के लिए बेचैन था। और बार-बार तकाज़ा कर रहा था कि खाना जल्दी मँगवाया जाए। लेकिन हकीम साहब जान बूझकर टाल रहे थे। एक बार वो नाराज़ होकर जाने भी लगा। हकीम साहब ने जब यह देखा कि अब वह भूख बिलकुल नहीं बर्दाश्त कर सकता तो उन्होंने मेहरी के हाथ एक दस्तरखान भेजा जिसमें थोडा सा पुलाव था जिसकी मात्रा छटाक भर से ज़्यादा न होगी। यह देककर वह बहुत क्रोध में आ गया तथा उसने पूरी तशतरी मुँह मे डाल ली। पाँच मिनट बाद उसने पानी माँगा तथा इतनी ही देर बाद एक बार फिर पानी पीकर उसने डकार ली।"

"अबतक अंदर से दस्तरख़ान आ चुके थे और खाना चुन दिया गया था। करीब डेढ़ पाव चावलों के उस पुलाव की एक तश्तरी हकीम साहब ने पहलवान के सामने पेश की। लेकिन पहलवान साहब माफी माँगने लगे। वे कहने लगे कि वे एक लुक्मे से ही खुश हो गए इसलिए एक चावल भी खाने की गुंजाइश उनके पेट में नहीं है। पहलवान के मना करने पर हकीम साहब ने सब चावल खा लिए और उस पहलवान से बोले, "यह तो गाय-भैंस की गिजा हुई। इनसान की गिजा यह हुई कि चन्द लुक्मे खाए मगर उनसे कूवत और तवानाई वह आए जो बीस- बीस सेर गल्ला खाने से भी न आ सके।"

ऐसी ही कुछ गिज़ा बादशाह गाजीउद्दीन हैदर की भी थी। उनको परांठें बहुत पसंद थे। उनका रकाबदार हर रोज़ छह परांठे पकाता और फी परांठा पाँच सेर के हिसाब से तीस सेर घी रोज़ लिया करता। एक दिन प्रधान मंत्री मोतमदउद्दौला आगा मीर ने शाही बावर्ची को बुलाकर पूछा, "अरे भई, यह तीस सेर घी क्या होता है?" वह कहने लगा, " हुजूर, परांठे पकाता हूं।" वह बोलेः " भला मेरे सामने तो पकाओ।" उसने कहा, "बहुत खूब।" उसने पराठें पकाये। जितना घी खपा उसने खपा दिया बाकी जो बचा उसे बहा दिया। मोतमदउद्दौला आगा मीर ने यह देखकर हैरत से कहा, "पूरा घी तो खर्च नहीं हुआ।" बावरची कहने लगा, "बाकी घी इस काबिल थोडे ही रहा कि किसी और खाने में लगाया जाए। यह तो तेल हो गया।" वजीर साहब से जवाब तो न बन पड़ा लेकिन हुक्म दे दिया कि आगे से सिर्फ‍ छह सेर घी ही दिया जाए। प्रत्येक परांठे के लिए एक सेर घी ही बहुत है। वजीर की इस पाबंदी से बावरची नाखुश हो गया और उसने बादशाह के लिए मामूली परांठे बनाने शुरू कर दिए। जब कई दिनों तक बराबर यह हालत रही तो बादशाह ने एक दिन पूछ ही लिया कि ये परांठे किस तरह के आते हैं। बावर्ची ने निवेदन किया कि हुजूर, नवाब मोतमदउद्दौला बहादुर के हुक्म के मुताबिक बनाता हूँ। और उसने सारा हाल बयान कर दिया। इसके बाद मोतमुदउद्दौला साहब को खिलअत अता हुई और रकाबदार को ३० सेर घी फिर से मिलने लगा।

इसी तरह से अबुल कासिम खाँ भी लखनऊ के एक शौकीन रईस थे। उनके यहाँ बहुत भारी पुलाव पकता था। कोई ३४ सेर गोश्त की यखनी तैयार करके नियार ली जाती थी और उसमें चावल दम किए जाते। यह पुलाव इस तरह का होता कि जैसे चावल खुद ही हलक से नीचे उतरे जा रहे हैं। और गरिष्टता उसमें बिलकुल नहीं। इतनी ही ताकत का पुलाव वाजिद अली शाह की ख़ास महल साहिबा के लिए तैयार होता था। नवाबी ज़माने के बावर्चीखाने के कई किस्से मशहूर हैं। इसी तरह बताया जाता है कि शौकीनों के लिए केसर और कस्तूरी की गोलियाँ खिलाकर मुर्गे तैयार किए जाते थे। इस तरह उनके मांस में केसर और कस्तूरी की खुशबू रच-बस जाती थी और फिर उनकी यखनी निकाली जाती थी जिसमें चावल दम किए जाते थे।

अब न वो लखनऊ है और न लखनऊ वाले। एक- एक करके सब चले गए खाक के नीचे। जोश के ही शब्दों में---
जलती हुई शमाओं को बुझाने वाले जीता नही छोड़ेंगे ज़माने वाले
लाशे देहली पे लखनऊ ने यह कहा अब हम भी हैं कुछ रोज़ में आनेवाले

७ सितंबर २००९

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