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                           दीपावली 
                            मान्यताओं के दर्पण में कृष्णकुमार यादव
 
 सामान्यत: त्यौहारों का संबंध किसी न किसी मिथक, 
                                धार्मिक मान्यताओं, परम्पराओं और ऐतिहासिक घटनाओं 
                                से जुड़ा होता है। मानवीय सभ्यता के आरम्भ से ही 
                                मनुष्य ऐसे क्षणों की खोज करता रहा है, जहाँ वह 
                                सभी दुख, कष्ट व जीवन के तनाव को भूल सके। आदिम 
                                युगीन समाज में शिकार करना केवल भय को शांत करने 
                                की आवश्यकता मात्र नहीं था वरन उत्साह एवं 
                                प्रसन्नता का प्रतीक भी था। 
                                शिकार के 
                        बाद समूचा कबीला उसके चारों ओर घूम-घूम कर नाचकर जश्न 
                        मनाता था। निश्चितत: वह क्षण उनके लिए किसी पर्व या उत्सव 
                        से कमतर नहीं था। अपने देश भारत में तो कृषि एवं मौसम के 
                        साथ त्यौहारों का अटूट सम्बन्ध देखा जा सकता है। रबी और 
                        खरीफ फसलों की कटाई के साथ ही साल के दो सबसे सुखद मौसमों 
                        वसंत और शरद में तो मानों उत्सवों की बहार आ जाती है। वसंत 
                        में वसंतोत्सव, सरस्वती पूजा, होली, चैत्र नवरात्र व 
                        रामनवमी तो शरद में शारदीय नवरात्र के साथ दुर्गा पूजा, 
                        दशहरा, दीपावली, करवा चौथ, गोवर्धन पूजा इत्यादि की रंगत 
                        रहती है। ये पर्व सिर्फ़ एक अनुष्ठान ही नहीं हैं, वरन 
                        इनके साथ सामाजिक समरसता और नृत्य-संगीत का अद्भुत दृश्य 
                        भी जुड़ा हुआ है। चूँकि इस दौरान खेतों में कटाई हो चुकी 
                        होती है अत: दूर-दराज के अंचलों से लोग सपरिवार सज-धजकर 
                        बाजारों एवं मेलो में आते हैं और लज़ीज़ व्यजंनों का 
                        लुफ्त उठाते हुए खूब ख़रीददारी करते हैं। इसी समय मेलों के 
                        बहाने दूर-दराज के मित्रों और रिश्तेदारों से भी मुलाकातें 
                        हो जाती हैं। घर की चारदीवारियों में कैद महिलाएँ भी इस 
                        अवसर पर बाहर निकलकर त्यौहारों व उत्सवों का पूरा लुफ्त 
                        उठाती हैं। त्यौहारों को केवल फसल एवं ऋतुओं से ही नहीं 
                        वरन दैवी घटनाओं से जोड़कर धार्मिक व पवित्र भी बनाया गया 
                        है।। यही कारण है कि भारतीय पर्व और त्यौहारों में धार्मिक 
                        देवी-देवताओं, सामाजिक घटनाओं व विश्वासों का अद्भुत संयोग 
                        प्रदर्शित होता है। दीपावली 
                        भारतीय संस्कृति का एक प्रमुख त्यौहार है जिसका बेसब्री से 
                        इंतज़ार किया जाता है। दीपावली पर्व के पीछे मान्यता है कि 
                        रावण-वध के बीस दिन पश्चात भगवान राम अनुज लक्ष्मण व पत्नी 
                        सीता के साथ चौदह वर्षों के वनवास पश्चात अयोध्या वापस 
                        लौटे थे। जिस दिन श्री राम अयोध्या लौटे, उस रात्रि 
                        कार्तिक मास की अमावस्या थी अर्थात आकाश में चाँद बिल्कुल 
                        नहीं दिखाई देता था। ऐसे माहौल में नगरवासियों ने भगवान 
                        राम के स्वागत में पूरी अयोध्या को दीपों के प्रकाश से 
                        जगमग करके मानो धरती पर ही सितारों को उतार दिया। तभी से 
                        दीपावली का त्यौहार मनाने की परम्परा चली आ रही है। 
                        धार्मिक मान्यताओं के अनुसार आज भी दीपावली के दिन भगवान 
                        राम, लक्ष्मण और पत्नी सीता के साथ अपनी वनवास स्थली 
                        चित्रकूट में विचरण कर श्रद्धालुओं की मनोकामनाओं की 
                        पूर्ति करते हैं। यही कारण है कि दीपावली के दिन लाखों 
                        श्रद्धालु चित्रकूट में मंदाकिनी नदी में डुबकी लगाकर 
                        कामद्गिरि की परिक्रमा करते हैं और दीप दान करते हैं।
                         दीपावली 
                        के संबंध में एक प्रसिद्ध मान्यतानुसार मूलत: यह यक्षों का 
                        उत्सव है। दीपावली की रात्रि को यक्ष अपने राजा कुबेर के 
                        साथ हास-विलास में बिताते व अपनी यक्षिणियों के साथ 
                        आमोद-प्रमोद करते। दीपावली पर रंग- बिरंगी आतिशबाजी, 
                        लज़ीज़ पकवान एवं मनोरंजन के जो विविध कार्यक्रम होते हैं, 
                        वे यक्षों की ही देन हैं। सभ्यता के विकास के साथ यह 
                        त्यौहार मानवीय हो गया और धन के देवता कुबेर की बजाय धन की 
                        देवी लक्ष्मी की इस अवसर पर पूजा होने लगी, क्योंकि कुबेर 
                        जी की मान्यता सिर्फ़ यक्ष जातियों में थी पर लक्ष्मी जी 
                        की देव तथा मानव जातियों में। कई जगहों पर अभी भी दीपावली 
                        के दिन लक्ष्मी पूजा के साथ-साथ कुबेर की भी पूजा होती है। 
                        गणेश जी को दीपावली पूजा में मंचासीन करने में 
                        भौव-सम्प्रदाय का काफी योगदान है। ऋद्धि-सिद्धि के दाता के 
                        रूप में उन्होंने गणेश जी को प्रतिष्ठित किया। यदि तार्किक 
                        आधार पर देखें तो कुबेर जी मात्र धन के अधिपति हैं जबकि 
                        गणेश जी संपूर्ण ऋद्धि-सिद्धि के दाता माने जाते हैं। इसी 
                        प्रकार लक्ष्मी जी मात्र धन की स्वामिनी नहीं वरन ऐश्वर्य 
                        एवं सुख-समृद्धि की भी स्वामिनी मानी जाती हैं। अत: 
                        कालांतर में लक्ष्मी-गणेश का संबध लक्ष्मी-कुबेर की बजाय 
                        अधिक निकट प्रतीत होने लगा। दीपावली के साथ लक्ष्मी पूजन 
                        के जुड़ने का कारण लक्ष्मी और विष्णु जी का इसी दिन विवाह 
                        सम्पन्न होना भी माना गया है।  दीपावली 
                        से जुड़ी एक अन्य मान्यतानुसार राजा बालि ने देवताओं के 
                        साथ देवी लक्ष्मी को भी बन्दी बना लिया। देवी लक्ष्मी को 
                        मुक्त कराने भगवान विष्णु ने वामन का रूप धरा और देवी को 
                        मुक्त कराया। इस अवसर पर राजा बालि ने भगवान विष्णु से 
                        वरदान लिया था कि जो व्यक्ति धनतेरस, नरक-चतुर्दशी व 
                        अमावस्या को दीपक जलाएगा उस पर लक्ष्मी की कृपा होगी। तभी 
                        से इन तीनों पर्वों पर दीपक जलाया जाता है और दीपावली के 
                        दिन ऐश्वर्य की देवी माँ लक्ष्मी एवं विवेक के देवता व 
                        विघ्नहर्ता भगवान गणेश की पूजा की जाती है। धनतेरस के दिन 
                        धन एवं ऐश्वर्य की देवी माँ लक्ष्मी की दीपक जलाकर पूजा की 
                        जाती है और प्रतीकात्मक रूप में लोग सोने-चाँदी व बर्तन 
                        ख़रीदते हैं। धनतेरस के अगले दिन अर्थात कार्तिक मास के 
                        कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को नरक चतुर्दशी के रूप में मनाने 
                        की परंपरा है। पुराणों के अनुसार इसी दिन भगवान कृष्ण ने 
                        राक्षस नरकासुर का वध किया था। नरक चतुर्दशी पर घरों की 
                        धुलाई-सफ़ाई करने के बाद दीपक जलाकर दरिद्रता की विदाई की 
                        जाती है। वस्तुत: इस दिन दस महाविद्या में से एक अलक्ष्मी 
                        (धूमावती) की जयंती होती है। अलक्ष्मी दरिद्रता की प्रतीक 
                        हैं, इसीलिए चतुर्दशी को उनकी विदाई कर अगले दिन अमावस्या 
                        को दस महाविद्या की देवी कमलासीन माँ लक्ष्मी (देवी कमला) 
                        की पूजा की जाती है। नरक चतुर्दशी को 'छोटी दीपावली' भी 
                        कहा जाता है। दीपावली के दिन लोग लईया, खील, गट्टा, लड्डू 
                        इत्यादि प्रसाद के लिए खरीदते हैं और शाम होते ही वंदनवार 
                        व रंगोली सजाकर लक्ष्मी-गणेश की पूजा करते हैं और फिर पूरे 
                        घर में दीप जलाकर माँ लक्ष्मी का आवाहन करते हैं। व्यापारी 
                        वर्ग पारंपरिक रूप से दीपावली के दिन ही नई हिसाब-बही 
                        बनाता है और किसान अपने खेतों पर दीपक जलाकर अच्छी फसल 
                        होने की कामना करते हैं। इसके बाद खुशियों के पटाखों के 
                        बीच एक-दूसरे से मिलने और उपहार व मिठाइयों की सौगात देने 
                        का सिलसिला चलता है।  दीपावली 
                        का त्यौहार इस बात का प्रतीक है कि हम इन दीपों से निकलने 
                        वाली ज्योति से सिर्फ़ अपना घर ही रोशन न करें वरन इस 
                        रोशनी में अपने हृदय को भी आलोकित करें और समाज को राह 
                        दिखाएँ। दीपक सिर्फ़ दीपावली का ही प्रतीक नही वरन भारतीय 
                        सभ्यता में इसके प्रकाश को इतना पवित्र माना गया है कि 
                        मांगलिक कार्यों से लेकर भगवान की आरती तक इसका प्रयोग 
                        अनिवार्य है। यहाँ तक कि परिवार में किसी की गंभीर 
                        अस्वस्थता अथवा मरणासन्न स्थिति होने पर दीपक बुझ जाने को 
                        अपशकुन भी माना जाता है। अगर हम इतिहास के गर्भ में झाँककर 
                        देखें तो सिंधु घाटी सभ्यता की खुदाई में पकी हुई मिट्टी 
                        के दीपक प्राप्त हुए हैं और मोहनजोदड़ो की खुदाई में 
                        प्राप्त भवनों में दीपकों को रखने हेतु ताख बनाए गए थे व 
                        मुख्य द्वार को प्रकाशित करने हेतु आलों की शृंखला थी। 
                        इसमें कोई शक नहीं कि दीपकों का आविर्भाव सभ्यता के साथ ही 
                        हो चुका था, पर दीपावली का जन-जीवन में पर्व रूप में आरम्भ 
                        श्री राम के अयोध्या आगमन से ही हुआ।  भारत के 
                        विभिन्न राज्यों में इस त्यौहार को विभिन्न रूपों मे मनाया 
                        जाता है। वनवास पश्चात श्री राम के अयोध्या आगमन को उनका 
                        दूसरा जन्म मान केरल में कुछ अदिवासी जातियाँ दीपावली को 
                        राम के जन्म-दिवस के रूप में मनाती हैं। गुजरात में नमक को 
                        साक्षात लक्ष्मी का प्रतीक मान दीपावली के दिन नमक खरीदना 
                        व बेचना शुभ माना जाता है तो राजस्थान में दीपावली के दिन 
                        घर में एक कमरे को सजाकर व रेशम के गद्दे बिछाकर मेहमानों 
                        की तरह बिल्ली का स्वागत किया जाता है। बिल्ली के समक्ष 
                        खाने हेतु तमाम मिठाइयाँ व खीर इत्यादि रख दी जाती हैं। 
                        यदि इस दिन बिल्ली सारी खीर खा जाए तो इसे वर्ष भर के लिए 
                        शुभ व साक्षात लक्ष्मी का आगमन माना जाता है। उत्तरांचल के 
                        थारू आदिवासी अपने मृत पूर्वजों के साथ दीपावली मनाते हैं 
                        तो हिमाचल प्रदेश में कुछ आदिवासी जातियाँ इस दिन यक्ष 
                        पूजा करती हैं। पश्चिम बंगाल और उड़ीसा में दीपावली को 
                        काली पूजा के रूप में मनाया जाता है। स्वामी रामकृष्ण 
                        परमहंस को आज ही के दिन माँ काली ने दर्शन दिए थे, अत: इस 
                        दिन बंगाली समाज में काली पूजा का विधान है। यहाँ पर यह 
                        तथ्य गौर करने लायक है कि दशहरा-दीपावली के दौरान पूर्वी 
                        भारत के क्षेत्रों में देवी के रौद्र रूपों को पूजा जाता 
                        है, वहीं उत्तरी व दक्षिण भारत में देवी के सौम्य रूपों 
                        अर्थात लक्ष्मी, सरस्वती व दुर्गा माँ की पूजा की जाती है। 
                        १२ अक्तूबर 
                        २००९ |