| केंद्रीय
    सूचना एवं प्रसारण मंत्री श्रीमती सुषमा स्वराज को प्रखर वक्ता के रूप
    में कौन नहीं जानता। दृढ़ता से अपना पक्ष रखने की क्षमता के कारण वे
    राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मंचों पर सफल प्रवक्ता के रूप में चर्चित
    रहीं हैं। पिछले दिनों वे इस्लामाबाद में दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय
    सहयोग संगठन के सदस्य देशों के सूचना एवं प्रसारण मंत्रियों की
    बैठक में भाग लेने गई थीं और वहां भी उन्होंने एक प्रखर वक्ता
    के रूप में अपनी पहचान बनाई। पाकिस्तान के लगभग सभी समाचारपत्रों
    की सुर्खियों में उनके वक्तव्य छपे। लेकिन 8 मार्च को पाकिस्तान
    टेलीविजन पर प्रसारित हुए उनके साक्षात्कार में साक्षात्कारकर्ता तलत
    हुसैन के सवाल भले ही तीखे थे, लेकिन जवाबों की अपनी ही धार
    थी। कभी बड़े सधे हुए लहजे में, कभी फटकार के साथ उर्दूहिन्दी मिश्रित
    चुटीली भाषा में सवालों के जवाब देते हुए उन्होंने पाकिस्तान को निरूत्तर कर दिया।  श्रीमती सुषमा स्वराज के उस साक्षात्कार को हम ज्यों का त्यों
    यहां प्रस्तुत कर रहे हैं 
                       
                        
                           पाकिस्तान में आपका यह दूसरा दौरा है।  यहां लोगों से आपकी गुफ्तगू हुई।  आपने क्या महसूस किया?  दौरा दूसरा जरूर है पर इस दौरे की हैसियत में फर्क है, और माहौल में भी।  पिछली बार मैं जब लगभग ढाई वर्ष पहले आयी थी, तब हिन्दुस्थानी अवाम की
        हैसियत से पाकिस्तानी अवाम से मिलने आयी थी।  लोगों से खुलकर बातचीत होती थी।  इस बार हिन्दुस्थान की एक वजीर के नाते  आई  हूं, सार्क (दक्षिण
        एशियाई क्षेत्रीय सहयोग संगठन) मुल्कों के वजीरान से मिलने।  सिर्फ वहीं तक बंध कर रह गई हूं।  अवाम से मिलना नहीं हो पाया।
 
                          
                            कल परवेज मुशरर्रफ ने हिन्दुस्थानपाकिस्तान के माबैन(बीच) वीसा पाबंदी हटाने की बात कही।  आपकी हुकूमत का इस पर क्या ख्याल है? मैं उसका कोई जवाब नहीं दे सकती।  फिर हमारी हुकूमत इस पर इतनी जल्दी जवाब दे भी कैसे सकती है।  पहली  बात तो परवेज मुशर्रफ ने ये मुद्दे उठाए,
        जबकि दक्षेस सम्मेलन में द्विपक्षीय मुद्दे उठते नहीं हैं।  लेकिन एक बुनियादी फर्क भी है।  जनरल मुशर्रफ पाकिस्तान के सदर (राष्ट्रपति) हैं।  कोई भी फैसला ले
        सकते हैं, कहीं भी उसका ऐलान कर सकते हैं।  लेकिन हिन्दुस्थान में लोकतंत्र है, वहां वजीरे आजम को भी यह अख्तियार हासिल नहीं हैं कि वह किसी भी मंच से
        कोई घोषण कर दे।  इसलिए अगर किसी  बात का जवाब भी देना होगा तो एक पूरी प्रक्रिया से गुजरने के बाद।  हमारे यहां मंत्रिमण्डल है, संसद है।  उसमें
        विचारविमर्श के बाद ही हम कोई जवाब दे सकते हैं।  जहां पाबन्दियां लगाने  के ये फैसले हुए अगर उन्हीं फैसलों को हमें वापस लेना हैं, तो फिर उन्हीं मंचों पर
        जाना होगा।
 
                            
                              चलिए यह बात छोड़ें कि इस समय इस बात  का जवाब दिया जा सकता है या नहीं।  आपने बताया अभी यह मुद्दा संसद में जाएगा, मंत्रिमण्डल में निर्णय होगा,
        उसके बाद ही कोई फैसला सामने आएगा।  लेकिन इन मामलात की गंभीरता पर तो कोई सवाल  नहीं खड़ा किया जा सकता और सच यह भी है कि इस तरह के
        मामलात आगे बढ़ने चाहिए। मैंने आपको बताया कि इस वक्त मेरा यहां आना एक अलग मकसद के लिए हुआ है।  मेरा आने का मकसद कोई द्विपक्षीय वार्ता करना या द्विपक्षीय मुद्दों की कोई
        सूत्र पकड़ना नहीं है।  जिस समय हिन्दुस्थानी हुकूमत ने मुझे यहां भेजने का फैसला किया, उस समय सामने केवल सार्क सम्मेलन था।  यह सम्मेलन इस्लामाबाद में हो
        रहा है, यह हमारे लिए इतना अहम मुद्दा नहीं है।  सम्मेलन इस्लामाद में हो, कोलम्बों में हो, मालदीव में हो, ढाका में हो या कहीं भी होहमारे लिए सार्क अहमियत
        रखता है।  यह एक मंच है जो पूरे  दक्षिण एशियाई क्षेत्र के देशों में सहयोग के लिए बना है।  तो हिन्दुस्थान महज यह तय कर ले कि सम्मेलन इस्लामाबाद में हो
        रहा हैं, इसलिए हम नहीं जाएंगे, तो बहुत गलत फैसला होता।  यह महज इत्तिफाक है कि सम्मेलन इस्लामाबाद में हो रहा है।  यह उससे भी बड़ा इत्तिफाक है कि
        भारत की सूचना एवं प्रसारण मंत्री मैं हूं और यह सम्मेलन सूचना एवं प्रसारण मंत्रियों का ही है।  इसलिए यह सुषमा स्वराज का पाकिस्तान आना नहीं है, बल्कि भारत
        की सूचना एवं प्रसारण मंत्री का सार्क सम्मेलन में शामिल होना है।  यही वजह है कि द्विपक्षीय मुद्दों की चर्चा न यहां  आने से पहले हुई और न ही यहां हो सकती है।
 
                              
                                लोग हमसे कहते हैं कि सुषमा जी से पूछ़ें कि सरहदों से फौजें कब वापस बुलाई जाएंगी? आप दुबारा उसी बात पर आ गए।  मैं फिर बताना चाहूंगी कि मैं जिस मकसद से यहां आई हूं, उसमें यह शामिल नहीं हैं।  लेकिन अगर आप मुझसे भारत की
        सूचना एवं प्रसारण मंत्री होने के नाते यह सवाल पूछ रहे हैं तो मैं सिर्फ  इतना कहना चाहूंगी कि आखिरकार सरहदों पर फौजें तैनात करने  का निर्णय ऐसे ही तो
        नहीं लिया गया।  सरहद पर फौंजें भेजना कोई मामूली फैसला नहीं है।  जिन हालात के चलते  यह कदम उठाया गया, तो आप सोचिए कि क्या उन हालात में
        बदलाव हुआ?
 
                                  
                                    आप किन हालात की बात कर रही हैं?  हम चाहेंगे कि आप खुलकर बयान करें। खुलकर बयान करने की अपनी  सीमाएं हैं।  मैं एक मुल्क की वजीर हूं और दूसरे मुल्क  के  टेलीविजन पर बोल रहीं हूं।  मैं द्विपक्षीय मुद्दों पर बात करने के
        लिए  नहीं आई हूं।  इन सीमाओं से बाहर तो मैं नहीं जा सकती।  लेकिन इसके  बावजूद मैंने कहा कि कुछ बातें हैं जो भारत  सरकार ने पाकिस्तान सरकार से
        कहीं हैं।  मिसाल के तौर पर हमने एक सूची दी है और कहा कि जिन लोगों के नाम सूची में दर्ज हैं, वे लोग हमें सौंपे।  हम लोगों ने कहा कि सीमा पार आतंकवाद
        और भारत में हो रही घुसपैठ में कमी की जाए।  आखिरकार अगर तल्खियां हैं तो उसकी कुछ वजह हैं।  और अगर इन तल्खियों को घटाना है, बातचीत शुरू
        करनी है, सीमा से फौंजे हटानी हैं तो यह तभी मुमकिन होगा जब जमीन पर कुछ बदलाव दिखाई दे।  हवा में तो बात हो नहीं सकती।
 
                                    
                                      होनी भी नहीं चाहिए।  आपने  दो बातें कहीं  एक, आपने कहा कि बीस लोगों की सूची हमने दी, दूसरा आपने घुसपैठियों की बात की।  हमारी जानकारी के
        मुताबिक आपकी दी हुई सुची में बहुत से नाम ऐसे हैं, जिनका ताल्लुक मौजूदा हालात से नहीं हैं।  उनके मामले पिछले 1520 साल से चलते  आ रहे हैं।  बाकियों
        में से  कई आपके यहां हिरासत में रहे, आपने खुद ही उनके खिलाफ मुकदमे  दायर नहीं किए।  ऐसे में लोग पूछते हैं कि इस वक्त वह मामला क्यों  उठाया गया? मैं इस वक्त इन मामलों की गहराई में नहीं जाना चाहूंगी।  ऐसा नहीं है कि मेरे पास इनके जवाब नहीं हैं।  पर इन मुद्दों पर टेलीविजन चैनल पर बातें नहीं  होतीं।
        अगर इन पर बात करनी है तो सही मंचों से बातचीत होगी।  यहां पर बातचीत नहीं हो सकती।  लेकिन मैं इतना कह सकती हूं, हमारी  कोई जिद नहीं है, लेकिन
        कुछ चीजें हकीकत में हैं जो भारत ने पाकिस्तान के  सामने रखी हैं।  और पाकिस्तान सरकार ने भी जुबानी तौर पर कहा है कि हम अमल कर रहे हैं।  लेकिन उन
        जुबानी बातों पर अमल भी तो करना चाहिए।
 
                                          
                                            आप एक काबिल वकील हैं और जानती हैं कि किसी भी मामले की बुनियाद बात  कहनेसुनने पर नहीं होती।  सबूत होता है, आरोप लगाता है, दूसरा बचाव में
        अपनी  बात रखता है और तीसरा होता है जज (न्यायाधिश)। इसके अलावा किसी भी मुकदमे का हल किसी और ढंग से नहीं होता।  भारत की तरफ से एक बात
        कही  गई, पाकिस्तान ने उसका जवाब दिया।  हिन्दुस्थान कहता है,  आपने सही नहीं किया, पाकिस्तान कहता है, हमने सही किया।  फैसला कौन करेगा? आपको यह मालूम होना चाहिए कि हिन्दुथान और पाकिस्तान ने मिलकर यह तय किया है कि हमारे बीच न्यायाधीश की भूमिका में तीसरा कोई नहीं होगा।  हम
        अपने मसले आपस में बात करके हल करेंगे।  यह हम दोनों ने तय किया और जब दो पक्ष यह तय कर लेते हैं  कि हमारे बीच में तीसरा कोई नहीं होगा तो दोनों ही
 एकदूसरे को परखेंगे।  अगर हम कहते हैं किये चीजें होंगी, बातचीत करेंगे और हमें लगता है कि आपने उसके मुताबिक काम किया तो बातचीत शुरू होगी।
        अगर आप हमें कहते हैं कि भारत यह करेगा तो यह आप ही देखेंगे कि हमने वह किया या नहीं किया।  हिन्दुस्थान और पाकिस्तान के मसलों के बीच कोई तीसरा
        न्यायाधीश की भूमिका नहीं निभाएगा।  यह भी हमारा ही तय किया हुआ है।
 
                                            
                                              आपने एकदम ठीक कहा, लेकिन इसके बावजूद हमने यह भी देखा कि दहशतगर्दी के मुद्दे को भारत दुनिया के हर मंच पर लेकर गया।  वाशिंग्टन लेकर गए
        राष्ट्रपति बुश से बात की, उससे पहले क्लिंटन से बात की यूरोपीय संघ में लेकर गए।  दुनिया के हर मंच को खंगाला।  कोलिन पावेल बीच  में हैं।  तो यह कहना
        कि दोनों के बीच में कोई तीसरा नहीं हैं, यह सच को नकारना है। अच्छा हुआ, आपने यह सवाल उठाया जिससे मैं आपको फर्क बता सकूं।  दहशतगर्दी का मुद्दा और कश्मीर का मुद्दादोनों बहुत अलग चीजें हैं। द्विपक्षीय तौर पर
        हम आपसी मसला तय करेंगे।  सीमा पार आतंकवाद का जो मुद्दा हम अंतरराष्ट्रीय मंच पर ले गए उसका तो असर दिखाई भी दे रहा है।  उसके खिलाफ गठबंधन
 में तो पाकिस्तान भी शामिल हुआ है, जिसमें कोलिन पावेल आए, रूस या यूरोपीय संघ आया या चीन,
        अमरीका, ब्रिटेन साथ आए, वह अंतरराष्ट्रीय दहशतगर्दी का मुद्दा है।  दहशतगर्दी का मुद्दा अंतरराष्ट्रीय मामला बन चुका है, उसे खत्म करने के लिए वैश्विक गठबंधन बना है, वह द्विपक्षीय मसला नहीं है।  और दहशतगर्दी को
        अंतरराष्ट्रीय मुद्दा बनाने  का श्रेय भारत को है।  जिसके कारण आतंकवाद के विरूद्ध एक वैश्विक गठबंधन बना।
 
                                                
                                                  आप शिमला समझौते की बात कर रही हैं? शिमला ही नहीं, लाहौर भी।  शिमला में उस समय दोनों हुकूमतों के वजीरेआजम बैठे, लाहौर घोषणा पत्र पर दोनों मुल्कों  के वजीरेआजमों ने दस्तखत किए।
        ठीक है हुकूमतें बदलती हैं आपके यहां भी, हमारे यहां भी।  लेकिन एक सरकार ने अगर कोई चीज तय कर ली तो आने  वाली सरकार का यह फर्ज बनता है कि
        उसके आगे बात करे।  और द्विपक्षीय मसले कैसे तय हों इसके  लिए हमारे सामने  दो पैमाने हैं शिमला समझौता और लाहौर घोषणा, उसमें दोनों देशों ने यह तय
        किया है, मैं नहीं तय कर रही हूं।
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