|  आप बाल साहित्यकारों में शीर्ष बिंदु पर हैं, क्या आप बाल साहित्य की वर्तमान स्थिति से संतुष्ट हैं? इस प्रश्न का एक सरल उत्तर 'हां' या 'नहीं' में नहीं दिया जा सकता।  बाल साहित्य की समग्रता को एक चौखटे में बांधकर नहीं देखा जा सकता।  में कहना
    चाहूंगा, संतुष्ट हूं भी और नहीं भी।  संतुष्ट होना क्या किसी कर्म की अंतिम स्थिति मानी जानी चाहिए?  यदि नहीं, तो फिर इस प्रश्न के अनेक कोण हैं ओर हर
    कोण के अनेक उत्तर हो सकते हैं।
 
  हिंदी में बाल साहित्य के प्रति बड़े साहित्यकारों के मन में एक तरह की तटस्थ उदासीनता और वितृष्णा दिखाई देती है।  दूसरी ओर बांग्ला, मराठी, मलयालम
    आदि में ऐसा नहीं  हैं।  ऐसा क्यों?
  मैं भी इस गुत्थी को पूरी तरह सुलझा नहीं पाया हूं।  आखिर ऐसी स्थिति क्यों बनी?  ऐसा नहीं है कि बड़े साहित्यकारों ने बच्चों के लिए बिल्कुल न लिखा हो।
    इस सूची में हम हिंदी के सभी बड़े रचनाकारों को रख सकते हैं।  पर उसे उनके  छिटपुट रचनाकर्म की श्रेणी में ही रखा जा सकता है।  कभी किसी ने  कहा तो
    बच्चों के लिए रचना लिख दी और फिर मौन हो गए।  बड़े लेखकों ने बाल साहित्य के प्रति अपनी ओर से शायद कोई पहल नहीं की।  काश, बड़े रचनाकारों ने बाल
    पाठकों के लिए रचनाकर्म को गंभीरता से लिया होता, तो आज हिंदी बाल साहित्य की स्थिति ऐसी न होती।
 
  इसे और  खुले तौर पर कहें?
  देखिए मुझे यह कहने में संकोच नहीं कि वर्तमान में हिंदी के बाल साहित्य भंडार में स्तरीय रचनाओं की कमी हैं।  उसका सबसे बड़ा कारण हैं श्रेष्ठ लेखकों द्वारा
    इस क्षेत्र में कलम न चलाना।  बच्चों में पढ़ने की भूख हैं।  उन्हें जो कुछ भी मिलेगा वे सब पढ़ेंगे।  हिंदी बाल साहित्य में रचना शून्यता नहीं हैं।  बच्चों के लिए खूब
    लिखा जा रहा हैं, पर स्तरीय रचनाएं कम आ रही हैं।
 
  तो आपका मानना है कि वर्तमान बाल साहित्य श्रेष्ठ रचनाएं नहीं दे पा रही है!
  रचनाएं आ सकती हैं, अगर गंभीर प्रयास हों।  असल में संकट अवधारण का है।  ज्यादातर लोग बाल साहित्य का अर्थ लोक कथाओं से समझते हैं।  लोक कथा
    धारा एक स्थिर स्थिति बन गई है।  इस भंडार में नई व मौलिक रचनाएं जुड़ना कब का बंद हो चुका है।  जो  कुछ उस नाम से छप रहा है, वह  पुनर्कथन और
    पुर्नलेखन ही है।  आखिर पाठक इसे  कब तक स्वीकार करेंगे।  आज के बाल पाठक की मानसिकता आधुनिक और नए संदर्भों से  जुड़कर नए आयाम तलाश रही
    है।  ऐसे में नई कथा भूमियों की खोज और पहचान मौलिकता की अनिवार्य शर्त है।
 
  शायद बड़े लेखकों द्वारा बाल साहित्य न लिखने का यह भी एक कारण हो!
  इसके  विपरीत तथ्य यह है  कि उनके द्वारा न लिखने के कारण ही जड़ता की यह स्थिति बनी  है।  हम बड़ों के पास बच्चों के बारे में सोचने और उन्हें देने के
    लिए समय नहीं हैं।  हम भविष्य का दायित्व बच्चों के कंधों पर डाल देना चाहते हैं, लेकिन इसे साकार करने के लिए जो कुछ किया जाना चाहिए वह हम नहीं कर
    रहे हैं।  इसके लिए आवश्यक है अपने बचपन की खोज।
 
  आपकी इस कसौटी पर तो बहुत कम कथा लेखक खरे उतर सकेंगे।
  यह कसौटी नहीं, अपनी मानसिकता का स्वविकास है।  बच्चा बने बिना, बच्चों को जानना और उनके लिए लिखना कठिन है।  जो लोग इस बात को समझे बिना
    लिख रहे हैं  वे बाल साहित्य लेखक के रूप में सफल नहीं हैं।  बचपन की खोज किए बिना क्या प्रेमचंद 'ईदगाह' जैसी कहानी लिख सकते थे?
 
  हिंदी में बाल साहित्य के प्रकाशक पुस्तकें न बिकने की शिकायत करते हैं और लेखक न छापे जाने की बात कहते हैं।  इस स्थिति को कैसे बदला जा सकता है?
  इसमें पहली भूमिका बच्चे के मांबाप की हो सकती है।  आजकल मां बाप को केवल बच्चे का कैरियर बनाने की धुन होती हैं।  इस एकांगी सोच के कारण बच्चा
    केवल पाठ्यक्रम और पाठ्यपुस्तकों, ट्यूशन तथा क्रेश कोचिंग के भंवर में उलझा दिया जाता है।  उसका मानसिकआंतरिक विस्तार नहीं हो पाता।  वह इंजीनियर,
    डॉक्टर, वैज्ञानिक, एकाउटेंट तो बन जाता हैं पर सर्वांग विकसित सामाजिक प्राणी नहीं।  होना तो यह चाहिए कि मांबाप बच्चे की रूचियों का विकास होने दें।
 
  जिम्मेदारी केवल मातापिता की ही क्यों हो?  अध्यापकों और पूरे समाज की क्यों नहीं?
  बाल मन में विकास और संस्कारों के बीज तो मातापिता ही डालते हैं।  अध्यापकों तथा अन्य सामाजिक संदर्भों की भूमिका भी महत्वपूर्ण है।
 
  बाल साहित्य की पुस्तकों का प्रचार प्रसार बढ़ाने के क्या उपाय हो सकते हें?
  शुरूआत हर उस घर से हो जहां बच्चे मौजूद हैं।  सबसे पहले तो बाल पुस्तकों की उपस्थिति घर में दर्ज होनी चाहिए।  घर के बजट में बच्चों की पुस्तकों के लिए
    एक राशि रखी जानी चाहिए।  जन्म दिन के अवसर पर भेंट स्वरूप श्रेष्ठ पुस्तकें दी जा सकती हैं।  गिफ्ट शॉप्स में एक कोना बाल पुस्तकों का रह सकता है। स्कूली पुस्तकालयों की बंद अलमारियों के ताले खोल दिए जाने चाहिए।  इसके अतिरिक्त बाल साहित्य के प्रोत्साहन व प्रचार प्रसार के लिए और भी कई तरीके
    अपनाए जा सकते हैं।
 
  इलेक्ट्रानिक मीडिया का नकारात्मक प्रभाव भी तो हैं!
  इसका हीया खड़ा करना बेकार है।  पश्चिमी देशों में टीवी, इंटरनेट, वीडियो गेम, कार्टून स्टि्रप्स सभी कुछ हैं, पर वहां  प्रकाशकों और पाठकों को इससे कोई
    शिकायत नहीं।  इलेक्टि्रॉनिक मीडिया के दबाव की बात हम अपनी असफलता छिपाने के लिए करते हैं।  जरूरी है कि पहले हम बड़े लोग पढ़ने की आदत डालें।
    मांबाप नन्हेंमुन्नों को कहानियां सुनाएं।  बड़े बच्चों के लिए अच्छीअच्छी पुस्तकें खोजकर घर में लाएं।  बच्चों को पढ़ने के लिए प्रोत्साहित करें।  इस तरह बच्चों
    को औपचारिक पढ़ाई के दबाव से मुक्ति मिलेगी।  पढ़ने में मन लगेगा और टीवी एडिक्ट नहीं बनेगा।  बच्चों में स्वस्थ्य मनोरंजन करने वाली पुस्तकों के प्रति लगाव
    पैदा होने लगेगा।  बच्चों को पुस्तकें दीजिए और फिर देखिए इसका सार्थक प्रभाव।
 
  हिंदी बाल साहित्य की तुलना में अंगरेजी बाल साहित्य की बेहतर स्थिति पर कुछ कहेंगे?
  तुलना से गलत निष्कर्ष निकलेंगे।  गलत सरकारी नीतियों, पब्लिक स्कूलों के  दुराग्रहों और अभिभावकों की गलत धारणाओं के कारण अंगरेजी बाल साहित्य की
    पुस्तकों को हिंदी की अपेक्षा अधिक समर्थन मिलता है।  ये अधिक बिकती है।  अंगरेजी के अति साधारण लेखक भी हिंदी के श्रेष्ठ रचनाकारों से अधिक प्रचार
    पाते हैं।  पर अंगरेजी बाल साहित्य के सूत्र स्वदेशी नहीं, आयातित हैं।  व्यावसायिक दृष्टि से ये पुस्तकें भले ही अधिक बिकें लेकिन बाल मन पर उनकी स्थाई पकड़
    कभी नहीं बन सकेगी।
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