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                    मुंबई विश्वविद्यालय से समाजशास्त्र 
                    में एम.ए. दिव्या जैन यूनिसेफ़, एस.एन.डी.टी. महिला विद्यापीठ 
                    तथा यंग वोमेन्स क्रिश्चियन एसोसिएशन के सौजन्य से दहेज प्रथा, 
                    झोपड़पट्टी के लोगों पर तथा सड़क के बच्चों की बेहतरी के लिए
                    समाजसेवा के क्षेत्र में, ख़ासकर महिला जीवन से जुड़े 
                    मुद्दों को लेकर सक्रिय हैं। लेखन व 
                    फ़ोटोग्राफ़ी उनके शौक हैं।  
                    प्रस्तुत है पत्रकारिता के लिए १९९६ 
                    में सवेरा भाषा जनसंचार अकादमी की ओर से पुरस्कृत दिव्या 
                    जैन से मधुलता अरोरा की बातचीत 
 मधु : यह कैसे हुआ कि 
                        आपने पत्रकारिता या लेखन के लिए रुपजीवियों का क्षेत्र 
                        चुना?दिव्या: समाजशास्त्र में एम.ए. होने से मेरा 
                        सामाजिक समस्याओं से सरोकार रहा। ये समस्याएँ लगातार मेरे 
                        दिमाग़ को मथती रहती थी। ये सवाल सदा सताता कि वेश्याएँ 
                        क्या होती हैं? इस विषय में कोई जानकारी नहीं थी। 
                        पत्रकारिता करते-करते 'ब्लिट्स' 
                        के लिए देवदासी पर लेख लिखना था सो सामग्री जमा की। पी एच 
                        ओ कर्नाटक जाते हैं देवदासी प्रथा रोकने के लिए। मैं अपने 
                        लेख के लिए डॉ. गिलाडा के पास फोटो लेने गई। बातचीत के 
                        दौरान जब उन्हें पता चला कि मैं पत्रकार हूँ तो उन्होंने 
                        मेरे सामने नौकरी का प्रस्ताव रखा। उनके ऑफ़र करने पर मैं 
                        सप्ताह में दो बार जाने के लिए तैयार हो गई। डॉ. गिलाडा 
                        मीडिया में काफ़ी रहे। उन्होंने धीरे-धीरे मुझसे पूछा कि 
                        क्या मैं महिलाओं के लिए पत्रक निकाल सकती हूँ। हम दोनों 
                        ने तय किया कि दोनों पक्षों की ओर से लिखा जाए। मैंने 
                        'सखी-सहेली' पत्रिका शुरू की। हम उन लोगों को पढ़कर सुनाते 
                        थे ताकि उन्हें पता चले कि उनके बारे में क्या लिखा है?
 
 मधु : इन महिलाओं से संवाद के बाद आपके अनुभव कैसे 
                        रहे?
 दिव्या : मैं पहली बार एक लड़की के पास गई। उससे 
                        बात करते-करते वह लड़की इतनी दुखी हो गई कि रो पड़ी। उसे 
                        रोता देखकर मैं भी रो पड़ी। उसने बताया कि उसे इस धंधे में 
                        किस तरह लाया गया और अब वह चाहकर भी वापस नहीं जा सकती। 
                        मैंने उसके साथ उसका दुख बाँटा। उसने पूछा कि आप दोबारा कब 
                        आएँगी? इस तरह से संबंध बना कि वे दीदी कहने लगीं। एक 
                        पढ़ी-लिखी लड़की की माँ सौतेली थी। पिताजी की कैंसर से मौत 
                        होने के बाद सौतेली माँ ने उसे बेच दिया और अंतत: वह इस 
                        धंधे में आ गई। देखो न! हमारी संवेदना हमें बहुत परेशान कर 
                        देती है। मुझे लगा कि इस सामाजिक समस्या को इम्तहान के लिए 
                        पढ़ा था, पर जब इनसे रू-ब-रू हुई तो मुझे अपने सारे सवालों 
                        का उत्तर मिल गया।
 
                        मधु : जब आप इनसे मिलने जाती थीं, तो इन लड़कियों 
                        का रुख कैसा रहता था?दिव्या : उनका रुख अच्छा रहता था। मैं वहाँ निजी 
                        रुप से नहीं बल्कि संस्था के लिए जाती थी। सहयोग का 
                        वातावरण तो संस्था के सदस्यों द्वारा बनाया हुआ था। मैं 
                        भावनात्मक रुप से जुड़ी, वह अलग बात है। मैं अकेली जाती तो 
                        शायद मुश्किल होती। सामाजिक कार्यकर्ता सफ़ेद कोट पहनते 
                        थे। मुझे एक पल के लिए लगा कि मैं भी सफ़ेद कोट पहनूँ पर 
                        मुझे न किसी ने ऐसा कहा और मैंने भी इस विचार को मन से 
                        निकाल दिया। इस तरह के कार्य से जुड़ने के लिए खुद को 
                        तैयार करना बहुत बड़ी बात थी। कई संस्थाएँ कोशिश करती हैं 
                        कि इन महिलाओं के बच्चों को कोई गोद ले ले तो उनकी ज़िंदगी 
                        बदल जाए। हमने जिन महिलाओं को ताई बनाया वे हमारी सामाजिक 
                        कार्यकर्ता बन गई हैं। प्रेरणा संस्था इनके बच्चों के लिए 
                        काम करती हैं।
 मधु : कभी पुरुष 
                        सामजिक कार्यकर्ताओं का ईमान डिगता है?दिव्या : हाँ, कभी-कभार ऐसा हो जाता है। भावनाओं पर 
                        इंसान का काबू नहीं रह पाता। लेकिन यह सोचना होगा कि क्या 
                        वे ऐसे संबंध को निभा पाएँगे? ये तो पुरुष को सोचना होगा 
                        कि जिस दलदल से निकालकर महिला को सामाजिक कार्यकर्ता बनाया 
                        है, उसे पुन: दलदल में धक्का न दिया जाए।
 मधु: उनका जीवन और 
                        उनकी समस्याएँ और समाधान हम घरेलू औरतों से किस प्रकार 
                        भिन्न है?दिव्या : उनका जीवन याने वे समाज का तबक़ा ही है। 
                        संवेदना के तौर पर हममें और उनमें कोई फ़र्क नहीं है। 
                        लेकिन उनका शोषण कैसे होता है और हम किस दृष्टि से उसे 
                        देखते हैं, यह जुदा बात है। जहाँ तक सोच के फ़र्क की बात 
                        है तो फ़िल्म अभिनेत्री किसी भी तरह के पोज़ देती है। 
                        ज़रूरत पड़ने पर किसी भी हद तक चली जाती है। मॉडल के 
                        अनुसार यदि अच्छा शरीर है तो दिखाने में क्या हर्ज़ है?  
                        भावनाओं के बल पर उनके भी सपने हैं, पर ये बात दीगर है कि 
                        उनके सपने पूरे होने के पहले ही टूट जाते हैं। इन्हें तो 
                        मजबूरन इस व्यवसाय में डाला गया है। पर हीरोइन के साथ तो 
                        यह दिक्कत नहीं है, पर वे भी बदन दिखाने के लिए लाखों रुपए 
                        लेती हैं। पैमाना तो पैसा कमाना ही है न! इन्हें हम सभ्य 
                        समाज में जोड़ देते हैं। उनके लिए तो निकलने का रास्ता ही 
                        नहीं है।
 मधु: आप इस बात को 
                        कहाँ तक मानती हैं कि औरत औरत की दुश्मन है?दिव्या : बिल्कुल ग़लत है यह बात। दलाल के साथ 
                        महिला होती हैं जो भगाकर लाई लड़की को समझाती-बुझाती हैं। 
                        ऐसे ही दहेज के मामले में भी औरत औरत की दुश्मन है, ग़लत 
                        है। इसमें भी पुरुष का हाथ है। अन्यथा सास या ननद की क्या 
                        मजाल जो बहू को जला दे। कहीं न कहीं उसमें देवर, ससुर या 
                        तथाकथित पति की मंशा रहती है।
 मधु : आप 
                        मर्यादाओं के दोयम जीवन के लिए किसको दोषी ठहराती हैं?दिव्या : समाज को! मूल रुप से हमेशा से पुरुष 
                        प्रधान समाज रहा है। उसने स्त्री को यही दर्ज़ा दिया है 
                        जहाँ लड़की पैदा होती है। वहाँ यही माना जाता है कि वंश 
                        पुरुष चलाता है। इस सोच के साथ ही स्त्री को जीना है। दोयम 
                        जीवन के लिए औरत नहीं बल्कि पुरुष ही ज़िम्मेदार है। उनका 
                        बोलबाला है। पंजाब-हरियाणा में असंतुलन है तो शादी के लिए 
                        लड़कियाँ आएँगी कहाँ से? कई समाजों में स्वीकृति है पर 
                        कितने प्रतिशत?
 
 मधु : आपके नज़रिये से इन परिस्थितियों से कैसे 
                        उबारा जा सकता है?
 दिव्या : यह तो मानसिकता बदलने वाली बात है। यह काम 
                        कौन करेगा? अब आप देखिए, लड़के माता-पिता के दबाव में आकर 
                        शादी तो कर लेते हैं पर खुद में बदलाव नहीं ला पाते। इस 
                        प्रकार लड़की पर शादी के लिए माता-पिता का दबाव। फिर शादी 
                        के बाद पुत्र प्राप्ति की इच्छा का बलवती होना। मुझे लगता 
                        है कि बच्चों के पालन-पोषण में ही भेद-रेखा खींच दी जाती 
                        है। लड़की को लड़की होने का एहसास बचपन से ही करा दिया 
                        जाता है। सही ग़लत नियमों का दौर शुरू हो जाता है। इस 
                        एहसास के साथ लड़की जब बड़ी होती है तो कई सवाल उसके मन 
                        में आते हैं। इन सवालों के जवाब बहुत कम माँ-बाप समझा पाते 
                        हैं। अधिकतर लड़कियाँ समझौता कर लेती हैं। नींव तो भेद-भाव 
                        की मानसिकता से जुड़ चुकी है। बदलाव तो मीडिया से ही लाया 
                        जा सकता है। लेकिन एक बात है परिवर्तन पुरुष मानसिकता में 
                        लाना ही होगा। महिलाओं में परिवर्तन आ रहे हैं। साहित्य से 
                        भी हमें कई चीज़ें मिलती हैं। निर्मल वर्मा के उपन्यास 
                        "लाल टीन की छत" की पात्र काया ही नहीं, हर पात्र अपने-आप 
                        में अकेला है। अगर परिवर्तन के माध्यम से दिखाएँ तो 
                        परिवर्तन ज़रूर आएगा।
 मधु : आपकी 
                        "अंतरंग संगिनी" प्रेरणास्रोत है आपकी?दिव्या : प्रेरणा तो नहीं, शुरुआत कहेंगे। पहले मैं 
                        बनाती थी। 1989 के बाद यह काम छोड़ दिया। मैंने 1994 में 
                        यह पत्रिका शुरू की। इसके लिए 1993 से चिंतन-मनन चल रहा 
                        था। इस समय मेरे मन में विचार आता था कि महिलाओं पर लेख कम 
                        आते हैं, आते भी हैं तो संपादक काट देते हैं। वे बलात्कार 
                        के मुद्दे को न्यूज़ के रुप में चटखारे लेकर छापते हैं। तब 
                        मेरे मन में विचार आया और राहुल देव, विश्वनाथ जी से 
                        बातचीत की। उन्होंने कहा कि पत्रिका निकालो, पर निकलते 
                        रहना चाहिए। यह बहुत ज़रूरी है। इस तरह मित्रों के सहयोग 
                        से, विचार-विमर्श से 1994 से यह पत्रिका शुरू हुई। 
                        धीरे-धीरे यह तय हो गया कि एक गंभीर मुद्दे पर यह पत्रिका 
                        आधारित रहेगी। कारण और परिणाम को ध्यान में रखते हुए कोशिश 
                        जारी रही। संघर्ष बयान नहीं किया जा सकता। सच कहूँ तो बंद 
                        करना शुरू करने से ज़्यादा कठिन है। अब तो पत्रिका बंद 
                        करने का अर्थ है खुद को शून्य करना। कुछ लोगों के अनुसार 
                        पत्रिका में यदा-कदा कहानी-कविता डालकर व्यावसायिक बनाओ पर 
                        मैं इससे सहमत नहीं हूँ। कविताओं-कहानियों के लिए कई 
                        पत्रिकाएँ हैं। निर्णायकों के अनुसार संगिनी एक मुद्दे को 
                        लेकर चलती है। यह पत्रिका संग्रहणीय लगती है।
 मधु : अभी हाल में 
                        आपको "सावित्री फुले सम्मान" मिला, इससे कोई अतिरिक्त 
                        ज़िम्मेदारी का अहसास हुआ?दिव्या : जब तक अकेले कार्य करती रही, कार्य बंद 
                        करने के लिए स्वतंत्र थी। अब सुधा जी के साथ मिलकर काम 
                        करती हूँ। सम्मान प्राप्त करने के बाद दायित्व और बोध बढ़ 
                        जाता है। लोगों ने इतना उत्साहित किया है कि इसे जारी रखना 
                        है। संगठन से जुड़ी मर्यादाएँ हैं, उनका सहयोग है। कभी-कभी 
                        हालात से हार जाती हूँ पर उत्साह बढ़ाने के लिए काम करने 
                        लगती हूँ। ज़्यादा लोगों तक पत्रिका पहुँचानी है तो बंद 
                        कैसे कर सकती हूँ।
 मधु : अपने इतर 
                        लेखन के विषय में कुछ कहेंगी?दिव्या : देखिए, मेरे अलग-अलग काम मेरी रुचि के 
                        हैं। मेरे घर में हालात या मैंने जो ज़िंदगी १५ सालों में 
                        जी है, उससे मुझमें ऐसा एक जज़्बा पैदा हुआ है। मेरे जीवन 
                        का लक्ष्य 'संगिनी' है। इसके बिना मेरा जीवन शून्य है। 
                        देह-व्यापार की महिलाओं के लिए ज़रूर कुछ करना चाहूँगी 
                        भविष्य में। घर की ज़िम्मेदारियों की वजह से ज़्यादा कुछ 
                        नहीं कर पा रही। सुशीला गुप्ता के अनुसार ''दिव्या अपने 
                        लेखन में बाल की खाल उखाड़कर ले जाती है'' लेखन के लिए 
                        संवेदनशील होना बहुत ज़रूरी है। अब यदि मैं उन महिलाओं से 
                        संवेदनशीलता के स्तर पर न मिलूँ तो मन की बात नहीं निकाल 
                        सकती। उनके साथ वैसा ही होना पड़ता है। मैं कुछ अलग काम 
                        करना पसंद करती हूँ। मैं "प्रयास" संस्था से बहुत प्रभावित 
                        हूँ।
 "प्रयास" संस्था उन 
                        महिलाओं के लिए कार्य करती है जिनके मुक़दमे अदालत में 
                        विचाराधीन होते हैं। जो लड़कियाँ सुधारगृह से आती हैं, उन्हें 
                        यहाँ प्रशिक्षित किया जाता है। मैं इसे ज़्यादा सही मानती 
                        हूँ। बजाय कि लड़कियों को उठाकर लाना और आतंक फैलाना। मैं 
                        मानती हूँ कि काम हम भले ही धीरे-धीरे करें पर तरीके से 
                        करें। उनका पुनर्वसन इस प्रकार करें कि उन्हें वापस लौटना 
                        न पड़े। यह जो काम हो रहा है उसमें वे मुख्य धारा में आ 
                        जाती हैं ताकि दूसरी महिलाओं के सामने उदाहरण रख सकें। |