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                        बनारस
    कला के लिए अत्यंत उर्वर नगर है। धार्मिक, पौराणिक, सांस्कृतिक,
    साहित्यिक, शैक्षिक विद्वानों की ये नगरी कला के लिए भी उतनी ही
    ख्याति प्राप्त है। जिस तरह गंगा नहाकर व्यक्ति अपने जन्म की सार्थकता
    पाता है, उसी प्रकार बनारस में अपनी कला को प्रस्तुत कर कलाकार गंगा
    स्नान की अनुभूति करता है।
                         बनारस गलियों का नगर हैं जहां
    जयशंकर प्रसाद, तुलसीदास, कबीरदास, आधुनिक युग में
    शिवप्रसाद सिंह जैसे महान साहित्यकारों ने साहित्य साधना की है।
    काशीनाथ सिंह, कमल गुप्त, अब्दुल बिस्मिल्लाह जैसे परिचित कथाकार
    अपने आसपास को बेहतरीन ढंग से साहित्य में समेट रहे हैं। कला की इस नगरी में संगीत का एक ऐसा
    कोहिनूर रहता है जिसकी चमक से सारी दुनिया एक धुन में पिरो दी
    जाती हैं। बनारस के भीड़ भरे इलाके में तमाम चहलपहल,
    गहमागहमी, खरीदफरोख्त, करते हुए भीड़ भरी सड़क को पीछे छोड़
    दोनों ओर गलियों की दुनिया शुरू होती हैं। जहां न कार जा सकती
    है, न रिक्शा, न तांगा। व्यक्ति को पैदल ही वहां तक पहुंचना होता
    हैं, आदमी हमेशा जमीन पर ही रहे, अपने पैरों पर खड़ा रहे और
    मंजिल की ओर बढ़ता जाए ऐसा कोई अलिखित संकेत ये गलियां
    अबालवृद्ध, अमीरगरीब सब को देती हैं। इन्हीं गलियों को पार
    करते हुए किसी धुन को गुनगुनाते हुए व्यिंक्त एक चिरपरिचित
    चेहरे को मन में बसाकर आगे बढ़ता है। वैसे इस व्यक्ति से भले
    ही पहली बार मुलाकात का अवसर हो, पर चेहरा जानापहचाना,
    आंखों की चमक बड़ी लुभावनी और तानों से छिड़ती धुन भला कौन
    भुला सकता है। इस कलाकार का मकान एक विरासत और इतिहास का जीवन्त
    प्रतीक है। जिस मकान में संगीत के सुर समा नहीं पाते, वह मकान
    सरायहड़हा  इलाके में बेनियाबाग के पास है। उस मकान की ओर
    बढ़ते हुए कदम अचानक लयबद्ध हो जाते हैं और मन एक खास तरह के राग
    का श्रोता बन जाता है। इस आत्मीय खामोशी को पार करते ही एक
    तिमंजिला मकान अचानक सामने आ जाता है। इस मकान में प्रवेश
    करने के लिए सीढ़ियां सीधी न होकर किसी राग की तरह लयबद्ध हैं। इस
    कलाकार के मकान के दीवानखाने में बैठना एक भरपूर रोमांच का साक्षी
    होने से कम नहीं। सबकी निगाहें दीवाल के चारों ओर
    असंख्य अवसरों के छायाचित्रों और सम्मानपत्रों की ओर घूम रही
    थीं। तभी भीतर से संदेश आया कि आपको केवल पांच मिनट की
    मुलाकात मिलेगी। सबकी आंखों में एक शहनाई गूंज उठी और उस
    संदेशवाहक को हमारे मित्र ने बताया कि हमारी मिलने की इच्छा इतनी
    तीव्र थी कि हमने कहा था, "काशी विश्वनाथ के दर्शन एक बार
    नहीं हुए तो कोई बात नहीं, पर उस्ताद बिस्मिल्लाह खान के दर्शन की
    इच्छा है। इसलिए हमने कल रात 11 बजे आपको तकलीफ दी।" उस दीवानखाने में विश्वविख्यात
    शहनाई वादक उस्ताद बिस्मिल्लाह खान की धुनों की शालीन चकाचौंध
    थी। राष्ट्रपति केआरनारायणन से "भारत रत्न" सम्मान से
    विभूषित होते हुए 86 वर्ष के बिस्मिल्लाह खान अपनी आंखों में अपार
    खुशी, संतोष और कृतज्ञता के भाव से परिपूर्ण दिखाई देते हैं।
    प्रथम राष्ट्रपति डॉराजेन्द्र प्रसाद से लेकर लगभग हर राष्ट्रपति और
    प्रधानमंत्रियों से शहनाई के लिए विविध सम्मान, अलंकरण,
    सराहना उन पर निरंतर बरसते रहे। संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार(1956),
                        पद्मश्री(1961), तानसेन(1965),
                        पद्मभूषण(1968), सोवियत लैंड
                        पुरस्कार(1973),
                        पद्मविभूषण(1980), भारत शिरोमणि
                        पुरस्कार(1994), विशिष्ट पंत पुरस्कार(1995), राष्ट्रीय
                        संगीत रत्न पुरस्कार(1996) और 2001 में उन्हें
                        भारत का सर्वोच्च अलंकरण "भारत रत्न" से
                        विभूषित किया गया। उन्होंने सारी दुनिया के महत्वपूर्ण
    शहरों में शहनाई के कार्यक्रम दिए। घरघर उनकी शहनाई गूंजती
    हैं। संगीतसम्मेलन उनके बिना अधूरा लगता है। हम उनके
    दीवानखाने में बैठकर उनकी मुलाकात के लिए अधीर थे। दीवारों पर
    लगे हुए विभिन्न अवसरों के एकएक चित्र अपनी ओर ध्यान आकर्षित कर
    रहे थे। एक ही जिन्दगी में इतनी उपलब्धियां उन सरीखे किसी 
                         विशिष्ट
    व्यक्ति को ही मिल सकती हैं। इतनी साधना, इतना परिश्रम, इतनी
    तन्मयता, इतना समर्पण . . .यह भारत रत्न से विभूषित उस्ताद
    बिस्मिल्लाह खान ही हो सकते हैं। बिस्मिल्लाह खान से मिलने का
    सौभाग्य एकदूसरे की आंखों में साफ दिखाई दे रहा था। तभी भीतर
    से संदेश आया कि आपको ऊपर बुलाया है। दीवानखाने से उठकर जब हम चलने लगे
    तो लगा बनारस की सारी गलियां इन सीढ़ियों में सिमट गई हैं
    और हम पूरे नगर को जीते हुए एक विराट व्यक्तित्व की ओर अनायास ही
    खिंचे चले जा रहे हों। तीसरी मंजिल के छोर पर उस्ताद बिस्मिल्लाह
    खान अत्यंत सादगी से कुर्सी पर विराजमान थे। आंखों में आत्मीय
    चमक थी। आवभगत का एक उत्कट संदेश था। श्री भूमकर जी ने उन्हें
    नमस्कार किया और सम्मानस्वरूप उन्हें शाल और पुष्पगुच्छ समर्पित किया।
    बहुत सादगी और आत्मीयता से उन्होंने यह सब ग्रहण किया। हम सब
    उनके सामने बैठे और वह विराट व्यक्तित्व आत्मीयता और उत्सुकता
    से हमारे आगमन को स्वीकार करता रहा। मुश्किल से पांच सेकेंड का एक खामोश
    अंतराल रहा होगा जिसमें मुस्कानों के आदानप्रदान इस तरह हुए कि
    लगा हम सबका जन्मजन्मांतर से परिचय है और अनायास ही उस्ताद
    बिस्मिल्लाह खान अपने सुरों से हमें संगीत की एक स्वप्निल दुनिया
    में ले गए। अनौपचारिक बातों के बाद अनायास ही उनके कंठ से एक
    राग फूट पड़ा। जिसे सुनते ही कहा "यह तो नंद राग है।"
    हमारे चेहरों पर संगीत की लबालब उत्सुकता देखकर बिस्मिल्लाह साहब
    बहुत प्रसन्न हुए और संगीत पर निरंतर बोलते चले गए  "यह
    दुनिया एक अजीब मुकाम पर खड़ी है, भाईचारे की जगह एकदूसरे
    के प्रति बैर है। पर मेरा तो मानना है संगीत सीखेंगे तो सारे
    झगड़े ही खत्म हो जाएंगे। संगीत सुनेंगे तो झगड़े के लिए समय
    नहीं मिलेगा। इसलिए टेलीफोन भी यदि आता है तो हमें सुर में
    बात करनी चाहिए। संगीत, संवाद का बेहतरीन साधन है। अब सोचिए
    न हम इस दुनिया से क्या लेकर जाएंगे, जितने दिन हम यहां हैं,
    हमें एकदूसरे की बेहतरी के लिए काम करना चाहिए। संगीत में सब
    कुछ है। मन की शांति, भीतरी ऊर्जा, जीने की ललक और समस्या को
    सुलझाने की ताकत भी संगीत में हैं। जब मैं आठ साल का था, तब
    बालाजी के  मंदिर में शहनाई का रियाज़ करता था। एक दिन मैंने 2
    घंटे तक शहनाई बजाई। इतना तन्मय हो गया था कि जब आंख खुली तो
    सामने स्वामी जी खड़े मुस्करा रहे थे। मेरी तन्मयता देखकर उन्होंने
    मेरी पीठ थपथपाई, शाबाशी दी और जब तक मैं इस दृश्य को ठीक से
    समझ पाता, पल भर में स्वामी जी आंखों से ओझल हो गए। मैं
    उठकर भागा। उन्हें ढूंढ़ा। वे कहीं नहीं मिले। मैंने यह बात अपने
    उस्ताद से कही जो रिश्ते में मेरे मामू भी थे। उन्होंने कहा तुम बड़े
    नसीबवान हो। अपने आपको शहनाई के नाम कर दो। आज मैं 86 वर्ष
    का हूं। शारीरिक रूप से उतना समर्थ नहीं हूं, लेकिन फिर भी सोचता
    हूं, बालाजी के मंदिर में यदि मैं रोज एक घंटा भी शहनाई बजाता
    हूं तो महीने में 30 घंटे हो जाएंगे।" उन्होंने अपेक्षा व्यक्त की कि सरकार कला
    के विकास के लिए पहल करे, जैसा कि पहले राजदरबारों में हुआ
    करता था। ताकि कलाकार की अपनी और पारिवारिक जरूरतें पूरी होती रहें।
    कलाकार अपनी साधना में दिनरात डूबा रहे। कलाकार व्यापारी नहीं है
    कि वह अपनी कला का व्यापार कर अपने आपको धनवान बनाए, बल्कि उसकी
    न्यूनतम जरूरतें यदि पूरी होंगी तो वह अधिक ध्यान से अपने काम को
    संपन्न कर सकेगा। संगीत में जाति, धर्म, प्रदेश की कोई सीमा
    नहीं रह जाती। कलाकार और सुनने वाले संसार के सारे
    भेदभावों को भूल जाते हैं। लड़ाइयां खत्म हो जाती हैं और
    आदमी ईश्वर के अधिक करीब आ जाता है। मुझे आज भी याद है "हे
    प्रभु आनंद दाता, ज्ञान हमको दीजिए," यह प्रार्थना मैंने
    कभी गाई थी। इसके शब्द और सुर मुझे हमेशा शक्ति देते हैं।"
    तन्मय होकर वे इस प्रार्थना को गाने लगते हैं। उनकी
    भावभंगिमा भक्ति में सराबोर हो जाती हैं। उनकी उंगलियां
    नृत्य करने लगती हैं। उनकी आंखें इस प्रार्थना को साकार करने में
    अपने आपको चिर युवा पाती हैं।  संगीत के बारे में अपनी टिप्पणियां करते
    हुए वे कहते हैं कि हमारे देश में शास्त्रीय कम होता जाता नजर आता है,
    कभीकभी। उधर अमेरिका में और पश्चिम के संपन्न देशों में ऐसे
    कार्यक्रम अधिक होते हैं। इन कार्यक्रमों में कलाकारों को अधिक
    मानसम्मान और धन मिलता है। इसलिए कई कलाकार पश्चिमी देशों
    में बस गए। कभीकभी डर लगता है कि अच्छा भारतीय संगीत यदि
    सुनना है तो अमेरिका जाना पड़ेगा, क्योंकि हमारे देश में
    तीजत्यौहारों, दशहरादीवाली पर ऐसे कार्यक्रम नहीं होते।
    कहतेकहते उनकी आंखें शून्य में बहुत कुछ देख आती हैं और अचानक
    उनकी आंख में एक चमक उभरती हैं और डूबती हुई आवाज फिर खनक उठती
    हैं  "इंशा अल्लाह ऐसा नहीं होगा, ऐसा कभी नहीं होगा,
    हम थोड़े रहेंगे, पर यही रहेंगे।" 
                         उस्ताद बिस्मिल्लाह खान ने सारी दुनिया
    को अपनी शहनाई सुनाई है। कई बार उन्हें विदेश में ही रह जाने के
    मौके भी आए। पर उन्होंने इन सब अवसरों को यह कहकर ठुकरा दिया,
    "आप यहां मेरी गंगा को तो नहीं ला सकते न।" इसी प्रकार
    फिल्मों में भी संगीत देने के कई प्रस्ताव मिले। उन्होंने इस
    मायावी दुनिया में जाने से इन्कार कर दिया। परन्तु, अपने मित्र
    विजय भट्ट से वे इन्कार नहीं कर पाए और "गूंज उठी शहनाई"
    फिल्म का संगीत दिया। शायद शहनाई पर केन्द्रित फिल्म होने के कारण
    उन्होंने सहमति दी हो। वे कहते हैं कि जब मैं दुनिया घूमता हूं तो
    मुझे मेरा देश याद आता है और देश घूमता हूं तो हमेशा मेरी
    आंखों के सामने मेरा बनारस घूमता है। यह पूछने पर कि ऐसी क्या
    बात है कि सामता प्रसाद, किसन महाराज, राजनसाजन मिश्र, पंडित
    रवि शंकर जैसे महान संगीतकारों ने बनारस को ही अपनी साधना का
    केन्द्र बनाया? बनारस में ऐसा क्या रस है, जो इन कलाकारों को
    संवारता हैं, विकसित करता है और उनकी कला को विश्वस्तरीय बना देता
    है? बिस्मिल्लाह साहब ने तपाक से कहा बनारस, बनारस है . . .। अब
    देखिए न ध्यान से बनारस को आप पाएंगे कि यहां की आबो हवा में
    "बना" बनाया "रस" है . . .(ठहाका) तो जनाब यह
    बनारस हैं! उन्होंने केवल 5 मिनट का समय दिया
    था। देखतेदेखते सवा घंटा कब बीत गया किसी को नहीं मालूम।
    समय मानो ठहर गया हो और यह इसी तरह बना रहे, सब मन से
    चाहते थे, लेकिन उन्होंने किसी और मिलने वाले को भी समय
    दिया हुआ था जो पधार चुके थे और उनके संदेश दस्तक दे रहे थे। उस्ताद बिस्मिल्लाह खान बारबार यह
    दोहराते रहे कि बच्चों को खूब पढ़ाइए, उनको बहुत कुछ सिखाइए, पर
    उन्हें संगीत भी सिखाइए। संगीत की संस्कृति दीजिए। जीवन की सारी
    घबराहट खत्म हो जाएगी। संगीत प्रेम है। उन्हें याद था कि हम पुणे से हैं फिर
    अचानक उनकी आंखों में अतीत तैर गया . . .1938 की बात है। भीमसेन
    जोशी बनारस में उनसे मिले थे। उन्होंने भीमसेन जोशी से
    बनारस में हुई मुलाकात के लंबे संस्मरण सुनाए। उनसे आत्मीयता,
    उनकी निकटता के कईकई प्रसंग उन्होंने याद करते हुए कहा कि इसी साल
    भीमसेन के बेटे की शादी थी। शादी का निमंत्रण आया। अब कहीं जा तो
    नहीं सकता। इसलिए मैंने फोन किया, "अरे जोशी मैं शादी में
    नहीं आ रहा हूं। तो बुरा मत मानना। मेरी मुबारकबाद बेटे तक
    पहुंचा देना . . .आपको मालूम है अरे वरे कब निकलता है जब इस
    संसार की सारी दूरियां खत्म हो जाती हैं और कोई 
                         इतना अपना हो
    जाता है कि "अरेवरे" अचानक निकल आता है। एक ऐतिहासिक घटना उन्होंने सुनाई कि
    प्रथम गणतंत्र दिवस 26 जनवरी 1950 के दिन लाल किले में जश्न
    मनाया जा रहा था। सारी गहमागहमी खुशनुमा महफिल में बदल चुकी
    थी और मैं जीवन की सबसे यादगार शहनाई बजाने वाला था।
    पं नेहरू के बारे में मेरे मन में बड़ा आकर्षण था। मंच पर
    यदाकदा वे मेरी ओर देख रहे थे। मैं बारबार उनकी ओर देखता
    था। मुझे ऐसा आभास हुआ कि वे बगल वाले व्यक्ति से शायद
    मेरे बारे में ही कुछ कहकर एक शानदार ठहाका लगा गए। मैं इस बात को
    पूरे कार्यक्रम में महसूस करता रहा। कार्यक्रम खत्म होते ही पं नेहरू
    से मुलाकात तो हुई पर मैं उनसे कुछ पूछ नहीं सका, लेकिन जिस
    व्यक्ति के साथ उन्होंने ठहाका लगाया था, मैं उन तक पहुंचा। वे
    महेन्द्र सिंह बेदी थे। मैंने अपने मन की बात उनसे पूछी तो
    उन्होंने उतनी ही ताजगी के साथ मुझे बताया कि नेहरू जी कह रहे थे,
    देखिए न कितना शानदार दिन है आज . . .। हमारे गणतंत्र की अभीअभी
    शुरूआत हो रही है और आज इस कार्यक्रम की शुरूआत भी
    "बिस्मिल्लाह" से हो रही है।
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