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						 समझ 
						लघुकथा की बलराम अग्रवाल 
						से जितेन्द्र जीतू की बातचीत
 
 
						जितेन्द्र जीतू—आपके विचार 
						से हिन्दी की प्रमुख लघुकथाओं के खाने में किन लघुकथाओं को 
						रखा जा सकता है?बलराम अग्रवाल—अगर एकदम 
						प्रारम्भ से गिनाना शुरू किया जाय तो हिन्दी की प्रमुख 
						लघुकथाओं का मेरा खाना भारतेन्दु हरिश्चन्द्र द्वारा सन् 
						१८७६ में प्रकाशित पुस्तक ‘परिहासिनी’ में संकलित दो 
						रचनाओं ‘अंगहीन धनी’ व ‘अद्भुत संवाद’ से शुरू होता है। ये 
						दोनों रचनाएँ पूँजी, शस्त्र और शास्त्र—इन आधारभूत 
						जीवनोपयोगी शक्तियों से विहीन रखे गए आमजन द्वारा इन तीनों 
						ही शक्तियों पर कब्जा जमाए बैठे समर्थ सामाजिकों के 
						विलासितापूर्ण कार्यकलापों तथा विघटनकारी चिन्तनशैलियों पर 
						सार्वकालिक साहसपूर्ण टिप्पणियाँ दे पाने में सक्षम हैं। 
						१९७०-७१ से गिनाना शुरू किया जाय तो भी बहुत लम्बी सूची 
						तैयार हो जायगी। उसे यहाँ दे पाना सम्भव नहीं है।
 
 जितेन्द्र जीतू—हिन्दी के 
						लघुकथाकारों में हम आपके विचार से किन लघुकथाकारों को रख 
						सकते हैं?
 बलराम अग्रवाल—मेरे लिए यह 
						एक उलझनभरा सवाल है। इसके एक नहीं अनेक कारण हैं। पहला तो 
						यह कि जिन पूर्व-कथाकारों की लघ्वाकारीय कहानियाँ संयोगवश 
						लघुकथा के खाने में फिट बैठ रही हैं, उन्हें लघुकथाकार भी 
						माना जाय या नहीं? ऐसे रचनाकारों में पहले स्थान पर 
						प्रेमचंद और प्रसाद जैसे ख्यातिलब्ध नाम प्रमुख हैं जिनके 
						पास यथेष्ट संख्या में लघुकथापरक कथा-रचनाएँ उपलब्ध हैं। 
						दूसरे स्थान पर भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, माधवराव सप्रे, 
						पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी जैसे एक-दो रचनाओंवाले नाम हैं 
						तथा तीसरे स्थान पर अयोध्याप्रसाद गोयलीय, भृंग तुपकरी, 
						कन्हैयालाल मिश्र ‘प्रभाकर’, रावी, जगदीश चन्द्र मिश्र, 
						सुदर्शन, माखनलाल चतुर्वेदी, तिलकसिंह परमार, रामवृक्ष 
						बेनीपुरी, शरद कुमार मिश्र ‘शरद’, शिवशंकर शास्त्री, 
						उपेन्द्रनाथ ‘अश्क’, रामनारायण उपाध्याय, शिवनारायण 
						उपाध्याय, बैकुण्ठनाथ मेहरोत्रा, श्यामनन्दन शास्त्री, 
						आनन्द मोहन अवस्थी, डॉ ब्रजभूषण सिंह आदर्श, शशांक आदर्श 
						आदि ऐसे कथाकार हैं जिनकी लघुकथाएँ संग्रहीत रूप में तो आ 
						चुकी हैं, किन्तु इन संग्रहों की अधिकांश लघुकथाओं के कथ्य 
						नीतिपरक, बोधपरक, आदर्शपरक अथवा उपदेशपरक हैं और जो 
						शिक्षात्मक प्रयोजन को लेकर चलते हैं। शिल्प एवं प्रभाव की 
						दृष्टि से भी वे समकालीन लघुकथा की तुलना में अधिकांशत: 
						अप्रभावी हैं। किसी भी रचना-विधा का इस तरह अप्रभावी हो 
						जाना वस्तुत: देश-काल और परिस्थितियों में आ चुके मूलभूत 
						परिवर्तन के कारण होता है, न कि रचना-विधा की अक्षमता के 
						कारण। ऐसे पूर्ववर्ती कथाकारों में विष्णु प्रभाकर के 
						संग्रह अवश्य कुछेक प्रभावपूर्ण लघुकथाएँ देने में सक्षम 
						हैं। प्रतिष्ठित कथाकार राजेन्द्र यादव भी अपनी ‘हनीमून’, 
						‘अपने पार’ आदि दो-चार लघ्वाकारीय कथा-रचनाओं के साथ 
						लघुकथा के मुहाने पर असरदार ढंग से जमे हैं। उदय प्रकाश, 
						असगर वजाहत, विष्णु नागर, रवीन्द्र वर्मा, प्रेमपाल शर्मा 
						आदि कुछ कथाकार अपनी लघ्वाकारीय कथा-रचनाओं को लघुकथा 
						शीर्ष तले प्रकाशित कराने से गुरेज बरतते नजर आते हैं, 
						इनके बारे में क्या रवैया अपनाया जाय?
 
 एक और आवाज़, जो लघुकथा-क्षेत्र में रह-रहकर सुनाई पड़ती है; 
						यह है कि—१९७०-७१ से प्रारम्भ हुए लघुकथा-आन्दोलन को 
						दृष्टि में रखते हुए उससे पूर्व की किसी भी रचना को 
						‘लघुकथा’ शीर्ष देना न्यायसंगत नहीं है। कई विद्वान तो यह 
						भी कहते हैं कि हिन्दी की पहली लघुकथा तथा पहले लघुकथाकार 
						का निर्धारण कथित काल यानी १९७१ से प्रकाशित रचनाओं व 
						रचनाकारों के बीच से ही किया जाय।
 
 समकालीन लघुकथा के प्रमुख हस्ताक्षरों में सतीश दुबे, रमेश 
						बतरा, भगीरथ परिहार, बलराम, कमल चोपड़ा, पृथ्वीराज अरोड़ा, 
						विक्रम सोनी, चित्रा मुद्गल, महेश दर्पण, सुकेश साहनी, 
						रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’, श्यामसुन्दर अग्रवाल, 
						श्यामसुन्दर दीप्ति, जसवीर चावला, सूर्यकांत नागर, युगल, 
						मधुदीप, पवन शर्मा, अशोक भाटिया आदि के नाम लिए जा सकते 
						हैं।
 
 जितेन्द्र जीतू—यदि सन् १९७१ 
						से बाद की बात करें तो कौन-सी लघुकथाओं को प्रमुख माना 
						जायगा?
 बलराम अग्रवाल—सन् १९७१ के 
						बाद काल और परिस्थिति के अनुरूप बहुत-सी लघुकथाओं ने 
						समय-समय पर अपनी भूमिका की श्रेष्ठता सिद्ध की है। उनमें 
						से बहुतों के लेखक तो अब लघुकथा-परिदृश्य से ही गायब हो 
						चुके हैं। वस्तुत: तो प्रमुख लघुकथाओं के रेखांकन का काम 
						व्यक्तिगत रुचि-अरुचि पर आधारित है। जैसे कि भगीरथ व रमेश 
						जैन के संयुक्त संपादन में छपे लघुकथा-संकलन ‘गुफाओं से 
						मैदान की ओर’ में संकलित कैलाश जायसवाल की लघुकथा ‘पुल 
						बोलते हैं’, सुशीलेन्दु की लघुकथा ‘पेट का माप’, ‘वर्तमान 
						जनगाथा’ के एक अंक में प्रकाशित विपिन जैन की लघुकथा 
						‘कंधा’ मुझे व्यक्तिगत रूप से पसंद हैं, लेकिन न तो इन 
						तीनों ही रचनाओं का और न ही इन रचनाकारों का कहीं पर कोई 
						जिक्र कहीं पर पढ़ने में आता है। अत: प्रमुख लघुकथाओं का 
						रेखांकन तत्कालीन पत्र-पत्रिकाओं, संग्रहों-संकलनों में 
						प्रकाशित रचनाओं व पाठकीय प्रतिक्रियाओं के आधार पर 
						जिज्ञासु व्यक्ति के द्वारा स्वयं किया जाना ही श्रेयस्कर 
						है।
 
 जितेन्द्र जीतू—सन् १९७१ के 
						बाद की वो कौन-सी राजनीतिक/ सामाजिक/ आर्थिक/ धार्मिक/ 
						सांस्कृतिक/साहित्यिक परिस्थितियाँ रहीं जिन्होंने 
						लघुकथाओं को प्रभावित किया?
 बलराम अग्रवाल—इन सभी 
						परिस्थितियों का उल्लेख मैं अपने कई लेखों में कर चुका 
						हूँ। फिर भी, संक्षेप में यह कि उक्त काल में जीवन के 
						राजनीतिक, धार्मिक, आर्थिक—लगभग सभी क्षेत्रों में व्याप्त 
						अधमताओं, अनैतिकताओं, असंगतियों-विसंगतियों, विकृतियों और 
						छल-छद्मों से जूझते आमजन के खण्डित विश्वास ने लघुकथा को 
						बहुत गहरे प्रभावित किया और लघुकथा-लेखन हेतु उत्सर्जक का 
						काम किया।
 
 जितेन्द्र जीतू—सन् १९७१ के 
						पश्चात् की वे कौन-सी समस्याएँ थीं जिन्हें लघुकथा ने 
						प्रमुख रूप से छुआ?
 बलराम अग्रवाल—अनेकानेक 
						तर्कपूर्ण कारणों से सन् १९७१ के पश्चात् की हिन्दी लघुकथा 
						को मैं ‘समकालीन लघुकथा’ कहना पसन्द करता हूँ। इसने अपने 
						समय की सभी समस्याओं को ही नहीं, सरोकरों को भी यथार्थत: 
						छुआ है।
 
 जितेन्द्र जीतू—हमारे समाज 
						में आज की लघुकथा(सन् १९७१ के पश्चात्) कितनी गहरी जुड़ी 
						है?
 बलराम अग्रवाल—समकालीन 
						लघुकथा प्रारम्भ से लेकर आज तक समाज के हर वर्ग के साथ 
						गहराई से जुड़ी है और जनाभिमुख कथाभिव्यक्ति के अपने 
						सृजनात्मक दायित्व का निर्वाह बखूबी कर रही है।
 
 जितेन्द्र जीतू—लघुकथाएँ खूब 
						लिखी जा रही हैं। क्या ये किसी प्रकार की चेतना को जाग्रत 
						करने का प्रयास कर रही हैं?
 बलराम अग्रवाल—समकालीन लघुकथा व्यापक मानवीय सरोकारों से 
						जुड़ी नवीनतम कथा-विधा है। यह किसी वाद-विशेष से जुड़ी न 
						होकर सीधे-सीधे जनाभिव्यक्ति से जुड़ी है। अत: किसी खास 
						प्रकार के संदेश को समाज में फैलाने जैसा फ्रेमवर्क यह 
						नहीं कर रही है और न ही इसे ऐसा करना चाहिए।
 
 जितेन्द्र जीतू—लघुकथा की 
						परिभाषा को व्यक्त करना चाहें तो किन शब्दों में व्यक्त 
						करेंगे?
 बलराम अग्रवाल—समकालीन 
						लघुकथा उद्वेलन और आन्दोलन से जनित भावों की उन्मुक्त, 
						सम्प्रेषणीय एवं प्रभावकारी गद्य-कथात्मक प्रस्तुति है। यह 
						केवल आकारगत, शिल्पगत, शैलीगत और प्रभावगत ही नहीं, शब्दगत 
						और सम्प्रेषणगत भी सौष्ठव को प्राप्त ऐसी कथा-रचना है जो 
						पूर्ववर्ती लघुकथा की तुलना में कहीं अधिक जनभावनाभिमुख है 
						और उससे अनेक बिन्दुओं पर भिन्न भी है।
 
 जितेन्द्र जीतू—हिन्दी की 
						पहली लघुकथा आप किसे मानते हैं?
 बलराम अग्रवाल—मैं भारतेन्दु 
						हरिश्चन्द्र की रचना ‘अंगहीन धनी’ को हिन्दी की पहली 
						लघुकथा मानता हूँ। विस्तृत व्याख्या के लिए आप मेरा लेख ‘हिन्दी 
						की पहली लघुकथा’ पढ़ सकते हैं।
 
 जितेन्द्र जीतू—वे कौन-से 
						महत्वपूर्ण तत्व हैं जिनके बिना लघुकथा लघुकथा नहीं हो 
						सकती? अथवा लघुकथा के मूल तत्वों में हम किन-किन तत्वों को 
						रख सकते हैं
 बलराम अग्रवाल—सन् १९७१ के 
						आसपास की कथा-पीढ़ी ने अगर कथाभिव्यक्ति के लिए लघुकथा के 
						फॉर्म को चुना तो निश्चित रूप से वह समय कमतर शब्दों में 
						संवेदनात्मक क्षणों को पाठक के मानस तक पहुँचाने का समय 
						रहा होगा। सबसे पहले तो यह जान लेना जरूरी है कि आकारगत 
						लघुता लघुकथा की विवशता नहीं बल्कि विशेषता है। यह कथा के 
						संक्षेपण की विधा न होकर कथा के लाघव की विधा है। अब, लाघव 
						का निर्वाह करते हुए संवेदना को सम्प्रेषित करने हेतु 
						कथा-विशेष में जिन कथावयवों की आवश्यकता कथाकार को महसूस 
						होती है, वह कुशलतापूर्वक उनका प्रयोग अपनी रचना में करता 
						है। यहाँ आवश्यकतानुरूप कुशलतापूर्ण प्रयोग से तात्पर्य 
						कथानुशासन से भी है। एक ही रचना में समस्त कथावयवों को 
						किसी फॉर्मूले के तहत जबरन ठूँसने की पैरवी मैं कभी नहीं 
						करूँगा।
 
 जितेन्द्र जीतू—अभिव्यक्ति 
						के मामले में लघुकथा कितनी सफल है?
 बलराम अग्रवाल—अभिव्यक्ति के 
						मामले में लघुकथा पूर्णत: सफल है क्योंकि लघुकथा में 
						गद्यपरक कथाभिव्यक्ति के ही नहीं, गद्यपरक काव्याभिव्यक्ति 
						एवं नाट्य के भी अनेक पद अपनाये जाने सम्भव हैं।
 
 जितेन्द्र जीतू—आज की 
						साहित्यिक दौड़ (विविध विधाओं में) में लघुकथा कहाँ ठहरती 
						है?
 बलराम अग्रवाल—लघुकथा को 
						किसी भी साहित्यिक विधा के साथ स्पर्द्धा में होना चाहिए, 
						ऐसा मुझे कभी नहीं लगा। हाँ, मुझे यह अवश्य लगता रहा है कि 
						सम्प्रेषणीयता की दृष्टि से लघुकथा को किसी भी कथा-विधा से 
						उन्नीस नहीं ठहरना चाहिए।
 
 जितेन्द्र जीतू—अन्य विधाओं 
						में लिखने वाले रचनाकारों में से कुछ रचनाकारों के लिए 
						लघुकथा ‘पार्ट टाइम जॉब’ है। क्या उनकी यह नीति लघुकथा के 
						भविष्य के लिए नकारात्मक तो नहीं है?
 बलराम अग्रवाल—मेरी दृष्टि 
						में, कम से कम हिन्दी में तो, एक-दो मामलों को छोड़कर किसी 
						भी विधा में लेखन जॉब नहीं है। लेखन वस्तुत: पागलपन 
						है—पीड़ाओं और पीड़ाजनक स्थितियों-परिस्थितियों को दमित व 
						दमनकर्ता दोनों के सामने अलग-अलग उद्देश्य से प्रस्तुत 
						करने के जज्बे और पागलपन का नाम लेखन है। लेखन दुस्साहस 
						है, एक अलग तरह की…पीड़ित रहने की विलासिता है। लेखक अगर 
						प्राणिमात्र के अन्त:करण को सुख से ओतप्रोत करना और विपरीत 
						परिस्थितियों में संघर्ष करने की उसकी चेतना को जगाना अपना 
						धर्म समझता है तो लेखन उसका व्यवसाय नहीं हो सकता।
 
 जितेन्द्र जीतू—लघुकथा के 
						तेवरों में कौन से तत्वों को रखा जा सकता है—व्यंग्य/उसकी 
						लघुता/संवेदना या कुछ और?
 बलराम अग्रवाल—व्यंग्य 
						समकालीन लघुकथा का स्थायी तत्व नहीं है। ‘लाघव’ नामक 
						अनुशासन इसका आधारभूत अनुशासन है। इस समाज में एक ओर तो 
						अपने छोटे से छोटे स्वार्थ की पूर्ति हेतु किसी की गरदन 
						उड़ा डालनेवाला कपटाचार से लबालब धूर्त है और दूसरी ओर 
						असहायता के एकदम निचले पायदान पर भौंचक-सा खड़ा गरीब आदमी। 
						इस गरीब आदमी के मृतप्राय: संवेदन-तंतुओं में झनझनाहट 
						उत्पन्न कर सकने के लिए जो-जो भी अवयव लघुकथा में आवश्यक 
						महसूस होते हों, उन सभी को मैं बेहिचक लघुकथा का तत्व 
						मानने को तैयार हूँ।
 
 जितेन्द्र जीतू—सन् १९७१ के 
						पश्चात् आपकी लघुकथाओं के प्रमुख विषय क्या थे? इस दौर में 
						किन घटनाओं से वे प्रेरित रहीं?
 बलराम अग्रवाल—इस प्रश्न का 
						सही-सही उत्तर दे पाना मेरे लिए आसान नहीं है। मैंने आम 
						तौर पर घटनाओं को नहीं, वृत्तियों को अपनी कथाओं का कथ्य 
						बनाया। यह भी मैं कह सकता हूँ कि धूर्त सामाजिक अक्सर ही 
						मेरी कलम के निशाने पर आते रहे।
 
 जितेन्द्र जीतू—सन् १९७१ के 
						पश्चात् लिखी गई आपकी लघुकथाओं का कोई संग्रह?
 बलराम अग्रवाल— समकालीन 
						लघुकथा के सभी संग्रह १९७१ के बाद ही आये हैं। मेरे 
						प्रकाशित लघुकथा संग्रह हैं—‘सरसों के फूल’(१९९४), 
						‘ज़ुबैदा’(२००४) और ‘चन्ना चरनदास’(२००४)। ‘चन्ना चरनदास’ 
						में कुछ कहानियाँ भी संग्रहीत हैं।
 
 जितेन्द्र जीतू—कहानी व 
						लघुकथा के तत्वों के बीच क्या हम कोई विभाजन रेखा खींच 
						सकते हैं? यदि हाँ, तो कौन-सी?
 बलराम अग्रवाल—साहित्य में 
						कुछ रचना-प्रकार समान-धर्मा होते हैं। काव्य-साहित्य में 
						क्षणिका और कविता तथा कथा-साहित्य में लघ्वाकारीय 
						कहानी(हिन्दी कहानी के वर्तमान में—लम्बी कहानी, कहानी एवं 
						छोटी कहानी—आकार के अनुरूप ये तीन पदों में प्रचलित हैं। 
						१००० शब्दों से १५०० शब्दों तक की कथा-रचना को छोटी कहानी 
						तथा उससे ऊपर ४००० शब्दों तक की कथा-रचना को कहानी माना जा 
						रहा है।) और लघुकथा ऐसे रचना-प्रकार हैं जिनके बीच किसी 
						प्रकार की स्पष्ट विभाजन रेखा सामान्यत: नहीं खिंच पाती 
						है। सामान्य पाठक के लिए छोटी कहानी और लघुकथा दोनों ही 
						‘कहानी’ हैं, लेकिन अध्ययन, शोध और विश्लेशण में रुचि रखने 
						वालों के लिए ये दो अलग प्रकार की कथा-रचनाएँ हैं। 
						आकार-विशेष अथवा शब्द-संख्या-विशेष तक सीमित रहने या 
						सप्रयास रखे जाने के बावजूद कुछ कथा-रचनाओं को नि:संदेह 
						‘लघुकथा’ नहीं कहा जा सकता जबकि आकार-विशेष और 
						शब्द-संख्या-विशेष की वर्जनाओं को तोड़ डालने वाली अनेक 
						कथा-रचनाएँ स्तरीय लघुकथा की श्रेणी में आती हैं। स्पष्ट 
						है कि इन दोनों के बीच विभाजन के बिन्दु मात्र आकार अथवा 
						शब्द-संख्या न होकर कुछ और भी हैं। ‘मुण्डे मुण्डे 
						मतिर्भिन्ना’ वाली कहावत का मान रखते हुए यह कहना उचित ही 
						है कि विभाजन के वे बिन्दु अनेक हो सकते हैं। उनमें से एक 
						को राजेन्द्र यादव के शब्दों में स्वयं की बत को कहने का 
						प्रयास करूँ तो यों कहा जा सकता है कि—‘समकालीन लघुकथाकार 
						ने अपने कथा-चिंतन को ‘यहाँ और इसी क्षण’ पर केन्द्रित कर 
						दिया है, उसका अपना ‘यही क्षण’, जो उसका कथ्य है, तथ्य है 
						और उसका जीवन-मूल्य भी है।’ तात्पर्य यह कि ‘लघुकथा’ 
						संवेदनात्मक-क्षणों को पाठक के समक्ष प्रस्तुत करने वाली 
						वह कथा-रचना है जो संदर्भित तथ्यों को निबन्धात्मक, 
						विवरणात्मक रूप में प्रकटत: प्रस्तुत करने की बजाय 
						सावधानीपूर्वक इस प्रकार रचना के नेपथ्य में सुरक्षित 
						पहुँचा देती है कि आवश्यकता पड़ने पर सुधी पाठक जब चाहे तब 
						लम्बी कहानी की तरह उसका आस्वाद ले सकता है।
 
 जितेन्द्र जीतू—क्या लघुकथा 
						के अंत का विस्फोटक होना या विरोधाभासी होना लघुकथा का 
						आवश्यक गुण है?
 बलराम अग्रवाल—समकालीन 
						लघुकथा-लेखन के प्रारम्भिक दौर में, विशेषत: १९७० से १९७५ 
						तक की अवधि में, एक ही पात्र की दो विपरीत मानसिकताओं को 
						चित्रित करने का चलन रहा है। समाज में सम्मान-प्राप्त एवं 
						अनुकरणीय समझे जाने वाले व्यक्तियों के असंगत व्यवहारों 
						अर्थात् उनकी कथनी और करनी के भेद को चित्रित करने को, 
						नेताओं व धार्मिकों के चरित्रों को उनके द्वारा 
						व्याख्यायित होने वाले सामाजिक मूल्यों से इतर होने को, 
						परिवार में बड़ी उम्र के लोगों द्वारा स्वयं से छोटों 
						अर्थात् माता-पिता के द्वारा बच्चों व 
						सास-ससुर-जेठ-जेठानी-पति-ननद आदि द्वारा बहू-पत्नी-भाभी के 
						प्रति किए जाने वाले दमनपूर्ण व्यवहार को एक झटके में बता 
						देने की अधीर प्रवृत्ति ने उक्त प्रकार के लघुकथा-लेखन को 
						पैदा किया होगा। उच्च-सामाजिकों की चरित्रहीनता व 
						दायित्वहीनता से १९६५-६६ के आसपास से ही सामान्य नागरिक 
						स्वयं को वस्तुत: अत्याधिक त्रस्त दिखाई देता है। उक्त 
						त्रास को सुनने वाला जब उसे कोई भी नजर नहीं आया, तब 
						‘गल्प’, आम बोलचाल में जिसे ‘गप्प’ कहा जाता है, ने उसका 
						हाथ पकड़ा। दमनकारी स्थितियाँ जब भी आम आदमी पर इस हद तक 
						भारी पड़ती हैं, सबसे पहले वह यही मार्ग चुनता है और अपनी 
						त्रासद स्थितियों को अपने गली-मुहल्ले, ऑफिस और चौपाल के 
						संगी-साथियों को सुनाना आरम्भ करता है। मैं समझता हूँ कि 
						कथा-साहित्य को परोक्ष-अपरोक्ष कच्चा-माल ‘गल्प’ कह पाने 
						की क्षमता से लैस यह आम आदमी ही सप्लाई करता है। कथित काल 
						में ‘कथाकार’ कहलाने की क्षुधा से पीड़ित कुछ आकांक्षियों 
						को ऐसा लगता रहा होगा कि यह कच्चा-माल ज्यों-का-त्यों भी 
						समाज की पीड़ा को स्वर देने में सक्षम है और यही ‘लघुकथा’ 
						है जिसे लिखना बहुत आसान और साहित्यिक पत्रिकाओं के माध्यम 
						से सर्वसुलभ कराना बहुत आवश्यक काम है। ‘सारिका’ जैसी 
						तत्कालीन स्तरीय कथा-पत्रिका में ऐसे लेखक वैसी रचनाओं के 
						साथ निरन्तर जगह पाते और सराहे जाते रहे। कथारूप में कच्चा 
						माल परोसने की इस प्रवृत्ति ने ‘लघुकथा’ को जहाँ 
						बहु-प्रचारित किया, वहीं लगातार कच्चा और एक ही तरह का माल 
						परोसे जाने के कारण इस विधा के गाम्भीर्य और गुणात्मकता का 
						अहित भी बहुत किया। वास्तविकता यह है कि ‘लघुकथा’ एक ही 
						व्यक्ति अथवा व्यक्ति-समूह के दो विपरीत कार्य-वयवहारों का 
						चित्रण-मात्र नहीं है—इस तथ्य को समर्थ लघुकथा-लेखकों ने 
						तभी से लगातार सिद्ध किया है। मेरा मानना है कि ‘लघुकथा’ 
						में शीर्षक, कथ्य, कथ्य-प्रस्तुतिकरण की शैली, भाषा की 
						प्रवहमण्यता आदि अनेक ऐसे अवयव हैं जो उसमें प्रभावशीलता 
						को उत्पन्न करते हैं। कथा का प्रारम्भ, मध्य और अन्त कैसा 
						हो—इसका निर्धारण अलग-अलग रचनाओं में अलग-अलग ही होता है। 
						इस दृष्टि से लघुकथा के अन्त का अनिवार्यत: विस्फोटक होना 
						स्वीकारणीय नहीं प्रतीत होता। कुछ लोग लघुकथा के अन्त को 
						‘चौंकाने वाला’ मानते व प्रचारित करते हैं और इस ‘चौंक’ को 
						लघुकथा का प्रधान-तत्व तक घोषित करते हैं। सबसे पहली बात 
						तो यह है कि ‘लघुकथा’ में तत्व-निर्धारण मेरी समझ से बाहर 
						का उद्योग है। शास्त्रीयता का सहारा लेना आलोचक का धर्म तो 
						हो सकता है, कथाकार का नहीं। कथाकार अगर ५-५ ग्राम सारे 
						तत्व रचना में डालने की जिद पकड़े बैठा रहेगा तो जिन्दगीभर 
						तोलता ही रह जाएगा, लिख कुछ नहीं पाएगा।
 
 जितेन्द्र जीतू—क्या लघुकथा 
						के शीर्षक पर इतराया जाना जरूरी है?
 बलराम अग्रवाल—लघुकथा 
						क्योंकि छोटे आकार की कथा-रचना है अत: शीर्षक भी इसकी 
						संवेदना का वाहक होता है; तथापि इतराने के लिए लघुकथा क्या 
						कथा-विधा की किसी भी रचना के पास मात्र कोई एक ही अवयव 
						होता हो, ऐसा नहीं है। किसी रचना का कथ्य इतराने लायक होता 
						है तो किसी का प्रस्तुतिकरण। जहाँ तक शीर्षक का सवाल है, 
						कथा-रचनाओं के शीर्षक सदैव ही व्यंजनापरक नहीं होते, 
						कभी-कभी वे चरित्राधारित भी होते हैं। ‘शीर्षकहीन’ 
						शीर्षकों से भी कुछ कहानियाँ व लघुकथाएँ पढ़ने में आती रही 
						हैं। से रा यात्री की एक कहानी ‘कहानी नहीं’ शीर्षक से है 
						तो पृथ्वीराज अरोड़ा की एक अत्यन्त चर्चित लघुकथा ‘कथा 
						नहीं’ शीर्षक से है। ऐसे शीर्षक कथ्य के सामान्यीकरण का 
						सशक्त उदाहरण सिद्ध हुए हैं। कुछ शीर्षक काव्यगुण-सम्पन्न 
						भी होते हैं अर्थात् संकेतात्मक अथवा यमक या श्लेष 
						ध्वन्यात्मक। नि:संदेह, कुछ शीर्षक लघुकथा के समूचे कथानक 
						को ‘कनक्ल्यूड’ करने की कलात्मकता से पूरित होते हैं, 
						लेकिन कुछ प्रारम्भ में ही समूचे कथानक की पोल खोल देने 
						वाले होते हैं। कुछ शीर्षक रचना के अन्त अथवा उसके 
						उद्देश्य की पोल खोलकर रचना के प्रति पाठक की जिज्ञासा को 
						समाप्त कर बैठने का भी काम करते हैं। ऐसे किसी भी शीर्षक 
						पर कैसे इतराया जा सकता है? शीर्षक को रचना के प्रति 
						जिज्ञासा जगाने वाला होना चाहिए। परन्तु, अगर किसी लघुकथा 
						का शीर्षक कथ्य को उसकी सम्पूर्णता में अभिव्यक्त करने में 
						सक्षम सिद्ध होता है; या फिर, अगर पाठक को वह कही हुई कथा 
						के नेपथ्य में जाने को बाध्य करने में शक्ति से सम्पन्न 
						सिद्ध होता है तो बेशक उस पर इतराया भी जा सकता है।
 
                        ६ दिसंबर 
						२०१० |