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 ललित निबंध

 

पूस जाड़ थर थर तन काँपै
- श्रीराम पुकार शर्मा


शरद् ऋतु का सुमधुर शीतल सुहावन मौसम, जलाशयों में खिले सुंदर कमल, उस पर भौंरों की गुंजार, बगुलों की रट और पक्षियों की सम्मिलित सुरीली मधुर संगीतमय कलरव, चित को निरंतर निःशब्द चुराने का उपक्रम करते हुए बीत चुका है। फिर मिट्टी के पात्र में रखी खीर को पूर्णिमा की धवल चाँदनी, अपनी मिठास से अमरावती का ‘अमृत भोग’ भी बना चुकी है। ऐसे समय में उतरी गोलार्द्ध से सूर्य की क्रमशः बढ़ती हुई दूरी, दिन को क्रमशः छोटा, परंतु रात को अनायास लंबी बनाए जा रही हैं। फलतछ लोगों के निशा-निद्रा सुख का परिमाण भी क्रमशः बढ़ता ही चला है।

नवरात्रि के आगमन से प्रारंभ हुए, ‘गुलाबी जाड़ा’ के नाम से प्रसिद्ध ‘सुकुमार हेमंत ऋतु’ से गुजरते हुए
अब निर्दयी और क्रूर महाशीत का आगमन हो गया है। उसके साथ ही जाड़ा, पाला, कोहरा, बर्फीली हवाएँ आदि संयुक्त रूप से उसे प्रबल बना रहे हैं। फिर उनके संयुक्त हिम-समीर सदृश बाणों के प्रहार से जीव-जंतु बेहाल होने लगे हैं। उसके आतंक से गलियाँ सूनी हो चली है। उस क्रूर व निर्दयी महाशीत से भयातुर कुछ जीव-जन्तु, अपने गुफा व माँद में तथा लोग अपने घर के अन्तः कमरे में मोठे-मोठे रजाई में जा दुबके हैं। उनकी यह स्थिति पूरे पूस और माघ तक बनी रहेगी। हाड़ और मज्जा प्रकंपित कर सर्वत्र ही प्रतिपल शि .... शि ... शि .... की निकलती करूण ध्वनि के कारण, इस ऋतु का नाम ‘शिशिर’ ही उपयुक्त प्रतीत होता है।

इस ऋतु में महाशीत और उसके प्रबल सैन्य दल से भयभीत, दुर्बल दिन भी आजकल बहुत देरी से अपने घर से निकलता है, परंतु रात्रि के प्रबल जाड़ा-पाला से बचने के लिए, वह बहुत पहले ही अपने अगोचर घर में जा घुसता है। भले ही सुबह होने में देरी हो जाए, परंतु शाम बहुत जल्दी ही हो जा रही है। दोपहर का तो, कोई औचित्य ही न रहा गया है। रात्रि भी महाशीत की अनुगामिनी बनकर और अधिक घनी, लंबी और बर्फीली होकर इतराने लगी है। महाशीत और उसके प्रबल निष्ठुर सहयोगियों के आतंक से भयभीत दुर्बल सूरज अपने स्वर्ण-किरण रथ से राह में ही गिर पड़े हैं। सातों घोड़े उनके बिना ही खाली रथ को अपने साथ लिये बहुत ही द्रुत गति से आकाश के पश्चिमी छोर के पीछे किसी अज्ञात स्थल में जा छुप रहे हैं। दुर्बल सूरज, घायल असहाय वृद्ध की भाँति लाठी के सहारे गिरते-पड़ते हुए कभी-कभार दक्षिणी आकाश में दिखाई पड़ जाते हैं। कभी-कभी तो, धुंध-कोहरे के चादर को ओढ़े सूरज को चंद्रमा और दिन को रात्रि जान कर पशु-पक्षी तथा जीव-जन्तु भी भ्रमित हो जाते हैं और अपने नीड़ से बाहर भी न निकल पाते हैं। महाशीत के समक्ष ऐसा ही धोखा ठिठुरते हुए रीतिकालीन कवि ‘सेनापति’ को भी अक्सर हो जाया करता था।
‘शिशिर में ससि को, सरुप पवै सबिताऊ, घाम हूँ में चाँदनी की दुति दमकति है।
‘सेनापति’ होत सीतलता है सहस गुनी, रजनी की झाई, वासर मे झलकती है।’

अब तो शिशिर के स्वामी प्रबल महाशीत के आमंत्रण पर, पश्चिम के भूमध्य सागरीय ‘शीतोष्ण चक्रवाती जेट वायु’ का भी पश्चिमोत्तर सीमांत प्रदेश के मार्ग से आगमन हो गया है, जिसे ‘पश्चिमी विक्षोभ’ भी कहा जाता है। यह जम्मू-कश्मीर, पश्चिमी पंजाब, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, राजस्थान, पश्चिमी उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के कुछ भागों में कुछ वर्षा कर जाड़ा-पाला की तीव्रता को और ही बढ़ा देता है। परंतु यह रबी फसलों के लिए बहुत ही लाभप्रद माना जाता है। इसी से जम्मू कश्मीर, हिमाचल प्रदेश तथा उतरांचल में हिमपात भी हो जाया करता है, जो सेब की फसल के लिए लाभदायक होता है। फलतः उन प्रांतों के लोग ठिठुरते हुए भी, बिना दुराग्रह भाव से इसे सहन कर लेते हैं। लेकिन इससे सम्पूर्ण उत्तर भारत, जाड़ा-पाला के मजबूत पंजों में जकड़ा सीसियाने लगता है, वह बड़ा ही बुरा लगता है।
‘हिम, कुहरे, जाड़ा, धुंध शीत के कई रूप हैं प्रचंड।
तीक्ष्ण बर्फीली हवाएँ, हाड़ तोड़ घायल करती ठंड।’

क्या करे, प्रकृति भी ? ठंड-पाला से बचने की हड़बड़ी में, वह कोहरे के दुशाले को ही अपने ऊपर ओढ़ लेती है, जिसमें धरती, गगन, सूरज, चाँद, सितारे, पवन, खेत-खलिहान, धनी-निर्धन, मेहनतकश किसान, मजदूर आदि सब के सब जबरन घुसने लगते हैं। लेकिन यह कोहरे का दुशाला धोखेबाज साबित हो जाता है। देखिए न, गर्मी के बदले, यह तो सबकी हड्डियों को ठिठुराने लगता है। सब के दाँत अनायास ही किटकिटाने लगते हैं। क्या गाँव ? क्या शहर ? पथ-पगडंडी, खेत-खलिहान, सड़क, नदी, सरोवर आदि सब के सब जाड़ा-पाला से आक्रान्त होकर हिम-शीला जैसे बन गए हैं।

लोग भला क्या करें, तो क्या करें ? कोहरे के कारण पथ भी तो, न दिखता है। ऐसे में कोई भला घर से बाहर निकले भी तो कैसे निकले ? फिर चौखट से बाहर कदम रखते ही, पहले से तैयार बैठे बर्फीली हवाएँ, हिम-तीरों से शरीर को बेधने लगती हैं। मजबूरन उलटे पाँव घर में दुबक जाना पड़ता है। इस भीषण जाड़ा-पाला के सामने आने पर आग भी लगभग शरमा ही जाती है। उनके सम्मुख उसकी सारी गर्मी परास्त होकर ठंडी राख में परिणत हो जाती है।
‘भीतर घरों में लोग सभीत घुसते ही जाते हैं,
आग जल-जल कर ठंडी ठिठुर जाती है।’

ठिठुरती रातों में प्रबल महाशीत से भयातुर प्राणी अपने दाँतों को ब्रह्म मुहूर्त से ही बजाते हुए, उससे कातर अनुनय-विनय करने लगते हैं। कब प्रभात हो ? कब सूरज देव का दर्शन हो ? कब कंपकपाती जाड़ा से पिण्ड छूटे ? पर उनकी लालसा अक्सर अपूर्ण ही रह जाती है। सूरज ठंड और पाला से आक्रांत गाढ़ी कोहरे की चादर ओढ़े सभीत, जैसे ही दक्षिण-पूर्व आकाश में अपने प्रकंपित कदम को बाहर रखते हैं कि कोहरा, शीतल बयार, पाला आदि तुरंत ही किसी भयानक जन्तुओं की भांति उसके पीछे हाथ धोकर पड़ जाते हैं और फिर जबरन ही उनको पश्चिम क्षितिज के अस्ताचल गृह में भीतर घुसा कर ही दम लेते हैं। समय समय की बात है !

कभी-कभी विपरीत परिस्थितियाँ प्रबल हो ही जाती हैं और शेर भी भेड़ियों के सम्मिलित प्रयास से कभी-कभार पराजित हो ही जाता है। आबाल-वृद्ध, नर-नारी, पशु-परिंदें आदि सब के सब धूप के गायब रहने से हैरान और परेशान हैं। हर कोई एक दूसरे से पूछ रहे हैं, - ‘अरे भाई ! धूप किधर रह गई है ! अभी तक पहुँची ही नहीं ! कब से उसे ढूंढ रहा हूँ ! उससे मिले, तो कई दिन हो गए हैं ! उसके बिना हम भी तड़प रहे हैं ! पर वह है कि आती ही नहीं है !
‘पूस जाड़ थर-थर तन काँपा। सूरुज जाइ लंकदिसि चाँपा ॥
लागेउ माघ परै अब पाला। बिरहा काल भएउ जड़ काला ॥’

ऐसे में हड्डियों सहित मज्जा तक को प्रकंपित करने वाली शीतल बयार, पाला के संग मिलकर किसी दुष्ट की भाँति निडर होकर घर-आँगन, गली-मुहल्ले, खेत-खलिहान, गाँव-नगर, नदी-नाले, तालाब-पोखरे अर्थात सर्वत्र ही रात-दिन तांडव मचाने लगती है। उसके आगे हर कोई लाचार हो गए हैं। किसी को भी बाहर निकलना दुश्वार हो गया है। सन्दूक के सारे कपड़े शरीर पर और बिस्तर पर होने पर भी उनकी कमी ही महसूस होती रहती है। भीषण जाड़े में भी पता नहीं, पेट में कौन-सी भट्ठी जल रही होती है ? कुछ भी बोलने के लिए मुँह खोलो, तो उसमें से ध्वनि के पहले ‘भाप-धुँआ’ ही निकलते हैं। ऐसे में एकमात्र आलाव (आग) ही बच्चे-बूढ़े-दुर्बलजनों के लिए प्यारी बनी हुई है। वह सब समय, सबको अपने चतुर्दिक बटोरे रहती है। जो भी हो, वह सबको अपनों के साथ बैठना, हाथ सेंकना, मन को और रिश्तों को नई गर्माहट प्रदान करती है। फिर घर-घर की बातें, कुछ शहर, राज्य-देश की बातें और कुछ आपसी कहा-सुनी भी चलती ही रहती है। आग के अलाव में पकाये गए गरम-गरम आलू, भले ही बाहर से ठंढे, पर भीतर की गर्मी गले से लेकर पेट तक की अतड़ियों को जलाते हुए भी स्वाद की दृष्टि से छप्पन भोग को भी पछाड़ देते हैं। उसके चतुर्दिक बैठे, कितने घीसु-माधव का ध्यान अलाव में घुसेड़े आलुओं पर ही तो केंद्रित है। नजर हटी, कि आलू गायब !

महाशीत की जाड़े की प्रबलता, समय के साथ ही और भी बढ़ती ही जाती है। शिशु और किशोर तो, किसी तरह से अपने बहते-सुड़सुड़ाते नाक में ही इसे रोकने का प्रयास करते हैं, परंतु दुर्बल और वृद्धजन उसकी प्रबलता के सम्मुख अक्सर पराजित हो जाते हैं। भले ही पर्याप्त साधन के कारण अमीरों के लिए शिशिर ऋतु सुखद मानी जाती हो। पर गरीब खेतिहर और मजदूर बेचारे क्या करे ? खेतों में तैयार फसलें कोई बहाना न सुनती है। फिर ठिठुरती हाथों में हसुआ थामें, फसलों की कटाई भी तो आवश्यक हो जाती है। बर्फबारी, रक्त जमाने वाली सर्दी, पाला, जाड़ा और ठंडी हवा सब कुछ को सुन्न करने लगते हैं। पर घर-परिवार की जिम्मेवारियाँ जमते हाथ के हसुओं को चलाती ही रहती है। कोहरे में फसल काटते और उसके बोझे को माथे पर उठाए, खेतों के मेढ़ पर जाते किसान-परिवार, किसी भूत-प्रेत या श्वेत-श्याम धुंधली चित्र के समान प्रतीत होते हैं। यही समय है, जब धुंध, कोहरे, बर्फीली हवाएँ सड़कों पर यातायात संबंधित दुर्घटनाओं में वृद्धि के कारण बन जाते हैं और शिशिर ऋतु ‘भ्रामक हत्यारा’ बनकर अनगिनत लोगों की जान भी ले ही लेता है।

शिशिर ऋतु में प्रातः काल सर्वत्र ही ओस की चाँदी-सी जालीदार परतों के कारण सभी दिशाएँ रजतवर्णी चादर से ढकी प्रतीत होती है, मानो वसुंधरा और अंबर दोनों परस्पर मिलकर अद्वैत हो गए हों। खेतों में पसरे फसलों और घासों को भी ओस अपने रजतवर्णी श्वेत चादर से ढँक देती है। खेतों में गेहूँ, जौ, ज्वार, बाजरा लहराते रहते हैं, जबकि चना, मटर, मसूर, सरसों, अलसी अपने बीज-धन को अपने थैलों में समेटे लटकाए, किसी की पथिक की प्रतीक्षा में खड़े दिखाई देते हैं। इस समय बाग-बगीचों में गेंदा, गुलाब, गुलदाऊदी, सूरजमुखी, दहेलिया आदि के सुंदर फूल अपने मिश्रित सुवास से वातावरण को सुगंधित बनाए रखते हैं। कहीं-कहीं उन पर मंडराती इंद्रधनुषी तितलियाँ उनके साथ ही एकाकार होती जाती हैं।
‘हे तितली रानी ! रंग-बिरंगे पंख तुम्हारे, सबके मन को ललचाते हो।
फूल-कलियों के कानों में धीरे से जा, तितली रानी ! तुम क्या कहती हो ?’

वहीं दूसरी ओर घर के चहरदीवारियों, छप्परों, छतों, अलगनियों पर लौकी, कुम्हड़ा, करेला, तुरई, सेम, बरबटी, खजूयत आदि और आँगन तथा बागवानी में गाजर, मूली, शलगम, चुकंदर, टमाटर, परवल, पालक, मेथी, भिंडी, गोभी, मिर्च, खीरा आदि दिखाई देने लगते हैं। बाग-बगीचों में चीकू, संतरा, नाशपाती, बेर, शरीफा, पपीता, करौंदा, अनार, नारियल, खजूर आदि के सुंदर फल, जहाँ-तहाँ लटके बच्चों सहित बड़ों के मन को भी ललचाते हैं। जबकि जलाशयों के शांत व निर्मल जल-तल की शोभा को रक्त-कमल, श्वेत कमल, सिंघाड़ा और छोटी-बड़ी ढेर सारी मछलियाँ बढ़ाते ही रहते हैं। अधिकांश पेड़-पौधे ‘पत्रहीन नग्न गाछ’ बने नए पत्रक-वस्त्र को धारण करने के इंतजार में खड़े प्रतीत हीते हैं। गर्मीवर्द्धक इलाइची, मुनक्का, खजूर, घी आदि का प्रयोग बढ़ जाने के कारण घर-आँगन, फिर गाँव भर में ही उनके मिश्रित सुगंध से सुवासित हो रहे हैं। शिशिर ऋतु में जठराग्नि कुछ तीव्र हो जाती है और उसके अनुकूल ही पाचन शक्ति भी कुछ प्रबल ही हो जाती है। फलतः लोग कुछ विशेष भोजन भी खा और पचा लेते हैं। इस समय के खाए गए पौष्टिक और बलवर्धक आहार वर्षभर शरीर को तेज, बल और पुष्टि प्रदान करते हैं। इसके विपरीत ऐसी ठंड में बिलासिनियों के चित को उनके कामेच्छा-भाव अक्सर व्यथित करने लगते हैं।
‘काँपै हिया जनावै सीऊ। तो पै जाइ होइ सँग पीऊ।।
यह दुख दगध न जानै कंतू। जोबन जरम करै भसमंतू ॥’

सामर्थ्यवान् की तो, बात ही अलग है। पर्याप्त सुख-साधन के बाल पर वे सभी काल, सभी ऋतु, सभी परिस्थितियों को अपने अनुकूल बना लेते हैं। पर बेचारे निर्धन, असहाय को सताने में कोई भी मौसम जरा-सा भी कोताही नहीं बरतता है। गर्म रजाई, कम्बल, शॉल और ब्लेज़र, मोजो में लदे-फदे भले ही कोई सामर्थ्यवान पर्वतीय सौन्दर्य का, बर्फबारी का आनन्द ले लें, किन्तु निर्धन क्या करे ? उनके तो, सिर पर टूटे छत तक नहीं और तन पर कपड़े तक नहीं। उनकी क्या गति होती है ? जबरदस्त पाले, फसलों को मार देती है। न मज़दूरी, न खाने की व्यवस्था ! शरीर है कि जाड़ा और पाला से बर्फ बना जाता है। पर पेट है कि भूख की अग्नि से धधकते राहत है। आखिर कटे भी, तो कैसे कटे ‘हल्कू’-‘होरी’ और धनिया की पूस की रातें ?
‘चंद और चाँदनी की चरचा ही करेगा कौन ?
सेज-दुशालें दोपहर को भी छूट नहीं पाती हैं।’

जहाँ हेमंत ऋतु में शरीर के अनुकूल मौसम के कारण लोग बैद्य या चिकित्सकों को दूर से ही नमस्कार कर लिया करते थे, पर शिशिर ऋतु में अत्यधिक शुष्क मौसम तथा शरीर पर कपड़ों के भरमार से त्वचा तक ताजगी हवा नहीं पहुँच पाती है। ऐसे में चर्म रोग दाद-खाज-खुजली के आलवे कंपकंपी, शीतदंश, ट्रेंच फुट, सुन्नता, गैंग्रीन, एलर्जी आदि की आम शिकायत आने लगती है। फलतः लोग अब बैद्य या चिकित्सकों को खोजते फिरते हैं। लोग दुर्बल धूप में तेल मालिश और गरम पानी में स्नान करते दिख जाते हैं क्योंकि त्वचा पीड़ितों के लिए ये बड़े ही लाभदायक साबित होते हैं।

माघ की सुखद सुहावनी धूप अनुरंजनकारी होती है। इसी ऋतु में हम सनातनी हिन्दुओं का सबसे बड़ा त्योहार ‘मकर संक्रांति’ आता है। इसी दिन से सूर्यदेव ‘उत्तरायण’ हो जाते हैं। इस दिन तीर्थ यात्रीगण ‘सारे तीरथ बार-बार गंगासागर एक बार’ की रट लगाते हुए सागर तट पर स्थित ‘गंगासागर’ या फिर श्रेष्ठ नदी-जलाशय में स्नान के लिए चल पड़ते हैं। लोहड़ी, मकर संक्रांति, पोंगल आदि त्योहारों की सुंदरता को चुरा, दही, तिलकुट, रेवड़ी, मक्का की रोटी, सरसों की साग आदि बढ़ा देते हैं। ऐसे में ही ज्ञानदायिनी वीणावादिनी माँ सरस्वती जी की आराधना के "सरस्वती नमस्तुभ्यं वरदे कामरूपिणि। विद्यारंभं करिष्यामि सिद्धिर्भवतु मे सदा ॥" जैसे पवित्र श्लोक गाँव-शहर के विद्यालयों में गूँजित होने लगते हैं। फिर फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी को देवाधिदेव महादेव जी के ‘महाशिवरात्रि’ पर्व के अवसर पर सभी शिवालयों में घंटानाद और शंखनाद के साथ ही ‘हर हर महादेव’ की प्रबल जयघोष से शायद डर कर महाशीत अपने सैन्यदल सहित चुपके से प्रस्थान करने लगता है। तब सम्पूर्ण वातावरण ही ‘शिवमय’ हो उठता है।
‘आशुतोष शशाँक शेखर चन्द्र मौली चिदम्बरा,
कोटि कोटि प्रणाम संभु कोटि नमन दिगम्बरा।’

जाड़ा, पाला और सर्दी की बात हो और भला कलयुगी ‘अमृतरस चाय’ की बात न हो, तो बात, कुछ फीकी-सी रह जाएगी। वर्तमान काल में इसके बिना किसी अतिथि का स्वागत ही असंभव है। शहर से लेकर गाँव तक, अमीर से लेकर गरीब तक, सबके लिए सचमुच जीवन रस ही तो है, ‘चाय’। यह सिर्फ चाय ही नहीं, बल्कि सबके लिए ‘चाह’ है। शिशिर में ‘अमृतरस चाय’ शरीर में गर्माहट और ताजगी बढ़ाने का उत्प्रेरण-कार्य करता है, तो भला लोग इसे क्योंकर छोड़े ?
‘जाड़े की सुबह की पहली चाय, सुनहले सूरज की किरणों की गोद में,
संतुष्टि के गीत बनकर नयी उमँगे, जगा जाती है ठिठुरते तन-मन में।’

१ दिसंबर २०२५

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