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 ललित निबंध

 

देखो खिल-खिल मुस्काता कदंब
- श्रीराम पुकार शर्मा


कई दिनों से लगातार ही प्रातः भ्रमण के क्रम में सड़क के किनारे ‘खिल-खिल मुस्काते’ कदम्ब-वृक्ष के समग्र मनोभावन वाह्य स्वरूप का नयनाभिराम दर्शन कर रह हूँ। उसके मुसकुराते अंग-प्रत्यंगों को देख-देख कर उसके अनुरूप ही मन में कई सुखद विचार भी उत्पन्न होते रहे हैं। कभी-कभी उसकी सुदृढ़ शाखाओं को देखकर, तो कभी उसके हरित घने पत्तों को देखकर और कभी उसके सुंदर गोल श्वेत-पीताभ फूलों को देख-देख कर मन ही मन ‘रसखान’ और सुभद्रा कुमार चौहान की पंक्तियों को गुनगुनाते हुए स्वयं को उसका प्रेमी प्रदर्शित करने की क्षणिक कोशिश भी करने लगता हूँ।

कदम्ब है ही इतना सुंदर! जितना देखो, कि मन ही नहीं भरता। यदि परिस्थितियाँ कुछ और होतीं, तो शायद पीताम्बर ओढ़े, माथे पर मोर पंख युक्त पगड़ी पहने, सुंदर बाँसुरी को हाथ में लिये, कुछ गायों के साथ उस कदम्ब की गहरी छाँव में चला जाता। उसके तने का सहारा लेकर अपने एक पैर को कुछ मोड़े हुए और शरीर को बक्र बनाए बाँसुरी को बजाया करता। आकाश के बरसाती घने काले कजरारे बादल बरसते रहते, कदम्ब की पत्तियों पर गिरते बरसाती बूंदें मधुर संगीत उत्पन्न करते रहते, पानी में भींगती और रंभाती गायें मुँह उठाए मेरी ओर परिचित नजरों से देखती रहती। मैं, तो सचमुच ही ब्रजनन्दन कृष्ण का प्रतिरूप ही बन जाता!

शास्त्रों में कदम्ब के वृक्ष को ‘प्रेम-तरु’ या ‘देव-वृक्ष’ की विशेष संज्ञा प्राप्त है।
कदम्ब-वृक्ष संभवतः अपने सौन्दर्य और प्रेम-बल के कारण ही कुछ विचित्र अदृश्य अलौकिक शक्तियों को अपने आप में समाहित किए रहता है। जब प्रचंड ग्रीष्म अपने उमस भरी ताप से सबके तन और मन को खौलाने लगता है, दलित होकर प्रकृति के तमाम पेड़-पौधे और प्राणी मुरझाने लगते हैं, दुर्बल होने लगते हैं और कुछ तो गिरने लगते हैं, तब कदम्ब-वृक्ष अपनी गंभीर हरीतिमा में उस असहनीय ताप को शोषित कर धरती को शीतल छाँव देने की निरंतर कोशिश करते रहता है। चलो, कोई धरती-संतति तो है, जो अपनी वसुंधरा माता को छाँह देने की कोशिश करती है! अन्यथा, हम मानव संतति तो उसे हरीतिमा विहीन नंगे करने पर ही तुले हुए हैं। कदम्ब की पत्तियाँ आकार में कुछ बड़ी, चिकनी, चमकदार, कुछ मोटी और उभरी स्पष्ट नसों वाली होती हैं। धरती पर इनसे गहरी, शीतल और सुगंधित छाया बनती है, जिसमें अनगिनत जीव-जन्तु, पशु-पक्षी और श्रांत पथिक अपने श्रमित मन को शीतल विश्राम पाते हैं।

आषाढ़ मास के प्रारंभ में ही उमस युक्त गर्मी बढ़ने के साथ ही कदम्ब की पुष्ट शाखा-प्रशाखाओं पर छोटे-छोटे अनगिनत श्वेत-पीताभ गेंद के समान सुंदर फूल विद्युत-बल्बों के समान प्रतिबिंबित होने लगते हैं। उन श्वेत-पीताभ गेंदक फूलों पर असंख्य उभयलिंगी पुंकेसर कोमल-शर की भाँति बाहर की ओर निकलकर प्रफुल्लित तन जाते हैं। कहा गया है कि ये कदम्ब के फूल बड़े ही संवेदशील होते हैं, जो मेघ-गर्जना को सुनकर अचानक खिल उठते हैं, मानो वे मेघ-पुकार को सुनकर ही सभी सोते से अचानक जाग गए हों और उनका अभिनंदन करने के लिए साज-धज कर प्रस्तुत हो गए हों। फिर कुछ ही दिनों में पूरा वृक्ष ही विकसित तथा सुगंधित श्वेत-पीताभ सुंदर गेंदक फूलों से सज-धजकर छोटे-छोटे भौरों से लेकर पक्षियों, यहाँ तक कि प्रकृति-प्रेमी सहृदयजनों के मन को दूर से ही अपनी ओर जबरन आकर्षित करने लगता है। फिर बरसात में अम्बर से बरसते शीतल जल कदम्ब के सुगंधित फूलों पर पड़ते ही उनके सुगंध को स्वयं में मिश्रित कर अमृत की बूँदों के रूप को धारण करते हैं। चंचल हवा के तेज़ झोंकों के साथ वह सुगंधित अमृत जल-बूँद असंख्य छोटे-छोटे कणों में विखंडित और छिटक कर चेहरे पर पड़ते ही मन को अजीब शीतल सुकून प्रदान करते हैं।

प्राचीन काल से ही कदम्ब-वृक्ष के साथ ज्ञान, आत्म-ज्ञान और आध्यात्मिक-ज्ञान व विकास का बहुत ही गहरा संबंध माना गया है। नदी-सरोवर के किनारे प्रशांत एकांत में कदम्ब-वृक्ष की गंभीर छाँव में बैठे छात्रों द्वारा गुरु की सानिध्यता में ज्ञानार्जन करने की भी प्राचीन परंपरा रही है। फलतः कदम्ब-वृक्ष विभिन्न संस्कृतियों में ज्ञान का एक शक्तिशाली प्रतीक स्वरूप मान्य है। बौद्ध धर्म में, कदम्ब-वृक्ष को ज्ञान-वर्द्धक के रूप में पूजा जाता है। तो हिंदू धर्म में इसे भगवान कृष्ण के बचपन का सहायक के रूप में देखा और पूजा जाता है। भगवान विष्णु, देवी पार्वती और माता काली का भी यह प्रिय वृक्ष है। इसकी घनी शांत छाँव में उन्हें रमे रहना प्रिय लगता है। एक पौराणिक कथा के अनुसार जब स्वर्ग से अमृत पान कर श्रीविष्णु जी के वाहन गरुड़ महाराज जी लौट रहे थे, तब उनकी चोंच से अमृत की कुछ बूंदे कदम्ब-वृक्ष पर गिर पड़ी थी। फलतः कदम्ब-वृक्ष को कई पौराणिक शास्त्रों में ‘अमृत-तुल्य’ माना गया है। ‘महिषासुर मर्दिनी स्तोत्रम्’ में एक स्थान पर उल्लेखित है कि माता जगदंबा कदम्ब के वृक्षों के घने वन में ही हर्ष-उल्लास सहित रहना पसंद करती है।
‘आयी जगदंबा, मद-अंबा कदम्ब, वाना प्रियवासिनी, हासा-राते’

जगत के प्राणियों के हृदय में प्रेम और आकर्षण गुण को जागृत करने वाले देवता कामदेव के साथ इस ‘प्रेम-तरु’ कदम्ब का नाम जुड़ा हुआ है। इसे कंदर्प अर्थात, कामदेव के कर से उपजा वृक्ष माना गया है। कहा जाता है कि प्राणियों में परस्पर प्रेम और आकर्षण भाव को जागृत करने के लिए रति-पति कामदेव ने प्रेमवर्द्धक और कामवर्द्धक शक्ति से सम्पन्न अपने पाँच विशेष बाणों, यथा- मारण, स्तम्भन, जृम्भन, शोषण और उम्मादन को चलाने के लिए इसी कदम्ब के मनोहर वृक्ष को ही अपने ओष्ठाकार धनुष के रूप में प्रयोग किया था। कालांतर में प्रेम के साकार स्वरूप श्रीकृष्ण की बाल-लीला संबंधित विविध क्रिया-कलापों में कदम्ब-वृक्ष काफी सहायक रहा है। यह राधा और कृष्ण के बीच दिव्य-प्रेम के संवाहक और प्रत्यक्ष गवाह रहा है। उनकी विविध लीलाओं से जुड़े होने के कारण कदम्ब-वृक्ष ब्रजभूमि, ब्रजभाषा और मुख्य रूप से कृष्ण-भक्ति साहित्य का एक विशेष सहायक पात्र ही है, जिसके बिना कृष्ण-भक्ति और कृष्ण प्रेम-काव्य अपूर्ण ही रहेगा।

अपनी बालोचित अठखेलियों और क्रिया-कलापों से ब्रज की कुंज गलियन को देवलोक सदृश सुखमय बनाने वाले कृष्ण कभी इन्हीं कदम्ब की सघन छाँव में अपनी आँखें बंद कर बाँसुरी की मोहिनी तान छेड़ा करते थे। उसकी मधुर धुन पर राधा अपनी अष्टसखियों ललिता देवी, विशाखा, चित्रा, इन्दुलेखा, चम्पकलता, रंगदेवी, तुंगविद्या और सुदेवी के साथ मिलकर भौतिक सुध-बुध को भुला कर कृष्ण के संग रास-नृत्य में खो जाया करती थीं। कदम्ब-वृक्ष के नीचे कृष्ण-गोपियों के उस मधुर नृत्य को देखकर सम्पूर्ण प्रकृति अपने मय पशु-पक्षी, स्थावर-जड़-जंगम सहित सम्मोहित हो उठती थी। इसी कदम्ब-वृक्ष के नीचे माता यशोदा ने कृष्ण के मुख में विस्तृत ब्रह्माण्ड का दर्शन किए थे। तो स्वाभाविक ही है कि उस समय कदम्ब-वृक्ष ने भी विस्तृत ब्रह्मांड का प्रत्यक्ष दर्शन करके निज अमरत्व को प्राप्त किया होगा ही।

संभवतः इसलिए कलयुग में भी कदम्ब-वृक्ष कृष्ण-लीला का गान करने वाले भक्तों की मनोकामनाओं को पूर्ण करता रहा है। ब्रज-गोकुल में यमुना के किनारे के कुमुदवन के 'कदम्ब खंडी' उपवन के कदम्ब के वृक्षों की बहुत महिमा है। प्राचीन कवि भारवि, माघ, विद्यापति, कालिदास, भवभूति तथा बाद में नन्ददास, सूरदास, कुंभनदास, रसखान, पद्माकर, हरिऔध, मैथिलीशरण गुप्त, सुभद्रा कुमारी चौहान आदि ने भी कदम्ब को अपने काव्य में सादर स्थान प्रदान करते हुए उसका विशद और मनोभावन चित्रण किया है।

कालांतर में तमाम कृष्ण भक्तों और कृष्ण भक्त कवियों के लिए कदम्ब-वृक्ष पूजनीय रहे हैं, क्योंकि कदम्ब वृक्ष उनके आराध्यदेव कृष्ण के गो-चारण, स्नान करती गोपियों के वस्त्र चुराने, सुदामा के साथ चने खाने और फिर जमुना में विषधर कालिया नाग को नाथने जैसी अनगिनत आध्यात्मिक मनभावन घटनाओं की प्रबल साक्षात साक्षी रहे हैं। कृष्ण-भक्ति में सर्वांगीण डूबे रहने वाले ‘रस के खान’ अर्थात कवि ‘रसखान’ तो कदम्ब की डालों पर ही रहने वाले पक्षी के रूप में जन्म लेकर अपने आराध्यदेव कृष्ण का सामीप्य प्राप्त कर अपने जीवन को सार्थक करना चाहते हैं- ‘जो खग हों तो बसेरो करो मिलि कालिंदी कूल कदम्ब की डारन।’

कदम्ब भारतीय उपमहाद्वीप में एक प्रसिद्ध शोभाकर वृक्ष के रूप में शास्त्रीय स्वीकृत है। यह उष्ण कटिबंधीय पुष्पधारी 'रूबियासी वृक्ष परिवार’ से संबंधित है, जिसका वैज्ञानिक नाम ‘एंथोसेफेलस कैडंबा’ है। इसकी कई जातियाँ होती हैं, - राजकदम्ब, धूलिकदम्ब, कदंबिका, आदि। जहाँ एक ओर इसकी भूमिगत जड़ें धरती के अंदर की नमी से अपने उपयुक्त भोज्य-पदार्थों को शोषित कर लेते हैं, वहीं दूसरी ओर इसकी कुछ बड़ी और मोटी पत्तियाँ उष्ण वायु-मण्डल से भी अपने अंश का प्राण-रस को खींच लेने की अद्भुत शक्ति रखती हैं। इसीलिए तो भयानक गर्मी में भी इसकी हरित घनी पत्तियाँ शीतल छाँव प्रदान करती हैं और सदाबहार बनी रहती हैं। कदम्ब-वृक्ष से एक विशेष प्रकार का पीत द्रवरस निकलता है, जिसे 'कादम्बरी' कहा जाता है, जो बच्चों में हाजमा ठीक करने में बहुत ही सहायक होता है। इसकी पत्तियों के रस को अल्सर तथा घाव आदि को ठीक करने में भी उपयोग किया जाता है। कदम्ब-वृक्ष का सर्व अंग ही औषधि गुणों से युक्त होते हैं।

कदम्ब के छोटे-छोटे गेंदकार फल कच्चे में हरे होते हैं, जबकि बरसाती फुहार पड़ने के साथ ही पक जाने पर गाढ़ा केसरिया नारंगी जैसे हो जाते हैं। प्रत्येक फल में चार संपुट या संभाग होते हैं। इसमें खड़ी और आड़ी पंक्तियों में लगभग आठ हज़ार से भी अधिक बारीक बीज होते हैं। फल पकने पर स्वतः ही फट जाते हैं। फिर इनके बीज हवा या पानी के माध्यम से दूर-दूर तक बिखर कर चले जाते हैं और अनुकूल परिस्थिति को पाते ही पौधे का रूप धारण कर लेते हैं। इस प्रकार से इनका वंश-वृद्धि होता है। कदम्ब का फल कुछ तीखा, कड़वा व कसैला होता है, जो शरीर के तीनों प्रमुख दोष वात, कफ और पित्त को शांत करने में पूर्ण सक्षम कुछ भारी, ठंडा और नाड़ी-अवरोधक होता है।

यह शारीरिक पित्त और कफ के कारण होने वाले दर्द को कम कर शीतलता प्रदान करता है। खाँसी, सर्दी, जुकाम से लेकर मधुमेह जैसे रोग तक में कदम्ब रामबाण का काम करता है। पौरुष शक्ति की गुणवत्ता में भी यह सुधार करता है। इसके अतिरिक्त रक्त की कमी को दूर करता है। फलतः आयुर्वेद में कदम्ब को ‘वरदानी वृक्ष’ के रूप में माना जाता है। इसके पुष्पों और फलों का उपयोग सदियों से पारंपरिक आयुर्वेद चिकित्सा में, इत्र तथा अन्य सुगंध बनाने में किया जाता है। इसके अलावा इसके फूलों का उपयोग धार्मिक तथा सामाजिक समारोहों में भी व्यापक रूप से किया जाता है। आज कदम्ब का नाम कई मिठाइयों का विशेष्य बन गया है। यथा – खीर कदम, रस कदम आदि।

१ मार्च २०२४

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