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वसंत के केन्द्र में प्रेम की ज्योत्सना
- कल्पना मनोरमा


हमारी हथेलियों की तरह पृथ्वी की हथेलियों में मौसम की अमिट रेखाएँ और ऋतु चक्र होते हैं। उसी के अनुसार संसार अपने आप को प्रकाशित करता हुआ सदा सृजनशील रखता है। हम कह सकते हैं कि जीव-जगत एक दूसरे के पूरक हैं। मौसम की मुट्ठियों में हमारे जीवन की मिठास-खटास सुप्त रूप से बन्द पड़ी होती है। मौसमों की करवटों में सांसारिक जीवन सार निहित है।

अब देखो न! नितांत ठिठुरती सर्दी की ऋतु जैसे ही अपने प्रिय के गुनगुने देश जाने को उत्सुक होती है, ऋतुराज की पालकी संसार के दुर्गम पथ पर चुपके से उतर आती है। चारों ओर ठिठुरे उपवन और डालियों में फलने-फूलने की अदम्य लालसा अचानक बलवती होने लगती है। धरती की नवतिका गतिविधियों का समाचार सबसे पहले पवन को प्राप्त होता है। पवन तत्क्षण अपने तेवर बदल कर मौसम के अनुकूल अपना साफ़ा लहराने लगता है। सर्दी की विदाई की चिट्ठियाँ गेंदे के कत्थई फूलों के साथ समीर ज्यों ही बाँटना शुरू करता है सबसे पहले बेघरों को राहत मिलती है। सड़क के किनारे जर्जर फ़ुटपाथों पर मुस्कानें भले मैली-कुचैली हों, लौटने लगती हैं। ठंडे पड़े उनके चूल्हों में आग रुक कर गुनगुनाने का प्रयास करने लगती है। उनके लिए अन्न की खुशबू गुलाब से बढ़कर होती है।

आसमान की छत वालों के घरों में सर्दी से सिकुड़े पड़े दुधमुँहों को दाना-पानी की सांत्वना देने के लिए वसंत उनके द्वारे बैठ जाता है। ठूंठ जैसी जिंदगियों को प्रेम का लाल रंग न सही धूसर रंग ही सरसाने लगता है। हरियाली कल्पना में डूबकर विटप-ठूँठों पर देखते ही देखते हरे पत्तों के बीच फूल मुस्कुरा उठते हैं। जिन पत्तियों ने डालियों के भीतर छिपकर सालों साल संघर्ष किया होता है, उनके लहलहाकर फूटने का वक्त वसंत एक अनोखा जादू रच डालता है।

सच कहें तो वसंत चुपके से जीवन में उत्फुल्लता, प्रेम और सृजन का एक वृहत्तर परिवेश रचता हुआ हमारे आँगनों में उतर आता है। हमारे दबे-सिकुड़े दिन दुल्हाबाबू की तरह सजने-सँवरने लगते हैं। वसंत उसके शरीर पर सरसों का उबटन लगाकर गालों पर ललाई पोत देता है। माथे पर चुटकी भर हल्दी का टीका लगा मनुष्यों को खिलखिलाने-आनन्दित होने का अवसर प्रदान करता है। इस वासन्ती लीला को देखकर पादप कुल में बड़े-छोटे वृक्षों की देहों में एक रोमांचक झुरझुरी उत्पन्न होती है और देखते ही देखते उनकी डालियों से विदा लेते हुए धरती के आँचल में सूखे पत्तों का झरना, झर-झर झरना शुरू हो जाता है। ये क्रम तब तक चलता रहता है जब तक कि आम के पेड़ों पर ताम्बई पत्तियों का आगमन नहीं हो जाता। हालाँकि ऋतु संधि किसी-किसी को बहुत अखरती भी है क्योंकि आम को छोड़कर लगभग सभी वृक्ष पत्र विहीन हो जाते हैं। सृजन से पूर्व एक अलभ्य नीरवता मौसम में सघनता से व्याप्त हो जाती है। दरअसल वह समय शून्य काल होता है जो हमारी अभीप्साओं को शांत करने का द्योतक भी माना जा सकता है। समझने वाले इस बात को समझकर उस उदासी का भी आनन्द उठाते हुए कुछ नया सृजित कर लेते हैं।

खैर, ये वक्त कम समय के लिए उद्धृत होता है। नव अंकुरण फूटने को उतावले होकर वृक्षों को पत्रों से आच्छादित कर देते हैं। आम के बागान अमराई से लद जाते हैं और कहीं दूर एकांत में मौन तपस्या में लीन रहने वाली वंसतदूती कोकिला को अमराई की मादक गंध बेचैन कर देती है। कृष्ण वर्ण पिकबैनी औचक प्रकट होकर डाली-डाली फुदक-फुदक कर पंचम सुर रागनी छेड़ने लगती है। कोयल की मधुरिम तान सुनकर प्रकृति सुंदरी अपने केशों में ‘क्रिमसन और सोना’ फूलों का गजरा ‘स्टार मैगानोलिया’ के श्वेतवर्ण पुष्पों का शृंगार कर झूम उठती है। वसंती हवा में सुगंध के झरने मचलकर फूट पड़ते हैं। हवा के इसी रंग-रूप को देखकर कवि केदारनाथ अग्रवाल ने लिखा होगा-

“हवा हूँ, हवा मैं/बसंती हवा हूँ/सुनो बात मेरी /अनोखी हवा हूँ/बड़ी बावली हूँ/बड़ी मस्तमौला/नहीं कुछ फिकर है/बड़ी ही निडर हूँ/जिधर चाहती हूँ/उधर घूमती हूँ/मुसाफिर अजब हूँ।”

जब समस्त ब्रम्हांड में वसंत गुलाबी उत्सव की तरह व्याप्त होता है तब जंगल के मध्य बहती नदी भी नवयौवना तरुणई की तरह इठलाने लगती है। सरिता के किनारे जल में पाँव लटकाए बैठी नन्हीं-नन्हीं घास भी सफेद फूलों का दुपट्टा ओढ़कर मलयपवन के साथ झूमने लगती है। फूली घास के प्रतिबिम्ब के साथ खेलती अंशुमाली की अरुणिम किरणें जल लहरियों पर सुनहरा स्वाँग रचकर वनप्रांतों को भी शोभाशाली बना देती हैं। नीम, पलाश, महुआ फूल-फूलकर वातावरण को भीनी-भीनी मादक सुगंध से सराबोर कर देते हैं। हर ओर मदन की मादकता से नशीली दिशाएँ भी अनंग के साथ थिरक उठती हैं। रंग-बिरंगी तितलियों की टोलियाँ सरसों के खेतों की निगरानी करने दूर-दूर तक सैर पर निकल पड़ती हैं। काले-काले भँवरे उपवन में किसी नाजुक-पुष्प डाल को हिंडोला समझकर झूलते हुए प्रेम राग छेड़ने लगते हैं। सूखे से सूखा मन भी वसंत में हल्दिया रंग-सा गमक उठता है। जो आसमान सर्दियों में बर्फ से ढँका हुआ होता है उसपर अरुणाई छाने लगती है। रंग-बिरंगी सुरमई शामों में शुष्क मन का मयूर भी ता ता थैया कर नाच उठता है। जिस प्रकार प्रेम जीवन में रंग भरकर उसको विस्तारित करता है, उसी प्रकार वसंत हर जीव के जीवन को सृजन के आनन्द से भर देता है।

शीत को विदाई कर/ ग्रीष्म के मंगलाचार को गायेगा/ कचनार पर सोकर / पलाश की फुनगियों को अँगड़ाई ले जगाएगा / महोबिया पान चबाकर/ महुआ की मलंग छाया में सुस्तायेगा / ये प्यारा वसंत है / बड़े-बड़े तपस्वियों को नाच नचाएगा।”

जिस प्रकार भाषा हमारी अभिव्यक्ति का माध्यम बनती है उसी प्रकार वसंत प्रकृति की प्रेमिल ज़ुबान बनाकर प्रेम के रचाव को गुनगुनाकर सुनाता है। वसंत समय-सृजन का सुच्चा संचरण है। बिछुड़न भरे पतझड़ के शोर को अंगीकार कर सुभाषित करने के लिए ही देव लोक से वसंत ऋतु का आगमन पृथ्वी पर होता है। वसंत के केंद्र में प्रेम की ज्योत्सना जब-जब दिपदिपाती है तब-तब मन के गहरे धुंधलके भी उजले हो अंतर्मुखी भावनाओं को कुसुमित कर जाते हैं। पलाश की स्वेच्छाचारी मुस्कान पर थर-थर काँपती हुई धूप जब महुआ की छाँव में छिपने की कोशिश करती है तो पवन की शाश्वत आकांक्षाएँ नदी की आत्मा को प्रतिबिंबित कर उसकी देह से अपनी देह को मिलाकर मौसम में उत्सुकता जगाती है। वसंत ही संसार-देवालय में संभ्रांत अविचल पर्वतों को अर्थपूर्ण स्वप्न सौंपता है। साध्वी वसुधा के अंतर में न जाने कितने रंग सोये ही पड़े रह जाते यदि वसंत उसके घर न आता। वसंत आगमन पर अपने अहंकार को विसर्जित कर काठ मन भी फूलकर झुक जाते हैं। और जब ऐसा होता है तो शायद आसमान भी धरा बन जाना चाहता है। इतने सबके बाद भी क्या मनुष्य प्रकृति के विशिष्ठ उद्देश्य को उसकी ही मान्याताओं में समझ पाता होगा? प्रेम और वसंत जीवन के कैनवास पर रंगों और सुगंधों का एक सुरमई इन्द्रधनुष है।

१ मार्च २०२२

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