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ललित निबंध

कौन तम के पार
- श्रीराम परिहार


यह सृष्टि बहुत सुन्दर और मोहक है। अवनि-अम्बर के बीच का दृश्यमान जगत सच्चा-सच्चा वास्तविक-सा अनुभव होता है। स्वर्णिम विहान की वेला में आँखों का प्रकाश जहाँ तक फैलता है, अभिलाषाएँ नृत्य करती-सी लगती हैं। कल्पना की आँखें और दूर तक जाती हैं। बहुत दूर तक देखती हैं। सौ-सौ स्वप्न जाग उठते हैं। हमारे देखने की और स्वप्न-बुनने की भी एक सीमा है। उस सीमा के पार भी देखने लायक और जानने लायक बहुत कुछ शेष है। जिसे ब्रह्माण्ड कहा जाता है, वह कितना विराट किन्तु कितना अद्भुत है। सूर्य, चंद्र, सविता, सोम, ग्रह, नक्षत्र भरा ब्रह्माण्ड बड़ा रहस्यमय है। धरती और धरती के गर्भ की विस्तार-गहराई को ही ठीक-ठीक कहाँ जाना-समझा जा सका है? अग्नि-सोम अहोरात्र जहाँ सृजन-यज्ञ में रत होकर ऋत् को उत्पन्न कर रहे हैं और ऋत् अवस्थित भी हो रहे हैं। असंख्य जीव-सृष्टि कहाँ से आकर कहाँ चली जा रही है? निखिल सृष्टि में ही स्थित हमारी पृथ्वी भी है। सुन्दर संतरे के समान रसभरी हमारी पृथ्वी।

बुद्धि अकुलाहट से भरा प्रश्न करती है-इस दुःखों और संघर्षों से भरी सृष्टि के निर्माण के कारण-कार्य का वास्तव क्या है ? जिसमें ‘घिक जीवन को जो पाता ही आया विरोध’ की स्थिति पैदा होती रहती है। हृदय करुणा-कलित होकर पूछता है-यह किसकी करुणा कण-कण में पत्र-पत्र पर ज्योतित हो रही है ? यह कौन ‘मातः दशभुजा, विश्व-ज्योति’ दसों दिशाओं में स्थित-उपस्थित हो रही है ? बुद्धि और हृदय दोनों सम आसन पर बैठकर संचित त्रिकुटी पर ध्यानस्थ होकर स्मितहास के साथ प्रश्नाकुल होते हैं-यह किसका आनन्दमय लीलाभाव अखिल सृष्टि में क्षण-क्षण गतिमान हो रहा है ? आनन्द का स्रोत कौन है ? कौन अपने आनन्द के लिए स्वयं का आनन्दमय विस्तार करता है ? प्रज्ञा के पंख नभ की नीलिमा म विलीन हो जाना चाहते हैं। वह खोजना चाहती है-नाद से उत्पन्न बिन्दु को। वह जानना चाहती है-अक्षर महेश्वर को। वह समझना चाहती है-तम के पार भास्वर सत्य को। वह पाना चाहती है-‘सत्य, सच्चिदानन्द रूप, विश्राम धाम को’।

क्या सम्बोधन दें उसे ? ऊँ , प्रणव, ब्रह्म, शिव आदि-आदि कह देने से भी मन नहीं भरता। ॐ से शिव तक चिद् शक्ति का विलास है या शिव ही
अनादि है। ॐ से भी पहले और परे यह चिद् शक्ति किस रूप-स्वरूप में रहती है; बिनु अनभै के कैसे-कुछ ठोस कहा जा सकता है ? ‘न सन्न चासच्छिव एव केवलः’ । इस वेदवाक्य का अर्थ है कि सृष्टि के पूर्व न सत् ही था और न असत्। केवल शिव था। ब्रह्म का वर्णन करते हुए वेद कहता है-‘ये भूत जिससे पैदा होते हैं; जन्म पाकर जिसके कारण जीवित रहते हैं, नष्ट होकर जिसमें प्रविष्ट हो जाते हैं, वही जिज्ञासा के योग्य है और वही ब्रह्म है’-
यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते येन जातानि जीवन्ति,
यत् प्रयन्त्यभिसंविशन्ति तद्विजिज्ञासस्व, तद् ब्रह्म।

श्रुति कहती है कि सृष्टि के पूर्व काल में सत् और असत् दोनों ही नहीं थे, केवल शिव था। सत् चेतन वस्तु को कहते हैं और असत् जड वस्तु को कहते हैं। इस संसार में दो ही तरह की वस्तुएँ हैं-चेतन और अचेतन। ये दोनों अस्तित्व में नहीं थे, तब शिव ही था। अस्तु सद्-असद् की उत्पत्ति के पूर्व शिव था। तब शिव ही जगत् की उत्पत्ति का कारण होना चाहिए। सत् उसको कहते हैं, जो सदा रहता है। असत् उसको कहते हैं, जो परिणाम के कारण नाना कालों में नाना रूप धारण करता है। चेतन अपरिणामी होने से सदा एक रूप है। वह सत् कहलाता है। अचेतन परिणामी होने से नाना रूप है। वह असत् कहा जाता है। जिस समय ये दोनों नहीं होते, वही सृष्टि-पूर्व का काल है। उस समय जो सत्ता रहती है, वही सृष्टि का कारण है। ‘सन्न चासत्’। इस काल में केवल शिव की सत्ता ही रहती है। अतः वही सृष्टि का कारण है। वेदान्त ब्रह्म को जगत का कारण बताते हैं। ‘शिव शब्द शुभतम या श्रेयस्कर वस्तु का वाचक है। ब्रह्म सर्व शुभकारी या सर्व श्रेयस्कारी है। अतः ‘शिव’ शब्द ब्रह्मवाचक भी है। ब्रह्म ही शिव है। इस तरह शिव को सृष्टि की उत्पत्ति का कारक मानने वाली मान्यता की संगति हो जाती है।

अनादि-अज-अक्षर ब्रह्म के तीन रूप माने गये हैं-‘एका मूर्तिस्त्रयो देवा ब्रह्माविष्णुमहेष्वराः’। ब्रह्मा, विष्णु और शिव एक ही हैं। एक ही अक्षर पुरुष के तीन स्वरूप हैं। एक ही शक्ति के तीन रूपान्तरण हैं। एक ही बिन्दु पर तीनों शक्तियाँ रहती हैं किन्तु कार्यवश स्वरूप भेद और स्थान भेद होता रहता है। चेतन जगत में इन शक्तियों का स्थान भेद स्पष्ट है। चेतन प्राणियों में प्रतिष्ठा बल मध्य में, गति बल नीचे और अगति बल ऊपर रहते हैं। यथा-मनुष्य शरीर के अन्तर्गत हृदय-कमल में ब्रह्मा का, नाभि में विष्णु का तथा मस्तक पर शिव का आसन या वास माना गया है। मनुष्य शरीर पार्थिव है। पृथ्वी से जो प्राण मानव शरीर में आता है, वह शरीर के अधोभाग से ही आता है। अतः आदान शक्ति के अधिष्ठाता विष्णु की स्थिति नाभि में ही कही गयी है। उत्क्रमण उससे विपरीत अर्थात् उर्ध्व दिशा में होना सिद्ध है। महेश्वर की स्थिति शरीर के शिरोभाग में मानी जाती है। सम्पूर्ण शरीर की प्रतिष्ठा और अस्तित्व हृदय से है। हृदय में ही एक प्रकार की स्फुरणशील तिलमात्र ज्योति अवस्थित रहती है। वहीं से सम्पूर्ण शरीर को चेतना मिलती है। अतः ब्रह्मा का आसन-स्थान हृदय है। सन्ध्योपासना में इन्हीं स्थानों में इन तीनों देवताओं का ध्यान होता है। ‘राम की शक्तिपूजा’ में युद्ध से लौटकर वानर-भालू वीर ‘संध्या-वंदन विधान’ करने सरोवर तट पर जाते हैं। शिव की स्थिति मस्तक पर है-श्री दुर्गा की त्वरित उदित छवि में ‘निराला’ संकेत करते हैं-
हैं दक्षिण में लक्ष्मी, सरस्वती वाम भाग,
दक्षिण गणेश, कार्तिक बायें रण-रंग-राग,
मस्तक पर शंकर। पद पद्मों पर श्रद्धाभर
श्रीराघव हुए प्रणत मन्द-स्वर-वन्दन कर।

शतपथब्राह्मण (५,६,/३/१/१०) में अग्नि को रूद्र कहा गया है-‘अग्निर्वै रूद्रः’। अग्नि का ही रूप रूद्र है। इसके दो रूप हैं-एक घोर दूसरा शिव। अग्नि का जो रूप उपद्रावक, रोगप्रद, विध्वंसक है, उसे ‘घोररूद्र’ कहते हैं और जो लभप्रद, रोगनिवारक, रक्षक है-वह शिव रूप है। ‘घोररूद्र’ से दूर रहने, बचने की चेष्टा की जाती है। ‘शिवरूद्र’ की उपासना की जाती है। अग्नि में जितना ‘सोम-सम्बन्ध’ है, वह सर्जनशक्ति का कल्याणक आधार है। रूद्र ग्यारह माने गये हैं। पार्थिव अग्नि द्युलोक वा स्वर्लोक अर्थात् सूर्यमण्डल तक व्याप्त है। उससे आगे-ऊपर सोममण्डल है। अग्नि की गति ऊपर को और सोम की गति ऊपर से नीचे की ओर रहती हे। अग्नि को ‘शिव’ और सोम को ‘शक्ति’ कहते हैं। ‘सोम’ शब्द उमा से ही बना है। ‘उमया सहितः सोमः’। इसमें शक्ति ‘उमा’ है। शक्तिमान ‘शिव’ हैं। यह तत्व वृहद्जाबालोपनिषद्-ब्राह्मण २ में इस तरह आया है-
अग्निसोमात्मकं विश्वमित्यग्निराचक्षते।
रौद्री घोरा या तैजसी तनूः।
सोमः शक्त्यमृतयमः शक्तिकरी तनूः।

‘इस चराचर जगत के आत्मा अग्नि और सोम हैं। घारे या तेजस रूप रूद्र का शरीर है। अमृतमय शक्तिदायक सोम शक्ति रूप है’। अर्थात् ‘घोरअग्नि’ शिव रूप है। ‘सोमअग्नि’ शक्ति रूप है। विद्या-कला आदि में अमृतमय सोम रूप शक्ति ही विद्यमान रहती है। स्थूल-सूक्ष्म सर्वत्र सृष्टि में अमृतमय रस (सोम) और तेज (अग्नि) व्याप्त है। अग्नि उर्ध्वशक्तिमय होकर सोमरूप हो जाती है और सोम अधःशक्तिमय होकर अग्नि बन जाता है। इन दोनों के सम्पुट में यह विश्व अपनी संज्ञा पाता रहता है। ऊपर जाती हुई अग्नि अपनी आधार शक्ति सोम से पाती है और नीचे आता हुआ सोम शिव की ही शक्ति कहाता है। बिना शिव के आधार के वह भी नहीं रह सकता। शिव शक्तिमय है और शक्ति शिवमय। शिव और शक्ति जहाँ न हो, सृष्टि का ऐसा कोई कोना नहीं है।

अग्नि से सोम और सोम से अग्नि ऊर्जस्वित होते हैं; अतः दोनों एक ही तत्त्व हैं। शिव और शक्ति अभेद है। अर्धनारीश्वर रूप शिव का यह प्रकट करता है कि शिव और पार्वती मिलकर एक विग्रह है। उमा शिव की अर्धांगिनी है। अग्नि पुरुष और सोम स्त्री माना गया है। लोकक्रम में सोम ऊपर रहता है, इससे शिव के वक्षःस्थल पर खडी हुई शक्ति की उपासना होती है। शिव ज्ञान स्वरूप और तेज स्वरूप हैं। शक्ति क्रिया या बल स्वरूप है। यह इच्छा का परिणाम है। क्रिया या बल, ज्ञान या तेज के बल पर ही खडा रह सकता है। इसलिए भगवती शिव के वक्षस्थल पर चरण धरे हुए है। ज्ञान-इच्छा-कर्म की युति में ज्ञान की इच्छा तब ही सर्जनाकार धारण करती है, जब क्रिया की जाती है। बिना क्रिया के ज्ञान स्फूर्त नहीं हो सकता है। वह ‘शव’ है। शक्ति की क्रियमाणता ही ‘शव’ को शिव बनाती है। शिव विश्वरूप-विराटस्वरूप है। उस पर चिद्कलारूपा परमाप्रकृति शक्तिरूपा भगवती खडी है। शिव का ‘विश्व’ रूप ‘ब्रह्म सत्य’ कहाता है। यह सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड ईश्वर का शरीर माना जाता है। मुण्डोपनिषद (२/१/४) कहती है-‘अग्नि जिसका मस्तक है। चन्द्रमा सूर्य दोनों नेत्र हैं। दिशाएँ स्तोत्र हैं। वेद वाणी है। विश्वव्यापी वायु प्राण रूप में हृदय में है। पृथ्वी पादरूप है। यह सब भूतों का अन्तरात्मा है’। ‘निराला’ कहते हैं-‘अम्बर में हुए दिगम्बर अर्चित शशि-शेखर’।

राम विष्णु के अवतार हैं। वे धर्म रूप हैं। राम का रूप धर्म-विग्रह ही है। धर्म की स्थापना और मर्यादामय लीला के लिए विष्णु का रामावतार त्रेता युग में होता है। ब्रह्मा, विष्णु, शिव एक ही अक्षर-?हेश्वर की भिन्न-भिन्न कला-संज्ञाएँ हैं। ब्रह्मा, विष्णु और शिव तीनों अक्षर कलाओं ?? सृष्टि ‘महेश्वर’ ही है। उत्पत्ति, स्थिति और लय की समष्टि-क्रियाएँ एक ही तत्व की तीन अलग-अलग नाम-रूप कलाएँ करती हैं। हैं ये तीनों एक और अभेद्य। परमशक्ति जब मायारूप से असीम को ससीम कर लेती है, तब अव्यय पुरुष का प्राकट्य होता है। अव्यय पुरुष की पाँच-कलाएँ हैं-वाक, प्राण, मन, विज्ञान और आनन्द। विष्णु अपनी इच्छाशक्ति से इन पाँचों कोषों के साथ बारह कलाओं से युक्त होकर राम के रूप में प्रकट होते हैं और अपनी मर्यादा गाथा के माध्यम से ‘नैसर्गिक ऋत्’ को स्थापित करते हैं। अतः राम विष्णु के अंश हैं। विष्णु और शिव एक अखण्ड-अव्यक्त सत्ता की ही पृथक-पृथक क्रियात्मक शक्तियाँ हैं। अतः प्रकारान्तर से राम और शिव भी एक ही अक्षर पुरुष के दो लीलावपु हैं। ‘हरि’ और ‘हर’ दोनों शब्द एक ही ‘हृ’ धातु से उत्पन्न हैं। अतः दोनों की मूल धातु (प्रकृति) एक है। केवल प्रत्यय अलग-अलग हैं। ‘शिावस्य हृदयं विष्णुर्विष्णोस्तु हृदयं शिवः’ दोनों एक-दूसरे के पूजक-पूज्य हैं। गोस्वामी तुलसीदास लिखते हैं-
शिव बैरी मम दास कहावा, सो नर सपनेहुँ मोहि न भावा।
शंकर प्रिय, मम द्रोही, शिव द्रोही मम दास।
सो नर करहिं कल्प भरि, घोर नरक महुँ वास।।
मंगल भवन अमंगल हारी, उमा सहित जेहि जपत पुरारी।

राम भानुकुल भूषण हैं। वे सूर्य वंश के वंशज हैं। सूर्य ‘ऋत्’ का देवता है। ‘ऋत्’ प्रकृति का अनुशासन भी है और धर्म भी है। ऋत् के अधीन जब मनुष्य समाज आचरण करता है, तब वह ‘धर्म’ का स्वरूप ले लेता है। इस प्रकार ‘राम’ एक ओर ‘नैसर्गिक ऋत्’ से संपर्कित है और दूसरी ओर मानव समाज आचरित धर्म के संस्थापक भी हैं। राम एक ओर परात्पर ब्रह्म भी हैं और दशरथ-सुत भी हैं। ‘सीता’ आदि शक्ति जग-जननी भी हैं और वे जानकी तथा राम की भार्या भी हैं। जनक-सुता जग-जननी जानकी, अतिषय प्रिय करुणानिधान की। राम की शक्तिपूजा में राम-प्रिया सीता के उद्धार के लिए पुरुषार्थी और प्रिया-उद्धारक मन कभी हारा नहीं। कभी थका नहीं। ‘जानकी! हाय उद्धार प्रिया का न हो सका! वह एक और मन रहा राम का जो न थका। जो नहीं जानता दैन्य, नहीं जानता विनय, कर गया भेद वह मायावरण प्राप्त कर जय’ । शक्ति की ‘मौलिक कल्पना’ और ‘आराधन का दृढ आराधन से उत्तर’ देने के पुरुषार्थ का यह सात्त्विक रूप है। राम अपने सौन्दर्य और शील से शक्ति का आह्वान कर धर्म की सम्पूर्णता और मानव की मर्यादा की विभूति बन जाते हैं।

अंजनी-सुत हनुमान राम के परम भक्त हैं। पवनपुत्र का सत्संगी रूप बडा मनभावन है। वे कनक भूधराकार भी हैं। वे अतुलित बलधामं, हेमशैलाभदेहं, ज्ञानिनाम अग्रगण्यम् हैं। वे सकल गुण निधानं, वानरयूथ मुख्यम् हैं। रघुपति के प्रिय भक्त हैं। दो धुवीय वहि्न धक-धक कर प्रकट होती है। परम पराक्रम और प्रशांत शांति एक ही जीवन-वपु में संचरित-समाहित है। राम-भक्त हनुमान एकादश रूद्र माने जाते हैं। शिव से ही अग्नि और सोम की उत्पत्ति है। अग्नि ही रूद्र है। अग्नि की तीन अवस्थाएँ होती हैं-अग्नि, वायु और आदित्य। अग्नि के सहचर आठ वसु हैं। वायु के सहचर ‘एकादश रूद्र’ हैं। आदित्य के सहचर ‘द्वादस आदित्य’ हैं। अतः अग्नि आठ रूपों में, वायु ग्यारह रूपों में और आदित्य बारह रूपों में सृष्टि में व्याप्त हैं। ‘सोम’ की भी तीन अवस्थाएँ हैं-सूक्ष्म दशा में ‘सोम’, किंचित् घन होने पर ‘वायु’ और अधिक घन होने पर ‘अप्’ कहा जाता है। सूर्य से ऊपर का परमेष्ठि मण्डल ‘अप्लोक’ कहलाता है। अग्नि की अवस्था का वायु ‘आग्नेय वायु’ और सोम की अवस्था का वायु ‘सोमवायु’ कहा जाता है। पृथ्वी और सूर्य के मध्य में जो अन्तरिक्ष है, उसमें आग्नेय वायु प्रसरणशील रहता है। सूर्य से ऊपर परमेष्ठि मण्डल तक ‘सौम्य वायु’ का प्रसार है। यही आग्नेय वायु भौतिक वायु रख और भौतिक अग्नि को उत्पन्न करता है। श्रुति में कहा गया है-‘मरुतो रूद्रपुत्रासः’। मरुत रूद्र के पुत्र हैं।
राम शिव के आराध्य हैं। शिव निरंतर राम को जपते हैं। हनुमान एकादश रूद्र हैं। शिव से अग्नि, अग्नि से रूद्र, रूद्र से मरुत, मरुत से हनुमान का सम्बन्ध है।

आग्नेय वायु या अग्नि रूद्र या घोर रूद्रका निवास अन्तरिक्ष में है। राम के नेत्रों से आँसू टफ और वे आँसू (युग) ‘अस्ति-नास्ति’ के एक रूप-गु ण-गण अनिन्द्य युगल चरणों पर गिरे। उन्हें देख पवनपुत्र का ‘आग्नेयवायु’ रूप साकार हो उठा। शिव अपने आराध्य को संकट में नहीं पा सकते। मारुतसुत शिव का ही एकादश अंश हैं। वे उनचास पवन का साहचर्य पाकर रूद्र से रौद्र रूप में दिग्विजय-अर्थ प्रतिपल सक्षम और समर्थ बढते जाते हैं। ‘वज्रांग तेजघन बना पवन को, महाकाश पहुँचा, एकादश रूद्र क्षुब्ध कर अट्टहास’। शिव देवी को मंदस्वर में सचेत करते हैं। बात और खुलती है। सत्य और साफ-साफ उजागर होता है कि यह वानर नहीं है, यह अपना ही तेज है। ‘सम्वरो देवी, निज तेज, नहीं वानर यह’ देवी भगवती से शिव अद्भुत् बात कहते हैं-यह राम की अर्चना ही मूर्तिमान अक्षय-शरीर रूप महाकाश हो गयी है। शिव-शक्ति, राम-हनुमान ज्योर्तिमय महानिलय के मध्य शतशीर्षा, सहस्राक्ष, शतेषुधि रूप में स्थित हैं। रघुनन्दन-कूजित महावीर के शत-वायु-वेग-बल को अनुमान कर वास्तविक मूल स्वरूप स्फुरित कर देते हैं-
चिर ब्रह्मचर्य-रत ये एकादश रूद्र, धन्य,
मर्यादा-पुरुषोत्तम के सर्वोत्तम, अनन्य।


इतना कुछ कहने के बाद भी उस अक्षर महेश्वर के चारों रूपों-शिव-शक्ति, राम-हनुमान के रूप-गुण का वर्णन पार्थिव जिह्वा और मोह विजडित बुद्धि से कैसे किया जा सकता है। अतः यही विनय है-
आवाहनं न जानामि, नैव, जानामि पूजनम्।
विसर्जनं न जानामि, क्षम्यतां परमेश्वरः।।

१ नवंबर २०२०

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