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ललित निबंध

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कहाँ आ गयी कोयल
- अजयेन्द्रनाथ त्रिवेदी


वसंत की अग्रदूत कोयल की कूक कानों में जैसे अमृत घोल देती है, हृदय में अनिर्वचनीय आह्लाद भर देती है, मन-वीणा उसके स्वर में स्वर मिलाती स्वयमेव झंकृत हो उठती है और कांत-कल्पना को जैसे पंख लग जाते हैं। किंतु आज उसी कोयल की कूक से मेरे हृदय में हूक उठ रही है, जीवन का उद्यान उजड़ गया है, उसकी वृक्ष-वल्लरियाँ मृतप्राय हो चली हैं, क्योंकि बुढ़ापे ने मेरे तारुण्य को लील लिया है और अब इस स्थाणु (ठूँठ) के पल्लवित होने की आशा निश्शेष हो गई है अथवा मेरे मन में अवसाद ने स्थायी डेरा डाल दिया है, जिससे मेरी सोच नकारात्मक हो गई है या मेरे प्रेम का आलंबन मेरी जीवनसंगिनी सदा के लिए मेरा साथ छोड़कर चली गई है? नहीं, ऐसी कोई बात नहीं है। यद्यपि मैंने अपने जीवन के पचपन बसंत पार कर लिये हैं, किंतु बुढ़ापा मुझसे कोसों दूर है, क्योंकि महाविद्यालय का अध्यापक होने के कारण ऊर्जावान तरुणों का अकुंठ साहचर्य मुझे न तो बुढ़ापे का एहसास होने देता है और न मुझ पर अवसाद की छाया ही पड़ने देता है, और प्रभु-कृपा से सहचरी का सतत सान्निध्य तो है ही।

आज अवकाश का दिन है न। इसलिए मैं सांध्य-भ्रमण के लिए काफी पहले घर से निकल पड़ा हूँ। यहाँ चारों ओर हरे-भरे खेतों की मेड़ों पर बबूल के अगणित पेड़ों की कतारें हैं। उन्हीं के झुरमुट में बैठी कूक रही है यह कोयल! आम्र-मंजरियों की मदिर-गंध से मतवाली होकर रसाल वन (अमराइयों) में कूकनेवाली यह कोयल आज बबूल-वन में कैसे भटक गई? क्या इसका यहाँ कूकना उचित है?

नव रसाल वन विहरन सीला
सेह कि कोकिल विपिन करीला?

कौआ पक्षियों में सबसे चालाक माना जाता है। हमारे अंचल में यह कहावत प्रसिद्ध है—‘पक्षियों में कौआ और आदमियों में नौआ, सबसे चतुर होते हैं।’ किंतु संस्कृत साहित्य कुछ और कहता है। उसमें कवि-प्रसिद्धि है कि कोयल अपने अंडों को से नहीं सकती, इसलिए वह चुपके से उन्हें कौए के घोंसले में रख आती है और कौवी उनको सेकर बच्चे बाहर निकालती है। अपने और कोयल के बच्चों के रंग में समानता (दोनों काले) होने से वह भी धोखा खा जाती है और कौआ दंपती उन बच्चों का समान भाव से पोषण करते हैं। इसीलिए कोयल को संस्कृत में ‘परभृत् (दूसरों के द्वारा पाली-पोषी गई) कहा जाता है। इस प्रकार कोयल कौए से अधिक चालाक सिद्ध होती है। रंग की समानता के कारण दोनों को अलग-अलग पहचान पाना संभव नहीं। वसंत आने पर आम्र-मंजरियों की मदिर-गंध से मतवाली होकर जब कोयल कूक उठती है, तभी ‘काँव-काँव’ करनेवाले कौए से उसकी अलग पहचान हो पाती है—

काकः कृष्णः पिकः कृष्णः को भेदः पिक काकयोः।
वसन्तकाले संप्राप्ते काकः काकः पिकः पिकः॥

समाज गुणों का पूजक है। कोयल की ‘कुहू-कुहू’ बरबस हमारा ध्यान खींच लेती है, हमारे हृदय में आह्लाद भर देती है, अनुराग जगा देती है तथा कौए की ‘काँव-काँव’ हमें उत्तेजित कर देती है तथा उसे कंकड़ मारकर उड़ाने को बाध्य कर देती है। वाणी का कैसा प्रभाव है! और कितना आकर्षण और सम्मोहन या विकर्षण और वितृष्णा है इसमें—

कोयल रत्न न बाँटती, काक न छीने वित्त।
पिक-रव प्रमुदित काक-स्व, खिन्न करे जन-चित्त॥

आम्रवन को छोड़कर करील-वन में क्यों भटक रही है यह कोयल? जहाँ चारों ओर असंख्य कौओं की ‘काँव-काँव’ हो, वहाँ अकेली कोयल का कूकना क्या उचित है? पंडितराज जगन्नाथ ने ऐसी ही एक कोयल को सावधान किया था—कोयल इस सघन वन में तुम अकेली हो। इसलिए भूलकर भी मत कूकना, क्योंकि तुम्हारे आसपास कौए ‘काँव-काँव’ करते मँडरा रहे हैं। रंग-रूप में समान होने और चुप रहने के कारण तुम्हें ये अपनी बिरादरी का समझ रहे हैं। यदि तुम कूकोगी तो पहचान ली जाओगी। फिर तुम्हारी जान की खैर नहीं—

एकस्त्वं गहनेऽस्मिन् कोकिल न कलं कदाचिदपि कुर्याः।
साजात्य-शंकयाऽमी न त्वां निघ्नन्ति निर्दयाः काकाः॥

वर्षा ऋतु प्रारंभ होने पर कोयल को चुप देखकर तुलसीदास ने कहा था—
तुलसी पावस के समै धरी कोकिला मौन।
अब तो दादुर बोलिहैं हमें पूछिहै कौन?

जहाँ चारों ओर दुर्गुणियों की भीड़ लगी हो, मौकापरस्त गिद्ध मानवता के शव को नोंच-नोंचकर खा रहे हों, कौओं की काँव-काँव मची हो, गीदड़ उल्लसित होकर ‘हुआँ-हुआँ’ कर रहे हों, गधों की ‘रैंक’ वातावरण में गूँज रही हो, कुत्ते स्वामियों के सामने दुम हिलाते और औरों को देखकर भौंक रहे हों, वहाँ क्या मायने रखती है कोयल की यह कूक? नक्कारखाने में तूती की आवाज। दूर-दूर तक कहीं कोई आम का पेड़ भी तो नहीं दिखाई दे रहा है। कहीं कोई बगीचा भी तो नहीं है, जिसमें वसंत के अवतरण को देखकर उसके स्वागत में उल्लासपूरित होकर यह कोयल गा उठी हो। कहाँ है इसके मधुरालाप का प्रेरणास्रोत? कौओं के बीच भी इसका निर्भय-निश्शंक, निश्चिंत और उद्दाम जिजीविषा से भरा गीत किस तरह इसके कंठ से स्वयमेव फूट रहा है? यह तो गा रही है और मेरा मन है कि इसके दुर्भाग्य पर रो रहा है। पंडितराज जगन्नाथ भी एक राजहंस की दुर्गति देखकर करुणार्द्र हो उठे थे—

पुरा सरसि मानसे विकचसारसालिस्खलत्—
परागसुरभीकृते पयसि यस्य यातं वयः।
स पल्वलजलेऽधुना मिलदनेकभेकाकुले,
मरालकुलनायकः कथय रे कथं वर्तताम्? (भामिनी विलास)

"जिसने खिले हुए कमलों से, झरते पराग से सुरभित जलवाले मानसरोवर में अपनी प्रारंभिक उम्र सम्मानपूर्वक गुजारी, वही नीर-क्षीर-विवेकी राजहंस आज टर्राते मेंढकों से भरे पोखरों में क्यों आ गया भाई?"

दूसरों की दुरवस्था संवेदनशील कविहृदय को झकझोर देती है, किसी को उच्च स्थान से गिरते देखकर वह हाहाकार कर उठता है। मुक्ता चुगनेवाले, कमलनाल का कलेवा करनेवाले, नीर-क्षीर-विवेकी राजहंस को गंदे जलवाली पोखर में घिनौने घोंघों पर चोंच मारते देखकर अर्थात् विद्वानों और सद्गुणियों को अपनी प्रशस्य सारस्वत साधना से विरत होकर मूर्खों और दुर्गुणियों की सेवा में सन्नद्ध देखकर कवि-शिरोमणि जगन्नाथ का वेदना-विकल होना स्वाभाविक था और कोयल द्वारा कौओं का प्रशस्तिगान या काकत्व ग्रहण भी हमें क्षुब्ध कर देता है। किंतु इस मानिनी कोयल ने तो ऐसा कुछ किया नहीं, अतः इसके लिए क्षोभ का प्रश्न ही नहीं उठता। हाँ, आम्रोद्यान को छोड़कर करील-वन में इसका कूकना मुझे संतप्त अवश्य कर रहा है।

कोयल ने प्रतिकूलताओं और विषमताओं में जीना तो सीख लिया है, अपने आपको समायोजित भी कर लिया है, किंतु अपना पिकत्व छोड़ा नहीं है। पिकत्व के मूल्य पर इसने व्यवस्था से समझौता या उसके सम्मुख आत्मसमर्पण नहीं किया है, इसलिए वह अपनी सहज प्रकृति हंसत्व (नीर-क्षीर-विवेक और मोती चुगना) छोड़कर बकत्व अंगीकार कर लेनेवाले पंडितराज के हंस से निश्चय ही श्रेष्ठ है। प्रतिकूल परिस्थितियों में भी अपने गुणों को बनाए रखना, उनका पोषण और संरक्षण करते रहना तथा प्रतिकूलताओं को अनुकूल बनाने हेतु संपूर्ण शक्ति से प्रयास और उसमें विफल हो जाने पर बिना पराजय स्वीकार किए आत्मलीन होकर अपने गुणों को प्रकट करते हुए सत् की अजेयता का मंत्र-प्रचार करते रहना ही श्रेष्ठता का मापदंड है।

वस्तुतः हम अपनी दृष्टि से ही सृष्टि को देखते हैं। हमारी जैसी दृष्टि होती है, हमें सृष्टि भी वैसी ही दिखाई देती है। सावन के अंधे को हरा-ही-हरा दिखाई देता है। पीलिया के असाध्य रोगी को सबकुछ पीला-ही-पीला नजर आता है। विषण्ण मन सर्वत्र विषाद की छाया देखता है। सुंदर शरीर में भी मक्खी घाव ही ढूँढ़ती है और ऊँट प्रमदवन (विहारोद्यान) में प्रवेश करके भी चित्र-विचित्र पुष्प-राशि के सौंदर्य और सुवास की सर्वथा उपेक्षा करके कँटीली झाडि़याँ ही खोजता फिरता है—‘मृगयते प्रमदवनं प्रविश्य क्रमेलकः कण्टकजालमेव।’ हम या तो छिद्रान्वेषी और दोषदर्शी हो गए हैं अथवा यांत्रिक जीवनजन्य हताशा और कुंठा से उत्पन्न अवसाद ने हमें नकार का चश्मा पहना दिया है। कोयल इससे अछूती और बेखबर है, इसीलिए वह उल्लसित होकर गा रही है और उसका गीत हमारे हृदय में जीने की ललक जगा रहा है, हमारे रोम-रोम में सरसता का संचार कर रहा है। जो प्रतिकूलताओं के कालकूट को पीकर पचा लेते हैं, उन्हीं के कंठ से जिजीविषा की कूक फूटती है, उन्हीं की हृत्तंत्री से जीवन की अजेयता का और सर्वग्रासी मृत्यु से निर्भयता का स्वर-संधान होता है। कौओं से घिरी होने पर भी कोयल तो कूकेगी ही। आम्रोद्यान विनष्ट हो जाएँ तो भी वह करील-वन को ही अपनी मधुर स्वर-लहरियों से गुंजित करेगी, क्योंकि वसंत का उल्लास उसके भीतर से फूटता है, उसके रोम-रोम से झरता है।

समस्त प्रतिकूलताओं के सम्मुख भी जो आत्मसमर्पण नहीं करते, अपितु अपने शौर्य और साहस से उनपर विजय पाते हुए, स्वयं को उन विषमताओं में ढालते हुए मधुमय जीवन के सरस-स्रोत का संधान कर लेते हैं, वे ही महामानव हैं। उन्हीं से समाज को जीवन का सम्यक् मार्गदर्शन मिलता है, जीने का संबल और बल मिलता है। राम का ‘रामत्व’ प्रतिकूलताओं और विषम परिस्थितियों में ही पलता है, अंकुरित, पल्लवित, पुष्पित और फलित होता है। तभी तो लोकनायक तुलसी की अमरवाणी उनकी प्रशस्ति में गूँज उठती है—

प्रसन्नतां या गतभिषेकतस्तथा न मम्ले वनवासदुःखतः।
मुखाम्बुजश्री रघुनन्दनस्य सदास्तु मे मङ्गल-मञ्जुल प्रदा॥

राज्याभिषेक के स्थान पर राम का वनवास वस्तुतः मानवता का विजयाभियान था, आदर्शों का अप्रतिहत उद्दाम प्रवाह था, समाज में शाश्वत जीवन-मूल्यों का सुदृढ़ संस्थापन था। अभिषेक के समाचार से प्रसन्न न होनेवाले और वनवास की त्रासदायक आज्ञा से म्लानमुख न होनेवाले स्थितप्रज्ञ राम ही लोकमंगल का मार्ग प्रशस्त कर सकते हैं। समाज में ‘सत्यं, शिवं, सुंदरम्’ का प्रतिष्ठापन और प्रसार कर सकते हैं। समग्र रामकाव्य वनवासी राम लोक-शिक्षक, लोक-संरक्षक, असदोन्मूलक व्यक्तित्व उनके वनवास से प्रारंभ होता है और समाप्ति के साथ ही संपन्न हो जाता है। कहा जाता है कि राम ने ग्यारह हजार वर्षों तक राज्य किया था। यदि ग्यारह हजार वर्ष को दीर्घता का प्रतीक मान लिया जाए तो राम का लंबे समय तक शासन करना सिद्ध होता है। किंतु कवियों ने उनके चौदह वर्ष के वनवास की अल्पावधि पर जितने विस्तार से प्रकाश डाला है और उसका यशोगान जितनी श्रद्धा के साथ किया है, उसका शतांश भी राजा राम के दीर्घकालीन राज्यत्व के हिस्से में नहीं आया है। रसाल वन में विहार करनेवाली (राजकीय वैभव-विलास में पली-बढ़ी) कोकिल सीता का आदर्श नारीत्व भी करील-वन में ही प्रकट हुआ। वनवासी (सुख-दुःख को समान भाव से स्वीकारने वाले स्थितप्रज्ञ) होकर ही बुद्ध और महावीर ‘भगवान्’ के सर्वोच्च आसन पर विराजमान हुए और क्रूस पर चढ़कर ही प्रभु ईशु ने मानवता की अजेयता और अमरता सिद्ध की। गांधी दरिद्रता का वरण करके ‘दरिद्रनारायण’ बने, ‘राष्ट्रपिता’ कहलाए।

महान् कवि भी वैयक्तिक एवं पारिवारिक विपदाओं का, परिस्थितियों के घात-प्रतिघातों का गरल पीकर लोकमंगल करनेवाला नीलकंठ शिव बन जाता है और तभी उस नर-कोकिल के कंठ से काव्य का सुधा-स्रावी स्रोत फूटता है। जन्म लेते ही ‘अशुभ’ कहकर माता-पिता द्वारा त्यागे गए, रोटी के टुकड़ों के लिए द्वार-द्वार भटकनेवाले और चार चनों में ही चार पुरुषार्थ (धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष) देखनेवाले अनाथ बालक तथा युवावस्था में अपनी प्राणवल्लभा द्वारा प्रेम के बदले धिक्कार भरी फटकार पाकर गृह-त्याग के लिए विवश हो जानेवाले महामना तुलसी के ‘मानस’ से ही लोक-कल्याणकारिणी अमर कविता की गंगा प्रवाहित हुई। जिसके माता-पिता का कुछ भी पता नहीं, ऐसे अनाथ, समाज द्वारा तिरस्कृत और जुलाहे की वृत्ति करनेवाले अपराजेय पुरुष कबीर ही मानवता को अंधकार से प्रकाश की ओर, असत् से सत् की ओर और मृत्यु से अमरता की ओर ले जा सके। जीवन भर अभावों से घिरे रहनेवाले और एक-एक करके अपने जीवन-संबलों, प्रेमालंबनों से वंचित रहनेवाले महाप्राण ‘निराला’ ही वास्तव में ‘शक्ति-पूजा’ कर पाए और राष्ट्र को ‘जागो फिर एक बार’ का जागरण-मंत्र दे सके।

मैं उदास हूँ, किंतु कोयल अभी भी अपनी मौज में मस्त होकर गा रही है। मेरा मन मानव की प्रकृति-विद्वेषी प्रवृत्ति को देखकर खिन्न है, जिसके कारण उद्यान उजड़ रहे हैं, वन कट रहे हैं और नगरीकरण धरती को लीलता जा रहा है। आम्रवन नहीं हैं तो आज कोकिल करील-वन में कूक रही है और कल, जब करील-वन भी नगरीकरण की बलि चढ़ जाएँगे तो यह कहाँ जाकर कूकेगी? किंतु कोयल तो आनेवाले कल से बिलकुल बेखबर है और आज के प्रत्येक पल को समग्र उल्लास के साथ जी लेना ही नहीं चाहती, जी भी रही है। आधुनिक यांत्रिक मानव भी वर्तमान को पूर्ण रूप से भोग लेने का दम भरता है, दावा करता है, किंतु क्या वह सचमुच ऐसा कर पा रहा है? उसका यह मिथ्या दंभ है, प्रदर्शन मात्र है, छलावा है। वास्तव में उसकी दशा तो घनानंद के उस चिरवियोगी की तरह है, जो शायद कभी अल्पावधि के लिए अपने प्रिय का सान्निध्य पा भी ले तो उस संयोगकाल में भी उसे आसन्न वियोग की आशंका संयोग का संपूर्ण सुख भोगने नहीं देती—

अनोखी हिलग दैया, बिछुरे तै मिल्यौ चाहै
मिलेहू पै मारै जारै खरक बिछोह की।

‘जो कुछ मिला है, उससे और अधिक मिल जाए’ की कभी पूरी न होनेवाली तृष्णा (लालसा) और ‘जो मिला है, वह छिन न जाए की आशंका’ उसे अपने वर्तमान के क्षणों को भी चैन से नहीं भोगने दे रही है। यही विकृत-विपथगामी सोच मुझे भी कोयल की स्वर-सुधा का समग्रता से पान नहीं करने दे रही है, अपितु उसमें भी दुरवस्था का संधान करके मन को व्यर्थ संताप दे रही है।

स तु भवति दरिद्रो यस्य तृष्णा विशाला। (भर्तृहरि)

दूसरी ओर सतपुड़ा के घने जंगल में रहनेवाले वनवासियों का यह जीवंत चित्र देखिए—

चार मुरगे चार तीतर, इन वनों के बहुत भीतर
पालकर निश्चिंत बैठे, विजन वन के मध्य पैठे
झोंपड़ी पर फूस डाले, गोंड़ तगड़े और काले।

उनके पास क्या रखा है? फिर भी वे स्वस्थ, हृष्ट-पुष्ट, चिंतामुक्त और प्रसन्न हैं। क्योंकि ‘मनसि परितुष्टे कोऽर्थवान् को दरिद्रः?’ इनका मन परितुष्ट है, इसलिए ये अनागत की चिंता से मुक्त हैं। इसीलिए समग्र अभावग्रस्तता में भी सहज-अकृत्रिम उल्लास उनके हृदय से फूटता है, करील-वन में कूकनेवाली इस कोयल की ही तरह—

जबकि होली पास आती, सरसराती घास गाती
और महुए से लपकती मत्त करती बास आती

गूँज उठते ढोल इनके, गीत इनके बोल इनके। (भवानी प्रसाद मिश्र)
किंतु हम तथाकथित बुद्धिजीवियों केसंपर्क में आकर अपने प्रकृत संतोष और सहज सुख-शांति से ये वंचित होते जा रहे हैं, क्योंकि हम उन्हें उनकी अभावग्रस्तता से परिचित जो करा देते हैं। हमारे संपर्क में आने से पहले वे जानते ही नहीं थे कि वे भूखे हैं, नंगे हैं, बेघरबार हैं, अशिक्षित और शोषित हैं। सचमुच, यह बुद्धिवाद एक भयानक संक्रामक महामारी है, जो सारे संसार को अपनी गिरफ्त में लेता जा रहा है और सर्वग्रासी तृतीय विश्वयुद्ध को आमंत्रण दे रहा है।

कोयल अब ऋतुराज के आगमन की सूचना और उसका संदेश देने कहीं अन्यत्र उड़ी जा रही है और मैं चिंताग्रस्त हुआ बोझिल कदमों से घर की ओर लौट चला हूँ, उस हतवीर्य बुद्धिवादी की तरह, जो समस्याएँ ही खड़ी करना जानता है अथवा आगत-अनागत सभी समस्याओं को बढ़ा-चढ़ाकर देखता है, किंतु उनके समाधान का मार्ग खोज नहीं पाता और अंत में थक-हारकर अपने खोल में सिमट जाता है।

१ मार्च २०१८

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