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ललित निबंध

1

नारी
- भगवत शरण उपाध्याय


"उठ नारी, वह मृतक है जिसके पार्श्व में तू लेटी है। उठ और इस नवोदित को वर, उठ और जीवितों के जगत् में प्रवेश कर।"
- १ -
मैं नारी हूँ-भारतीय नारी। मेरी कहानी अभिशप्त की है। इस कहानी के प्रसार पर वेदना का विस्तार है, रक्त का रंग उस पर चढ़ा है, दुर्भाग्य के कीचड में वह सनी है!

मैं नारी हूँ, पितृसत्तात्मक-युग से पूर्व मातृसत्तात्मक-युग की भारतीय नारी, जिसने वनों का शासन किया, जनों का निग्रह। तब मैं नितान्त नग्नावस्था में गिरि-शिखरों पर कुलांच भरती थी, गुहा-गह्वरों में शयन करती थी, वन-वृक्षों को आपाद-मस्तक नाप लेती थी, तीव्रगतिका नदियों का अवगाहन करती थी। शक्ति-परिचायक मेरे अंगों में तब भारी स्फूर्ति थी, शशक की गति का मैं परिहास करती थी, मृग की कुलांच का तिरस्कार। शूकर को मैं अपने पत्थर के भाले पर तौल लेती थी और सिंह की लटों से मैं अपने बच्चों के झूले बाँधती थी। सिंहवाहिनी थी तब मैं, काल्पनिक दुर्गा नहीं, प्रयोग-सिद्ध चण्डी।

आज सिंह का गर्जन आतंक का प्रतीक है। तब मेरी हुंकार वन के मार्ग को प्राणहीन कर देती थी। सिंह और सुअर मेरी राह छोड़ हट जाते, हाथी मस्तक झुका लेते, गेंडे मुग्ध मुझे देखते रह जाते। ...और पुरुष? पुरुष मेरा दास था, मेरे श्रम से उपार्जित आहार का आश्रित। मेरे अंग-अंग में शक्ति बसती थी, रोम-रोम में स्पन्दन था। शिराएँ रज्जु की भाँति स्कंध पर, वृक्ष पर, भुजाओं पर, जानुओं के विस्तार में जैसे उलझी खिंची रहतीं। शिकार से लौट कंधों पर मृग और सुअर लाद जब मैं उछलती-कूदती पसीने से लथपथ उपत्यिका में उतरती तब मेरा परिवार मुझे घेर लेता, मेरा गृहस्थ नर, मेरी शक्ति-मण्डित बालक-बालिकाएँ। नर तब मेरा मुँह ताकता, मेरी भाव-भंगिमा देखता, मेरे तेवरों से काँप उठता। तब मैं जब चाहती, उसे बदल सकती थी। उसके कालभुक्त जर्जर गात से मेरी अभितृप्ति जब न होती, मैं तत्काल उसे उसके भाग्य पर छोड अन्यत्र चली जाती, तरुणायत पुत्र को उसका स्थानापन्न करती और अपनी स्थिति कमजोर देखते ही शक्तिमुखी कन्या के मार्ग से हट जाती, पर हट आसानी से न जाती। कन्या स्वाभाविक उत्तराधिकारिणी थी। मेरे प्रौढ मांसल तन को वह अपलक देखती, "क्या इस शक्ति-परिचय का अंत न होगा?"

वह मेरी शक्ति के मध्याह्न के बाद का अपराह्न था और मैं अपनी शक्तिमुखी कन्या के विचारों को आँकती-समझती। माँ के प्रौढ़ मांसल तन को कभी मैंने भी इसी आँख से देखा-निहारा था। अक्सर तब मेरा अंत संघर्ष में होता, माँ-बेटी के संघर्ष में। उस काल यदि कोई अभागा था तो वह नर-दास जिसके लिए इस बदलते शक्ति-शासन में कोई अपनापन न था। उसका गृहालु जीवन जैसा पहले कार्यबहुल था, वैसा ही अब भी बना रहा - दब्बू, महत्त्वहीन, आकांक्षारहित, भविष्यहीन।

- २ -
सहस्राब्दियों बाद -

जीवन बदल गया था, वन बदल गये थे, पर्वत और जल-स्रोत बदल गये थे। मैं स्वयं अपने को पहिचान न सकी। मैं अब उसकी गुलाम थी जो कभी मेरा गुलाम रह चुका था - उस कभी के दब्बू, महत्त्वहीन, आकांक्षारहित, भविष्यहीन नर की। अब वह भविष्यहीन न था। सूर्य की भाँति अब वह पूर्व क्षितिज पर आरूढ़ था और उसकी शक्ति की अरुणाभ उषा कब की पूर्वाकाश में नाच चुकी थी। अब उसकी शक्ति गगन की मूर्धा की ओर अत्यन्त तीव्र गति से उठ चली थी।
दयनीय वह नहीं, दयनीय मैं थी। अब युग मातृसत्तात्मक नहीं, पितृसत्तात्मक था। नर अब साभिमान गृह का शासन करता था। अब एक गृह था, गृहों में कुल का निवास था, कुलों का एक ग्राम था और मैं सबकी चेरी थी, गृह की, कुल की, ग्राम की।

परन्तु अभी मैं अविवाहित थी, रखेली। रख ली जाती थी और रख लेना ही मेरी शक्ति की नाप थी। हाँ, कभी-कभी मैं अपनी शक्ति का प्रदर्शन करती, अपनी मायाविनी भीषण शक्ति का और तब शक्तिमान नर के आश्रय में भाग जाती - दृढ़तर वृक्ष की घनी छाया में विश्राम करती। अब अनेक कबीले थे, अनेक जन। इन कबीलों में, जनों में, युद्ध होता - मेरे लिए, चरागाहों के लिए, खेतों के लिए। युद्ध होता - साधारण युद्ध नहीं, ऐसा जो गाँव-के-गाँव नष्ट कर देता। दबे पाँव, रात के अँधेरे में, कबीले वाले आते। नर जो अब अपने को मर्द कहने लगे थे - चोर, छिप कर चोट करने वाले मर्द। मुझे याद है, मैंने अपने पूर्व के शक्तिपुंज जीवन में कभी इस प्रकार की चौरवृत्ति न अपनायी थी।

मर्द आते, रात के अँधेरे में। हमला करते, गाँव-का-गाँव उजड जाता, लुट जाता, भस्म हो जाता। हार कर जीवित रहना तब सम्भव न था। लड़ाई शेर और सुअर की थी जो लड़ कर मर जाते हैं। मर्द मर जाते, गाँव के बाहर आग की लपटें आसमान चूमने लगतीं और विजेता वृद्धों और बालकों को उन लपटों में स्वाहा कर देते। यदि कोई बच पाती तो मुझ जैसी। नारी बच ही नहीं जाती थी, बचायी जाती थी, उसी प्रकार जैसे पशु। मर्द का यह शासन था, उसी का न्याय था और उसके न्याय में जीवन नहीं, मृत्यु थी, शान्ति नहीं, अनुताप था। नारी की उसे आवश्यकता थी, अतीव आवश्यकता थी और वह उसे बचाता था। जैसे वह शत्रु के पशुओं को बचाता था, वैसे ही वह उसे बचाता था, नारी को। पशुओं के श्रम की, उनके दूध की, उनके शावकों की उसे आवश्यकता थी। मर्द उन्हें पकड़ ले जाता था। नारियों के श्रम की, उनके दूध की, उनके शावकों की भी, अगले युद्धों के लिए, उसे आवश्यकता थी। मर्द उन्हें भी पकड़ ले जाता था।

मर्द का काम अब एक से न चलता था, उसकी परितृप्ति का साधन अब अनेक नारियों को बनना पडता था और उसके समूह में जो एक प्रधान होता, मुख्य, अरे वह तो दैत्य था - उसकी अतृप्ति की सीमा न थी। नारी की अनवरत शृंखला उसके भोग की परिधि बाँधने का प्रयत्न करती और कड़ी-कड़ी हो रहती, पर उसका प्रयास निष्फल होता। उसकी तृष्णा का अब असीम उदय हो चला था जिसका उसके उत्तरकालीन ‘महापुरुषों’ ने अनन्त घटाटोप बाँधा। वह नर का परिवार न था, वास्तव में वह तब नारी का परिवार था, उसकी संख्या की अनेकता का, उसके अश्रुसिक्त व्यवसाय का, उसके घृणित अवांछित व्यभिचार-व्यापार का। उसकी ‘इहा’ का न कोई अर्थ था, न अनिच्छा की कोई परवाह थी। वह नर की वासना की अभितृप्ति मात्र करती। परन्तु इसकी भी एक सीमा थी। नर के अलसित अर्द्ध-निमीलित क्षणिक स्वप्निल स्नेह की भाजन भी वह अपने शरीर के सम्मोहक व्यापार से ही बन सकती थी और इस शरीर के सम्मोहक व्यापार की भी परिधि होती है। काल का परिमाण उसमें विशेष भाग पाता है। रूप-रस-गंध का विलास जब तक उस शरीर से सधता, तभी तक वह क्षणभंगुर सुख-व्यंग्य भी प्राप्य होता, वरन् फिर उसकी गति भी निर्दुग्धा गौ की हो जाती। अन्तर केवल इतना रह जाता कि गाय बिना काम किये खूँटे पर घास खाती या मैदान में चरती, परन्तु मैं तब केवल श्रम करती, जर्जर शरीर से।

- ३ -

मैं उपेक्षिता, सर्वहारा, निरादि्रता, नारी!
मैंने एक कदम और लिया। खन्दक की गहराइयाँ नीचे खुलती जा रही थीं। उनमें तल न था और मैं अधोमुखी हो चली थी। फिर भी कुछ नवीनताओं के इस स्थिति में दर्शन हुए। एक नये श्रमिक का मेरे क्षेत्र्-वृत्त में प्रादुर्भाव हुआ। वह नर था - मर्द, पर उसमें नरत्व या मर्दानगी का कोई चिह्न न था। शायद पहले कभी वह नर रहा हो, मर्द भी रहा हो, जब अब उसमें और पशु में कोई अंतर न था। मेरी प्रशंसा इसमें थी कि नर-देवता के विलास में अविराम अंग-संचालन में रस घोलूँ, उस नराकृत मर्द का वैभव इसमें था कि श्रम में वह पशु को नीचा दिखा दे। पीठ पर कोड़े का प्रभाव कितना क्षणिक है, यदि वह पशु की भाँति त्वचा कंपा कर दिखा देता और व्यवस्थित कर्म में रत हो जाता तो उसका स्थान निश्चय स्वविधों में आगे था। इस नवागंतुक को अपने परिवार में आया देख कुछ अभितृप्ति हुई। वह दो कारणों से। एक तो यह कि उसने गृहकार्य में हाथ बँटाया और दूसरे यह कि झेलने की परम्परा में एक और प्राणी की वृद्धि हुई। यह वृद्धि कैसे हुई?

अब कबीला या जन गाँव पर आक्रमण कर उसके जनबल को सर्वथा नष्ट कर देता था। वृद्ध और बालक तो भार होते थे। वृद्ध तो सर्वथा और बालक को खिला-पिला कर बछडे की भाँति बड़ा करना पड़ता था। इससे उनको भी आग की लपटों में डाल दिया जाता था। परन्तु युद्ध के तरुण बचा लिये जाते और शृंखला में बँध कर वे विजेता जन के दास बनते और हमारे प्रहार का भी जब-तब वे ही आधार बनते। अभी मेरा विवाह नहीं होता था, फिर भी मैं प्रायः एक ही व्यक्ति की अभितृप्ति का साधन बनती और अब एक और विपत्ति का सामना करना पड़ा। एक नयी जाति ने हमारे देश पर आक्रमण किया। उस जाति का नाम उसके आचरण पर प्रभूत व्यंग्य था। वह अपने को ‘आर्य’ कहती थी और संसार के जनों में अपने को सबसे उन्नत मानती थी। परन्तु उसका व्यवहार मैंने अपनी आँखों से देखा, उसने हमारे अच्छे-बुरे मर्दों की सभ्यता तोड़ दी।

समय की प्रगति ने हमारे पुरुषों को मेधा दी थी और उन्होंने सुन्दर नगरों के निर्माण से एक सभ्यता को जन्म दिया था, परन्तु नवागन्तुकों ने उसे कुचल डाला। वे नितान्त रिक्त-हस्त आये थे। उनका तो गान भी यही था - खुले हाथ आये हैं, खुले हाथ जायेंगे। निश्चय ही वे दरिद्र थे। घोड़े की पीठ पर अपना घर लिये आये और हमारे पुरुषों पर उन्होंने बाणों की वर्षा की, अपने भयावह दाढ़ों वाले कुत्तों को ललकारा। हमने स्वयं उनकी सेनाओं का सामना किया; परन्तु उनकी शक्ति, उनका पौरुष, उनका युद्ध-कौशल, सभी हमारे पुरुषों से कहीं बढकर थे और उन्होंने हमारी सभ्यता नष्ट कर अपनी सभ्यता उसके स्थान पर खड़ी की। वस्तुतः मुझे इसका कुछ अफसोस नहीं कि कौन हारा, कौन जीता, क्योंकि मेरे लिए दोनों ही प्रभु थे, स्वामी। फिर भी आगंतुकों के व्यवहार से मेरा दिल हिल गया, रोम-रोम काँप उठा। मेरे लिए वे विध्वंस का प्रतीक होकर आये।

अब तक मैं पिसती थी, दिन-रात श्रम की शृंखला में बँधी रहती थी। फिर भी जीवन इतना संशय में न था। उसका मूल्य तो निश्चय कुछ न था, परन्तु वह साधारणतः चल जाया करता था। श्रम की मात्रा बढ़ा देने के साथ-साथ कुछ जीवन की आसानियाँ भी हासिल हो जाती थीं, उसका कड़वापन कुछ कम भी हो जाता था, पर नवागंतुकों ने एक नयी सूरत पैदा कर दी। वे नितान्त मनस्वी थे, गर्वीले। वे सह न सकते थे कि उनकी भोगी हुई नारी कोई और भोगे। उनका एक ही विधान था - पुरुष भोगी है, स्त्री भोग्या और भोगी के जीवन के बाद भोग्या को तन रखने का कोई अधिकार नहीं। इसके बाद जो ललाट-रेखा मेरे सामने आयी उसे मनुष्य चुपचाप नहीं सुन सकता, विक्षिप्त हो जायेगा। जब उस नयी आर्य जाति का नर मरने लगा, तब उसकी चिता पर उसकी नारियों को भी जलना पड़ता था।

जीवन में उसकी अनेक नारियाँ थीं और यह सम्भव न था कि उसकी मृत्यु के बाद उन्हें कोई और भोगे। फिर उनका मृत्यु के बाद का भी एक संसार था - जीवित विलास का जिसे वे स्वर्ग कहते थे। वहाँ उनको भी जाना था और वे अपने विलास के सारे साधन अपने साथ ले जाना चाहते थे। भारत आते समय वे उन सभ्यताओं की राह होकर निकले थे जहाँ यह परम्परा और गहरी थी और उन्होंने अपनी नारी या नारियों को अपने मर जाने के बाद भी जीवित न छोड़ा। उन्हें अपनी चिरसंगिनी बनाया, लपटों में उन्हें स्वाहा किया। मैं अकेली ही तो उनकी नारी न थी। मेरी जैसी उनकी अनेक थीं और उन हतभागिनियों को एक साथ जल मरना होता था।

और वे ‘ऋषि’ कहलाते थे, सत्य का दर्शन करते थे, मंत्रों का उच्चारण। अभी शायद उनमें विवाह परम्परा न थी। इससे मेरा जीवन और संकटमय हो गया। मेरे पहले के पुरुषों में तो कम से कम यह बात थी कि उनकी अनेक नारियाँ होने के कारण जब तब मुझे उस घृणित ‘हरिणीखुर-वृत्ति’ से अवकाश भी मिल जाता, परन्तु इस नयी दुनिया में तो एक नयी दशा भी झेलनी पडी। मैं एक की सर्वथा न थी-जिसकी कही जाती थी, उसकी भी सर्वथा नहीं। उसके सामने ही लोग मुझे बारी-बारी से उठा ले जाते। यह एक नया अनुभव था। अनेक में से एक होना कुछ विशेष न खटका, पर यह तो अद्भुत था कि कोई आये और उठा ले जाये।

एक दिन चुपचाप बैठी थी। ऋषि ब्रह्मचारियों को पढ़ा रहे थे। दूसरा ऋषि आया। मेरे अपने कहलाने वाले के देखते ही देखते उसने मुझे उठा लिया और पास की अमराइयों में चला गया। उसके बाद की कथा पाशविक है, नितान्त घृणा से भरी। जीवन - जिसमें मुझसे कुछ न पूछा जाय, मेरी चित्त-वृत्ति का अनुमान तक न किया जाय, मेरी रुचि-अरुचि भी न पूछी जाय और मेरी कोमल भावनाओं को सर्वथा कुचल दिया जाय। मुझसे अच्छी तो वे बाबुल की मेरी बहिनें थीं जिन्हें देवी के नाम पर जीवन में केवल एक बार ही तो अपरिचित के साथ वेश्यावृत्ति करनी पड़ती थी। अब जो ऋषि को क्षोभ आया तो उसने मेरा विधान कर दिया, वैवाहिक विधान। अब मुझे धार्मिक कृत्यों से एक पुरुष के साथ जीवन व्यतीत करना पडता, एक ही के साथ जीना-मरना होता। अभी कुछ कह नहीं सकती कि भविष्य में क्या बदा है। भोग कर ही कहूँगी। मेरी कथा का अभी अंत कहाँ?

- ४ -
आर्य प्रगति ने भारत में एक दूसरा रूप धारण किया। मेरा विवाह हो गया। अनेक क्रियाओं- प्रक्रियाओं से मेरा विवाह होता। अनेक प्रकार के आशीर्वाद से मेरा अंग-अंग प्रफुल्ल होने लगा। मैं गृह की स्वामिनी कही जाने लगी, ससुर की साम्राज्ञी, सास की साम्राज्ञी, देवर-ननदों की साम्राज्ञी, नौकर-दासों की साम्राज्ञी। कुछ अधिकार भी मिले। पिता के धन में नाम मात्र् का भाग मिलने लगा। वास्तव में वह भाग मेरे विवाह का कौतुक था। मेरा अधिकार तो केवल उन सम्बन्धियों द्वारा भेंट की हुई वस्तुओं पर हुआ जिनकी संज्ञा कालान्तर में ‘स्त्री-धन’ हुई। फिर भी मैं सिद्धान्ततः पति के पर्याप्त निकट थी। उसके साथ ही, उसी के आसन पर, बैठने वाली। मैं अपना पति आप चुनती थी। अनेकांश में मैं उसकी प्रेयसी थी। इससे भी बढ़ कर उसके पुत्रों की माता- साधारण नहीं, दस-दस पुत्रों की माता। मैं अपनी बाबुली बहिन से अब कहीं अच्छी थी। कोई मुझे वेश्यावृत्ति के लिए बाध्य नहीं करता था। मेरी इज्जत मेरा पति जान देकर बचाता।

मैं कुछ पढ़ती-लिखती थी, शक्तिशालिनी थी, रथ दौड़ाती, पति के साथ युद्ध में जाती। एक बार मैं विश्पला के रूप में जनमी और युद्ध में पैर कट जाने के कारण मैंने लोहे का पैर धारण किया। उसी काल में केकय देश में जनमी और कौशल के राजा दशरथ की रानी हुई। पति के साथ मैं रण में गयी और जब रथ के चक्र की धुरी ने जवाब दे दिया, पहिया गिरने लगा और शत्रुओं ने जोर का हमला किया, तब मैंने धुरी में हाथ डालकर उससे पहिये को सम्हाल पति के मान और शक्ति की रक्षा की। आह, तभी मेरा जन्म सीता के रूप में हुआ। मुझे जो पति मिला, वह मानवों में आदर्श था, शक्ति का पुंज। उसे संसार ने पुरुषोत्तम कहा और मुझे भी कालान्तर में जगदम्बा कह कर पूजा। परन्तु मैं भी क्या? वह वस्तु जो हरण की जा सकती थी। पौलस्त्यकुलीय रावण नामक ब्राह्मण ने मुझे हर लिया। एक लम्बे काल तक मुझे उसके यहाँ रहना पडा, उसकी कैद भोगनी पडी। हाँ, इतना और कह दूँ कि मेरे संबंध में उसका व्यवहार अत्यन्त उदार हुआ। मैं यह कहते नहीं भूलती कि जब मेरे पिता ने स्वयंवर रचा था, तब वह असाधारण योद्धा भी वहाँ आया था, परन्तु मैं पड़ी अपने यशस्वी पति राम के हिस्से। इस एकपत्नीव्रत राम ने अपने पूर्वजों की परम्परा तोड़ मुझे अकेली पत्नी अंगीकार किया और वे साधारण मानव की भाँति मेरे अभाव में दर-दर फिरते और बिलखते रहे। परन्तु आश्चर्य, उन्होंने जब मुझे रावण के बंधन से छुडाया, तब मेरी अग्नि-परीक्षा करके स्वीकार किया।

मिनट-मिनट मैंने वर्ष की भाँति काटे थे उनकी याद में, पर-पुरुष की छाया तक ने मेरे मस्तिष्क या दृष्टि-पथ का स्पर्श न किया था, यद्यपि इस प्रकार के उपपति का स्वीकरण नारी के लिए उन दिनों कुछ अजब न था। कौन-सी वह औरत थी, जिसका कोई उपपति न था? कौन-सा वह पुरुष था, जिसकी कोई उपपत्नी न थी? मेरे समकालीन ऋचा-साहित्य में ‘जार’ शब्द भरा पड़ा है। परन्तु हाँ, यदि इस प्रगति के कोई अपवाद थे तो पुरुषों में राम और स्त्र्यिों में मैं, राम के भाई, उनकी पत्नियाँ, परन्तु राम ने फिर भी मेरी अग्नि-परीक्षा कर मुझे अंगीकार किया। और वह अंगीकरण भी कितना बडा व्यंग्य था! तब शासन जनता के हाथ से निकल कर राजन्य-वंशों में कुलागत हो चला था। राजा अपने व्यवहार से प्रजा को यह दिखाना चाहता था कि एक का शासन अनेक के शासन से कहीं सुन्दर, कहीं न्यायप्रिय, कहीं सुखद है। परन्तु वास्तव में तो उद्देश्य स्वेच्छाचारिता थी, अनियंत्रित निरंकुशता, सो उसका अभिशाप मुझे ही सहना पडा। किसी धोबी ने मेरा उपहास किया और राम ने मेरा परित्याग कर दिया। और तब मेरी दशा क्या थी? राम का तेज मेरी कोख में था। मैं एकनिष्ठा से, अव्यभिचारिणी भक्ति से, उस तेज को वहन कर रही थी।

सौमित्र ने मुझे वाल्मीकि के आश्रम की राह दिखा कर उस भयंकर वन में छोड़ दिया। संसार विश्रुत कवि कालिदास ने मेरे मुँह में रख कर मुझसे लक्ष्मण द्वारा पहले तो कहलाया-वाच्यस्त्वया मद्वचनात्स राजा, मेरे शब्दों में जाकर उस राम से कहो। फिर कहलाया- राम का दोष नहीं, मेरे पूर्व कर्मों का है। पहला तो सही-मैं कहती, मैं आज उसका नाम लेने को तैयार नहीं। उसने राजा, केवल राजा, मनुष्येतर शक्ति-लोलुप, यश-लोलुप राजा का आचरण किया। उसके साथ आत्मीयता का कोई सुलूक नहीं हो सकता। सो तो सही, मैं कहती- कहना उस राजा से, मेरे कर्मों का विपाक है यह, ऐसा मैं हरगिज नहीं कहती। वह कालिदास का अपना है। मैं कुछ और कहती, अपना कहती, कालिदास का नहीं। और मैंने कहा, जिसे कोई सुन न सका उस भीषण वन में न लक्ष्मण, न वाल्मीकि, न कालिदास। मैंने कहा- उस राजा से कहो-मैं उसके समक्ष नागरिका तक नहीं, इन्दि्रयतृप्ति का साधन मात्र हूँ और तुम में लोकापवाद की भीरुता है, न्यायपथ पर आरूढ़ रहने का साहस नहीं!

पर राम का आचरण लोकानुकूल था। अनेकपत्नीक राजाओं की परम्परा में जन्म लेने और बसने का युक्त परिणाम था। नारी की अवस्था फिर दयनीय-घृणित हो चली थी। कारण कि इस नये देश में अब पत्नियों की कमी न थी। सपत्नियाँ अनेक होतीं। स्वयं इन्द्राणी, शची, पौलोमी तक को इसका रोना था। अपनी सपत्नियों पर विजय पाने के लिए वे पुतलियों का दाह करती थीं, पति के प्रेम को स्वायत्त करने के लिए औषधि-विशेष का मंतर साधती थीं, सपत्नियों की ओर से पति का मन उचाटने के लिए टोना-टोटका करती थीं। शत्रु की सेना से, शत्रुओं के घर से, इतनी बहिनों की उपलब्धि हुई थी कि उपपत्नियों का दल का दल घर में झूमता था। राजा अब गायों और दासों की भाँति मेरी बहिनों को भी रथ भर-भर कर पुरोहितों और प्रसादलब्धों को दान करने लगे थे।

परन्तु उस युग की एक बात निश्चय सराहनीय है। उन्होंने अपनी पुरानी प्रथा ‘सती’ का प्रचलन रोक दिया। बाद में वह फिर चली, पहले भी थी, परन्तु इस काल में उसका निश्चय अवरोध हुआ और आग में जल कर मरने का जो नित्य मेरे मन खटका लगा रहता था, उसका कुछ काल के लिए अन्त हुआ। अब पति के मरने पर मुझे अपना बलिदान न करना होता, वरन् दूसरे का ग्रहण। शव के साथ एक बार लेटना अवश्य होता, परन्तु शीघ्र देवर- छोटा वर - जिसके लिए विवाह के समय ही मेरी संज्ञा ‘देवृकामा’-देवर की कामना करने वाली- पड़ी, हाथ पकड़ कर नव-संस्कृति की ओर संकेत करता और पुरोहित कहता, "उठ नारी, वह मृतक है जिसके पार्श्व में तू पडी है। उठ, और इस नवोदित को वर, इसको जो तेरे विगत पति के धनुष के साथ ही तेरा पाणिग्रहण करता है। उठ, और जीवितों के जगत् में प्रवेश कर!"

सुन्दर, पर यह संतान की कामना के लिए सारा आडम्बर था, मेरे दारुण कष्ट के लिए नहीं। एक नये योग की प्रथा चली- नियोग की - जिससे क्लीव पति के स्थान पर उसका भाई, पुरोहित अथवा कुल का कोई मुझसे पुत्र उत्पन्न करने लगा। सही, मेरा स्वाभाविक ताप जब-तब समाजशास्त्री को साधुवाद कह उठता, परन्तु यदि यह मेरी मनोवृत्ति को द्रव करने की बजाय पुत्रोत्पत्ति का साधन था, तो मैं प्रायः आश्चर्य करती-इसका सुख कृत्रिम पिता को क्या था? इस प्रकार के आचरण की तो परम्परा बन गयी। इसी काल के अन्त में होने वाली मेरी संगिनियों ने समय-असमय इच्छानुसार स्वतंत्रता का लाभ उठाया। सत्यवती ने कौमार्यावस्था में पराशर से उस ऋषि-पुंगव व्यास को उत्पन्न किया जिसने वेदों का सम्पादन किया, महाभारत और पुराण रचे, और अपनी उत्पत्ति-परम्परा का विस्तार किया। इसी नियोग-विधि द्वारा विचित्रवीर्य की विधवाओं- अम्बिका और अम्बालिका- से धृतराष्ट्र और पाण्डु उत्पन्न हुए और दासी से विदुर। कुन्ती और माद्री का एक भी पुत्र् औरस न था। कुन्ती ने तो कुमारिकावस्था में ही कर्ण का प्रसव किया। युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन, नकुल, सहदेव सभी एक से एक धुरन्धर हुए और इनकी उत्पत्ति हुई देवताओं से। हाँ, उसकी क्या कहूँ-वह मेरा रहस्य है, गोप्य। और ये मंदोदरी, तारा, अहिल्या, कुंती, द्रौपदी प्रातःस्मरणीया पंचकन्याएँ हुईं। प्रातःस्मरणीया, क्योंकि उन्होंने समर्थों के कार्य साधे थे-समाज के छिपे रुस्तम सूर्य, इन्द्र, वायु, अश्वनीकुमार समर्थों के- जिन्हें दुष्कृत्यों का दोष नहीं लगता।

द्रौपदी की याद एक और प्रसंग खड़ा कर देती है, बहुपतिका का। इस देश में मेरा भाग्य अब तक दूसरी तरह का रहा था। मैं पति की चेरी अनेक के साथ रही थी, परन्तु मेरे पति की संख्या सदा एक रही थी, सपत्नियों की चाहे जितनी रही हो। परन्तु अब एक और इकाई इस सामाजिक परम्परा में आ जुड़ी। वह इकाई थी अनेकपतिका की। मैंने वह दिन देखा था जब अनेक के बीच मैं उपेक्षित-सी हो गयी थी, परन्तु फिर भी शरीर और स्वास्थ्य मेरे थे, परन्तु अब मैं जीवित नरक में पड़ी जब अनेक पतियों को मुझे एक साथ सम्हालना पड़ा। पतिव्रत का कैसे स्वाँग रच सकती, कैसे कोई नारी पाँच पतियों को अव्यभिचारिणी निष्ठा से एक साथ स्वीकार कर सकती है? अर्जुन मुझे वर्ण, पराक्रम और बुद्धि तीनों से स्वाभाविक ही पसन्द था और मैंने उसके लिए तन, मन, प्राण कुछ भी अदेय न रखा, परन्तु इसका भोग मुझे भोगना पडा। हिमालय की बर्फीली चोटी पर जब मेरा देहावसान हुआ तब भीम के पूछने पर धर्मराज- सत्यकथन के कारण भूमि से हाथ भर ऊँचे हवा में दौड़ते रथ पर बैठने वाले सत्यसंध युधिष्ठिर ने कहा, "यह इसलिए सदेह स्वर्ग जाने के पहले ही राह में गिर गयी कि इसने हम सबसे अधिक अर्जुन को चाहा था।"

इसी ऋग्वैदिक काल के अंत में त्रेता-द्वापर के बाद मेरा बचा-खुचा स्वत्व भी नष्ट हो गया। मैं पति की अर्धांगिनी थी, इससे विधि-क्रियाओं का उसके साझे में सम्पन्न करना अनिवार्य हो गया। अश्वमेध की जो परम्परा चली तो मारी गयी मैं। अब तक मेरा जीवन चाहे जितना भी क्षुद्र, जितना भी दारुण, जितना भी घृणित क्यों न रहा हो, मानुषिक ही था, परन्तु अब सर्वथा पाशविक हो गया। नारी मनुष्य के साथ कुछ भी कर सकती है, परन्तु पशु के साथ - अश्व के साथ...
सायण-महीधर कैसे उसकी व्याख्या कर सके; ऐतरेय ब्राह्मण में कैसे उसे सम्मिलित किया जा सका? जनमेजय का वह अश्वमेध...पुरोहित तुरकावषेय के अश्व का वह आक्रमण... हाय, किसे मैं गाली दूँ, अश्वमेधयायियों को या ऋत्विक पुरोहितों को?

- ५ -

उस वैदिक युग में भी पति की छाया मात्र थी मैं। चाहे इन्द्राणी होऊँ, चाहे सीता, चाहे द्रौपदी, चाहे विविध देवियाँ- सब रूपों में मैं पति की छाया मात्र थी। उपनिषत्काल का जीवन मुझे और नीचे ले चला। माना, मैं गार्गी और मैत्रेयी थी- ब्रह्मवादिनी- परन्तु कात्यायनी भी तो मैं ही थी। इतने मेधावी महर्षि की पत्नी होकर भी मैं निरक्षरा कैसे रह सकी? जो पुरुष पत्नी को अर्धांग मानता है वह स्वयं व्युत्पन्न और विचक्षण अपने अर्धांग को मूर्ख रख कर स्वयं कैसे मेधावी हो सकता है? संस्कृति का आलोक तो अपने चतुर्दिक प्रकाश फैलाता है, निकट के अंधकार को हरता है। फिर इतने युग-प्रवर्तक आत्मवादी की पत्नी होकर भी मेरा अज्ञान दूर क्यों न हुआ? और एक बात पूछूँ? यह त्यागी, अप्रमादी, ब्रह्मवादी, विदेह जनक-गुरु, निरीह, इन्दि्रय-निग्रही याज्ञवल्क्य भी एकपत्नीक न बन सका? उसने भी मेरे अभ्युदय में सपत्नी की शृंखला डाल दी! और तभी मैं महर्षि सत्यकाम जाबाल की माता के रूप में भी तो अवतरित हुई। उससे जब गुरु ने पूछा कि तुम्हारा पिता कौन है - ब्राह्मण या क्षत्रिय, तो क्या कहे वह सीधा बालक सिवा मुझसे पूछने के? और मैं ही क्या बताऊँ उसे अपना वह अकथनीय गुप्त रहस्य और अपना वह नितान्त घृणित अमानुषिक पारवश्य आचरण-पिता के घर में अनेक अतिथियों का आगमन, उनको देवतुल्य मानने की परम्परा, उनको विमुख न करने की परिपाटी और उन तृषित रुक्ष अप्रत्यक्ष एकान्त विलासियों का एकैक परिभोग! भला मुझे ही क्या पता, किसका है वह निर्वर्ण जाबाल?

- ६ -

आगे का जीवन अत्यन्त क्लेश का जीवन था। मैं अपने लिए नहीं, औरों के लिए जीने लगी। पहले मेरा विवाह तन के पुष्ट हो जाने पर हुआ करता था, अब आठ-आठ दस-दस वर्ष की आयु में होने लगा। सारे अधिकार भी छिन गये। अधिकार पहले ही कितने थे, परन्तु अब तो कुछ भी न रहे। पहले कम-से-कम जनन-कार्य सशक्त होने पर करना पडता था, अब माँ बन जाने पर भी शिशुता की झलक न जाती। भूमि, जायदाद सभी पति आदि के थे। पति के मरने पर दूर-दूर के सम्बन्धी, यहाँ तक कि उसके गुरु, गुरुभाई तक उसमें हिस्सा पाते, परन्तु मेरा पति की जायदाद पर कोई अधिकार न था। मेरी सज्ञा ‘अबला’ हुई। मैं कौमार्यावस्था में पिता द्वारा, यौवन में पति द्वारा और वृद्धावस्था में पुत्रों द्वारा नियंत्रित मानी जाने लगी। वैदिककाल में इन्द्र ने कहा था, "नारी का हृदय वृक (भेड़िये) का हृदय है। कभी विश्वसनीय नहीं!" अब एक ओर तो सूत्रों ने अल्पायु-विवाह की व्यवस्था दी, जायदाद से मेरा नाम काट दिया। मनु ने एक ओर तो, "नारीरत्नं सुदुष्कुलादपि" का मंत्र दिया, दूसरी ओर उसके पूजे जाने की व्यवस्था दी, तीसरी ओर उसका पुनर्विवाह वर्जित कर दिया।

इसके बाद दूसरा धर्मशास्त्री जो उठा तो उसने मुझे नौकरों, दासों, चाण्डालों की पंक्ति में ला बिठाया। उन्हें वेद पढ़ने का अधिकार न था, वेद सुनने का भी नहीं। मेरी भी व्यवस्था इस सम्बन्ध में वही हुई जो उनकी थी। वेदों की निर्माता कभी मैं रह चुकी थी, पर अब यदि मैं कभी उनका मंत्रंश सुन लेती तो शूद्रों- चाण्डालों की भाँति मुझे भी पिघला राँगा अपने कानों में लेना होता। निश्चय, अब मैं इन्द्राणी अथवा वाचक्नवी न थी जो ललकार उठती, "अहं रुद्राय धनुरातनोमि ब्रह्मद्विषे शरवे हन्तवाउ।" अब मैं बाहर न निकल सकती थी, न किसी से मिल ही सकती थी। एक बार पति के घर जाकर पिता के घर लौटना असम्भव था। पर्दा का घटाटोप अब मुझे घेर चला। जितने भी दुःख मुझे अगले युगों में भोगने पडे, उनकी शिलाभित्ति इसी काल, धर्मसूत्रों और धर्मशास्त्रों के इसी युग में प्रस्तुत हुई थी। भावी हिन्दू समाज की आधार-वेदी इन्हीं विधान-ग्रंथों ने निर्मित की थी और उसके नेपथ्य-पूजन में पहला बलिदान मेरा ही हुआ। मुझ विधवा, बाल-विधवा की दशा नितान्त करुण हो गयी। मैं अपने पति को किसी अवस्था में न त्याग सकती थी। वह मुझे जब चाहता, छोड़ सकता और उससे भी बुरी बात तो यह कि जब चाहता मेरी छाती पर मूँग दलने के लिए सौतें ला बिठाता।
 
अत्यन्त प्राचीन काल से और उपाय न देखकर अपने तन की रक्षा के लिए मैं अपना शरीर चाँदी के टुकड़ों पर बेचती आ रही थी। लिच्छवियों में, कोसलों में, मालवों में, सर्वत्र मेरी पूछ थी। विधवा के लिए समाज में जो सुख था, सती के लिए जो भूख थी, उससे चकलों का बसना स्वाभाविक ही था और मेरे उस प्रकोष्ठ पर अनेक धर्म-धुरन्धर आते। वेश्या, रूपजीवा, वारांगना, पण्य-स्त्री आदि मेरी संज्ञाएँ हुईं। कौटिल्य ने हमारे ऊपर टैक्स लगाकर हमारा व्यवसाय और बढ़ाने का प्रबन्ध कर दिया। पाँच-पाँच सौ मुद्रा प्रति रात्रि मेरा शुल्क हुआ। मैं और करती भी क्या? चार रास्ते थे - घर में विधवा बने रहने या सती हो जाने का, वेश्या बन जाने का अथवा बौद्ध संघों में भिक्षुणी की दीक्षा ले लेने का। भगवान तथागत ने अत्यन्त कृपा से संघ की हजार वर्ष की बजाय, अगर मेरा सम्फ हो गया तो, पाँच सौ वर्षों की आयु ही आँकी थी। इससे महास्थविर वहाँ भी भरसक मेरी पैठ न होने देते, यद्यपि मेरी उनको आवश्यकता थी, आवश्यकता तो ऐसी थी कि उसके कारण जो मुझ पर बीती, वह क्या कहूँ। संघ का व्यवसाय भी चलता रहा, तथागत की भविष्यवाणी भी असिद्ध हुई। पाँच सौ वर्ष बाद संघ भी न टूटा, और मेरी वजह से उसके भिक्षुओं की संख्या में नित्य वृद्धि होती गयी।

- ७ -

धर्मसूत्रों और धर्मशास्त्रों की मार सह कर भी मैं जिन्दा रह गयी। नन्द-शूद्रों के उत्कर्ष के साथ मैंने सोचा था कि सम्भवतः मेरा भी अभ्युदय होगा। परन्तु नहीं, इस सम्बन्ध में ब्राह्मण-शूद्र सब एक-से थे। शूद्रों ने, निश्चय बर्दाश्त की इति हो जाने पर जोर लगाकर क्रान्ति कर दी, परन्तु उसे सह कौन सकता था? क्षत्रियों को नीचा दिखाने के लिए तो उसका उपयोग ब्राह्मण ही कर सकता था, जैसा कि किया भी उसने। कात्यायन और राक्षस दोनों ने ‘सर्वक्षत्रंतक’ महापद्मनन्द का साचिव्य किया। परन्तु चाणक्य ने चन्द्रगुप्त की पीठ ठोंक ब्राह्मण क्षत्रिय के संयुक्त बल से उसका नाश कर दिया। फिर धर्मसूत्रें और शास्त्रें का आतंक जमा। चाणक्य, चन्द्रगुप्त, अशोक आये। अर्थशास्त्र ने अनेक व्यवस्थाएँ दीं, अशोक ने दलितों के उद्धार के लिए धर्मध्वजाएँ खडी कीं, पर मेरे लिए उनमें कहीं कुछ न था, मैं फिर भी अपाहिज ही बनी रही। मैं इस लोक की समझी ही नहीं जाती थी, मेरे धर्माधिकार की कुछ चर्चा जब-तब अवश्य हो जाती थी, स्त्रियाध्यक्ष-महापात्र मुझे दान की महिमा जरूर समझा जाते थे और विधानों की शृंखला मेरे तन पर कसती जाती थी। मैं अपने नैमित्तिक मार्ग पर चुपचाप चल रही थी। मेरी राह और बनाते थे, मुझे बस चलना ही चलना था। विधायक स्वयं क्रूर थे, कायर थे और परिस्थितियों ने उनकी कायरता प्रदर्शित कर दी थी।

बलख से देमित्रियस आया, सीधा पाटलिपुत्र पहुँच गया। उसके सामने मौर्य न टिक सके। नागरिक नगर छोड ग्रीकों के सामने गंगा पार या राजगिरि की गुफाओं में सिधारे, पर मेरे हाथों में हथकड़ियाँ पड़ी थीं, पैरों में बेड़ियाँ थीं-न तो लड़ सकती थी, न भाग कर रक्षा कर सकती थी। मैं शिकार हो गयी। मेरा अपना क्या था जो जाता? अपना तो कर्मों के विपाक से सर्वस्व चला ही गया था, चला ही जा रहा था। मुझे अपनापे का बोध क्यों कर होता जब अपना कुछ था ही नहीं? मैं तो अपनी थी नहीं, औरों की थी और जब औरों की थी तब जैसी एक की वैसी दूसरे की। रूपजीविका का और सिद्धान्त ही क्या होता है? सो मैं पाटलिपुत्र के उस विराट नगर में देमित्रियस के सैनिकों की हुई। परन्तु इससे भी बढ़कर भयंकर मार तो मुझ पर कुछ काल बाद पड़ी, तभी जब शायद प्रसिद्ध विक्रमादित्य अवन्ती का नाम मालव सार्थक कर रहे थे। लोहिताक्ष शक अम्लाट आया और उत्तरापथ को कुचलता मगध आ पहुँचा। पाटलिपुत्र के नरों को भागने तक आ अवसर न मिला, अम्लाट ने सारे पुरुषों को तलवार के घाट उतार दिया।

कहीं कोई पुरुष दिखायी भी न पड़ता था और मुझे उन क्रूरकर्मा, गन्दे, भीषण शकों के चोगों में अपना मुँह छिपाना पड़ा। सडकों पर रक्त प्रवाहित हो रहा था और उन्हीं रक्त बहाने वालों को मुझे तृप्त करना पडता। संयोगवश शक शीघ्र चले गये, मुझे सांस लेने का अवकाश मिला। अवकाश क्या मिला, नितान्त चुप्पी थी। पुरुष नगर में थे नहीं, मैंने नगर का शासन सम्हाला, हल की हत्थी अपने हाथों पकडी और नगर की व्यवस्था की। बीस-बीस, पच्चीस-पच्चीस की संख्या में मैं एक पुरुष के साथ सहवास करती। फिर भी, इतना देख लेने पर भी उसकी अनुपस्थिति में मैंने जो बुद्धि का परिचय दिया था उसे समझ कर भी उसने मेरा तिरस्कार ही किया और जब वह सम्हला तब मुझे अपने विधानों से उसने और जकड़ दिया। उसकी शक्ति मेरे ही सामने जग उठती थी, विदेशियों के सामने नहीं।

- ८ -

कालांतर में मैं उस युग में जनमी जिसे इस देश के इतिहास में स्वर्ण-युग कहते हैं। इस युग ने कला में, साहित्य में, शक्ति में, सज्जनता में, उन्नति की और उन्नति कर आकाश छू लिया। परन्तु मेरे लिए बंधन जैसे के तैसे बने रहे। मेरे लिए किसी प्रकार की सुविधा न हुई। मेरे लिए फिर मनु ने जन्म लिया और फिर अपनी लेखनी से उन्होंने हमारे ललाट पर वज्र-प्रहार किया। अनुलोम-प्रतिलोम के शक्तिमान शिकंजे मेरे भाग्य को जकड़ चुके थे और पुरुष को स्वार्थसाधक अवसर दे चुके थे। फिर भी जब-तब इस अंधकार में प्रकाश की लौ चमक जाती। उस युग में ध्रुव देवी नाम से मेरा जन्म हुआ। मगध के सिंहासन पर तब गुप्तकुलभूषण समुद्रगुप्त के सुपुत्र रामगुप्त विद्यमान थे। उनके पौरुष का सुख-दुःख तो मुझे भोगना पड़ ही रहा था, अब उनके एक और आचरण ने मुझे ही नहीं सारे भारत को चकित कर दिया। उनकी शक्ति और पराक्रम का अंदाज तो शकों को लग ही गया था। उन्होंने उन पर आक्रमण किया। मेरी सुन्दरता की ख्याति दूर-दूर तक पहुँच चुकी थी। शकराज भी विशेषकर मेरे ही लिए आया था। युद्ध बगैर किये ही रामगुप्त राजप्रासाद की चहारदीवारी के भीतर जा बैठा। युद्धक्षेत्र में न गया, न गया।

मगध में वीरों की कमी न थी। समुद्रगुप्त की सेना जिसके आर्यावर्त से पड़ोसी राजाओं को उखाड़ फेंका था, आटविक राज्यों को आत्म-निवेदन करने को मजबूर किया था, दक्षिणापथ के राजाओं को ‘गृहीत-प्रतिमुक्त’ कर यश-विस्तार किया था, प्रचण्ड गणराज्यों को संत्रस्त कर दिया था। प्रत्यन्तों का ‘कन्योपायन’ आदि से विजेता को संतुष्ट करने को बाध्य किया था। शक-मुरुण्डशाहि-शाहानुशाहियों को विकल कर दिया था, वह विजयवाहिनी अभी गरुड़ध्वज की छाया में खड़ी ही थी, परन्तु क्लीव और कायर रामगुप्त ने पीठ दिखा दी। शकराज ने कहलाया, "यदि ध्रुवदेवी को समर्पित कर दोगे तो लौट जाऊँगा।" राजगुप्त ने इस शर्त पर संधि कर ली। मैं गेंद की भाँति उछाली जाने लगी। जैसे मेरी अपनी कोई इच्छा नहीं रह सकती थी। मैं केवल दूसरों की कामना को अभितृप्त करने वाली थी और इच्छापूर्वक दी-ली जा सकती थी। रामगुप्त ने तो मुझे दे ही डाला था, पर उसके यशस्वी अनुज ने शकराज और रामगुप्त दोनों को मारकर मेरी और समुद्रगुप्त के साम्राज्य दोनों की रक्षा की। चन्द्रगुप्त ने राज्य और मुझे दोनों को वरा।

यह काव्यों-महाकाव्यों का युग था, नाटकों-त्रेटकों का, जब कालिदास और विशाखदत्त लिखते थे, जब सरस्वती इनके संकेत पर नाचती थी। समाज में मेरा जो स्थान सुरक्षित था, पशुओं, भृत्यों, दासों के पास, बस वहीं मुझे काव्यकारों-नाटककारों ने भी स्थान दिया। भरत का विधान था, वे करें क्या? भरत का विधान था कि नारी नाटक में, चाहे वह जनक की पुत्री और राम की पत्नी क्यों न हो, विश्वामित्र् की कन्या महर्षि कण्व की सांस्कृतिक अनुकम्पा में ही क्यों न पली हो, दुष्यन्त की पत्नी और भरत की ही माँ क्यों न हो, सम्यक रूप से संस्कृत भाषा का उपयोग वह नहीं कर सकती। उसे प्राकृत ही बोलनी होगी- बोलियाँ ही, जो उसके भृत्यादि, उसकी चेरियाँ आदि, बोलती हैं। मैं ‘कामिनी’ हूँ, कामना की उद्देश्य, ‘रमणी हूँ’-रमण की साधन, ‘नायिका’-जो उचित ही पाश्चात्यकाल में कुट्टनी की द्योतक हुई, तब जब मेरी संतान को बडी-से-बडी संख्या में ‘कोठे’ पर बैठना पड़ा, जब हमारे वर्ग को किस प्रकार पुरुष फँसाना चाहिए, वेश्यावृत्ति किस प्रकार अर्थकारी करनी चाहिए, इसकी सुमति दी, इस पर ग्रंथ लिखे-कुट्टनिमतम् और समयमात्रिका। दोनों लेखक-दामोदर गुप्त और क्षेमेन्द्र-कश्मीरी पण्डित थे! खैर, यह पीछे की बात थी, आगे आ गयी।

- ९ -

मैं विज्जिका होकर जनमी। मैंने ‘कौमुदीमहोत्सव’ लिखा, परन्तु मैं स्वयं उसमें प्राकृत बोलती रही। मेरे कोठे पर कालिदास, कुमारदास, विशाख, कौन नहीं आया? किसने मेरे अधरों के स्पर्श की भीख न माँगी? मुझसे नहीं, अपनी परम्परा से पूछो, अपनी ख्यातों, अपने इतिवृत्त से पूछो। कितने भोजप्रबन्ध, कितने सुभाषित, मेरी समस्याओं से नहीं भरे पड़े हैं? अजन्ता और बाघ, सत्तनवसल और सिगिरिया के भित्तिचित्र और उनमें मेरा नग्न रूप- जिसने पुरुष को अपनी साधना से हटाकर नरक के द्वार पर ला खड़ा किया है। स्वयं ‘नरक का द्वार’ है वह। अश्वघोष की प्रांजल भाषा में ‘सुन्दरी’ के प्राणों का तन्तु तना है, उस सुन्दरी का जिसके मोहवश नन्द कामातुर हो उठा है, मुक्तिपथ से जो दूर है, सद्धर्म से सर्वथा पृथक और जिसकी तुलना अश्वघोष का बुद्ध कानी बन्दरिया से करता है। यह अश्वघोष जो स्वयं विरागी है, संन्यस्त, प्रव्रजित, दार्शनिक, असाधारण कवि जिसके ‘बुद्धचरित’ से कालिदास सरीखे समर्थ कवि को सीखना है!

यह भवभूति का जमाना है, भर्तृहरि का, बाण और दण्डी का। सारा साहित्य मेरे ही रूप और मण्डन पर टिका है। भवभूति मुझे उफत करता है, धन्य। भर्तृहरि मेरी प्रवंचना से आहत हो सात बार प्रव्रजित होता है, सात बार गृहस्थ होता है। बाण ‘कादम्बरी’ लिखता है, रोमांचक उपन्यास का श्रीगणेश करता है, परन्तु उसकी नायिकाएँ जमीन पर पाँव नहीं धरने पातीं। भाव-जगत् में ही मानस-पुत्रियाँ बनी अन्तर्धान हो जाती हैं। स्वयं बाण ‘गतप्रायारात्र्’ में ‘शीर्यत शशिमुखी’ को देखता है, जिस प्रकार वह स्वयं ‘आसवघूर्णित’ है उसी प्रकार उसका ‘प्रदीप’ भी है और उसकी भामिनी ‘प्रणामान्त’ में भी उज्झित- मान नहीं होती, और उसके चौथे अटके चरण को उसका साला या श्वसुर मयूर सम्हालता है-कुचप्रत्या सत्या हृदयमपि ते चण्डि कठिनम्। मूढ़, यह कुच किसका है, जानता है? - तेरी भगिनी या कन्या का! और दण्डी! संभवतः प्रव्रजित, वही दण्डी जिसने साहित्य के लिए मापदण्ड प्रस्तुत किया था। परन्तु अपने ‘दशकुमारचरित’ में स्वयं उसने मेरा चरित नंगा रखा है; पर निःसंदेह यही भारतीय समाज है तब का। मैं सर्वथा घृणित त्याज्य हो गयी, परन्तु मुझे घृणित और त्याज्य बनाया किसने? किसने मेरा नख-शिख लिखा? किसने मेरे अंग-अंग की चारुता निहार नंगी कर दी? दशकुमारचरित की विलासिता का एकमात्र केन्द्र कौन हैं? मैं!

अब मेरी एक नवीन कल्पना होती है। हीनयान से महायान, महायान से मंत्रयान, मंत्रयान से वज्रयान का क्रमिक विकास हो चुका है। उडीसा में वज्र पर्वत पर वज्रयान के सिद्ध घोषणा करते हैं कि संयमन से नहीं, अभितृप्ति से सिद्धि होगी।
रजक की कन्या जिस सिद्धि को साध सकती है, उसे शम-दम के कोई विधान नहीं प्राप्त कर सकते। फिर क्या, मेरी खोज होने लगी, सिद्ध ‘श्रीवर्धन’ करने लगे, मैं आये हुए अतिथि-साधुओं के सत्कारार्थ अर्पित होने लगी। उत्तर में योगिनी और दक्षिण में देवदासी के रूप में मैं यतियों के यत्न का केन्द्र हुई। कलिंग से कामरूप तक, कामरूप से विंध्याचल तक शक्ति के रूप में मैं नंगी पूजी जाने लगी और मेरी संज्ञा कुमारी हुई। मैंने उस समय जो-जो व्यथा सही, मर्दों- यतियों के अमानुषिक कृत्य सहे, वे अकथनीय हैं। उडीसा के मंदिरों पर फिर तो खुल्लमखुल्ला मेरे घृणित चित्रण किये गये। जो गोप्य था, घर की चहारदीवारी के भीतर भी गुह्य कर्म था, वह देव-मन्दिरों की बाहरी दीवारों पर अंकित हो गया। मनुष्य कितना गिर सकता है, माँ कह कर भी नारी को कितना नीचे खींच सकता है!

- १० -

बीच के स्मृतिकारों ने मुझे कुछ अधिकार के आभार दे दिये थे। मिताक्षरा और दायभाग ने कतिपय परिस्थितियों में मुझे अपने स्त्रीधन से ऊपर उठा दिया। क्यों, यह कहना कठिन है, संभवतः शंकराचार्य के प्रभाव से जो उस देश के थे, जहाँ की नारी तब भी अर्थाधिकारिणी थी, आज भी है। परन्तु विज्ञानेश्वर और जीमूतवाहन का यह तुच्छ औदार्य भी समाज के अग्रणी सह न सके। दायादों की भूख बड़ी थी, उनका उदर बड़ा था और यह संभव न था कि वे जायदाद का भाग किसी प्रकार विधवा के अधिकार में आने दें। झट उन्होंने पुरानी भूली हुई सती-प्रथा का पुनरावर्तन किया। उसकी प्रशस्ति गा-गाकर उसे विधवा का प्रथम कर्त्तव्य स्थिर किया। इससे उनका काम बन गया और समाज की विधवाओं की समस्या हल हो गयी। मैं फिर एक बार अग्नि की भीषण लपटों में स्वाहा होने लगी। बंगाल में इस मृत्यु-ताण्डव को विशेष प्रश्रय मिला। महोदय (कनौज) श्री के लिए गुर्जर-प्रतीहारों, पालों और राष्ट्रकूटों में संघर्ष होता रहा, परमारों की राजधानी उज्जैन और धार में मुंज और भोज की राज-सभाओं में निरन्तर सरस्वती नंगी नचायी जाती रही, नारी का नख-शिख खोल उसके अवयवों से समस्याएँ बुनती-हल होती रहीं, परन्तु मेरी शारीरिक आवश्यकताएँ भी कुछ हो सकती हैं, यह किसी को न सूझी। मेरे ‘अन्त्यमण्डन’ से ही समाज को विशेष प्रेम था जिसका रास्ता कालिदास ने अपने ‘कुमारसम्भव’ में सतीदाह के प्रसंग में दिखा दिया था।

राजपूत शौर्य के केन्द्र पृथ्वीराज ने अपनी अधिकतर लड़ाइयाँ मेरे लिए लड़ीं, पिताओं से उनकी आकर्षक कन्याएँ छीन लेने के लिए। कन्ह-कैमास जैसे वीर इन्हीं लड़ाइयों में स्वामी की काम-साधना की बलि हो गये। उनकी सविस्तार कथाएँ चन्द और जगनिक के चित्रपटों पर अंकित हैं। इन छीना-झपटी में मेरी क्या गति हुई-इसे किसने देखा? जिस परम्परा का कृष्ण और अर्जुन ने विस्तार किया था, उस असुरविधान का फल मुझे भुगतना पड़ा। मैं दान की वस्तु समझी जाती - गाय, भेड़, बकरी, धन, भूमि की भांति दान की, और दान की वस्तु की अपनी इच्छा नहीं होती। उसके भाग्य का निर्णय तो दाता के विचार का पात्रत्व करता था। जिस प्रकार पशु और भूमि के सम्बन्ध में छीना-झपटी संभव थी, आसुर प्रयत्न हो सकते थे, उसी प्रकार मेरा प्रबन्ध भी होने लगा।

यह स्वाभाविक भी था। देश में अनेक विजयी जातियाँ आयीं। उनसे अपनी धरती और नारी की रक्षा एतद्देशीयों से सम्भव न हो सकी। और वे स्वयं प्रसन्नता से उन्हें नारी देने को तैयार न थे। फिर और होता भी क्या? हाँ, सती-दाह की आवश्यकता उन्हें अवश्य दिन-दिन बढ़ती हुई जान पड़ने लगी। नित्य विधवाओं का स्वाहा होने लगा। मेरा क्या था, जहाँ कामुक पुरुषों की वासना में जलती थी, अब धर्म की अग्नि में भस्म होने लगी! जयदेव और विद्यापति प्रासादों के पिछवाड़े रहते थे, संकेत-स्थानों के चक्कर काटा करते थे, उन्हें समय अथवा रुचि कहाँ थी, जो आक्रामकों के विरुद्ध अपने राजाओं को उभाड़ते, उत्साहित करते। जयदेव ने तो प्रभु की पूजा भी बजाय फूलों के, मेरी बहिनों से ही की! करे भी क्या, जैसे देवता वैसी पूजा!

- ११ -

फिर हमले हुए। भारत का शासन अधिकतर मुसलमान नृपतियों के हाथ में आया। नगरों का विध्वंस हुआ और उनके साथ ही मेरे मान का भी। हजारों की संख्या में मेरी बहिनें पकड़-पकड़ भारत से बाहर ले जायी जाने लगीं और मध्य एशिया के बाजारों में उनका क्रय-विक्रय होने लगा। कभी भारत ने भी पुरुष-दासों के साथ नारी-दासियों का सौदा किया था। अनेक यवनी- दासियाँ भारतीय राजाओं और श्रीमानों द्वारा प्राचीन काल में क्रीत हुई थीं। राजाओं की अस्त्रवाहिका तो यवनी-दासियाँ ही होती थीं। कौटिल्य ने तो यहाँ तक विधान किया कि राजा पलंग से उठते ही पहले इनका मुख देखे। इनमें से अनेक अवसर पाकर उसके पत्नी-परिवार की शोभा बढातीं। फिरोजशाह तुगलक के मंत्री मकबूल खाँ के हरम में तो मेरी बहिनों की संख्या गणनातीत थी। जैतूनी इतालियन से लेकर पीली चीनी तक उसकी प्यास बुझाने का प्रयत्न करतीं। विजयनगर के रामराजा ने तो कृष्ण को भी नीचे दिखा दिया। उसके अन्तःपुर में जितनी रानियाँ थीं, शायद ही किसी राजा के अवरोध में रही हों। कृष्ण के अन्तःपुर में परिणीताओं की संख्या इतनी न थी जितनी उनकी परिचित राधा आदि परकीयाओं की।

अकबर के हरम में जोधाबाई से मरियम तक सभी जातियों की नारियाँ थीं और अबुलफजल ने कुछ गलत भी नहीं कहा कि जो इन अनेक प्रकार की नारियों के पारस्परिक संघर्ष सफलतापूर्वक शांत कर सकता है, वह निश्चय साम्राज्य आसानी से सम्हाल सकता है। इतने बड़े-बड़े हरमों में मेरी दशा क्या हो सकती थी, यह समझा जा सकता है। मैं एक बार जब अपने स्वामी की नजर तले पड़ती, उसकी हो रहती, पर एक बार के बाद क्या उसकी नजर उस नारियों के जंगल में फिर कभी मुझ पर पड़ सकती थी? सती-दाह तो चल ही रहा था, जौहर का भी रूप निखर आया। जौहर भी प्राचीन हथियार था, सती की ही भाँति, यद्यपि इतना प्राचीन नहीं। सिकन्दर के हमले के समय अनेक बार मैंने जौहर द्वारा अपना स्वत्व बचाया। रास्ते दो ही थे-जौहर से अपनी रक्षा करना या तक्षशिला के बाजारों में पिता द्वारा बेचा जाना। जौहर की नितान्त आवश्यकता थी। विपन्न भारतीय विदेशी-विधर्मियों की मार से बेदम हो रहे थे। अपनी रक्षा का भार मुझे अपने हाथों में लेना पड़ा। अनेक बार मैंने रण में चण्डी का रूप धारण किया, अनेक बार मैंने लोहे से लहू बरसाया, परन्तु रक्षा का अन्यतम रूप प्रायः जौहर ने ही प्रस्तुत किया।

अलाउद्दीन और अकबर के आक्रमणों के समय मैंने अनन्त संख्या में अपने को अग्नि में भेंट किया। मेरी उड़ती हुई भस्म ने राणा कुम्भा के विजय-स्तम्भ की ऊँचाइयाँ नाप दीं। इस जौहर की परम्परा चल पड़ी। मैं वेश्या के रूप में जन्मी। वेश्याओं ने भारतीय कला और संगीत की एक समय रक्षा कर ली थी। मैं तब मालवा में थी। उज्जैनी और धार में मेरे संगीत की लहरी गूँजती। मेरी कविता की मादकता ने अनेक को उन्मत्त कर दिया। मैं तब रूपमती थी, रूपजीवा। उदयन ने बाजबहादुर का अवतार लिया और उसकी कथाएँ भी वृद्ध कोविद उदयन की कथाओं की ही भाँति उज्जैन में, धार में, माँडू में कहते। वही कवि बाजबहादुर मुझे अपनी नयन-पुत्तलिका का बना माँडू के महलों में ले गया। परन्तु उस मनस्वी की मनस्विता और मान दोनों पर आदम खाँ ने हमला किया। जहर खाकर मैंने अपनी मर्यादा की रक्षा की और हरम की शहजादियों ने अग्नि की लपटों से।

पर्दा का घटाटोप तो पहले भी कुछ कम न था, परन्तु अब तो उसने मेरी प्राचीन ‘असूर्यपश्या’ की परम्परा सर्वथा सही कर दी। मैं अपने भाई और पिता के सामने भी नहीं निकल सकती थी। किसी सम्बन्धी-स्वजन के सामने मेरा निकल जाना मर्यादा के प्रतिकूल था। अपनी बहिनों के सामने भी मुझे पर्दा करना होता था। अब मेरा आकाश मेरी अंधी कोठरी तक ही सीमित रहने लगा। अविद्या, अंधकार, व्याधि और व्यभिचार की मैं शिकार हुई। रात्रि के अंधकार में कोई पुरुष दबे पाँव आता, मुँह पर हाथ रखता जिससे मैं चूँ तक न करूँ और गृह की बहू की मर्यादा बनी रहे, कुछ करता और दबे पाँव ही लौट जाता। उसे मैं जानती न थी, कभी दिन के उजाले में देखा न था, अन्य पुरुषों के बीच उसे पहचान न सकती थी। पर वह शायद मेरा पति था। ऐसा ही लोग कहते थे।

हाँ, अकबर की याद फिर मुझे करनी होगी। उस महापुरुष ने विदेशी होकर भी, और शायद विदेशी होकर ही, वह कार्य किया जो एतद्देशीयों की दृष्टि में अधर्म था। कालिदास ने लिखा था कि परम दयावान् होने पर भी यज्ञ-धर्म में अग्निहोत्री को नितान्त दारुण कर्म पशुवध करना पडता है। भारतीय ऋत्विज के विचार में शायद दारुण कर्म होकर भी इसी प्रकार सतीदाह अवश्यकरणीय हुआ। परन्तु अकबर ने उसके विरुद्ध अपने विधान की शक्ति लगायी और यदि उसका अन्त वह न कर सका, निश्चय उसने मेरा कुछ सीमा तक त्राण किया।

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नयी जाति ने धीरे-धीरे समुद्र पार से आकर भारत पर अधिकार किया। ईस्ट इंडिया कंपनी के अफसरों ने जिस रूप से बंगाल में मुझे भोगा, वह घृणा और क्रोध दोनों का विषय है। यद्यपि मैं यह नहीं भूलती कि विलियम बैंटिंक के अनुशासन और राममोहन राय के अध्यवसाय से अग्निकांड से मेरा उद्धार हुआ। ईस्ट इंडिया कंपनी के विरुद्ध अपने पुरुषों के साथ लक्ष्मीबाई के रूप में मैंने तलवार उठायी, अपनी लम्बी पैनी तलवार, जिसकी चोट से एक बार ह्यू का हृदय भी हिल गया। परन्तु उसका परिणाम क्या हुआ? सदियों के बलिदान और सहस्राब्दियों के त्याग और सेवा का परिणाम क्या यही है कि आज जो भुगतना पड़ रहा है? परन्तु नहीं, विश्वास है कि वह मेरा बलिदान व्यर्थ नहीं जाएगा, मूर्त होकर वह मेरा कल्याण करेगा। मैं अपने सुविस्तृत अतीत की ओर देखती हूँ और काँप उठती हूँ, कहीं ऐसा न हो कि वह प्रकरण जीवन में फिर खुले।

भारत आजाद हुआ, मेरी भी स्थिति सुधरी। योरपीय नारी-स्वातंत्र्य की परम्परा ने मुझे भी आजाद किया। अनेक प्रगतिशील मुझे साथ ले चले। मुझे पर्दे से आजाद किया, बंधनों से आजाद किया। रवि ठाकुर ने लिखा, देवी नहीं, मात्र नारी, पत्नी जो पति के साथ, पुरुष के साथ कंधा मिलाकर खड़ी हो सके। मैं उन्नति के राजमार्ग पर आरूढ़ हुई। मंत्री हुई, राजदूत हुई और संयुक्त राष्ट्रमंडल की प्रधाना हुई, और भारत की धरा पर राष्ट्र की नियामिका, प्रधानमंत्री भी। सामने देखती हूँ, भविष्य की ओर, और हृदय आशा से भर उठता है। सदियों झेला है, पर सामने पौ फट रही है, उषा थिरक रही है। संघर्ष सामने है सही, पर जोर लगाकर बंधन तोड दूँगी, आगे की मंजिलें सर करूँगी, जिन्होंने लाल सूरज को छिपा रखा है।

 १५ अक्तूबर २०१५

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