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ललित निबंध

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चारदीवारी पर बाँह टिकाए खड़ा है कनेर
- पूर्णिमा वर्मन
 


चार दीवारी पर बाँह टिकाए खड़ा है कनेर, देख रहा है बगिया को, जैसे सबकी कुशल मंगल उसी की दृष्टि पर निर्भर है। जैसे वह अपनी लंबी बाँहों के चँवर डुला देगा तो दूर हो जाएँगी सारी बलाएँ, जैसे वह पीले सीकर टपका देगा तो तर जाएँगी सारी कामनाएँ, बँध जाएँगे जीवन में मंगलमय तोरण!

उसे किसी से भय नहीं है, वह निर्भय है, स्वाभिमान से तना निश्चल खड़ा सबको अभय दान देता है। गर्मियों में जब छाँह उसके नीचे सुस्ताती है तब हवा अपनी चुनरी उसकी डालियों पर लटका यहाँ वहाँ भागती फिरती है- निश्चिंत, फिर शाम ढलने से पहले थककर लौटती है, चुनरी को धीमे से उतारकर गले में डालती है और छाँह की उँगली पकड़ न जाने कहाँ गुम हो जाती है।

बड़े सवेरे जब सूरज आकाश पर पग धरता है तो उसकी किरणें धीमे धीमे पत्तियों के सोपान से छन छन कर उतरती हैं, कनेर की छाया में खिले गुल दोपहरी के पौधों से बातें करती हैं। दोपहर भर छाया के साथ आँख मिचौली खेलती हैं और शाम ढले, अपनी अलगनी समेट, उन्हीं पत्तियों के सोपान पर चढ़ सूरज के साथ विदा लेती हैं।

कनेर की सुरक्षित टहनियों में गौरैयों के घोंसले चहचहाते हैं। चूँचूँ से गुलजार रहता है उसका आँगन, उसकी बाहों से लालटेनें लटकती हैं अँधरों को रूमानी रौशनी से रचती हुई, लालटेनों से टँगी घंटियाँ रह रह कर बज उठती हैं, हवा के झोंकों से फूलों से भरे नन्हें गमले हिलते हैं हौले... कनेर घर में...मन में...दृश्य में सौंदर्य घोलता है।

कनेर के फूल सोने की घंटियों की जैसे झूलते हैं- निःशब्द। वे कभी मुरझाते नहीं, मुरझाने से पहले नीचे क्यारी में गिर जाते हैं। एक लंबी चोंच वाली चिड़िया शाख पर टिक, फूलों के गहरे प्याले में झुककर बार बार मधु पीती है। कनेर के छत्र पर मधुमक्खियाँ गुनगुनाती हैं। बच्चे उसकी दो मजबूत पत्तियाँ तोड़कर, आपस में जोड़कर बजाते हैं...चिट्...चिट... चिट...। उसके तने पर से चीटियों की एक महीन रेखा गुजरती है... चुपचाप... उनकी चुप्पी में गति की ध्वनि है। कनेर का साम्राज्य प्रकृति की सुखमय हलचलों से भरपूर है। उत्सव है चैतन्य का, मेला है आनंद का। कनेर है तो साया है, साया है तो विश्राम है, और विश्राम है तो इन सुखमय हलचलों का संसार उन सबके लिये खुला है जो इसकी छत्रछाया में हैं।

लोक में कनेर की विशेष मान्यता है। शिव जी को कनेर चढ़ते हैं। देवी बगलामुखी को भी, लेकिन कृष्ण की नगरिया भी इससे बची नहीं हैं। ब्रज में शरदकालीन पुष्पोत्सव है। गोप- गोपियाँ उल्लास के साथ पुष्पों की कलापूर्ण सजावट कर रहे हैं। इनमें फूलों की वर्णन करते हुए संगीत शिरोमणि स्वामी हरिदासजी कहते हैं-
कमल कनेर केतकी निबौरा सेबति सदा गुलाब।
गुलतुर्रा औ सदासुहागिनि फूलन की भरि छाब।
कमल कनेर केतकी नीम और गुलाब, गुलतुर्रा और सदाबहार फूलों की छवि का क्या वर्णन किया जाय! रूप ऐसा जो कहते न बने और सुने तो सुनना बंद न करना चाहे।

रुप और रस की इस दुनिया से परे कनेर का एक रंग और भी है। उदासी से भरा, दर्द में डूबा उमस से घिरा हुआ। यह रूप वैशाख जेठ की दोपहरी का है। जब दूर दूर तक सन्नाटे फैले होते हैं और पुरानी आटे की चक्की के सिवा और कोई आवाज सुनाई नहीं देती। रह-रहकर एक प्यासी चिड़िया बोलती है और चुप हो जाती है। ऐसे ही किसी एक उदास दिन को कमलेश्वर ने 'कितने पाकिस्तान' में कुछ इस तरह शब्दों में बाँधा है। हैं-
“अजीब दिन थे/ नीम के झरते हुए फूलों के दिन/ कनेर में आती पीली कलियों के दिन/ न बीतने वाली दोपहरियों के दिन/ और फिर एक के बाद एक लगातार बीतते हुए दिशाहीन दिन ...”रुतबे की बात यह है कि चाहे शरद के चढ़ते दिनों की हो, या वसंत के उतरते दिनों की कनेर की उपस्थिति दोनो जगह है। गर्म दोपहर कनेर की छाँह में अजब सन्नाटा बुनती है, ऐसा सन्नाटा जो मन उदास हो तो निराशा की घनी मसहरी तान देता है तब निराशा मसहरी के अंदर घनीभूत होकर हर तरफ से टीसती है।

ऊपर के दोनो रचनाकारों को देखकर एक बात तो समझ में आ जाती है कि किसी भी अवसर पर, किसी भी मौसम में, किसी भी बात पर, गाहे बगाहे किसी न किसी बहाने भारतीय मानस के रचनाकार कनेर को याद कर ही लेते हैं। सच कहें तो यह अनायास उतर आता है उनकी कलम में- मनोहर श्याम जोशी अपने उपन्यास कसप में नरेश मेहता के प्रसिद्ध गीत 'पीले फूल कनेर के' को नायिका के प्रेम प्रसंग में याद करते हैं तो कालिदास ऋतुसंहार में वसंत का वर्णन करते हुए कहते हैं कि वसंत में महिलाएँ अपने कानों में कनेर और अशोक के फूल धारण करती हैं। जगदीश चतुर्वेदी अपनी कविता समाधिस्थ में कहते हैं- “परांगमुख होकर/शांति खड़ी उसका इंतजार करती रही/एक अंधेरी नदी के किनारे/जहाँ कनेर के लाल फूलों पर कोयल कूक रही थी”, कोयल कूक रही तो निश्चय ही मौसम वसंत का होगा। लेकिन वसंत में भी कोई निराशा समाधिस्थ हो तो अँधेरा और सन्नाटा गहरा हो सकता है। इसमें इतना तो तय है कि यह अंधेरा कनेरों की वजह से नहीं होगा, उसका आकर्षक रूप अँधेरे को कम न कर सके तो यह अलग बत है।

'अब हैं सुर्ख कनेर' में निर्मल शुक्ल कहते हैं- "पहले पीला/ फिर नारंगी/ अब है सुर्ख कनेर" यहाँ कनेर के ये तीनों रंग जीवन की संभावनाओं के बद से बदतर होते जाने या घायल होते जाने के प्रतीक हैं। मुक्तिबोध अपनी कविता ‘पता नहीं’ में एक ऐसे घर की बात करते हैं जिसके चारों ओर मेंहदी की बाड़ है और बाहर पीले कनेर का पेड़ है। लगता है पीला कनेर अधिकतर रचनाकारों को सुख के समय याद आता है और लाल कनेर उदासियों के समय- अहाते मेंहदी के/जिनके भीतर/ है कोई घर/बाहर प्रसन्न पीली कनेर।" पीला कनेर सौम्य है, सुखद है, कल्याणकारी है- दुख से भीगे आँचल को स्वर्णिम सुख से हवा दे फहरा देता है, ढाँढस बँधाकर अपने स्वर्णिम उजास से जगमगा देता है। कवि भगवत रावत भी गुलाब के काँटों से बिंधने के बाद कनेर को याद करते हैं- "जब चुभते हैं हमें अपनी गुलाब बाड़ी के काँटे/ तब हमें दूर छूट गया कोई पुराना/ कनेर का पेड़ याद आता है। ('जब कहीं चोट लगी है' से)

कनेर का इतिहास पुराना है और इतिहास के हर चरण में उसका नाम दर्ज हुआ है। वाल्मीकि की रामायण में सीता की याद में राम दुखी होकर जिन वृक्षों से बात करते हैं उनमें से एक कनेर भी है। अबुल-फजल ने ‘आइने-अकबरी’ में २१ सुगंधित पौधों के फूलों और २९ सुंदर फूलों वाले पेड़-पौधों के बारे में बताते हुए सूरजमुखी, कमल, गुलहड़, मालती, कर्णफूल, केसर, कदंब आदि के साथ कनेर का नाम भी लिया हैं। वृंदावनलाल वर्मा के एक उपन्यास का नाम है कनेर, रमेशतैलंग के एक बालगीत संग्रह का शीर्षक कनेर के फूल है और रवीन्द्रनाथ ठाकुर द्वारा रचित 'रक्तकरबी` (लाल कनेर) नाटक को भला कौन भूल सकता है। कनेर ने विविध रंगों और छटाओं से वनस्पति वैज्ञानिकों को खूब आकर्षित किया है। धार्मिक और पौराणिक आख्यानों में अपना आसन जमाया है तो घर द्वार और आँगन उससे अछूते क्यों बचते?

कनेर हँसता है तो घर हँसता है, कनेर मुँडेर पर बैठे काग से सिर हिलाकर बतियाता है, आती जाती तितलियों के साथ विहँसता है... ऊपर ताड़ के पेड़ पर बैठे दो तोते जोर से आवाज लगाते हैं, कनेर उनकी और देखता है गर्दन उठाकर।

कनेर आश्रय देता है नन्हीं गिलहरी को जो उसके छोटे से कोटर से उतर दाना चुगती है। कनेर के नीचे एक थाला है पानी से भरा हुआ। मैं उसके पास दो मूँगफलियाँ छिक्कल सहित रखती हूँ। गिलहरी उनका छिक्कल उतारती है... सतर्क आँखों से इधर उधर ताकती है, धीरे धीरे दाने चुगती है... गिलहरी को इस तरह दाने चुगना पसंद है और मुझे दूर से कनेर की छाँह चुगना...

रचनाकार उसे अपनी रचनाओं में सहेजते हैं कलाकार चित्रों में, हवा उसकी शाखों पर चुनरी लटकाकर भागती फिरती है, सूरज की किरणें उसकी पत्तियों के सोपान उतर छाँह से खेलती हैं...

रोज रोज किसी पुरानी फिल्म की तरह ये दृश्य दोहराए जाते हैं, बार-बार, और अपने आशीष का चँदोवा ताने चार दीवारी पर बाँह टिकाए खड़ा रहता है कनेर।

१६ जून २०१४

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