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रिश्ते
कभी बोझ नहीं होते
-डा.
महेश परिमल
हम
रोज ही मौतों के बारे में पढ़ते-सुनते हैं। पर हमें
कितनों की मौत याद रहती है? सोचा कभी आपने? वैसे तो
मौत सबके लिए एक भयावह त्रासदी के रूप में सामने आती
है। पर किसी अपनों की मौत हमें भीतर तक हिला देती है,
इसके अलावा कई मौतें हम पर कोई भी असर नहीं छोड़ती।
क्या वजह है इसकी? वास्तव में जब तक हम जीवन को अपनी
जिम्मेदारी समझकर जीते हैं, तब तक यह जीवन हमें बहुत
ही प्यारा लगता है। लेकिन जिस क्षण से जीवन हमें बोझ
लगता है, तब यह समझ लो कि जीवन से हमें शिकायत है।
हम
जिसे बोझ समझते हैं, वस्तुत: वह हमारी जिम्मेदारी है।
हममें से कई ऐसे लोग हैं, जो जिंदगी को बोझ समझते हैं,
और ‘कट रही है’ या ‘घिसट रही है’ जैसे जुमले इस्तेमाल
में लाते हैं। इन लोगों के लिए जीवन भले ही एक बोझ हो,
पर ऐसे निराशावादियों को कौन समझाए कि यह जीवन ईश्वर
ने आपको कुछ करने के लिए ही दिया है। आप अपना कर्तव्य
भूलकर जीवन को अपने स्वार्थ के लिए जीना चाहते हैं, यह
भला कहाँ की समझदारी है? समझदारी तो तब है, जब आप जीवन
की हर मुश्किलों का सामना डटकर करें। ऐसी मिसाल पेश
करें कि दूसरों को प्रेरणा मिले।
अभी कुछ दिनों पहले ही मैंने बड़े भैया को उनके साठवें
जन्म दिन पर बधाई दी और कहा कि आज मैंने आपके जिगरी
दोस्त को ईद की बधाई भी दी। तब भैया ने जो कुछ भी कहा,
उससे मैं विचलित हो गया। उनका मानना था कि वह दोस्त
पहले मुझे दीवाली पर ग्रीटिंग भेजता था, तो मैं भी उसे
ईद की मुबारकबाद देता था। पर अब उसने भेजना बंद कर
दिया, तो मैंने भी सब कुछ बंद कर दिया। आखिर कहाँ तक
सँभाला जाए रिश्तों के इस बोझ को! मैं हतप्रभ था, भैया
को रिश्ते कब से बोझ लगने लगे। रिश्ते तो बोझ तब बनते
हैं, जब हम उसे निभाने में कोताही बरतने लगते हैं।
याने उस रिश्ते
को लेकर हम ही गलतफहमी में होते हैं।
एक किस्सा याद आ गया। एक बार एक यात्री चढ़ाई चढ़ रहा
था। उसके पास सामान कुछ अधिक ही था। उस सामान को उठाने
मे उसे मुश्किल हो रही थी। अचानक सामने एक किशोरी आई,
उसकी पीठ पर एक बच्चा बँधा हुआ था। किशोरी ने यात्री
की परेशानी को समझा, कहने लगी-साब, मैं आपका सामान उठा
लेती हूँ। यात्री सहमत हो गया। कुछ चढ़ाई पार करने के
बाद यात्री हाँफने लगा, किशोरी भी थक गई। तब यात्री ने
उस किशोरी से कहा- बेटी, तुम पीठ पर यह बोझ क्यों उठाई
हुई हो? तुम इसे उतार दो, तो नहीं थकोगी। तब उस किशोरी
ने जवाब दिया- यह बोझ नहीं, मेरा भाई है। बोझ तो आपका
यह सामान है। किशोरी की बात सुनकर यात्री दंग रह गया।
ज़िंदगी का पूरा फलसफा एक झटके में समझ में आ गया। एक
किशोरी से उसे बता दिया कि ज़िंदगी को कभी बोझ नहीं
समझना चाहिए। बोझ वह है, जिसे हम उठाना नहीं चाहते और
अनिच्छा से उसे उठा रहे हैं। वैसे देखा जाए तो अनिच्छा
से किया गया कार्य कभी सफलता नहीं दिलाता। अनिच्छा
याने जिस काम को करने की हमारी इच्छा ही न हो और हम
उसे किए जा रहे हों, तो तय है कि काम पूरा नहीं होगा।
आजकल सही मार्ग दर्शन के अभाव में लोग इसी तरह का जीवन
जीने के लिए विवश हैं। उत्साह के साथ प्रारंभ किया गया
काम बेहतर तो होता ही है, पर उत्साह काम के अंतिम
क्षणों तक हो, तभी वह काम शिद्दत के
साथ पूरा होगा। उत्साह
में काम करने की शक्ति होती है। यही शक्ति ही हमें
अपने अंजाम तक पहुँचाती है।
मानव एक सामाजिक प्राणी है। वह अपनों के बीच रहता है।
इनमें कभी बेगानापन नहीं होता। जिस लम्हा इंसान इंसान
के साथ बेगानापन समझे, तभी से उसके भीतर रिश्तों को
लेकर एक भारीपन आ जाता है। यही भारीपन ही आगे चलकर बोझ
बन जाता है। माँ के लिए गर्भ में पलने वाला मासूम कभी
बोझ नहीं होता। माँ का हृदय इतना विशाल होता है कि वह
उस नन्हे को बोझ समझ ही नहीं सकती। कई माँ होती है,
जिसे वह मासूम प्यारा नहीं होता, लेकिन उसे भी वह तभी
अपने से दूर करती है, जब वह गर्भ में अपनी आयु पूरी कर
लेता है, अर्थात उसे जन्म देकर ही उससे अपना नाता तोड़
लेती है। रिश्ते कभी बोझ नहीं हो सकते। रिश्ते तभी बोझ
हो जाते हैं, जब हमारा स्वार्थ रिश्तों से बड़ा हो
जाता है। स्वार्थ के सधने तक रिश्तों को महत्व देने
वाले यह भूल जाते हैं कि यही व्यवहार यदि सामने वाला
कभी उनसे करे, तो क्या होगा?
समाज में इन दिनों स्वार्थ का घेरा लगातार बढ़ रहा है।
इस घेरे में बँधकर मानव ही मानव का दुश्मन हो गया है।
इस स्थिति में बदलाव तभी संभव है, जब मानव यह सोच ले
कि जीवन क्षणभंगुर है। वैसे देखा जाए, तो आज पूरी
पृथ्वी सत्य पर ही टिकी हुई है। असत्य से कुछ नहीं
होने वाला। इंसान लगातार झूठ के सहारे चल भी नहीं
सकता। सत्य ही उसे स्थायित्व देता है। अतएव यह समझ
लेना चाहिए कि सत्य ही सब कुछ है। असत्य की आयु बहुत
छोटी होती है। सत्य जीवंत है, शाश्वत है। इस संसार में
बोझ कुछ भी नहीं है। बोझ यदि कुछ है,तो वह है स्वार्थ,
ईष्र्या, लालच, और क्रोध। हमें इसी पर विजय पाना है।
यही है शाश्वत सत्य।
अब यदि इसे ही उस मासूम की दृष्टिï से देखें, तो
स्पष्ट होगा कि जब उस मासूम के लिए उसका भाई बोझ नहीं
है, तो उस नन्हे मासूम के लिए वह बच्ची किसी माँ से कम
नहीं है। उस छोटे से बच्चे के मन में एक अमिट छाप छोड़
देगा, बहन का वह त्याग। बड़ा होकर वह अपनी इस बहन के
लिए सब कुछ करने के लिए एक पाँव पर खड़ा होगा। यही है
शाश्वत रिश्ता। ऐसे ही रिश्ते में बँधे हैं हम सब। पर
कौन समझता है, इन रिश्तों को?
१९ सितंबर २०११ |