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ललित निबंध

हिंदी गीत की चिड़िया
--यश मालवीय

गीत की चिड़िया कहीं दूर उड़ गई-सी लगती है, लेकिन मेरी हिमाकत देखिए कि मैं उसे अलगनी पर बैठा हुआ देख रहा हूँ। यह चिड़िया वस्तुतः जीवन राग की है, जो उड़ गई-सी लगती भले हो, पर कहीं दूर नहीं गई है। अकसर ही मुंडेर पर, अलगानी पर, हमारे आसपास एक गूँज की शक्ल में उभरती है। हमारे मन के आँगन में बिखरे संवेदना के दाने चुगती है, चहचहाती है कहीं आत्मा में। हमें अलस्सुबह नींद से जगाती है और लोरियाँ भी सुनाती है।

सकी लोरी में कभी कोई थकान नहीं होती। यह सारी थकान स्वर के होंठों या चोंचों से पी जाती है। यह अकाल में भी गाती है, बारिश में भीगती भी यही है, क्योंकि यह गीत की चिड़िया है। इसे हमारी-आपकी अलगनियों पर सूखते हुए कपड़ों के बीच बैठना ही है। इसकी आँखों में, पंखों में जाने कितने आसमान, कितने इंद्रधनुष छिपे होते हैं। इसकी आँखों में विद्यापति से लेकर निराला, पंत, महादेवी, बच्चन, नेपाली, वीरेंद्र मित्र, ठाकुर प्रसाद सिंह, शंभुनाथ सिंह, उमाकांत मालवीय, रवींद्र भ्रमर, रमेश रंजक तक झाँकते आए हैं। इसकी आँखों में गीत के पन्ने फड़फड़ा रहे हैं। आज जिस गीत की प्रासंगिकता पर प्रश्नचिह्न लग रहा है, उस गीत की संवेदना को आज भी जी रहे हैं हमारे घर-त्यौहार। वह जो कहते थे कि सम्मान मेरे लिए निकट एक मूल्य है, आज भले मंच पर न दिख रहे हों, पर नेपथ्य से उभरता आलोक उन्हीं का दिया हुआ है। रूप-रस-गंध का परिपाक उनके चिरंतन जीवन मूल्यों का सत्य है।

अलगनी से उड़ती चिड़िया

गीत की चिड़िया अलगनी से उड़ती चिड़िया भी है तो देर तक अलगनी हिलती रहती है, यह हिलना-थरथराना भी उसके अस्तित्व का प्रमाण होता है। रागबोध हमारी संवेदना का सत्य है, इस सत्य से साक्षात्कार के अवसर हमें रोज़ ही मिलते हैं। हमारे भीतर ही कहीं खोट होता है कि हम इसकी आँखों में आँखें डालकर देर तक बातें नहीं कर पाते। इससे साक्षात्कार सौंदर्य की आँच में सीझना होता है, रेशा-रेशा रस से भरना होता है। आत्मा में निचोड़ना होता है याद में भीगे अंगरखे को। निकलना होता है प्रेम की तलाश में, प्रेम जो कभी अभिशप्त नहीं होता। प्रेम जो कभी मरता नहीं, जो आत्मा की तरह अजर-अमर होता है, मगर इसे शब्द देना भी तलवार की धार पर चलने जैसा होता है। यह इतना सूक्ष्म होता है कि नज़र ही नहीं आता, यह इतना स्थूल होता है कि फिर इसके सिवा कुछ दिखाई भी नहीं देता।

गीतात्मक मूल्य मरे नहीं हैं

गीत की चिड़िया ने इसी प्रेम को आत्मा में धारा है। इसके चलते कोई कितना भी चिड़िया के पंख नोचे, यह लहूलुहान होती ही नहीं। यह युगदंश अनुभव तो करती है पर अपनी अलगनी, अपनी मुंडेर, अपनी उड़ान, अपना आसमान, अपना इंद्रधनुष कभी भूलती नहीं। इसी कारण सूने में भी गाती है। मरुथल में भी पंखों से रेत झारकर उड़ लेती है, ढूँढ़ लेती है कितने ही क्षितिज जिन पर संभावना के सूर्य उगाती है।

सूर्य-जिसकी किरणें आत्मीय ऊष्मा की अंगुलियाँ छूती हैं। अंगुलियाँ, जिनके छू भर लेने से सोये हुए फूल जाग उठते हैं, जाग उठती हैं सोयी हुई घाटियाँ। खिल उठते हैं नदी- घाटी-झरने-वनप्रांतर। हो जाता है काली रात की स्लेट पर उजियारे की इबारत उकेरता सवेरा। इस सवेरे को कभी छंद की वापसी तो कभी गीत की वापसी कहा जाता है, जबकि यह सवेरा हमारी अपनी साँसों में ही भरा-समोया होता है। हम ही इसकी ओर से आँखें मूँद लेते हैं। बहरहाल! यह अनुभव होता है, इतना ही बहुत है। यह इस बात का साक्षी भी है कि हमारे गीतात्मक मूल्य मरे नहीं हैं, हमारी गीतप्राणता कहीं बहुत गहरे में जी-जाग रही हैं।

फुर्र से उड़ जाती है गीत की चिड़िया

अब देखने की बात यह है कि इतने विशाल गीत-संसार में मेरे गीतों की उपस्थिति कितनी और कैसी है? गीत की चिड़िया कई बार मेरे हाथ में आकर फुर्र से उड़ जाती है, आँखें झलमलाकर रह जाती हैं। इस चिड़ियी को मैं कई पत्नी या प्रिया की आँखों में पंख खुजलाते देखता हूँ। उसकी आँखों की चमक और तरलता में मुझे उसी गीत के दर्शन होते हैं जिसे प्रायः खो गया-सा मान लिया जाता है। तात्पर्य यह है कि हमीं गीत नहीं ढूँढ़ना चाहते, जबकि वह सौंदर्य के घाटों पर अंजुरी-अंजुरी पानी पी रहा होता है। वह कभी रीतता-बीतता नहीं, वह कालातीत है। उसे कभी कृतज्ञ आँखों से देखो, वह हिलोरें भरता दिखाई देगा। उसे कभी अपने भीतर की आँखों से देखो, वह अंतर में सीढ़ियाँ उतरता मिलेगा।

ख़ैर! मुझे लगातार आँगन की अलगनी पर बैठी चिड़िया टुकुर-टुकुर निहार रही है। इसके निहारने से मेरे भीतर का मौसम ठंडी हवाओं में भीगने लगता है। यह भीगापन इस समय भी मुझे रोम-रोम, रंध्र-रंध्र से आत्मसात कर रहा है। मैं आत्मसात कर रहा हूँ, उसकी आत्मीयता का अक्षत। यह अक्षत मैं आप पर भी छोड़ता हूँ, क्योंकि आप ही इस अक्षत का पावन भाव महसूस कर सकते हैं, क्योंकि आप पढ़ते-जीते हैं और ईमानदारी से हर पढ़ने-जीनेवाला मुझे भगवान नज़र आता है। यह पूजा के अक्षत ही हैं मेरे गीत जो मूर्त्त होते हैं तो अलगनी की चिड़िया होते हैं और अमूर्त्त होते हैं तो हमारी साँसों का सच हो जाते हैं।

यह पूजा के अक्षत ही हैं मेरे गीत जो मूर्त्त होते हैं तो अलगनी की चिड़िया होते हैं और अमूर्त्त होते हैं तो हमारी साँसों का सच हो जाते हैं।

२१ सितंबर २००९

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