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ललित निबंध

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उम्र पचपन याद आता है बचपन
-भारती परिमल

 

'वो कागज की कश्ती, वो बारिश का पानी' जगजीत-चित्रा सिंह द्वारा गाई गई ग़ज़ल की ये पंक्तियाँ सुनते ही हम सब कई बरस पीछे अपने बचपन की यादों में समा जाते हैं। बचपन जहाँ केवल मस्ती ही मस्ती होती है। हम सबका बचपन तितली की तरह उड़ता, चिड़िया की तरह चहकता और गिलहरी की तरह फुदकता हुआ था। सुख और दु:ख की घनी छाँव क्या होती है, इसकी हमें खबर न थी।

सावन की पहली फुहार का बेताबी से इंतजार रहता था हम सबको। बूँदें धरती पर गिरी नहीं कि हथेली उसे सहेजने के लिए अपने आप ही आगे बढ़ जाती थी। पलकों को छूती हुई वे बूँदें मन को भिगो जाती थी। बारिश में भीगने का ऐसा जुनून होता था कि भरी दोपहरी में जब घर के सारे लोग सो रहे हों, तब चुपके से माँ की ओट छोड़ कर दबे पाँव एक कमरे से दूसरा कमरा पार करते हुए, धीरे से किवाड़ खोल कर घर की देहरी लांघ जाते थे। देहरी लांघने में खतरा हो, तो दीवार फाँदने में देर नहीं करते थे। फिर एक के बाद एक सबको आवाज देते, किसी को खिड़की से पुकारते, तो किसी को पक्षी या जानवर की आवाज के इशारे से पुकारते घर के बाहर ले आते थे। फिर लगता था मस्ती का मेला, खुद की मस्ती, खुद की दुनिया। काला घुम्मड़ आकाश और कौंधती-कड़कड़ाती बिजली के बीच मूसलाधार बारिश में उफन आए पोखरों व नालों में कागज की कश्ती बनाना और उसे दूर तक जाते हुए देखना कितना सुखद अहसास है। तब न कपड़े भीगने का डर पास फटकता था, न ही दादाजी की छड़ी और न ही माँ की झिड़की या पिता की पिटाई याद आती थी। उस समय तो मन बस भीगा होता था, मटमैले पानी में डूबती-उतराती कश्तियों में।

हममें से भला कौन होगा, जिन्हें अपना बचपन बुरा लगता होगा। एक वही थाती है, जो जीवन भर हमारे साथ होती है, कभी रात को चुपचाप बिना बताए भी चला आता है, यह शरारती बचपन। हम भले ही यह कहते रहें- भला यह भी कोई उम्र है, जो हम अपने बचपन जैसी हरकतें करें? पर वह कहाँ मानता है, थोड़ी-सी चुहल के बाद वह हमसे करा ही लेता है, ऐसी कोई न कोई हरकत, जिसे हम बचपन में बार-बार करते थे। इस बार करते समय हम भी थोड़ा सहम गए थे, कहीं किसी ने देख तो नहीं लिया ना। यह होता है बचपन का एक छोटा-सा अहसास, जो मन को भीतर तक गुदगुदा कर रख देता है। हमारे बचपन को तो यह अच्छी तरह याद है, जब हम सब बहते पानी के बीचोबीच खड़े हो जाते थे, नीचे से रेत खिसकती थी, हमें ऐसी गुदगुदी होती थी, मानों रेत नहीं, रूई के फाहों से कोई हमारे घावों को हल्के से साफ कर रहा हो। आज भी जब कभी चोट लगती है, कंपाउंडर हमारे घाव को रूई से साफ करता है, तो वही अहसास धीरे से हमारे सामने आ खड़ा होता है। हम कनखियों से उसे देख लेते हैं, उसे पास नहीं बुलाते। केवल इसलिए कि कहीं वह हमारे बचपन की शरारतों को गिनाना शुरू न कर दे।

हममें से शायद ही कोई ऐसा होगा, जिसका बचपन शरारतों के साथ न गुजरा हो। शरारतें भी ऐसी कि जिसे यदि आज याद किया जाए, तो हमारे यौवन को भी शर्म आने लगे। मेंढक पकड़कर साथी की जेब में डालना, तितलियों और पतंगों को पकड़कर डिब्बे में बंद कर एक साथ छोड़ना, पतंगों के पीछे धागे बाँधना, कीचड़ से सने पैरों समेत बेधड़क घर में घुस जाना, केंचुए पर नमक छिड़ककर उसका छटपटाना देखना, पेड़ पर चढ़कर डालियों को तेजी से हिलाकर राहगीर को भिगो देना, बस्ते को जानबूझकर भिगो कर शाला न जाने के बहाने करना, पेन की स्याही को बहते पानी में डालना, पानी भरे जूतों से थपथप करते हुए चलना, पानी भरे गड्ढों से ही गुजरना, ऐसी शरारतों की सूची काफी लंबी हो सकती है, अपने-अपने अनुभवों के आधार पर। किंतु यह सारी शरारतें केवल बचपन की ही देन हैं। हमारा यौवन इस तरह की शरारतें करने के लिए गवाही नहीं देता। कोमल मन की कोमल भावनाओं से भरा हमारा बचपन आज भी हमारे ही भीतर है, पर हम हैं कि उसे बाहर ही नहीं आने देते।

आज जब हम बच्चों को उस तरह की शरारतें करते देखते हैं, तब एक बार तो लगता है कि बच्चे ये क्या कर रहे हैं, पर तभी हमारे भीतर से आवाज आती है, क्या तुमने यह सब नहीं किया? आज हम सोचते हैं कि हमारा बचपन अब चौराहों पर ही सिमट गया है, जहाँ से एक रास्ता यौवन को गया, एक विवाहित जीवन को गया, एक नौकरी के नाम पर गया और एक यह उम्र, जब बचपन को याद करते हुए आंखें भीग रही हैं। पचपन में आंखों का भीगना फिर बचपन में ले जाता है, जब बारिश के पानी को पलकों पर लेते थे, कभी उसका स्वाद अपनी जीभ पर लेते थे। कभी धोखे से पानी यदि खुली आंख पर चला जाता था, तब आंखें काफी पीड़ा देती थी। पर उस समय तो पीड़ा से नाता ही टूटा रहता था हमारा। हम किसी भी पीड़ा को नहीं जानते थे। हमारी पीड़ा वह थी, जब हमारा कोई साथी बुखार से तप रहा होता था, या फिर उसकी झोपड़ी में बारिश का पानी भर जाता था, गाँव से शाला आते हुए किसी साथी की कापी-किताबें पानी में बह जाती थी और शिक्षक उसे भीगे कपड़ों में ही क्लास के बाहर खड़े कर देते थे। यही थी हमारी पीड़ा।

आज हमारा बचपन तो हमारे साथ है, पर हमारे बच्चों का बचपन शायद उनसे दूर जा रहा है। बारिश के बहते पानी में उनकी कागज की कश्ती दूर कहीं चली गई है। उनकी हरकतों में वह अल्हड़ता, वह मस्ती, वह उमंग दिखाई नहीं देती, जिसे हमने विरासत में पाया। हमारे बचपन में तो चाँद में परियाँ रहती थी, पर हमारे बच्चों के बचपन में परी तो नहीं रहती, बल्कि चाँद में क्या सचमुच जीवन है या नहीं, यही उनके शोध का विषय बना हुआ है। कॉपी-किताबों, टीवी, चैनल, कंप्यूटर ने उनके बालपन को सीधे यौवन में पहुँचा दिया है। उनका बचपन स्कूल, ट्यूशन और होमवर्क में बट कर रह गया है।

अब नहीं थमती उनकी नन्हीं हथेलियों पर पानी की बूँदें, रिमझिम फुहारें उन्हें भिगो नहीं पाती, पैरों तले फिसलती रेत की गुदगुदी को वे महसूस नहीं कर पाते, उनकी कल्पनाओं में कोई कागज की कश्ती ही नहीं, तितलियों और पतंगों की हल्की-सी छुअन का अहसास भी नहीं जागता उनकी हथेलियों में। उनकी नन्हीं आंखों में पल रहे हैं माता-पिता के सपने और पीठ पर है अपेक्षाओं का बोझ। ऐसे में भला कहाँ ठहर पाता है बचपन? हमने तो खूब जिया अपने बचपन को। पर हमारी संतान अपने बचपन से काफी दूर हो गई है। यदि हम उनमें अपना ही बचपन देखना चाहते हैं, तो उनके बचपन के साथ अपने बचपन को मिलाकर एक बार, केवल एक बार अपनी छत पर बारिश के पानी में खूब भीगें, खूब बतियाएँ, खूब मस्ती करें और खूब छोड़ें इस बारिश में कागज की कश्तियाँ।

16 मई 2007

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