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कुछ
अतिरिक्त ही बनाता है हमें श्रेष्ठ
- महेश परिमल
छत्तीसगढ़ी भाषा का एक शब्द है,
पुरौनी। यह उस वक्त इस्तेमाल किया जाता है, जब हम कुछ सौदा लेते हैं, तो आखिर में
विक्रेता हमारी झोली में एक मुट्ठी और डाल दता है। यह अतिरिक्त प्राप्त करना
ग्राहक को खुश कर देता है। विज्ञान के प्रयोग के दौरान जब ब्यूरेट से क्षार बीकर
में जाता है, तो एक अतिरिक्त बूँद से अम्ल का रंग बदल जाता है। यहाँ भी अतिरिक्त
होना महत्वपूर्ण है। इस अतिरिक्त का यह सिलसिला हमारे जीवन में भी चलता ही रहता है।
हम जिस संस्था में काम करते हैं, वहाँ हमारा आठ घंटे काम करना पर्याप्त नहीं माना
जाएगा। उन आठ घंटों के अलावा आप संस्था को और कितना समय देते हैं, यह महत्वपूर्ण
है। जीवन के हर क्षेत्र में यह अतिरिक्त हमारे आसपास होता है। बैरे को टीप देना भी
इसी का एक अंग है। इसके बिना किसी भी परिश्रम का अधूरा ही माना जाएगा। अतिरिक्त के
रूप में आपकी योग्यता भी हो सकती है, धन भी और समय तो है ही।
जिस तरह से हमें हर महीने वेतन प्राप्त होता है, उसके बाद जब हमें बोनस मिलता है,
तो हम इसे अतिरिक्त वेतन मानते हैं। ठीक इसी तरह जीवन में हमें जो कुछ भी करते हैं,
उसमें हम कुछ अतिरिक्त जोड़ दें, तो वह हमारे लिए महत्वपूर्ण हो जाता है। गायन के
क्षेत्र में भी यह अतिरिक्त कई बार देखा गया है। मोहम्मद रफी ने कई कलाकारों को
अपनी आवाज दी है। पर जॉनीवॉकर के लिए उनकी आवाज एकदम से अलग है। आपको याद होगा-सर
जो तेरा चकराए या दिल डूबा जाए"। इसी तरह जब वे शम्मीकपूर के लिए गाते हैं, तो उनका
अंदाज थिरकने वाला हो जाता है। किशोर कुमार की अपनी विशेषता "उडलइ" थी। जो वे मस्ती
भरे गाने के बीच में ले ही आते थे। इस तरह से हमारे जीवन में हम जो कुछ भी करते
हैं, उसे और बेहतर बनाने के लिए हमें अतिरिक्त मेहनत करनी होती है। यही अतिरिक्त
मेहनत ही हमें अपने कार्य में श्रेष्ठ बनाने में सहायक होती है।
कमल हासन ने एक साक्षात्कार में कहा था कि यदि मैं कलाकार न भी होता, तो भी जो कुछ
करता, उसे कुछ अलग ही तरीके से करता। भले ही वह काम झाडू़ लगाने का ही क्यों न हो।
हमारे आसपास बहुत से ऐसे लोग मिल जाएँगे, तो बड़े से बड़े काम को बड़ी आसानी से कर
लेते हैं। इसकी वजह है कि उस काम को करने के लिए उन्होंने अतिेरिक्त मेहनत की है।
जो सबके लिए मुश्किल होता है, वह काम कुछ लोगों के लिए बड़ा आसान होता है। इसके पीछे
कड़ी मेहनत और लगन की आवश्यकता होती है। यह दोनों रत्न हमें एकाग्रता से प्राप्त
होते हैं।
कुछ अतिरिक्त देना और कुछ अतिरिक्त प्राप्त करना दोनों ही सुखद अनुभूति है। कई बार
किसी भाषा का जानना भी एक योग्यता हो सकती है। विशेषकर उन परिस्थितियों में जब किसी
संस्था को अपनी क्षेत्रीय शाखा खोलने के लिए वहाँ की बोली या भाषा जानने वाले की
आवश्यकता होती है। हिंदी अखबार के एक समूह ने गुजराती में अखबार निकाला, तो
मध्यप्रदेश के अपनी हेड ऑफिस में उन्होंने एक मूल रूप से गुजराती किंतु हिंदी भाषी
पत्रकार को गुजराती अखबार की समीक्षा के लिए रख लिया। इससे उनके गुजराती अखबार के
सभी पत्रकार एवं संपादक सचेत हो गए। वे अब मालिक को दिग्भ्रमित करने की हिम्मत नहीं
कर पाते। इस तरह से हिंदीभाषी पत्रकार को उसकी मातृभाषा अतिरिक्त योग्यता के रूप
में काम आ गई।
कुछ लोग इसे देश प्रेम से भी जोड़कर देखते हैं। जापान में काम के दौरान यदि किसी
कर्मचारी को यह सूचना मिलती है कि उसे संतान की प्राप्ति हुई, तो वह दो घंटे
अतिरिक्त काम कर अपनी खुशी का इजहार करता है। इसके पीछे उसका यह मानना है कि मैंने
अपनी खुशी के लिए जीवन के दो घंटे अतिरिक्त दिए। यह आवश्यक नहीं कि खुशी का इजहार
करने के लिए वह ऑफिस में ही दो घंटे काम करे। वह सड़क पर झाडू लगाने में भी नहीं
हिचकता। जीवन के हर क्षेत्र में यह अतिरिक्तता काम आती है। दोनों पक्ष अतिरिक्त की
आशा रखते हैं। मालिक कर्मचारी से यह आशा रखता है कि अधिक से अधिक काम लिया जाए और
कम से कम भुगतान किया जाए। दूसरी ओर कर्मचारी यही सोचता है कि कम से कम काम किया
जाए और अधिक से अधिक भुगतान लिया जाए। जब यह तादात्म्य हो जाता है, तो जीवन दोनों
के लिए आसान हो जाता है।
जीवन में हमें अतिरिक्त देने के लिए सदैव तैयार रहना चाहिए। यह अतिरिक्त ही हमारी
पहचान बनेगा। हमारे काम में भी इस अतिरिक्त की पहचान होगी। सभी कर्मचारी 8 घंटे तक
कार्यालय में काम करते हैं, पर कुछ लोग ही प्रमोशन के हकदार होते हैं, इसके पीछे
यही अतिरिक्त का भाव सामने आता है। आज का समय सौ प्रतिशत का नहीं, बल्कि सौ से
ज्यादा प्रतिशत का है। अब बातचीत में लोग हंड्रेड परसेंट की बात नहीं करते, बल्कि
हंड्रेड वन या हंड्रेड टेन की बात करने लगे हैं। इसी से अंदाज हो जाना चाहिए कि
हमें अतिरिक्त में क्या-क्या देना है और क्या-क्या नहीं देना है? इस चक्कर में हम
कहीं अपने जीवन का आधार तो नहीं दे रहे हैं?
यहाँ आकर हमें ठिठककर यह सोचना होगा कि हम इतना सब कुछ कर रहे हैं, तो इस दौरान
हमारा परिवार हमारे साथ ही है ना? कहीं वह हमसे दूर तो नहीं हो गया। हमारे अपनों के
बीच हमारी पहचान कायम है ना? संस्था को हम अपने आठ घंटे देने के बाद छह घंटे
अतिरिक्त तो नहीं दे रहे हैं? ऐसे में संस्था इस अतिरिक्त से खुश हो जाए, पद और
वेतन भी बढ़ जाए, तक क्या? क्योंकि इस बीच हमारे अपने ही हमारे न रहे, परिवार दूर
चला गया, बच्चों ने पहचानने से ही मना कर दिया। मालिक का पिछलग्गू होने का खिताब
मिल गया। तो फिर उस जीवन का क्या अर्थ रह जाएगा? यह अतिरिक्त करने का मुआवजा हमें
असामाजिक होकर चुकाना पड़ता है। इसलिए हमें अतिरिक्त देने और अतिरिक्त प्राप्त करने
के बीच संतुलन बनाना होगा। तभी जीवन आसान होगा।
१ फरवरी २०२४ |