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दृष्टिकोण

नज़र नही आते लोग अब कटोरियों में प्यार बांटते!
--अनिल पुसदकर
 

पता नही क्यों घरों के बीच की दीवारों में अंतर रखने का नियम बना दिया गया है। इससे दीवारों के बीच अंतर तो बढा ही है दिलों के बीच दूरियाँ भी बढती जा रही है। कल की ही बात है आई ने शाम को आम का नया अचार बनाया। रात को खाना खाते समय मुझे नया अचार देकर एक दो नामों को याद किया और गहरी साँस लेकर खामोश हो गई। मैने पूछा क्या हो गया? तो बोलीं, "पता नही क्यों मुझे नई कालोनियों से पुराने मुहल्ले ज्यादा अच्छे लगते हैं। देख ना नया अचार बना है और सिर्फ़ अपन ही खायेंगे? पहले तो अचार बनाते ही सबके घरों के लिये अलग हिस्सा निकाल कर रखना पड़ता था।"

मुझे लगा वे सच ही कह रही हैं। अचार तो बहुत दूर, कभी ऐसा नहीं होता था कि पड़ोस में कोई विशेष व्यंजन बने और वह कटोरियों में भर कर पड़ोसियों के घर ना पहुँचे। विशेष व्यंजन तो विशेष मौके पर बनते थे लेकिन सब्जियाँ तक चखने के नाम पर एक-दूसरे के घरों में भेजी जाती थी। मुझे याद है कई बार हम लोग कटोरियाँ या दूसरे बर्तनों में कुछ लेकर जाते थे तो उसी समय उसी कटोरी में दूसरी सब्जी या कोई और पकवान भर कर वापस किया जाता था।

कटोरियों में भरा वो प्यार होता था, जो पड़ोसी हमेशा एक दूसरे से बाँटते रहते थे। सब्जियों को पकाने से लेकर अचार के मसालों के बहाने उनमें लम्बी-लम्बी बातें हुआ करती थीं। कटोरियों में भरा प्यार आपस के रिश्तों को मज़बूत करता था। मगर अब तो नज़र ही नही आते लोग अब कटोरियों में प्यार बाँटते हुये! बहुत ज्यादा हुआ तो होली-दीवाली एक दूसरे के घर चले गये और जो कुछ प्यार से सामने रखो- अरे पेट भरा हुआ है, आजकल यही चल रहा है ना और भी बहुत से घरों में जाना है, कह कर उठते समय खरीदे हुए पकवानों सी खरीदी हुई मुस्कान देकर विदा हो जाते हैं- अगले त्योहार तक।

पड़ोस की जैसे परिभाषा ही बदल गई है और टीवी ने तो हर घर को टापू बना दिया है,हर घर क्या? हर घर के अलग-अलग कमरों को अलग-अलग टापू में बदल दिया है। हर कमरे में टीवी और हर किसी का अलग-अलग फ़ेवरेट प्रोग्राम। बस टीवी शुरु हुआ और सब अपने-अपने काला-पानी की सज़ा पर।

समय के साथ बहुत कुछ बदल गया है। अब घरों में पकवान और मिठाईयाँ नहीं बनतीं। पानी तक बाजार से खरीदकर आने लगा है। सेहत का ध्यान रखते हुए ज्यादातर समय कम स्वादिष्ट खाना खाते हुए बिताया जाता है। लोग भी व्यस्त हैं। आपसी प्यार की बजाए व्यक्तिगत सुविधाओं का मूल्य बढ़ा है। मिल बाँटकर रहने की बजाय अपने दिखावे की प्रवृत्ति बलवती हुई है। अब हमारा सारा ध्यान घर में बनी खीर बाँटकर खाने की बजाय नई कार खरीदने के लिए पैसे जुटाने के जुगाड़ में लगा रहता है। बाजार सामानों से भरे हैं और खरीदारी की होड़ जारी है। हर व्यक्ति कहीं न कहीं इससे प्रभावित हुआ है।

मगर आई का क्या करें? उन्हे आज भी बुन्दू याद आती हैं। वे अब दुनिया में नही है, लेकिन जब तक जीवित रहीं ईद पर सेवाईंयों से भरा पहला डिब्बा वे हमारे घर ही भेजती थी। उन्हें मालूम था, आई नही खायेगी लेकिन बच्चे सारे खाएँगे। मेरी एक भांजी अंडा शौक से खाती थी। उन्हें जैसे ही इस बात का पता चला वे उसे अपने घर ले जाकर अंडा खिलाती थी। आई को बहुत से लोग याद आते हैं जिन्हें उनके हाथ का बना चिवड़ा, पोहे, भजिये और पालक की दाल पसंद थे।

पुराने मुहल्लों के मकान आपस में सटे गुँथे होते थे। मकानों की छतों की तरह उन मकानों में रहने वालों के दिल और रिश्ते भी सटे गुथे रहते थे। नए मुहल्लों में समांतर दूरी पर बने मकान दिलों को भी ऐसी समांतर रेखाओं में बाँटते हैं जो साथ रहती तो हैं पर मिलती कभी नहीं। क्या किया जा सकता है? अब तो पुराना मुहल्ला पीछे छूट चुका है और शायद समय भी

१ फरवरी २०१०

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