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नवगीतों में
माघ के महीने की उपस्थिति
- डॉ. भावना तिवारी


माघ मास अर्थात् शीत ऋतु का उत्तरार्ध। माघ मास का आगमन जैसे ही धरती पर होता है, पूष की ठिठुरन पश्चात् सूर्य का सप्ताश्व-रथ शनैः-शनैः उत्तरी गोलार्ध की ओर बढ़ते हुए मकर राशि में प्रवेश करने की यात्रा कर रहा होता है। माघ, भारतीय ऋतु-चक्र का मर्मस्थल है, जब सूर्य उत्तरायण में होते हुए भी शीत के आधिपत्य की कठोरता और कोमलता की संयुक्ति, तप, संयम और साधना का प्राकृतिक वातावरण निर्मित करता है। दूरस्थ देवालय से घंटियों की पावनतम मधुर अनुगूँज, मंत्रोच्चारण की प्रतिध्वनियाँ, शांत वातवरण को, समग्रता से किसी ध्यानस्थ सन्यासी सा आकर्षण प्रदान करते हैं। प्रकृति के मौन तपस्विनी स्वरुप के सौन्दर्य में अभिवृद्धि करना माघ का विशेष गुण है, जहाँ शीत की कठोरता और अलभ्य कोमलता का सामंजस्य है।

माघ माह नवगीतकारों के लिए भी महत्वपूर्ण रहा है। नवगीत एक ऐसी विधा है जिससे कोई भी विषय अछूता नहीं रहा है। यह कल्पनालोक से हटकर यथार्थचित्र बनाता है। माघ को भी नवगीतकारों ने अपने-अपने ढंग से अभिव्यक्त किया है, किन्तु एक बात सर्वत्र दृष्टिगत है कि माघ के साथ परिपृष्ठ में समाहित अनेक आयामों को स्पर्श किया है। आलेख में उल्लिखित उद्धरण इस बात को प्रमाणित करेंगे। कुछ नवगीतकारों के पद्यांश उदाहरणार्थ प्रस्तुत हैं।

पूर्णिमा वर्मन का नवगीतकार प्रकृति उपासक है। वे प्रकृति के सौन्दर्य और सरलता से गहन भावाभिव्यक्ति करने में निपुण हैं। माघ की भोर का एक चित्रतात्मक उद्धरण प्रस्तुत है, जो माघ के सौंदर्य, कठोरता, पवित्रता और आध्यात्म की एक संयुक्त अनुभूति है—रात्रिकालीन कुहेलिका वितान के उपरान्त दबी-सकुचाई माघ की अरुणिम प्रात केवल एक ऋतु-दृश्य नहीं, अपितु एक आध्यात्मिक अनुभूति की तरह उतरता है।
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माघ का सुंदर सवेरा खिल रहा
बटियों के ऊपर
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शालिग्रामों की चरण रज गहे यह मन
सदा मंगल दायिनी हो प्रकृति पावन
पर्वतों से दीप्त उतरें स्वस्ति
मुद्रा में शुभंकर

उपरोक्त काव्यांश में प्रकृति, मनुष्य और देवत्व तीनों एक ही लय में उपस्थित हैं। इस रचना में माघ का सवेरा केवल दृश्य नहीं, बल्कि एक संपूर्ण अनुभूति बनकर प्रस्फुटित होता है। यहाँ “बटियों के ऊपर खिलता सवेरा” ग्रामीण जीवन की उस पुरातन गरिमा का सूक्ष्म संकेत है। इस समय सूर्य की किरणें पर्वतों पर जिस विशिष्ट स्वर्णाभा में उतरती हैं, वह भारतीय सांस्कृतिक चेतना में सदैव शुभ और स्वस्ति का प्रतीक मानी गई है। तड़के ही श्रद्धालु गंगा तट पर स्नान ध्यान में संलग्न रहते हैं। शालिग्रामों की “चरण-रज” का स्पर्श मन का पवित्रीकरण है। गण्डकी का नवगीत में समाहित हो जाना उसकी सार्थकता है। गंडकी क्षेत्र में माघ-स्नान और शालिग्राम पूजा का महत्त्व अत्यंत प्राचीन और पुराणोक्त है।

शास्त्रों के अनुसार “माघे निमग्नाः सलिले सुशीते”, यानी माघ मास में ब्रह्ममुहूर्त में नदी-सरोवर में स्नान अत्यंत पुण्यदायक है। पुराणों में वर्णित मान्यतानुसार माघ महीने में देवताओं का निवास गंगा में होने के कारण इसके तट पर अनेक श्रद्धालु कल्पवास और विशिष्ट अनुष्ठान करते हैं। विशेष रूप से राजस्थान के बीकानेर जिले के कोलायत (कपिलायत) में स्थित सांख्य दर्शन के प्रवर्तक कपिल मुनि सरोवर में स्नान से देवताओं की कृपा और जीवन में सुख-समृद्धि आती है। यही मान्यता, श्रद्धा और अटूट विश्वास माघ मेले और आगे चलकर कुंभ की परंपरा में विकसित हुई। माघ मास को “तप, नियम और आंतरिक ऊर्जा का योग-माह” कहा गया है। माघ मास का आगमन भारतीय मानस में विशेष आध्यात्मिक स्पंदन लाता है।

पुराणों में बार-बार कहा गया है: “माघे दानेन न कोऽपि तुल्यते”— माघ में किया गया दान अपने आप में अद्वितीय है। लोकमानस मानता है कि “माघ का दान वर्षभर के पापों को गलाता है।” “माघ में जिसने दान किया, उसके घर से दुख-दरिद्रता दूर होती है।” “माघ में दिया गया दान हजार गुना फल देता है।”
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संगम तट पर नित्य स्नान करने वाले
माघ माह में पुण्य-दान करने वाले
ढोल बजाकर सहज ध्यान करने वाले
अपने ऊपर स्वयं मान करने वाले
जब तक धूल जमी दर्पण पर
धरम-करम बेकार
कोई देवता नहीं करेगा
पूजा ये स्वीकार।

भावना तिवारी का उपरोक्त उल्लिखित पद्यांश माघ महीने की पवित्रता और उसमें किए जाने वाले समस्त धार्मिक अनुष्ठानों की सार्थकता तभी मानती हैं, जब मानवता और विश्वबंधुत्व की भावना इन उत्सवों का गूढ़ार्थ, हर क्रिया का उद्देश्य और लक्ष्य हो जाए।

माघ के परिवर्तनीय ऋतुचक्र में प्रकृति क्षीण-सी प्रतीत होती है। धुंध, शीतलहर, जमी हुई पगडंडियाँ और ठहरा-सा प्रतीत होता जीवन। ऐसे में धूप का आगमन उत्सवी हो जाता है। उत्तर भारत के गाँवों में यह माघीय धूप स्वर्ण-सी मूल्यवान हो जाती है क्योंकि खेतिहरों की दिन की कठोरता को कम कर श्रम को संभव बनाती है। मंजुलता श्रीवास्तव का एक उद्धरण प्रस्तुत है, जिसमें माघ की धूप को सौन्दर्य, करुणा और जीवन-स्पर्श के प्रतीक के रूप में देखा गया है। स्त्री-सौंदर्य और उष्ण आशा के रूपकों से जोड़ा है। धूप का “दुल्हन” की तरह उतरना सांस्कृतिक विस्तार है। यहाँ धूप केवल मौसम का तत्व नहीं—बल्कि माघ का सांस्कृतिक, भावनात्मक और प्रतीकात्मक केंद्र है।
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ठुमक-ठुमक शर्माती दुल्हन जैसी उतरी
धूप माघ की
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खेतों पर आँचल फैलाए मीनारों पर चढ़ इतराये
छज्जे ऊपर बनी नायिका तिर्यक मुख अपना दिखलाए
सहमी चिड़िया के पंखों में ऊर्जा भरती
धूप माघ की

अनामिका सिंह का गीतांश माघ की दुल्हन–‘धूप’ को नानी के घर विदा कर देता है। किन्तु धूप का अभाव और कोहरे का साम्राज्य भी बालमन का उत्साह और ऊर्जा को क्षरण नहीं कर पाते। वे मुँह से निकलती भाप के छल्ले उड़ाकर कठिनाई को खेल में बदलते हुए मानो चिढ़ाते हों माघ के हेडमास्टर को। यह दृश्य न केवल खेल है, बल्कि एक अद्भुत बाल-वैज्ञानिक प्रयोग जैसा लगता है। जाड़े का परिमाप गिरते पारे में नहीं, बच्चों की आँखों में झलकते विस्मय में, हँसी और कल्पना में मिलता है। सरल, जीवंत, यथार्थपरक वातावरण में यह उद्धरण अपनी मासूम शक्ति के साथ उभरता है।
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ओस झरी है आसमान से
कुहरा पसर गया
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धूप गई, अपनी नानी घर हुआ धुँध का राज
आँखें दिखा रहा बच्चों को कुहरे का अंदाज
बना रहे हैं छल्ले, मुख से निकल रही है भाप
लुढ़का पारा, बता रहा है जाड़े का परिमाप
सहमे पंछी हैं जैसे पर
कोई कतर गया

बालकों के लिए जो माघ आनंद का स्रोत है, वही माघ कृषकों, श्रमिकों, पशुपालकों इत्यादि के लिए सहनशीलता के कड़े परीक्षक की भाँति गाँवों में ठण्ड के कठिन प्रश्नपत्र लेकर गाँवों की पाठशाला में प्रवेश करता हुआ जीवन के पाठ पढ़ाता है। कड़ी चुनौतियों के लिए तैयार करता है। सीमित संसाधनों, अभावों, आर्थिक सीमाओं, पर्यावरणीय बाधाओं, ऋतुगत अस्त-व्यस्तता में कम सुविधासंपन्न जनों को संतुलन स्थापित करने को प्रेरित और प्रशिक्षित करता है, जिसमें प्रतिदिन शरीर और मन को तापमान के विरुद्ध संघर्ष करना पड़ता है। कोहरे की स्थूल परत और गिरते हुए पारे के विरुद्ध युद्ध में अलाव ही सम्बल और ढाल बनता है।

माघ-पूस की ठंड के इसी जीवंत, दुराग्रही चरित्र का कठोर यथार्थ, मक्खन मुरादाबादी का नवगीतांश निर्भीक स्वर में प्रस्तुत करता है—
फिर से अकड़ दिखाने आए माघ-पूस के जाड़े
थर-थर काँप रहे शिथिलाकर अच्छे खासे ठाड़े
इनसे पुर अलाव अँगीठी लेकर आग लड़े हैं
ठिठुरन भी पर घाघ बहुत है, नीले होठ पड़े हैं
गिर पारे ने शिखर गलन के
कीर्तिमान सब फाड़े

“अकड़ दिखाने आए”—यह वाक्य ठंड को निष्क्रिय प्राकृतिक स्थिति न मानकर, एक सक्रिय और आक्रामक शक्ति के रूप में चित्रित करता है। अलाव और अँगीठी का प्रतीकात्मक प्रयोग मनुष्य की सामूहिक जिजीविषा का प्रतिनिधित्व करता है। प्रकृति की शक्ति मनुष्य की प्रतिरोधक क्षमता से कहीं अधिक व्यापक है। पारे का गिरना उन कठिनाइयों का रूपक है, जिन्हें सामना करते हुए ग्रामीण जीवन स्वयं को ढालता है।

माघ मास में अनेक त्योहार आते हैं, जिसमें खिचड़ी में दान-पुण्य का विशेष महत्त्व है। मायके से बेटियों की ससुराल भेजी जाने वाली खिचड़ी उत्तरभारत की परम्परा में समाहित है, जो सम्मान, संस्कार और प्रेम का प्रतीक है। किन्तु कम आमदनी वाले, आभावग्रस्त माता-पिता का दर्द अभिव्यक्त होता है, जब उनके अगाध प्रेम के आगे खिचड़ी छोटी न पड़े का भाव उठता है। कम होते हुए भी बाँटने का सुख ग्राम-जीवन का चरित्र है।
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अम्मा-बाबू की आँखों से करने नींद फरार
लिये माघ आया अपने संग नइहर पर कुछ भार
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खिचड़ी पर तिल, गुड़, चावल का करने लगे जुगाड़
बिटिया के घर पहुँचाने को बेबस बूढ़े हाड़
कुछ को भाया है यह मौसम
कुछ को अखर गया

अनामिका सिंह का उपरोक्त उद्धरण सामाजिक-भावनात्मक पक्ष को प्रस्तुत करता है। नॉस्टैल्जिया, सामाजिक संवेदना, ग्रामीण यथार्थ ही माघ की मूल आत्मा है। रिश्तों में बँधी पंक्तियाँ, सहज बोलचाल, लोक-स्वाद, और भाव-चित्रण मार्मिक है। माघ की वास्तविक घरेलू छवियाँ। उम्र, गरीबी और दायित्व का सशक्त चित्रण। मौसम के दोहरे अनुभव, अर्थात् किसी को सुख, किसी को दुःख, नवगीत को दार्शनिक मोड़ देती है, क्योंकि ऋतु मनुष्य की ग्राह्य क्षमतानुसार उसे सुखी या दुखी करती है।

एक तरफ बेटी के घर त्योहारी का दृश्यांकन नवगीतों में हुआ है, वहीं दूसरी और बहू के प्रति पीड़ादायी व्यवहार परंपराओं की आड़ लेता हुआ दिखाई देता है। इसी पृष्ठभूमि पर रमाशंकर वर्मा का एक गीतांश प्रस्तुत है—
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ठिरने लगीं उंगलियाँ जल में मुँह से निकले भाप।
पूस-माघ का चिल्ला जाड़ा अरे बाप रे! बाप!
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मिला सास से नई बहू को भोरहें ही ताना
बिना नहाए चौके में बेजा दुल्हन जाना
नहीं सिखाया माई-बाप ने
ऐसा करना पाप।

रमाशंकर वर्मा ग्रामीण परिवेश और आंचलिक शब्दों, यथा नवगीत मुरैठा बंडी, चिल्ला जाड़ा, भोरहें, जैसे अनेक आंचलिक शब्दों को जिस कुशलता से प्रयोग करते हैं, वह नवगीत के सौन्दर्य को द्विगुणित करता है। अपनी परम्पराओं और नियमों के प्रति महानगर कितना ही कोहरा ओढ़ ले, किन्तु गाँवों में अपना सम्पूर्ण जीवन इन्हीं परम्पराओं का निर्वहन करती आ रही सास एक कड़ी प्राध्यापक हो जाती है, जो बहू को शुचिता और अनुशासन का पाठ पढ़ाना ही अपना एकमात्र कर्तव्य मानती है। जहाँ मवेशी टाट ओढ़े, अपने स्थान पर ही जड़ से हो गए हों, अन्नपूर्णा स्वरुपा बहू का रसोई में बिना स्नान किये प्रवेश वर्जित रहता है। यह सामान्य-सा लगने वाला व्यवहार मात्र नहीं, अपितु परम्पराओं के नाम पर मानसिक दबाव है। वे पारिवारिक संबंधों की विसंगति का भी चित्र उकेरते हैं, जिसमें स्वयं की इच्छाओं का दमन करती नयी बहू का चित्र बनता है, जिसे जो चाहे पशुवत हाँक सकता है। छोटी सी बात पर आरम्भ यह तानाकसी कब मानसिक प्रताड़ना से होते हुए अज्ञातरूप से अत्याचार में परिवर्तित हो जाती है। सामाजिक स्तर, जहाँ सास-बहू के संबंध, ताने, परंपराएँ और घर-परिवार की रोजमर्रा की खींचातानी है, जो अंततः पारिवारिक क्लेश का कारण बनती है। यह रचना माघ मास को न केवल मौसम, बल्कि एक मानवीय परिस्थिति के रूप में प्रस्तुत करती है, जिसमें हर रिश्ता जूझते हुए जीवन की गाड़ी धकेलता रहता है।

नवगीतकार शांति सुमन का प्रस्तुत उद्धरण अभावग्रस्त परिवार की पीड़ा अभिव्यक्त करता है—
सुजनी खाँस रही है माँ की, बहनों की अंगिया मटमैली
सूने खलिहानों की छाया, भाभी की आँखों में फैली
बाबा ने चौपहरा पूजा रख दी मन में दाब के
ओ रे मौसम पूस-माघ के जब भी आना गाँव में
ढेरों बन्द लिफाफे लाना शहरों से पंजाब के

यह गीतांश ग्राम्य जीवन की अनकही जर्जरता, आर्थिक विवशताओं और प्रवासन की पीड़ा का सघन चित्र रचता है। पूस-माघ की ठिठुरन केवल मौसम नहीं, बल्कि अभाव और प्रवासी पुत्र की प्रतीक्षा का प्रतीक बन जाती है। “सुजनी खाँस रही है”—रूपक पुरानी रजाई की जर्जरता नहीं, बल्कि पीढ़ियों पर चढ़ी दरिद्रता का पुलिंदा है। बहनों की मटमैली अँगिया माघ-पूस की निष्ठुरता और सामूहिक संकट को व्यक्त करती है। भाभी की आँखों में सूने खलिहान की छाया उन घरों की पीड़ा है, जहाँ खेतों की उपज से अधिक उम्मीदें बोई जाती थीं, जो अब शहरों के उद्योगों, मंडियों और कारखानों में टिक गई हैं। पूजा भीतर दबे दुःख का प्रतिकार है। बंद लिफाफों में बेटे की मेहनत और विवशता बसी हैं। माघ परिवार, श्रम और प्रवासन के त्रिकूट में बदल जाता है। सर्दी भीतर पर जमती है, फिर भी आशा जीवन-दायी ऊष्मा की कथा बनती है, जिस पर गाँव का मन टिका है और जानता है कि हर माघ के बाद बसंत अवश्य आता है।
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कोहरा यूँ चीजों को ओढ़ेगा
घर में बेघर करके छोड़ेगा
हर चेहरा जाने कैसा होगा
मौसम इस तेजी से बदलेगा
लोगों से सम्हले ना सम्हलेगा
माघ-पौष अरना
भैंसा होगा
कोहरा मात्र प्रकृति का धुँधलापन नहीं, बल्कि एक गहन मनोवैज्ञानिक अनुभव भी है, जो दृश्य और अदृश्य दोनों को ढक लेता है। ये बनावटी चेहरों और व्यवहार की ओर भी संकेत करता है। मनुष्य को अपने ही घर में पराया कर देने जैसी अनुभूति देता है। कोहरा जब अत्यधिक घना होता है, तो वह समय की गति को धीमा कर देता है। रिश्तों का बदलता रूप वास्तविकता देखने में असफल हो जाता है। कोहरा प्रकृति और मन दोनों को प्रभावित करता है। इस अनुभव को यह उद्धरण अत्यंत संक्षिप्त, तीखे और सटीक शब्दों में पकड़ता है। “माघ-पौष अरना / भैंसा होगा”—लोक-बोली की सहज शक्ति से भरी ये पंक्ति उग्र और अनियंत्रित प्रकृति, ग्रामीण जीवन की कठिनाइयों और मानव-मन की अनिश्चितताओं का एक सशक्त लोक-काव्यात्मक दृश्य बनाती है।

माघ का महीना ग्रामीण जीवन में कठिनतम माना जाता है। खेत पर ठंड, घर में ईंधन का अभाव, पशुओं की देखभाल, फसलें पकने की तैयारी में, खेतों में गेहूँ का बाल्यावस्था वाला हरा संसार, सरसों की पीली बयार और गन्ने के खेतों की सुगंध भले ही आनंद देती हो, किन्तु इनके बीच खड़ा किसान इस सौंदर्य के भीतर अपनी तपती हड्डियों का दर्द भी महसूस करता है। परिणामस्वरूप, माघ सिर्फ ऋतु नहीं, यथार्थ का कठोर पात्र बन जाता है।
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माघ काँपकर पगडौरे में
ठंडी रात बिताये।
भूखे पेट बिहनियाँ करती सूरज की हरवाही
हारी-थकी दुपहरी माँगे संध्या से चरवाही
देर रात तक पाही करके
चूल्हा चने चबाये

राम किशोर दाहिया के प्रस्तुत काव्यांश में माघ, अभाव और संघर्ष के साथ आता है। पगडौरे, बिहनियाँ, हरवाही, चरवाही, पाही जैसे लोक-प्रतीकों के माध्यम से भाव और ग्रामीण परिवेश उभरता है। माघ स्वयं मानवीकृत होकर उस निर्धन जनजीवन का प्रतीक बनता है, जो खुले पगडंडी-पथ पर सर्दी झेलता है और श्रम के अविराम प्रवाह को दर्शाता है। दिनभर की देह-पूँजी खर्च कर भूख को टालने भर का भोजन पाने की विवशता, ऊर्जा का नहीं, मजबूरी का भोजन है। समग्र रूप से रचना में माघ की सर्दी, श्रमजीवी जीवन, अभाव की सामाजिक व्यथा अत्यंत सघन और प्रभावी बिम्बों के साथ उभरती है। यह पूरा चित्र किसानी घर में स्त्री-पुरुष दोनों की साझी कठिनाई को दर्शाता है।

सुरक्षित दीवारों के घेरे में बैठे लोग शायद ही समझ पाते हैं कि खेतों में केवल फसल नहीं उगती—किसान की असहनीय ठिठुरन, उसका एकाकी श्रम और उसके सपने भी वहीं उगते हैं। इसी अंतर्वेदना का सजीव चित्रण संदीप तिवारी की निम्नांकित पंक्तियाँ करती है—
माघ-पूस की विकट ठंड में
रात-रात भर ठिठुर-ठिठुर कर
कोई पुराना कंबल ओढ़े
फसलों की वह करे सिंचाई
तुम क्या जानो पीर पराई
तुम क्या जानो किस धागे से
कौन सुई से
सिली जा रही फटी रजाई
तुम क्या जानो पीर पराई

माघ-पूस की ठंड, किसान की पीड़ा तथा श्रम की अनकही करुणा को अत्यंत मार्मिक तरीके से उकेरती है। ऐसे में जब शीत का प्रकोप रहता है, किसान जागकर खेतों की रखवाली करता है। वह किसी महाकाव्य का नायक प्रतीत होता है, जो प्रतिदिन न्यूनतम साधनों के सहारे अधिकतम जीवन का निर्माण करता है। उसके लिए सिंचाई केवल कृषि-प्रक्रिया नहीं—एक ऐसी साधना है, जिसमें वह अपने श्रम को धरती माता के चरणों में अर्पित करता है। किसान किसी ऋतु पर उपजी शिकायतों के बजाय अपने कर्म की निरंतरता पर भरोसा करता है और यही कर्म उसकी तपस्या और गंगास्नान है। उसकी फटी रजाई केवल गरीबी का चिह्न नहीं, बल्कि उसकी जीवटता का प्रतीक है। यह रजाई जितनी बार सिली जाती है, उतनी ही बार उसका मन भी नए साहस से भरता है।

माघ मास में उजड़े खेतों के बीच खड़ा किसान किसी तपस्वी की तरह प्रतीत होता है, जो शीत, थकान और अभाव के बावजूद अपने कर्म को धर्म मानकर निभाता है। कृषक की पीड़ा को अभिव्यक्त करते हुए ये रचनाकार समाज पर कटाक्ष करते हैं, जो उसकी पीड़ा समझने में असमर्थ है। वह संगम में डुबकी नहीं लगाता, पर उसका मौन अनकहा नियम-संयम उसे तपस्वी बनाता है। वह स्वयं में स्थित होकर केवल और केवल धैर्य धारण कर कर्मपथ पर चलता है।

माघ के अंत की ओर हवा में एक विशेष प्रकार की गंध घुलती है—गेहूँ के पौधों की नमी, सरसों के फूलों की महक, खेतों में पलटी गई मिट्टी, और कहीं दूर जलते उपलों का धुआँ। ये सब मिलकर एक ऐसा सुगंध-परिदृश्य बनाते हैं, जो मन को स्थिर कर देता है। माघ में बादल घिरना परिवर्तित ऋतु की प्रस्तावना व नया अध्याय खुलने जैसा है। प्रकृति के सूक्ष्म रूपांतरण को अत्यंत सधे हुए बिंबों में बांधकर, कठोर ठंड में विलीन हुए स्पर्श और गुनगुनाहट के पुनःआगमन को ब्रजनाथ श्रीवास्तव इस प्रकार अभिव्यक्त करते हैं—
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एक संदल हवा गुम हुई दाघ में
आज बादल घिरे फिर यहाँ माघ में
दिन गई गंध के आज भाने लगे
गुनगुनाने लगे

रूपक और घनीभूत भाषा से माघ का सौंदर्य, सख्ती और आंतरिक ताप—तीनों एक साथ उभरते हैं। यह ऐसी ऋतुगत आहट है जिसे प्रकृति की नब्ज़ से जुड़ा व्यक्ति ही लिख सकता है। यह उद्धरण माघ की सौम्यता, उसकी शांत संगीत-धर्मिता और ऋतु-परिवर्तन की रहस्यमयी प्रक्रिया को अत्यंत कोमल, संवेदनात्मक और साहित्यिक ढंग से सामने लाता है।
जैसे ठंड की अकड़न में कहीं धूप की गर्माहट छिपी रहती है, दुख और आनंद दोनों एक ही देह में निवास करते हैं। इसी मनोभूमि में माघ के बादल किसी प्रतीक की तरह यश मालवीय के पद्यांश में उभरते हैं—
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आँसू के साथ ही विहंसने दो
बादल हैं माघ के बरसने दो
कौन इन्हें ऐसे पहचानेगा?
बरसेंगे, तभी समय जानेगा
मौसम को बाँहों में
कसने दो

"आँसू के साथ ही विहंसने दो"—यह पंक्ति मनुष्य को जीवन के द्वंद्व स्वीकार करने की सीख देती है। दुख और हर्ष अलग नहीं किए जा सकते; वे एक-दूसरे में घुले होते हैं, और इसी मिश्रण से जीवन पूर्ण दिखता है। माघ में बादल केवल वर्षा का संकेत नहीं, बल्कि भाव-दृश्य हैं—मानो प्रकृति अपनी पीड़ा को हल्का कर रही हो। मानव-मन की अप्रत्याशितता यही है: किस क्षण आँसू बहें, किस क्षण मुस्कान फूटे, कोई नहीं जानता। "मौसम को बाँहों में कसने दो"—यह जीवन को जैसा है वैसा स्वीकार करने का संदेश है। माघ की कठोरता स्वीकारने से ही फागुन का सौंदर्य समझ आता है। यह उद्धरण मौसम से बढ़कर मानव-मन की दार्शनिक कविता बन जाता है।

शीत और बसंत का संधिकाल माघ, जिसमें गलन तो है पर बसंत की महक के संकेत मिलने लगते हैं। परिवर्तन दृष्टिगत होता है कठोरता से मधुरता की ओर, शुष्कता से सुगंध की ओर, और मौन से गुनगुनाहट की ओर। सघन, बिंबप्रधान और लययुक्त परमेश्वर फुँकवाल का यह गीतांश इसी भावभूमि को अभिव्यक्त करता है—
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धरा धुंध से पटी हुई हो
तमस दृष्टि से सटी हुई हो
किरणों की अगाध नदी फिर
चाहे तट से कटी हुई हो
पौष-माघ की सख्ती में
फागुन तुम पलना

इन पंक्तियों में ऋतु-परिवर्तन का जो सूक्ष्म दर्शन और जीवन की गहन प्रक्रिया का रूपक है। इसमें केवल धरा, धुंध व कोहरे, तमस की बात नहीं, अपितु उन परिस्थितियों और उस मन:स्थिति को रेखांकित करती है, जहाँ जीवन अस्पष्ट, लक्ष्यहीन, धुँधला और आशाविहीन हो जाता है। जैसे कोई दीपक अंतिम हवा से जूझ रहा हो। लेकिन दीप इस आश्वस्ति के साथ प्रतीक्षारत है कि फागुन भरा उत्साह और ऊर्जा इन्हीं के गर्भ में समाहित है। कठिन प्रसव पीड़ा पश्चात सुखानुभूति सुनिश्चित ही। ऋतुओं का यह चक्र केवल बाहरी प्रकृति का गुण नहीं—यह जीवन और मन:स्थिति का भी संकेत है। हृदय पंक्ति “पौष-माघ की सख्ती में, फागुन तुम पलना” में संघर्ष के भीतर से ही सौंदर्य जन्म लेने की अवधारणा है। विपरीत परिस्थितियाँ नवोत्सव को सँजोने की भूमिका हैं। यह उद्धरण मनुष्य की जिजीविषा और अंतर्मन की स्थायी आशा का गीत भी है।

प्रस्तुत उद्धरणों से स्पष्ट होता है कि नवगीत एक ऐसी विधा है, जिससे कोई भी विषय अछूता नहीं रहा है। फिर वह माघ मास की कोहरे से ढँकी भोर हो, गाँवों में पाला ओढ़े खेतों में श्रम करते कृषक की पीड़ा और श्रम का वर्णन हो, पारिवारिक, सामाजिक, आर्थिक सस्थित का चित्रण हो, पंछियों का नीड़ में दुबकना जाना हो या फिर बसंत के आगमन की आस में माघ के कठिन दिन किसी तपस्वी की भाँति व्यतीत करने का प्रण हो, या देवताओं की कृपा पाने का भाव लिए संकल्पित इच्छाशक्ति लिए हाड़ जमा देने जैसे शीत जल में डुबकी लगाते श्रद्धालुओं का विश्वास।

माघ मास अभ्यंतर प्रकृति और मानव के मध्य एक अटूट सम्बन्ध बनाता है, जिसमें मनुष्य कठिन परिस्थितियों में भी हारता नहीं, निराश नहीं होता, अपितु शुभ के प्रति आश्वस्त रहकर कर्मपथ पर साधनारत रहता है। रचनाकारों की लेखनी में माघ अपनी ठंडक, अनुशासन, जप-तप, गंगास्नान, ध्यान, श्रम, बसंत के स्वागत कर्ता जैसे अन्यान्य विविध विषयों में मिलता रहेगा। साहित्य में माघ का स्थान सर्वदा सुनिश्चित रहेगा।

१ दिसंबर २०२५

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