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					  राम रावण का 
					अपराजेय समर
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					परिचय दास
 
 
							उत्सवों का मौसम है। बिल्कुल कविता की तरह। इसमें कोई 
							शक नहीं कि कविता कल्पतरु है। कविता से जो माँगोगे 
							मिलेगा। कविता एक उत्सव है, जो आपको नित नूतन 
							नवोन्मेषी बनाए रखती है। कविता दशहरा है, जो नौ दिन की 
							आंतरिक तपस्या के बाद आपको सात्विक अवकाश देती है। 
							कविता उत्सव रचती है, तो उत्सव भी कविता की सृष्टि 
							करते हैं। विजयदशमी मात्र एक उत्सव नहीं, कविता है। 
							कविता को 'पाठ’ की तरह लेने वाले उसकी जो व्याख्या 
							करें, विजयदशमी के कुछ मांगलिक 'पाठ’ हैं, जो सदियों 
							से हमें अनुप्राणित किए हुए हैं। 'रह गया राम-रावण का 
							अपराजेय समर’- निराला। 
 राम की लड़ाई हर युग में, हर समय में बनी रहती है, यह 
							निश्चित है। ऐसा हो नहीं सकता कि एक बार आपने रण जीत 
							लिया, तो बात खत्म। रण बना रहता है, जीतने के बाद भी। 
							प्रवृत्तियाँ अमूमन नष्ट नहीं होतीं। उन्हें हटाने का 
							संघर्ष जारी रहता है। यह एक जिद है। बगैर जिद के भी 
							कोई जिंदगी होती है! यह संघर्ष, यह जिद एक निश्चय है। 
							यही 'निश्चय’ कहलवाता है- 'काल तुझसे होड़ है मेरी।‘ 
							काल की छाती पर सृजन करना ही कविता है, दशहरा है। समय 
							के विरुद्ध सोचना एक बात है, धारा से समांतरित होकर 
							अपने तरह से गतिशील होना दशहरा है।
 
 वर्षों से कवि-लेखक रावण को खलनायक बताते रहे हैं। 
							रावण खलनायक नहीं, प्रतिनायक है। राम की दूसरी ओर बैठा 
							हुआ। आप उससे असहमत हैं, उसकी अनेक प्रवृत्तियाँ ऐसी 
							हैं, जिनसे आपको गुरेज है। आपको स्त्री-हरण, भाई के 
							अपमान, अनेक शक्तियों को स्वकेंद्रित करने की बात तो 
							याद है, लेकिन मृत्यु के समय रावण द्वारा लक्ष्मण को 
							दिया ज्ञान भी आपके स्मरण में है? हमारी परंपरा कीचड़ 
							से भी कमल खिला लेती है। वर्जना से भी हम सृजन कर लेते 
							हैं। इसी परंपरा के कारण धतूरे से भी गुण ले लेते हैं।
 
 विरोधों, विद्वानों के समुच्चय भरे इस कोलाहल में सफेद 
							कुर्ता-पाजामा पहने सफेदपोशों द्वारा रावण, कुंभकर्ण, 
							मेघनाद के पुतलों को आग लगाने मात्र से उत्सव नहीं आ 
							सकता। बल्कि इन्हें खुद में पहचानना होगा। कोई भी समाज 
							सिर्फ ताकत, पैसे या राज की दबंगई से बेहतर नहीं हो 
							सकता। वह व्यक्ति के बेहतर संबंधों, लोकतांत्रिक 
							स्वभावों, मनुष्य की पक्षधरता के कारण अच्छा होता है। 
							आत्मीयता के तंतु ही उसकी बनावट करते हैं। भीनी- भीनी 
							चदरिया स्नेह के तांत से ही बुनी जानी चाहिए। यदि हमें 
							मुग्ध होना है, तो अपनी मानवीय तकनीक, भाषायी 
							संपन्नता, सांस्कृतिक विविधता पर मुग्ध हों। अपने देश 
							की छह ऋतुओं पर विभोर हों, जो स्वयं ललित निबंध का 
							विषय हैं। भारत समूची पृथ्वी को अपना मानता रहा है। यह 
							'वसुंधरा’ है। इसके पास शक्ति की उपासना की एक आंतरिक 
							शक्ति है, जो साधनापूर्वक अर्जित की जाती है, जहाँ नौ 
							दिन अंत:प्रज्ञा व शुद्धि के होते हैं। यह अंतरात्मा 
							के नर्तन से संबद्ध है। गरबा में सिर्फ देह नहीं 
							नाचती, आत्मा भी आलाप लेती है। कहीं प्रेम के कोण 
							उभरते हैं, कहीं कसक का विस्तार है।
 
 दुर्गा के विविध रूप हमारी मनुष्यता के विविध रूप हैं। 
							मातृ, शक्ति, क्षमा आदि अनेक कोणों से उसे हम देख पाते 
							हैं। हम क्षमा को प्रणाम करते हैं, हम शक्ति को प्रणाम 
							करते हैं। प्रणाम करने से यही ताकत हमें वापस मिलती 
							है। हम धरती की तरह क्षमाशील होते हैं। हमारे पास केवल 
							दशरथ के राम नहीं हैं। हमारे पास कबीर के राम भी हैं। 
							हम अपना राम स्वयं बना सकते हैं। राममनोहर लोहिया राम 
							को यों ही अपना पुरखा नहीं कहते थे। शंबूक प्रकरण राम 
							को कोई मोहलत नहीं देता। सीता का वनवास राम को यों ही 
							छोड़ नहीं देता। राम का आकलन हम ही कर सकते हैं, 
							क्योंकि हम एक लोकतांत्रिक समाज हैं। हम आलोचना को 
							घृणा की वस्तु नहीं मानते। समालोचना तो हमारी धमनियों 
							में है।
 
 समालोचना का संतुलन हमें विवेक देता है। यही संतुलन 
							हमारे भीतर कुछ रचता है। यही सम्यकता हमारे साहित्य का 
							मेरु है। यही हमें विश्वसनीय बनाता है। उत्सवों के इस 
							मौसम में, जबकि न गरमी है, न सर्दी, जीने का मजा ही 
							कुछ और है। यह मौसम हमें अतिरेक से रोकता है। विचारों 
							के अतिरेक से, दबावों के अतिरेक से, गरमी के अतिरेक 
							से, सर्दी के अतिरेक से -इन सबसे अलग, हम स्वायत्त 
							होकर जी सकते हैं, सोच सकते हैं। यही कल्पनाशील 
							स्वायत्तता इन उत्सव भरे दिनों का प्राण है। हम 
							प्रसन्नता को साझा करें, दुख को भी। यदि दोनों को साझा 
							कर लें, तो वे उत्सव बन जाते हैं। दुख बाँटना भी उत्सव 
							है। हम इन त्योहारों से यह समझ सकते हैं कि अपने का 
							विस्तार करना ही मनुष्यता है। केवल पाना लालच है। देना 
							विस्तार है। यदि लालच ही करना है, तो बड़े होने का लोभ 
							पालें। जो परंपरा व समाज से प्राप्त हो, उसे बाँट दें। 
							सबके भले में ही अपना भला समझना त्योहार है। आज अपने 
							भले पर ही सबका ध्यान केंद्रित है। इससे इतर सारी 
							मनुष्यता को सरस आकृति दीजिए।
 
 उत्सव वृक्ष की तरह होते हैं। उनमें छाया है, शीतलता 
							है। शाखाएँ हैं। ऊपर उठने और आकाश में देखने का माद्दा 
							है। धरती से जुड़े रहना इनकी जड़ों से कोई सीखे। वृक्ष 
							में फूल है, इनमें फल है, इनमें गंध है। इनसे पर्यावरण 
							बनता है। इन पर मैना बैठती है। इन पर कोयल कूकती है। 
							ये हमसे संवाद करते हैं। ये हमारे स्वजन हैं। ये हमारे 
							साथी हैं, कुटुंबी हैं।
 
 मनुष्य का मन दशहरे की तरह उत्सवधर्मी है। बच्चों के 
							लिए बिकने वाला धनुष, गदा वगैरह भी उनके लिए अहिंसक 
							जैसा है। बच्चों ने दशहरे में अस्त्र-शस्त्रों को भी 
							आत्मीय बना लिया है, हिंसाहीन बना लिया है। वे हमें 
							सीख देते हैं। सीख लेना सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण है, 
							क्योंकि इसमें हम झुकते हैं और झुकना हमें विनम्र 
							बनाता है। विनम्रता में हमारी वास्तविक उपस्थिति होती 
							है।
 
 हम स्वयं के अंदर छिपे उत्सव-विरोध को उसी तरह निहारें 
							जैसे अपने अंदर छिपे उत्सव को देखते हैं। आप देखेंगे, 
							उसमें नए-नए संवादी-विसंवादी स्वर मिलते हैं। अपना राम 
							स्वयं सृजित करें, जैसे अपना गति-पथ स्वयं निर्धारित 
							करते हैं। वर्णहीन, सत्ता निरपेक्ष राम। सीता के लिए 
							गद्दी छोडऩे वाले राम। परंपराओं की व्याख्या से लेकर 
							नई परंपराओं के सृजन तक की यात्रा करें। यह एक ऐसा 
							समीकरण होगा, जिसमें शब्द, रूपनिर्मिति व भाषा- तीनों 
							का समंजन होगा।
 
					१ अक्टूबर २०२१ |