मुखपृष्ठ

पुरालेख-तिथि-अनुसार -पुरालेख-विषयानुसार -हिंदी-लिंक -हमारे-लेखक -लेखकों से



साहित्य में कुटज की उपस्थिति
- पूर्णिमा वर्मन


कुटज को सड़क के किनारे देखकर आजकल लोग शायद ही पहचान पाएँ, लेकिन कुटज को हजारी प्रसाद द्विवेदी के निबंध के रूप में जरूर पहचान जाते हैं। यह स्वाभाविक भी है क्योंकि पिछले अनेक वर्षों से शहरों की आबादी के आसपास कुटज की उपस्थिति बहुत कम रह गयी है जबकि हजारीप्रसाद द्विवेदी का निबंध पाठ्यक्रम में आकर विद्यार्थियों की जानकारी बढ़ा रहा है।

कुटज के वृक्ष को संस्कृत साहित्य में बहुत सम्मान के साथ याद किया गया है। कालिदास ने मेघदूतं में एक स्थान पर लिखा है-
प्रत्‍यासन्‍ने नभसि दयिताजीवितालम्‍बनार्थी।
जीमूतेन स्‍वकुशलमयीं हारयिष्‍यन्‍प्रवृत्तिम्।।
स प्रत्‍यग्रै: कुटजकुसुमै: कल्पितार्घाय तस्‍मै।
प्रीत: प्रीतिप्रमुखवचनं स्‍वागतं व्‍याजहार।।
अर्थात् जब सावन पास आ गया, तब निज प्रिया के प्राणों को सहारा देने की इच्‍छा से उसने मेघ द्वारा अपना कुशल-सन्‍देश भेजना चाहा। फिर, ताजे खिले कुटज के फूलों का अर्घ्‍य देकर उसने गदगद हो प्रीति-भरे वचनों से उसका स्‍वागत किया।

महाराष्ट्र के संस्कृत विद्वान वसंत त्र्यंबक सेवदे की कृति अभिनव मेघदूतं में वे वर्षा ऋतु में कुटज वृक्षों के खिलने का वर्णन करते हुए कहते हैं-
नद्यः सद्यः सलिलबहुलाः प्राप्तरूपाश्च कूपाः
शस्यशयामा धरणिरखिला मुक्तरनध्राः शिलीन्ध्रा
पुष्पोद्भेदैः कुटजतरवो वासयन्तो वनान्तान्
निःसन्देहं भवदुपकृतिं निष्पदं व्याहरेयुः

हे सुंदरी, नदियाँ भर गयी हैं कूप सुंदर हो उठे हैं, सारी धरती हरी हो गयी है, नन्हीं छतरियाँ धरती से बाहर निकल आयी हैं। खिले हुए कुटज वृक्षों पर मँडराती तथा गुनगुनाती हुई भौंरों की पंक्ति कामदेव के धनुष की डोरी जैसी लग रही है और बड़े-बड़े फूलों से चितकबरे शिखरों वाले कुटज के वृक्ष हमारे चित्त को उत्कंठित कर रहे हैं।

मेघों से सम्बंधित रचनाओं में कुटज का वर्णन आने का एक कारण यह भी है कि कुटज के फूलने का समय वर्षा ऋतु ही है। कुटज के वृक्षों के प्रति पावस की छटा का वर्णन करते हुए ठाकुर जगन्मोहन सिंह के उपन्यास श्यामास्वप्न की नायिका एक स्थान पर कहती हैं -
कुटज पराग सुमन कन निर्झर चारु बुंद मनु राजै
चूरन ललित दलित मोती सित अनुपम सोभा भ्राजै।

भारतीय साहित्य में ऋतु वर्णन या बारहमासा की भी प्रतिष्ठित परंपरा रही है। इसको किस प्रकार कविता में लाना चाहिये इस पर भी प्राचीन ग्रंथों में कुछ विवरण मिलते हैं।
कदंबनिम्बकुटजै: शाद्वलै: सेन्द्रगोपकै:
मेघैर्वार्तै: सुखस्पर्शै: प्रावृट्कालं प्रदर्शयेत्
अर्थात् कदम्ब, नीबू, कुटज, हरियाली, भीगापन इंद्र, गोप, मेघों का घिरना, उनका सुखद स्पर्श आदि को वर्षा ऋतु के वर्णन में प्रदर्शित करना चाहिये।

इस सबके कारण जहाँ हिंदी साहित्य में कुटज की उपस्थिति जारी रही वहीं शहरों का आसपास की आबादी के आसपास कुटज की झाड़ियाँ कम होती चली गयीं। यहाँ तक कि भक्तिकाल वाला युग आते आते इस सुंदर फूलों वाले वृक्ष संख्या में इतने कम हो गये कि रहीमदास को अपने एक दोहे में कहना पड़ा-
वे रहीम अब बिरछ कहँ, जिनकी छाँह गम्भीर।
इत उत बगियन देखियेत सेहुँड़ कुटज करीर।।
अर्थात् वे गम्भीर छायाप्रद सेहुँड़, कुटज और बबूल के वृक्ष जिनकी शीतल छाया में बैठ हमने अनायास ही बहुत कुछ सीख लिया था, आज शून्य में विलीन हो गए हैं।

आचार्य प्रियव्रत शर्मा द्वारा रचित प्रिय निघण्टु में कुटज का परिचय देते हुए कहा गया है-
इन्द्रवृक्षस्तु कटजो, वत्सको गिरिमल्लिका
कुटजः कुटजातत्वात् कटोsरण्येsथ प्रावृषि
इन्द्रवृक्षस्तु कलि़ंगमहेन्द्रगिरिसम्भवात्
वत्सको वत्सदेशीयः शुभ्रपुष्पोSद्रिमल्लिका

अर्थात् कुट में होने के कारण यह कुटज कहलाया। कुट शब्द वन और वर्षा का वाचक है। कलिंग देश में स्थित महेन्द्र पर्वत पर होने से इन्द्रवृक्ष तथा वत्स देश (विंध्य प्रदेश में होने से वत्सक कहलाता है। इसमें मल्लिका (बेला) के सदृश सफेद फूल आने से यह 'गिरिमल्लिका' (पहाड़ का बेला) कहा जाता है। इन ग्रंथों में कुटज का पर्याय गिरिमल्लिका, शक्र, वत्सक, इन्द्रवृक्ष कलिङ्ग, इन्द्रयव, आदि किया गया है।

डॉ. गिरिजाशंकर त्रिवेदी और अमिता अग्रवाल द्वारा रचित पुस्तक महाभारत के वन और वृक्ष पढ़ने से ज्ञात होता है कि महाभारत काल में कुटज के सुंदर कुंज पाए जाते थे। वे लिखते हैं- ''वन देव, गन्धर्व, किन्नर और मावों के लिये रमण-प्रिय होते हैं तथा वहाँ के सनातन निवासी पशु-पक्षियों का तो उनमें रमण और भ्रमण का सहज अधिकार होता है। गंधमादन प्रदेश में मोर लता वल्लरियों से व्याप्त कुटज के कुंजों में (वल्लीलता संकटेषु कुटजेषु) मोरनियों के साथ रमण करते दिखाई देते है।''

स्वास्थ्य के लिये उपयोगी होने के कारण चिकित्सा ग्रंथों में भी कुटज को महत्वपूर्ण स्थान मिला है। चरक संहिता में कहा गया है -
वत्सकः, कुटजः शक्रो वृक्षको गिरिमल्लिका।
बीजनीन्द्रयवस्तस्य तथोच्यने कलिंगकाः।।
अर्थात् वत्सक, कुटज, शक्र, वक्षक, गिरिमल्लिका ये वृक्ष के नाम हैं। इसके बीज को इन्द्रयव और कलिंगक कहा जाता है।

आशीष तिवारी ''बचपन'' शीर्षक से अपने ललित निबंध में वर्षा का वर्णन करते हुए बचपन की यादों को बड़े ही अद्भुत रूप से कुटज की उपमा बनाकर सामने लाते हैं। जरा इन पंक्तियों को देखें-
''फिर बारिश होगी..मौसम सुहाना होगा...नरम-नरम पत्तों वाली वनस्पतियाँ फिर उगेंगी...फिर मिट्टी, पानी और मौसम के अभाव में वो सूख जाएँगी...फिर बचपन की स्मृतियां याद आकर जीवन की आवश्यकताओं के आगे अप्रासंगिक सी हो जाएँगी...पर हम फिर भी अवसर मिलते ही चट्टानों का सीना फाड़कर उगने वाले कुटज वृक्ष की तरह बचपन की यादों को हरा-भरा करेंगे...उन्हें सहलाएँगे...!''

विपरीत परिस्थितियों में भी निरंतर कार्यशील अप्रतिम जिजीविषा वाले कुटज के इस कर्मठ-योगी रूप को अन्य कुछ रचनाकारों ने कौतूहल से तो कुछ ने कुछ आश्चर्य से देखा है। कल्पना रामानी की इन पंक्तियों का कौतूहल देखें-
ये बताओ हे कुटज! इन पत्थरों में
कौन देवा सींचता है तन तुम्हारा

और श्रीधर आचार्य शील कहते हैं-
चट्टानों को फाड़ निकलता मैं पादप एक महज हूँ
पाताल लोक से रस लेकर मैं जीता सदा कुटज हूँ

इस प्रकार हम देखें तो एक ओर रूप-रंग और दूसरी और ढब-ढँग दोनों ही गुणों की प्रेरणा देने वाला कुटज भारतीय साहित्य में बहुत पुराने समय से आजतक जुड़ा रहा है। यह भारतीय प्रकृति की पुष्ट परंपराओं को और भी समृद्ध करते हुए वर्षा के मधुर मौसम को आनंदित आह्लादित करता रहा है।

१ जुलाई २०१९

1

1
मुखपृष्ठ पुरालेख तिथि अनुसार । पुरालेख विषयानुसार । अपनी प्रतिक्रिया  लिखें / पढ़े
1
1

© सर्वाधिका सुरक्षित
"अभिव्यक्ति" व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इस में प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक
सोमवार को परिवर्धित होती है।