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वसंत के अग्रदूत के लिये

एक और निराला
- विजय बहादुर सिंह
 


निराला के काव्य-विकास पर नज़र दौ‹डाता हूँ तो विलक्षण मो‹ड़ और उतार-च‹ढाव नज़र आते हैंŸ। छन्दमुक्त को कविता की मुक्ति मानने वाले कवि निराला पाँच-सात सालों में ही हमें संगीतमय तुकान्त छंदों की सौगात ‘गीतिकाङ्क में देते हैंŸ। यही समय है जब वे ‘राम की शक्ति पूजा' जैसी महत् सृष्टि भी करते हैं किन्तु छंदमुक्त में नहींŸ। अपना आत्मपरक मनोवैज्ञानिक खण्डकाव्य ‘तुलसीदास' भी वे छंदमुक्त में नहीं वरन् कठिन अनुशासन बद्ध छंद में प्रस्तुत करते हैंŸ। जीवन के उत्तरकाल में अर्चना, आराधना, बेला, गीतगुंज आदि उनकी रचनाएँ भी गीतिमय हैंŸ। बाकायदा तुक और लय की परम्परा का निर्वाह करते हुएŸ। पर इस सच से कौन इनकार कर सकता है कि जुही की कली, जागो फिर एक बार, बादल राग, विधवा, भिक्षुक और वह तोड़ती पत्थर जैसी कविताएँ छंदमुक्त में हैंŸ।

यह निराला ही थे जिन्होंने कहा ‘नूपुर के स्वर मंद रहे जब न चरण स्वच्छंद रहेŸ।' उनकी इस स्वच्छंदता पर मुग्ध हो आचार्य नंददुलारे वाजपेयी ने ‘आधुनिक साहित्य' की भूमिका में लिखा- ‘‘छंदमुक्त के कवि के लिए यह स्वाभाविक ही है कि उसकी कविता में सुकुमार प्रसाधन, कल्पना की बारीकी और अनावश्यक आभरण या अलंकार न होŸ। कहीं लटें बिखरी हुई हों, कहीं खुली धूप में मुँह तमतमाया होŸ।'' उनके अनुसार अपनी इस स्वच्छंदता में निराला अद्वितीय हैं न केवल भावधारा वरन् भाषा-प्रयोग तकŸ। तथापि निराला की परम्परा-उन्मुखता भी अपने साथी कवियों की तुलना में विशिष्ट ही हैŸ। दो साल पहले इलाहाबाद विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में ‘निराला व्याख्यानमाला' के अन्तर्गत बोलते हुए कवि केदारनाथ सिंह ने कहा- "मैं मानता हूँ कि पूरी भारतीय कविता के मूल में कहीं न कहीं गीतात्मकता प्रमुख रही हैŸ।"

यह केवल आकस्मिक नहीं है कि हमारा सबसे ब‹डा महाकाव्य ‘रामचरित मानस' सबसे अधिक गाया जाता हैŸ। वह महाकाव्य भी है और गेय भी हैŸ। जो बात मुझे विचित्र लगती है और जिसकी मैं व्याख्या नहीं कर पाता हूँ कि इस गीत परम्परा का आगे विकास नहीं हुआŸ। बिल्कुल नहीं हुआ बल्कि समकालीन कविता ने गीत को छो‹ड दियाŸ।'' अपने इसी व्याख्यान में वे यह सच भी दर्ज करते हैं कि "निराला लम्बी कविताओं के कवि हैं लेकिन भक्त कवियों को छो‹ड दीजिए तो वैसा गीतकार हिन्दी परम्परा ने दूसरा पैदा नहीं कियाŸ।''

ऐसे गीत और इतने विषय-वैविध्य के साथ निराला कैसे लिख पाए तो कहना प‹डेगा कि परम्परागत छन्दबद्ध कविता में उनकी गहरी पैठ थीŸ। उस जातीय संगीत में भी जिसकी चर्चा वे गीतिका की भूमिका में करते हैंŸ। निराला के छंदमुक्त पर बोलते हुए आचार्यों की एक सभा में नागार्जुन ने कहा था- "सफल छंदमुक्त तो वही लिख सकता है जिसे छंद भी सिद्ध होŸ।''

निराला के इस गम्भीर रुझान को देखते हुए सहसा ध्यान जाता है कि बँधे-बँधाए छन्दों से कविता को मुक्त कराने वाले इस कवि को डे‹ढ-पौने दो दशकों में ही काव्य-संगीत और बंधनमय छन्दों की महत्ता का भी बोध होने लगा और वह सीधे-सीधे ‘गीतिका' लेकर आ गयाŸ। कविता की मुक्ति के लिए अगर छन्दमुक्त अपरिहार्य था तो अब यह छन्द बंधन Šक्यों? Šया निराला ‘गीतिका' के गीतों के मार्फत अपनी ही पूर्व सोच के प्रत्याख्यान पर उतर आएŸ? उनके जीवन और काव्य-संघर्ष के साथी आलोचक वाजपेयी तो यहाँ तक लिखते हैं कि- "अत्याधुनिक गीतकारों की तुलना में निराला के गीत किसी सीमा तक प्राचीन परम्परा के अधिक समीप हैं, प्राचीन रस की भूमिका पर लिखे गए हैं और राग-रागिनियों में बँधे हुए हैंŸ।'' खुद निराला गीतिका में भारतीय और पाश्चात्य संगीत की आधार भूमियों और विशिष्ट भिन्नताओं पर गम्भीर चर्चा करते हैंŸ।

छंदमुक्त को कविता की मुक्ति कहने वाले निराला ने पारंपरिक तुकान्त कविता में भी अपना इतना भरोसा Šक्योंकर जतायाŸ? अपनी आखिरी कविता ‘पत्रोत्कंठित जीवन का विष बुझा हुआ है' को भी वे Šयों छंदमुक्त में नहीं, परम्परागत बद्ध छंद में ही लिखते हैंŸ। इसलिए यह तो सोचा ही नहीं जा सकता कि निराला मान बैठे थे कि तुकान्त कविता में अब कोई दम नहीं बचा रह गया हैŸ। उनके समूचे काव्य-पुरुषार्थ को देखते हुए सोचना यह प‹डता है कि छन्दबद्धता में उनका गहरा विश्वास बना हुआ थाŸ। यहाँ तक कि गेयता भी उनकी निगाह में कविता की एक ब‹डी खूबसूरती और असंदिग्ध ताक़त थीŸ। हिन्दी में स्वयं को रवीन्द्रनाथ की तरह देखने वाले निराला में, भीतर ही भीतर कहीं यह साध और महत्त्वाकांक्षा भी घर किए बैठी थी कि बांग्ला के रवीन्द्र संगीत की तरह हिन्दी में निराला-संगीत की शुरुआत और प्रसार होŸ। गीतिका की भूमिका में इसके संकेत स्पष्ट हैंŸ। किन्तु ऐसा कहाँ हो सकाŸ? कारणों की खोज आज Šक्यों नहीं की जानी चाहिएŸ? Šक्यों नहीं एक और नई शुरुआत, खास तौर से इस प्रौद्योगिकी समय मेंŸ। निराला की गहरी निष्ठा भक्तिकालीन काव्य में भी थीŸ। मानस के रचयिता तुलसीदास में तो खासतौर से जिन पर वे एक पूरी कृति रचते हैं यह कहने के लिए कि तुलसी (या उन जैसा कोई भी सिद्ध कवि) कविता का नया प्रभात (साथ ही जीवन का भी) लेकर आते हैंŸ। ‘मेरे गीत और कला' शीर्षक निबंध में वे अपने पाठकों को यह सूचित करते हैं कि उनकी कविताएँ अँधेरे से प्रकाश की ओर यात्रा करती हैंŸ। छंदमुक्त के सन्दर्भ में गायत्री छन्द और यहाँ तमसो- मा ज्योतिर्गय का उल्लेख कर निराला ने अपनी वह कवि-दृष्टि जता दी है जिससे उनकी चेतना सजी सँवरी और काव्य-व्यक्तित्व का संस्कार हुआ थाŸ। इस सन्दर्भ में गीतिका के कुछ गीतों पर खास तौर से ध्यान जाता है- ‘वर दे वीणा वादिनि वर दे' और

‘जागो जीवन धनिके'Ÿ। ‘भारति जय विजय करे/कनक शस्य कमल धरेŸ' में भी उनकी दृष्टि ‘सरस्वती' और ‘लक्ष्मी' जैसी देवियों पर है जिनसे वे भारत के नव निर्माण में अपनी भूमिका निभाने की प्रार्थना करते हैंŸ। ‘राम की शक्ति पूजा' में ‘आराधन का दृ‹ढ आराधन' से आसुरी शक्तियों का उत्तर देते हुए वे मातु दशभुजा की मनोमूर्ति ‘ग‹ढते' हैं और उनका आशीष अर्जित करते हैंŸ। यह निराला की परम्परा भक्ति है या परम्परा का उनके द्वारा किया जाता नवोन्मेष या फिर कविता की गम्भीर संवेदना-भूमि जिसे कुछ लोग आध्यात्मिक कहते आए हैंŸ।

निराला काव्य की यह आध्यात्मिकता वह सांप्रदायिक आध्यात्मिकता नहीं है जिसका सम्बन्ध मन्दिर-मस्जिद या पूजा और नमाज जैसे कर्मकाण्ड से जो‹डा जाता हैŸ। यह तो मनुष्य की उन असाधारण और उदात्त अन्त:शक्तियों का उद्घोष है जिन्हें एक पूरा युग किसी ऐसे ही कवि के मार्फत अपने जीवन-प्रवाह में बतौर उपलब्धि साक्षात् पाना चाहता हैŸ। ब‹डी कविता उन्हीं गम्भीर संवेदनाओं की साधना हैŸ। वह सिर्फ कवियों और आलोचकों की अपना निजी कारोबार नहीं होती, उस समाज, समय और परम्परा की भी होती है जिसके भीतर रह कर कोई विरला कवि साधता हैŸ। निराला ने इसे साधाŸ। यह और बात है कि अपने जीवन-काल में वे लगभग उपेक्षित ही रहेŸ। साहित्य के प्रतिष्ठित माने जाने वाले केन्द्रों से तिरस्कृत और उपेक्षणीयŸ। किन्तु आज तो सारा समकालीन साहित्य निरालामय है। वे ही वे हैंŸ। खुद निराला को यह बोध हो चुका थाŸ। न हो चुका होता तो वे कभी भी यह नहीं कह पाते कि हिन्दी कविता में जो वसंत आया है उसके अग्रदूत वे ही हैंŸ। स्वयं को ‘मैं ही वसन्त का अग्रदूत' कह उन्होंने केवल छायावादियों पर नहीं, ख‹डी बोली हिन्दी के वसंत काल के समस्त रचनाकारों पर टिप्पणी कर दी हैŸ। या सम्भव हो यह बात उन्होंने अपने प्रतिद्वन्द्वी साथी कवि पंत के सन्दर्भ में की होŸ। अभी तो यह भी तय करना है कि ख‹डी बोली कविता का वसंत मैथिली शरण गुप्त आदि से आता है या फिर छायावादियों से या फिर बाद की कविता सेŸ? जिस वसंत की चर्चा वे कर रहे हैं, आखिर वह ख‹ड़ी बोली काव्य के किस काल-खण्ड से संबंधित हैŸ? हम आधुनिकों को निराला के इस भाव-लोक और प्रेरक स्रोतभूमि पर विचार करने की जरूरत हैŸ।

परंपरागत रूप से चले आते इस सांस्कृतिक अवचेतन से विच्छिन्न हो या उसे कटघरे में ख‹डा करने के बजाय निराला अपनी कविता में इसकी पुष्टि निरन्तर Šक्यों करते हैंŸ? बल्कि कहना यह चाहिए कि परम्परागत सांस्कृतिक अवचेतन के इन आद्यबिम्बों को नए सिरे से रच कर वे हिन्दी कविता को यह युगान्तकारी संदेश देते हैं कि संस्कृति की कलम नहीं लगाई जा सकतीŸ। हाँ, उसका पुनरान्वेषण, पुनर्सृष्टि और पुनर्विधान जरूर किया जा सकता हैŸ। एक अर्थ में छायावाद और उसके कवियों- जिनमें महादेवी भी शामिल हैं- ने यह किया भी हैŸ। न केवल कवियों बल्कि कई अन्यों ने भीŸ। प्रगतिकाल के नागार्जुन ने तो ‘काली माई' शीर्षक से एक कविता ही लिखी जिसमें वे मुण्डाल धारिणी को ‘माँ' संबोधित करते हुए उन्हें उनकी वर्तमान भूमिकाओं के लिए खरी-खोटी सुनाते हैंŸ। यही नागार्जुन अपने एक साक्षात्कार में इसी लेखक से कहते हैं-"प्रगतिशील कवियों को देखो वे कितने सिकु‹डते जा रहे हैंŸ। अपने ही प्रतीकों को छो‹ड रहे हैंŸ। नेरुदा और चे ग्वारा किस तरह अपने प्रतीकों का इस्तोल करते हैंŸ। इसे न सीखकर ये लोग अपने प्रतीकों से नफरत करने लगे हैं और बात करते हैं जातीय इतिहास कीŸ। मैंने तो काली, दुर्गा, त्रिमूर्ति, पंचमूर्ति जैसे प्रतीकों का इस्तोल हमेशा किया हैŸ। सिन्दूर तिलकित भाल पर कविता लिखी हैŸ। अब कोई कहे कि मैं बिग‹ड गया हूँ तो कहेŸ।''

निराला को अपना आराध्य और दिग्दर्शक मानने वाले लेखक समूहों की रचना में परम्परा की ये गहरी और सनातन मानी जानेवाली अन्तध्र्वनियाँ आज Šक्योंŸ गायब हैंŸ? इसके कारणों का पता नहीं परŸ यह कहा ही जा सकता है कि बगैर इनके न केवल हिन्दी कविता वरन् समूचे समकालीन लेखन का जाती 'चेहरा' परिपूर्ण नहीं होताŸ। कौन कहे कि बगैर इस ‘चेहरे' के कविता एक ऐसे ‘ग्लोब' की चीज़ हो उठती है जिसकी अपनी कोई ज़मीन नहीं होतीŸ।

हिन्दी कविता को अगर मध्यवर्गीय जड़ बौद्धिकता और साहित्यवाद से मुक्त कराना है और उसे सर्वतोभद्र, सामूहिक प्रतिष्ठा दिलानी है तो समकालीन कवियों को न केवल अपनी साम्प्रदायिक प्रतिबद्धता वरन् उस मानसिकता से भी बाज आना प‹डेगा जिसके चलते वे चुनिन्दा मध्य वर्ग के बौद्धिक खाते की अपनी खास अभिजात उपस्थिति बन कर रह गए हैंŸ। निराला और नागार्जुन जैसे कवि हमें यह नसीहत देते हैं कि कविता की राजनीति का चेहरा गहरे अर्थों में सांस्कृतिक होता है। उसकी उपेक्षा कर सृजन-प्रवृत्त होने वाले लोग एक ऐसी सतही और फौरी अनुभवपरकता के शिकार होते हैं जो बरसाती नदी-नालों की तरह तात्कालिक तौर पर उमड़ते तो खूब हैं किन्तु वर्षान्त के बाद सूखकर प्राय: निःशेष हो जाया करते हैंŸ। लोक और समाज के गतिशील सनातन अवचेतन से संवाद करने वाले सर्जक ही उसकी स्मृति में सुरक्षित रह पाते हैंŸ। निराला की कविता में यों तो ‘कुकुरमुत्ता' का भी अपना महत्त्व है पर ‘राम की शक्तिपूजा' जैसी महत् सृष्टि को दरकिनार कर स्वयं को उनका उत्तराधिकारी मानने वाले लोगों के लिए निराला का कवि-व्यक्तित्व ठीक उसी तरह की एक कठिन चुनौती है जिस तरह स्वयं निराला के लिए महान कवि तुलसीदास थेŸ।

२३ फरवरी २०१५

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