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साहित्यिक निबंध

 

नागार्जुन का कथा साहित्य
गिरीश पंकज
 


हिंदी कविता के दूसरे कबीर के रूप में लोकप्रिय नागार्जुन का यह एकांगी परिचय है। कबीर ने तो केवल कविताएँ ही रचीं, लेकिन इस आधुनिक कबीर उर्फ नागार्जुन ने प्रचुर मात्रा में गद्य साहित्य भी रचा और अपनी कहानियों और उपन्यासों के माध्यम से समयुगीन समस्याओं की गहरी पड़ताल भी की। उनके तमाम उपन्यास इस बात के प्रमाण हैं कि उन्होंने हिंदी कथा-साहित्य की प्रेमचंद-परम्परा का ही सुविस्तार किया। प्रेमचंद की ही भाँति नागार्जुन भी गाँवों में व्याप्त कुरीतियों के विरुद्ध रचनात्मक जेहाद छेड़ते हैं। अपनी कविताओं के माध्यम से वे लोकजागरण करते नजर आते हैं और अपनी कथाओं में भी वे लोकजीवन में व्याप्त विसंगतियाँ, अन्याय, अनाचार-पापाचार, सामंतवाद, मजदूरों की पीड़ाओं से होते हुए साम्राज्यवाद आदि अनके तरह की बुराइयों पर गंभीर-विमर्श करते हैं। कथा के मध्य संवादों के माध्यम से वे अपने मन की बात कहते चलते हैं। यह बहुत बड़ा अन्याय-सा लगता है कि लोग नागार्जुन को केवल कवि-रूप में देखते हैं जबकि उनका कथाकार वाला पक्ष भी कम उल्लेखनीय नहीं है।

समय के विरुद्ध हस्तक्षेप

हिंदी साहित्य में प्रगतिवाद के नाम पर या आधुनिकबोध के नाम पर उपन्यासों में नागरजीवन के अनेक परिवर्तनों को रेखांकित करने की होड़-सी मची रही जबकि गाँव का जीवन निरंतर त्रासद स्थितियों से दो-चार होता रहा। नागार्जन ने अपने कथाकार को गाँवों तक सीमित करते हुए जो कथाएँ कहीं हैं, वे क्लासिक बन गईं। उनके उपन्यासों की गहरी आंचलिकता हमें गाँव के जीवन से गहरे तक जोड़ देती हैं। गाँवों के जीवन में पनपने वाले पाप और पाखंड को नागार्जुन ने निकट से देखा और महसूसा। बहुत हद तो उन्होंने अपने इर्द-गिर्द उन त्रासदियों को भोगा भी इसीलिए उन की अधिकांश कथाएँ कपोल-कल्पित बिल्कुल नहीं लगती, वरन् यही महसूस होता है, कि लेखक एक रिपोर्टर की मानिंद आँखों देखा हाल बयाँ रहा हो। नागार्जन की कथाओं से गुजरते हुए कम से कम मुझे तो बिल्कुल ही महसूस नहीं हुआ कि मैं कोई कहानी पढ़ रहा हूँ। लगा, जैसे वे अपने समय की पारिवारिक, सामाजिक एवं राजनीतिक विसंगतियों का हलफिया सत्य उद्घाटित कर रहे हैं।

नागार्जुन का कथाकार अपनी छवि चमकाने के लिए या कोई कलात्मक खिलंदड़ेपन की रौ में बह कर कथाएँ नहीं कहता, वरन वह अपने समय के विरुद्ध हस्तक्षेप करने के लिए एक सायास कोशिश करता है। यही लेखकीय-धर्म है कि वह अपनी रचनाओं के माध्यम से युग के सच को रूपायित करे। और वैसे भी नागार्जुन चूकने वाले लेखक नहीं रहे। जिस बेबाकी के साथ उन्होंने कविताएँ लिखीं, उसी बेबाकी और हिम्मत के साथ उन्होंने गाँव की व्यथा-कथा कही। उनकी कहानियों में ब्राह्मणवाद, सामंतवाद और अनेक तरह के पाखंडवादों के खिलाफ नागार्जुन की कथाएँ एक तरह का आंदोलन हैं, जो आज भी जारी रहना चाहिए। तभी तो नागार्जुन जैसे लेखक रतिनाथ की चाची, बाबा बटेसरनाथ, बलचनमा, हीरक जयंती, वरुण के बेटे, नई पौध, दुखमोचन, उग्रतारा, जमनिया का बाबा, कुंभीपाक, गरीबदास और पारो जैसी कालजयी कथात्मक कृतियाँ रच पाते है। आसमान में चंदा तैरे उनका इकलौता कथा संग्रह है। उन्होंने कहानियाँ कम ही लिखीं मगर उसकी भरपाई एक दर्जन उपन्यास लिख कर कर दी। नागार्जुन ने जिन गाँवों की कथाएँ कहीं हैं, वे गाँव आज भी लगभग वैसी ही त्रासदियाँ झेल रहे हैं। इसलिए नागार्जुन पहले से ज्यादा प्रासंगिक बने हुए हैं।

रतिनाथ की चाची

रतिनाथ की चाची उपन्यास के बारे में क्या कहा जाए। १९४८ में आए इस उपन्यास की कथा गाँवों में पसरे अनके तरह के छल पर एक तरह से प्रहार ही करती है। एक विधवा अपने देवर की वासना का शिकार बनती है। विधवा की माँ हिम्मत के साथ इस कलंक से मुक्त कराने की पहल करती है। पूरा उपन्यास पाठकों को झकझोर कर रख देता है। जिस जीवंत शैली में नागार्जुन ने पूरी कथा कही है, वह हमारे समय के गाँव या समाज के एक ऐसे चेहरे को उधाडऩे के लिए पर्याप्त है, जिस पर अब कम बात होती है। रतिनाथ की चाची में वर्णित सत्य आज भी गाँवों में प्रकारांतर से जमा हुआ है। उसके विरुद्ध ऐसी कथाएँ ही रचनात्मक जेहाद कर सकती हैं। बालक रतिनाथ को उसकी चाची का स्नेह बचपन से ही मिलता रहा इसलिए अपनी चाची के प्रति उसके मन में अतिरिक्ति सहानुभूति है। अपने देवर की वासना का शिकार बन चुकी चाची अपना गर्भ गिराना चाहती है। इसी कथा को नागार्जुन ने विस्तार देते हुए दरअसल उस काल के ग्राम्यजीवन की विसंगतियों की पड़ताल की है। उपन्यास के अनेक संवाद दिल को छू जाते हैं। जैसे- "लज्जा भी निगोड़ी कैसी होती है कि उसका अंचल घोर-से-घोर पापी के लिए सुलभ है।ठ एक और जगह एक पात्र कहता है- ''समाज उन्हीं को दबाता है जो गरीब होता है। शास्त्रकारों को बलि के लिए बकरे ही नजर आए। बाघ और भालू का बलिदान नहीं सूझा।'' आज भी हमारे समाज में बलि प्रथा अपने चरम पर है। तथाकथित तौर पर आधुनिक होते जा रहे समाज की कुछ बर्बर अभिलाषाएँ अब तक नहीं मरी हैं। समाजवाद और प्रजातांत्रिक मूल्यों की स्थापना की निरंतर कोशिशों के बावजूद आज भी वर्गभेद साफ नजर आता है।

सामाजिक स्थितियों को मार्मिक वर्णन

नागार्जुन जिन गाँवों को, और जिन स्थितियों को मार्मिक वर्णन करते हैं, वे स्थितियाँ आज भी दृष्टव्य हो जाती हैं। इसीलिए हर कालजयी लेखक की कृतियाँ वर्षों तक जीवंत और सामयिक बनी रहती है। रतिनाथ की चाची जैसे उपन्यास मानो आज के समाज की कथा कह रहे हैं। उपन्यास का यह संवाद भी झन्नाटेदार तमाचे की तरह लगता है, जब गौरी का गर्भ गिराने के लिए आने वाली चमाइन दो टूक कहती है, '' एक बात कहती हूँ। माफ करना बड़ी जातवालों की बिरादरी बड़ी मलेच्छ, बड़ी निष्ठुर होती है मलकाइन। हमारी भी बहू-बेटियाँ राँड हो जाती हैं पर हमारी बिरादरी में किसी के पेट से आठ-आठ, नौ-नौ महीने का बच्चा निकाल कर जंगल में फेंक आने का रिवाज नहीं है। ओह, कैसा कलेजा होता है तुम लोगों का, मइया री मइया''। इस संवाद के बरक्स आज के हालात देखें तो जिस मलेच्छ समाज की ओर चमाइन इशारा करती है, वह मलेच्छ समाज तो अब न केवल गाँवों में वरन् शहरों तक पसर चुका है। इस तरह देखें तो नागार्जुन जिन मुद्दों का संस्पर्श करते हैं, वे मुद्दे आज भी हमें मथ रहे हैं। गाँवों में रहने वाली नारियों की दुर्दशा को तो नागार्जुन जैसे कुछ ज्यादा ही मन लगा कर अभिव्यक्त करते हैं। नारी के दुख से दु:खी नागार्जुन ने एक बार एक समाचार पत्र में यहाँ तक लिख दिया था, कि ''अगर मेरा अगला जन्म हो तो मैं नारी बनना चाहता हूँ। मुझे लगता है कि सबसे बड़ी हरिजन जो हैं महिलाएँ हैं। इनका दलितपन कब समाप्त होगा, यह हमें नजर नहीं आ रहा है''। इस कथन को देखें और नारी विषयक नागार्जुन की कथाएँ देखें तो साफ हो जाता है, कि यह कथाकार स्त्री के सवाल पर कितना संजीदा है।

विधवाओं की मार्मिक स्थितियों का वर्णन

रतिनाथ की चाची में नागार्जुन ने समाज की विधवाओं की मार्मिक स्थितियों पर ही औपन्यासिक कथा का ताना-बाना रचा है। स्थितियों में कुछ सुधार तो हुआ है, मगर गति धीमी है। उस दौर की समस्या पर नागार्जुन का पात्र टिप्पणी करता है, कि ''जिस समाज में हजारों की तादाद में विधवाएँ रहेंगी, वहाँ यही सब तो होगा। मक्खन पाठक की पतोहू उढऱकर पंजाब चली गई। एक सिक्ख के साथ रहती है। मैं अपनी लड़की को झाड़ू से पीट कर घर-निकाला और देश-निकाला दूँगी, सो मुझसे नहीं होगा। मेरे जीते-जी गौरी मुसलमान या सिख के घर जाने पर मजबूर नहीं की जा सकती।'' संकट के समय में भी एक माँ की दृढ़ इच्छा-शक्ति इस बात का सबूत है कि उस दौर में भी जब लोग हालात से समझौता कर लेते थे, तब भी स्त्री अस्मिता के लिए घड़ी होने वाली गौरी और गौरी की माँ जैसे चरित्र भी मौजूद ते जो अपने तरीके से लडऩे की कोशिश कर रहे थे। उससमय जब विधवा का गर्भधारण करना सामाजिक दृष्टि से पाप माना जाता था, नागार्जुन ने यह बताया कि आर्य समाज एक प्रगतिशील चिंतन के साथ तब भी मौजूद था, जो गर्भवती विधवाओं को संरक्षण प्रदान करता था। उपन्यास का एक पात्र कहता है- '' अरिया समाज (आर्य समाज) की तरफ बड़ा अच्छा इंतजाम है। विधवा हो चाहे कोई भी, वहाँ गरभ किसी का नहीं गिराया जाता। ठीक समय पर बच्चा पैदा होता है। माँ चाहती है तो बच्चे को रख लेती है नहीं तो अरिया समाज ही बच्चे को रख लेता है। अच्छा है न ? आखिर अच्छे लोग नहीं हैं तो दुनिया कैसे चलती है।''

अपनी कथा में नागार्जुन ने अच्छे और बुरे के द्वंद्व में अच्छाई की विजय की ओर भी संकेत किया है। रचनात्मक लेखन के केवल यथार्थ का वर्णन करके ही खामोश नहीं रह जाता, वरन कहीं-कहीं वह अरिया समाज जैसे कुछ कामों को भी उद्भासित करते हुए बेहतर दुनिया की तैयारी के संकेत भी करता है। नागार्जुन अपनी कथाओं के माध्यम से शोषण और अनेक विसंगतियों पर गंभीर विमर्श करते हैं, मगर हर बार वे समाधान की ओर इशारा भी करते हैं। भले ही वे क्रांति के लिए प्रेरित करते हैं। मगर वे जड़वादी चिंतक नहीं है, जैसे कलावादी होते हैं। नागार्जुन वैसे भी खाँटी जनवादी है इसलिए वे अन्याय के विरुद्ध रह-रह कर बिगुल भी फूँकते हैं। इसलिए नागार्जुन की कहानियाँ पाठक को जगाती है,  प्रेरित करती है। नागार्जुन केवल मिथिलांचल के सत्य पर ही उँगलियाँ नहीं उठाते, ऐसा सीमित सोचना एक बड़े लेखक के विशाल दायरे को छोटा करना होगा। सच तो यह है, कि नागार्जुन भारतीय मानसिकता पर ही गहरे कटाक्ष करते हैं।

बलचनमा

अपने एक और उपन्यास बलचनमा में भी नागार्जुन क्रांति का बिगुल फूँकते नजर आते हैं। जनवादी तेवरों से लबरेज इस उपन्यास में जमींदारों की गर्हित मानसिकता का खुलासा इस उपन्यास में हुआ है। एक बच्चा जमींदार के बगीचे से कच्चा आम क्या तोड़ लेता है, उसके बाप को मौत का सामना करना पढ़ता है। बाप के हत्यारे जमींदार के यहाँ बलचनमा को भैंसे चरानी पड़ती हैं। बलचनमा अनपढ़ जरूर है पर उसके मन में यह बात जरूर है कि जमींदार शोषक है और इसका प्रतिकार करना ही पड़ेगा। और वह अपने तरीके से लोगों के मन में जमींदार के अन्याय के विरुद्ध जागृति पैदा करने का काम भी करता है। प्रेमचंद के गाँव और नागार्जुन के गाँव में बहुत ज्यादा अंतर नहीं दीखता लेकिन अंतर पात्रों की बुनावट को लेकर है। नागार्जुन के पात्र बगावत भी करते हैं। अन्याय को सहने की सीमा तक सहते भी हैं मगर अंतत: वे मनुष्यता के निकट पहुँचते हैं और अपनी अस्मिता के लिए खड़े होते नजर आते हैं, खड़े भी होते हैं।

बलचनमा के अंतस में भी आग है और वह प्रकट भी होती है। बलचनमा का पात्र कहता है,कि जमींदारों का गाँव है। लुच्चे होते हैं ये लोग। किसी की लड़की सयानी हुई नहीं, कि निशाना साधने लग जाते हैं। बड़े घरों के क्या जवान, क्या बूढ़े बहुतेरों की निगाह पाप में डूबी रहती है। खेतिहर मजदूरों पर होने वाले अत्याचार का जो वर्णन नागार्जुन ने किया है, उसे पढ़ कर रोंगटे खड़े हो जाते हैं। जमींदार बलचनमा के पिता पर जो अत्याचार करता है, उसका वर्णन द्रवित कर देने के लिए पर्याप्त है। बलचनमा कहता है, '''मालिक के दरवाजे पर मेरे बाप को एक खंभे के सहारे कसकर बाँध दिया गया। जांघ, पीठ और बाँह, सभी पर हरी कैली के निशान उभर आए हैं। चोट से कहीं-कहीं खाल उधड़ गई है। अलग कुछ दूर छोटी चौकी पर वनराज की भाँति मंझले मालिक बैठे हैं''।

स्वतंत्रता संग्राम के नकली चेहरों की पड़ताल

नागार्जुन अपनी इस सुदीर्घ कथा के माध्यम से स्वातंत्र्य-समर के कुछ नकली चेहरों की भी पड़ताल करते हैं। उस दौर में भी कुछ सुराजी केवल पाखंड करते थे। उनका उद्देश्य केवल सत्ता पर काबिज होना था। नागार्जुन ऐसे नकली सुराजियों के साथ-साथ ब्राह्मणवाद पर भी प्रहार करते हैं। महाजनी असभ्यता की भी जम कर खबर लेते हैं। बलचनमा के माध्यम से नागार्जुन ने एक साथ कई विसंगतियों की जो कथा कही है, वह भी अनेक रूप बदल कर आज भी गाँवों में देखी जा सकती है। गाँव में प्रयुक्त शब्दों का आस्वादन भी नागार्जुन की कथाएँ देती चलती हैं। मिथिला के अनेक शब्दों से पाठकों का परिचय भी होता है जैसे, पर्तपाल, कोदी, मड़वा, साँवां, काँवन, सरही, खढोर, गाछी, गोइठा, गोरहा और पलिवार आदि। यही कारण है कि नागार्जुन के उपन्यास आंचलिकता की महागाथा की तरह प्रस्तुत होते हैं। और उनके तमाम उपन्यास रेणु की ही भाँति आंचलिक उपन्यास कहे जा सकते हैं। वैसे आंचलिक उपन्यास के जुमले से बहुतों को परहेज भी है। क्योंकि एक वर्ग मानता है, कि ऐसा कह कर हम उपन्यास को सीमित कर देते हैं लेकिन मुझे लगता है कि वैश्विक होने के पहले हर कथा को आंचलिकता के निकष पर ही खरा होना पड़ता है। आंचलिकता ही एक तरह की वै
श्विकता है। वैश्विक होने से पहले हमें देशज अनुभूतियों से गुजरना पड़ेगा।

आंचलिक-संस्पर्श के साथ वैश्विकता तक प्रसार

नागार्जुन के उपन्यास आंचलिक-संस्पर्श के साथ वैश्विक हैं। नागार्जुन की कथाएँ पढ़ कर न केवल मानवीय संवेदनाओं का पता चलता है वरन वे अनेक सूचनाएँ भी देते चलते हैं। जैसे रतिनाथ की चाची में वे बताते हैं, कि जयनगर से जनकपुर तक नेपाल सरकार ने अपनी रेल खोल रखी है। वे मैथिली संस्कृति के अनेक बेहतर पक्ष को भी सामने लाते हैं। वहाँ आम कितने प्रकार के होते हैं, इसकी भी जानकारी उनकी कोई कथा दे जाती है। नागार्जुन की कहानी पढ़ कर ही पता चला कि बिकौआ नामक कोई प्रवृत्ति होती है। यह बिकौआ तथाकथित कुलीन समाज में पाया जाता है और अनेक शादियाँ कर सकता है। ससुराल में ही रहता है और मौज करता है। नागार्जुन बताते हैं कि आज भी मैथिल ब्राह्मणों में बिकने वाले बिकौआ दिखाई पड़ जाते हैं। वैसे तो यह प्रथा अब मर चुकी है; मगर यह जानकर हैरत होती है कि हमारे समाज में ऐसे लोग भी रहे हैं। यह नागार्जुन की कथाओं का यही कमाल है कि वे केवल कथा भर नहीं कहते, वे अपने समय के सामाजिक प्रामाणिक तथ्यों से भी अवगत कराते चलते हैं। मुझे लगता है, कि भारतीय और खास कर मिथिला के लोकजीवन के सच को समझना हो तो किसी इतिहास की पुस्तक को खंगालने की बजाय हमें नागार्जुन का साहित्य पढ़ लेना चाहिए। नागार्जुन की कथाओं में एक तरह से इतिवृत्तात्मकता भी है। यह खासियत नागार्जुन को अपने तमाम समकालीनों से अलग करती है।

नागार्जुन ने कुछेक लघु कहानियाँ भी लिखी हैं। जैसे-'इनाम' और 'मेहनत का फल' आदि। इनकी अधिकतर कथाएँ बोध कथाओं-सा आस्वादन देती हैं। ये कहानियाँ आलोचकों की नजर में यथार्थवादी भले ही न कहीं जाएँ, लेकिन मेरे जैसे पाठक को तो लगता है, कि सच्ची कहानी का पाठ हमारे अंतस् के मनुष्य का जगाने का उपक्रम करे। केवल धुर कलात्मकता ही कहानी नहीं है। वह कहानी का एक पक्ष हो सकती है लेकिन उससे कहानी अधूरी रहती है अगर उसमें कथारस नहीं है या कोई गहरी सोद्देश्यता भी नहीं है। कहानी अगर हमें कुछ सोचने के लिए बाध्य करती है, तो वह सार्थक कहानी है। नागार्जुन की कथाएँ सोद्देश्य हैं। वे अपनी संक्षिप्त कथाओं का समापन निष्कर्ष के तौर पर एक-दो खास पंक्तियों के साथ ही करते हैं। जैसे इनाम कहानी में वे सारस-भेडिये की कथा कहते हुए अंत में कहते हैं, रोते हों फिर भी बदमाशों पर करना न यकीन। मीठी बातों से मन होना छलियों के अधीन। करना नहीं यकीन। खलों पर करना नहीं यकीन। अगर कथा-कहानी हमारा बोध न जाग्रत कर सके, हमें अपने समय से समुचित संवाद करने या आत्म-मंथन के लिए विवश न कर सके, तो वह कहानी नहीं हो सकती। कहानी कहनपन के साथ तो हो साथ ही वह हमारा परिमार्जन बही करती चले। नानी-दादी की कहानियाँ क्या थीं? वे बच्चों के मनोरंजन के लिए ही कथा नहीं कहतीं, वरन उसके माध्यम से मनुष्यता के या सामाजिकता के संस्कार भी प्रक्षेपित करने की कोशिश करती हैं। नागार्जुन भी बिल्कुल सही अर्थों में बाबा की भूमिका में दीखते हैं और अपनी कविताओं की तरह अपनी कथाओं के माध्यम से लोक परिष्कार और लोक संस्कार का काम करते चलते हैं।

नागार्जुन का एक और उपन्यास ‘बाबा बटेसरनाथ’ अद्भुत फंतासी का सृजन करता है। यहाँ एक इच्छाधारी बाबा है जो बरगद भी बन जाता है और इनसान भी। बाबा कहता भी है, ''बेटा, मैं न तो भूत हूँ, न प्रेत। मैं इस बरगद का मानव रूप हूँ। जिस वनस्पति राज की फलियों के बीज से मेरी उत्पत्ति हुई उन्हें वनदेवी ने प्रसन्न हो कर यह वरदान दिया था कि तुम्हारी संततियाँ मनुष्य हृदय की बातें अनायास समझ लेंगी और अपनी इच्छा के मुताबिक जब चाहे तब मनुष्य का रूप धारण कर सकेंगी। सो, मैं ठहरा इच्छाधारी। मुझसे डरना या मेरे विषयमें किसी प्रकार की शंका करना बेकार है।'’ यह पूरा उपन्यास गाँव के जीवन को केंद्र में रखकर रचा गया है। नागार्जुन अभिजात आडंबरों की पोल खोलने का काम करते हैं। बाबा बटेसरनाथ अपनी आत्मकथा के बहाने वर्तमान काल के गाँव के दर्द को कहते चलते हैं। बाबा बटेसरनाथ गाँधी जी की अहिंसा का गुणगान करते हैं मगर क्रांतिकारियों के अवदान का भी सम्मान करते हैं। एक जगह बाबा कहते हैं, बंगाल के नौजवान महात्मा गाँधी के असहयोग और सत्य-अहिंसा की बातों में आस्था नहीं रखते थे। दुश्मनों को पछाडऩे के जितने भी तरीके हो सकते हैं, वे उन्हें आजमाने के पक्ष में थे। नागार्जुन अपनी समूची कथा में अहिंसा के बरक्स हिंसा को नहीं रखते मगर वे उस क्रांति की भावना का भरपूर समादर करते हैं, जो देश की आजादी के लिए ही आहुतियाँ दे रही थी। नागार्जुन ऐसे लेखक भी माने जाते हैं जिन्होंने पर्यावरण जैसे विषय पर भी गंभीरतापूर्वक लिखा। बाल साहित्य भी रचा। हिंदी साहित्य इस मामले में बड़ा अभिशप्त है कि यहाँ का लेखक पर्यावरण जैसे महत्वपूर्ण विषय को लगभग अछूत समझता है,लेकिन नागार्जुन ने ऐसा नहीं किया। उन्होंने अपनी अनेक कथाओं में पर्यावरण चेतना का भी ध्यान रखा। बाबा बटेसरनाथ में तो असली नायक एक बरगद ही है।

वरुण के बेटे

वरुण के बेटे’ मछुआरों के कठिन जीवन का जीवंत वर्णन करता है। नागार्जुन ऐसे लेखक थे, जो कथा कहने के पहले अपने पात्रों के साथ घुल-मिल कर उनके दर्द को सीधे महसूस करते थे और प्रामाणिक तथ्यों के सहारे कथा का ताना-बाना बुनते थे। इस उपन्यास में खुरखुन और उसके परिवार के संघर्ष की गाथा है। मछुआरों के शोषण को समझने के लिए वरुण के बेटे जैसी कृतियाँ कारगर हो सकती हैं। अपने ऊपर होने वाले अन्याय के विरुद्ध लामबंद होने की कथा है वरुण के बेटे। संघर्ष के बीच पलते प्रेम-रंग को भी नागार्जुन ने पकडने की कोशिश की है। मधुरी-मंगल की प्रेम कथा कहानी के दुख को कम करती चलती है। इस सत्य से भी रू-ब-रू कराती है कि संघर्ष के बीच प्रेम लड़ाई की ताकत भी तो देता है। उपन्यास को नायक मोहन माँझी शोषित व्यवस्था से उठने वाली नवचेतना का प्रतीक है। स्वामी सहजानंद सरस्वती जैसे महान लोगों के संपर्क में आने के बाद नागार्जुन ने अपनी रचनाओं में किसानों के शोषण और उनके संगठन की शक्ति को बखूबी रेखांकित किया। इस उपन्यास में भी वे केवल मछुआरों के संगठन के साथ-साथ किसानों के संगठन को भी सहयोग करने की बात करते हैं। लगे हाथों वे जातीय संगठनों की मुखालफत भी करते हैं। एकजगह उनका पात्र कहता है-''मैंथिली महासभा, राजपूत महासभा, यादव महासभा आदि जो भी साम्प्रदायिक संगठन हैं, सभी का बायकाट होना चाहिए। इन महासभाओं के नेता आम लोगों की एकता में दरार डालने का ही काम करते हैं।''

कुंभीपाक

नागार्जुन का उपन्यास कुंभीपाक नागर-जीवन की त्रासदियों को जीवंत चित्रण करता है। एक घर में छह परिवार रहते हैं। उनके बीच उपजने वाली विसंगतियाँ-परेशानियों का बड़ी बारीक विवरण इस उपन्यास में दीखता है। नागार्जुन जिस किसी विषय को छूते हैं, उसे गंभीरता के साथ आगे ले जाते हैं। नागार्जुन सरोकारों वाले लेखक हैं। इसलिए उनके सामाजिक सरोकार साफ नजर आते हैं। अनेक महानगरों में इस वक्त वेश्यावृत्ति अपने चरम पर है। जिस दौर में नागार्जुन ने कुंभीपाक लिखा था, तब भी समस्या उतनी ही सघन थी। उनके ही कुछ समकालीनों ने भी वेश्यावृत्ति पर कथाएँ लिखी, लेकिन नागार्जुन का शिल्प जनवादी है। चीजें साफ हो कर सामने आती हैं। वे कथा के साथ-साथ सामाजिक समस्याएँ भी उठाते चलते हैं। भारत से लेकर नेपाल, बांग्लादेश तक फैला देह व्यापार बहुत हद तक मजबूरी के कारण भी है। चम्पा और भुवन जैसी औरतें एक तरह का नरक भोगती हैं। इन सबके के पीछे बेमेल विवाह जैसे कारण भी हैं। नारी उद्धार के नाम पर शोषकों की एक नई कौम भी विकसित हुई है। नागार्जुन इन सब लोगों की खबर लेते हैं। उनका यह संवाद अपने आप में बहुत कुछ कह देता है, कि ''विधवाश्रम, अनाथाश्रम वाले साइन बोर्ड फीके पड़ चुके हैं।''

दुखमोचन

नागार्जुन का ‘दुखमोचन’ उपन्यास भी कमाल का है। स्त्री-विमर्श इन दिनों फैशन-सा भी लगता है, लेकिन नागार्जुन अपनी हर कथा में स्त्री-विमर्श करते हैं, सायास करते हैं, पूरी प्रतिबद्धता के साथ। विधवा विवाह पर जोर देते हैं। बेमेल विवाह का विरोध करते हैं.और स्त्री स्वातंत्र्य की वकालत करते हैं। नागार्जुन जिस परिवेश में पले-बढ़े उस परिवेश से बाहर निकल कर वे जागरण का काम करते हैं। इस तरह नागार्जुन की कथाएँ नवजागरण की कथाएँ हैं। वे दकियानूसीपन के विरुद्ध कदम-कदम पर हस्तक्षेप करते हैं। अधिकांश रचनाओं में नागार्जुन कथाओं के बहाने व्यथाओं का वर्णन करते हैं
और समाधान के रूप में विद्रोह की दिशा भी दिखाते हैं, जिनकी ओर बहुत कम लेखकों का ध्यान जाता है।

दुखमोचन में नागार्जुन में विधवा माया विधुर कपिल से विवाह करना चाहती है। लड़की ब्राह्मण और लड़का राजपूत है। हमारा समाज अभी तक मध्ययुगीन सोच में ही फँसा दीखता है। कोई प्रगतिशील पक्ष उसे रास नहीं आता। अपनी-अपनी जाति के गौरव से अभिभूत लोग मरने-मारने पर उतारू हो जाते हैं। जाति की परम्परा उन्हें जिंदगी से बड़ी लगने लगती है। इसीलिए वे विजातीय शादी का विरोध करने लगते हैं। उपन्यास में एक पात्र कहता है-''यह ठीक हुआ विधवा लड़की ने रंडुआ लड़के से संबंध कर लिया तो क्या बुरा किया। इधर-उधर भटकती और भरस्ट होती तो गाँव-कुल का नाम डुबाती, वह अच्छा होता कि यह अच्छा हुआ।'' यही समाधान भी है।

नागार्जुन के उपन्यास इसी तरह के रचनात्मक सुझाव देते हैं इसलिए मुझे वे बड़े सार्थक उपन्यास लगते हैं। जो कथाएँ समाज का सोच बदल सकें, वे ही सही कहानियाँ हैं। केवल सामाजिक विध्वंस दिखाना ही कौशल नहीं है, वरन सृजन का राग गाना भी कलात्मकता है। कथाकार नागार्जुन की खासियत यही है, कि वे सृजन के पक्षधर हैं। उनके हर उपन्यास सकारात्मकताके साथ खत्म होते हैं। उग्रतारा और नई पौध में भी वे बेमेल और विधवा विवाह की समस्या पर विमर्श है।

हीरकजयंती

हीरकजयंती में नागार्जुन तथाकथित गाँधीवादियों की पोल खालते हैं। गाँधीवादी लोगों के पूँजीवादी चरित्र को उजागर करने वाला यह उपन्यास भी पठनीय है। हालाँकि शिल्प की दृष्टि से यह उपन्यास सचमुच एक रिपोर्ताज हो गया है, यह नागार्जुन भी स्वीकार करते थे, फिर भी हम इसे प्रयोगधर्मिता के निकष पर रखकर भी देख सकते हैं। हम कह सकते हैं कि नागार्जुन इस उपन्यास में पारम्परिक औपन्यासिक शिल्प को तोड़ते नजर आते हैं। उनकी हर कहानी पर लम्बा विमर्श हो सकता है, लेकिन मेरी अपनी सीमा है। उनके कथा साहित्य को समझने के लिए मैंने कुछ उपन्यासों का आंशिक संस्पर्श ही किया है। इन सब पर सविस्तार भी लिखा जा सकता है। मगर फिर कभी।

नागार्जुन कविता के साथ-साथ कहानीकार के रूप में भी उतने ही बड़े हैं, कहा जा सकता है कि दो समान शिखर है। एक कविता का, दूसरा कहानी का। दोनों विधाओं में नागार्जुन असाधारण हैं। कई बार तो वे अपनी कविताओं से आगे नजर आते हैं।

२७ जून २०११

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