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साहित्यिक निबंध


अज्ञेय की 'असाध्य वीणा'
कुमार रवीन्द्र


अज्ञेय की 'असाध्य वीणा' का पहला पाठ मैंने धुर ज़वानी यानी लगभग पच्चीस साल की उम्र में किया था। उनकी कविताई से छिटपुट परिचय उससे भी चार-पाँच साल पुराना था। 'असाध्य वीणा' के उस पहले पाठ ने मुझे सम्मोहित किया था, अंतरस्थ-ध्यानस्थ किया था, उसके प्रभाव का इतना ही मुझे ध्यान है। मंत्रमुग्ध होने की उस उम्र में उसके क्लासिकी कहन के अंदाज़ से मैं अभिभूत तो हुआ, पर उसे भली प्रकार समझने, आत्मसात करने में मुझे कई वर्ष लगे। अंग्रेजी साहित्य का अध्येता-अध्यापक होने के कारण मैं प्रख्यात रोमांटिक अंग्रेजी कवि जॉन कीट्स की कालजयी महाकाव्यात्मक भावभूमि की कविता 'हाइपेरियन' से परिचित था। 'असाध्य वीणा' के उस पाठ ने और कुछ वर्षों बाद के दूसरे- तीसरे पाठ ने वैसी ही भावभूमि में मुझे पहुँचा दिया। 'असाध्य वीणा' के कथ्य का सारा परिवेश रोमांटिक है, पर उसकी कहन महाकाव्यात्मक क्लासिकी है, जैसी कि 'हाइपेरियन' की थी।

छायावाद के बाद हिंदी कविता के रोमांटिक स्वर ने जो दिशा ली, अज्ञेय उसके प्रमुख एवं संभवतः सर्वश्रेष्ठ कवि हैं। किन्तु उनकी सर्जनात्मकता में जो एक भाषिक और कथन का संयम है, वह उन्हें अधिकांश रोमांटिक कविताई से पूरी तरह अलगाता है। 'असाध्य वीणा' अज्ञेय की सरजीनात्मकता के इसी संतुलित पहलू का एक सटीक दस्तावेज़ है। कविता की जो 'असाध्य वीणा' है, उसे उन्होंने अपनी 'अज्ञेय' भावभूमि पर महसूसा है और फिर साधा है इस महाकविता में। कीट्स की 'हाइपेरियन' के अंतिम अधूरे अंश में युवा अपोलो की गहन पीड़ा से जिस देवत्व की कावयवमय भावभूमि का उदय होता है, वैसी ही कुछ अनुभूति से प्रियंवद केशकम्बली को गुज़रना पड़ता है असाध्य वीणा को साधने के लिए। कविता का बार-बार पाठ करने पर मुझे लगा है कि अज्ञेय कवि की इसी भावभूमि को इस कविता के माध्यम से परिभाषित कर रहे हैं। अहंभाव का आत्म-तत्तवप में संपूर्ण विलोपन ही तो कविकर्म का मर्म है। अज्ञेय कवि की इसी सिद्धावस्था से 'असाध्य वीणा' में रू-ब-रू होते मुझे लगे हैं। उनका नायक प्रियंवद है यानी कविता के प्रियकारी स्वरूप का ज्ञाता तो वह पहले से ही है। वह 'केशकम्बली' है यानी भौतिक-दैहिक अभीप्साओं से विरत है। किन्तु अपने कवि के परम स्वरूप को प्राप्त करने के लिए उसे संपूर्ण जीव-जगत किंवा संपूर्ण सृष्टि के आत्म-तत्त्व से एकात्म होना बाकी है । 'असाध्य वीणा' ऋषि वज्रकीर्ति की जीवन-पर्यन्त की एकांत हठ-साधना की परम सिद्धि है। जो सृष्टि का 'किरीटी तरु' है, उससे जिस वीणा का गढ़न हुआ है, उसे साधने के लिए उस 'किरीटी तरु' के सारे अनुभवों, सारी अनुभूतियों से एकाकार होकर उसमे संचित सृष्टि के परम नाद को सुनना अनिवार्य है। यही है अज्ञेय की इस महाकविता का केन्द्रीय मन्तव्य। अज्ञेय की आध्यात्मिक कला-दृष्टि की चरम सिद्धि की कविता है 'असाध्य वीणा', इसमें कोई संदेह नहीं है।

"प्रवृत्ति : अहं का विलयन" शीर्षक अपने निबन्ध में अज्ञेय ने कविता को 'अहं के विलयन का साधन' और 'स्वस्थ व्यक्ति की आनन्द-साधना' कहा है। 'असाध्य वीणा' की रचना-प्रक्रिया में इन दोनों ही साधनों की उपस्थिति अपने चरमोत्कर्ष पर प्राप्त हुई है। प्रियंवद केशकम्बली क्रमशः इन्हीं दोनों आत्म-स्थितियों का साक्षात्कार कर वज्रकीर्ति की असाध्य वीणा में छिपे सुरों को साधते हैं और तभी उनकी काँपती उँगलियों से झंकृत होकर 'अलस अँगड़ाई लेकर मानो जाग उठी थी वीणा' और फिर 'अवतरित हुआ संगीत / स्वयम्भू / जिसमें सोता है अखण्ड / ब्रह्मा का मौन / अशेष प्रभामय'। बीसवीं सदी के पुरोधा अंग्रेजी कवि टी. एस. एलियट की विश्वख्यात कविता 'वेस्टलैंड' का समापन भी तो बृहदारण्यक उपनिषद में आये ब्रह्मा के इसी मुखर मौन से उपजे संगीतमय जीवन-संदेश में हुआ है। इस जीवंत संगीत में डूबने को तो 'डूब गये सब एक साथ', पर अलग-अलग श्रुति-मनस्थितियों के कारण 'सब अलग-अलग एकाकी पार तिरे'। हाँ, महान काव्य-संगीत हर श्रोता को एकाकी ही छोड़ जाता है। अपने सभी पदार्थिक सम्मोहों से अलग होकर वे कुछ क्षणों के लिए कालातीत हो जाते हैं। पर काव्य-संगीत द्वारा उपजाई यह भावसथिगति स्थायी नहीं होती। इसीलिए कविता का अंत होता है एक अनंत साधारणता में ही।

'असाध्य वीणा' का कथानक तो एक चीनी-जापानी किंवदन्ती-कथा पर आधृत है, पर उसका काव्य-संस्कार अज्ञेय की आस्तिक भारतीय दृष्टि का परिचायक है। धर्म के बाह्य कर्मकाण्डी अथवा पूजा-क्रियाओं वाले स्वरूप को अज्ञेय संभवतः स्वीकार नहीं करते थे, पर जहाँ तक भारतीय अध्यात्म की बात है, वे उसके मर्म को भली भाँति पहचानते-जानते थे। और 'असाध्य वीणा' में उनकी यही आध्यात्मिक दृष्टि रूपायित हुई है। कविता के माध्यम से अध्यात्म के उस धरातल की खोज वे करते हैं, जिस पर पहुँचकर 'स्व' 'सर्व' में परिणत हो जाता है। कविता की दार्शनिक भावभूमि पूरी तरह औपनिषदिक है, इसके विषय में कोई दो राय नहीं है। कवि-कर्म की नियति है स्वयं के शोधन द्वारा सर्वात्म की प्राप्ति। यही तो प्रियंवद करता है अज्ञेय की इस कालजयी रचना में। जब राजा सहित सभी आशंकित हैं उसकी क्षमता पर, वह उस क्षण में 'उस स्पन्दित सन्नाटे में / ... मौन ... साध रहा था वीणा - / नहीं स्वयं को शोध रहा था / सघन निविड़ में वह अपने को / सौंप रहा था उसी किरीटी तरु को', जिससे उस कारुवाद्य की रचना हुई थी। और वह भी स्व को समूचा विलीन कर - 'कौन प्रियंवद है कि दम्भ कर / इस अभिमंत्रित कारुवाद्य के सम्मुख आवे ?' और फिर शुरू होता है उसका वीणा से वह 'नीरव एकालाप', जिसमें 'अनिमेष, स्तब्ध, संयत, संयुत, निर्वाक' वह सुनता है, ध्याता है उस महावृक्ष के 'व्याकुल मुखरित वन-ध्वनियों के / वृन्दगान के मूर्त रूप' को, जिसमें 'शत-सहस्र पल्लवन-पतझरों' की ऋतु-गाथाओं की गुंजार है, खद्योतों द्वारा की पावस-आरतियों के स्वर हैं, भौरों और झिल्लियों द्वारा किये 'अनथक मंगल-गान' हैं, 'साँझ-सवेरे अनगिन /अनचीन्हे खग-कुल की मोद-भरी क्रीडा-काकलि' है। 'पूरे झारखंड के अग्रज / तात, सखा, गुरु, आश्रय / त्राता महच्छाय' को 'तेरी गोदी बैठा मोद-भरा बालक' का किलक-पुलक विस्मय-भाव ही तो उस तन्मयता को उपजाता है,जिसमें प्रियंवद के कला-शोधक की साँसें 'भरें-पुरें, रीतें, विश्रांति पायें' की प्रक्रिया से गुज़रकर सर्जना की भाव-स्थिति प्राप्त करती हैं।

और फिर उस 'किरीटी-तरु की महाकाय में समाहित वे सारी लयें, सभी ध्वनियाँ प्रियंवद की स्मृतियों में एक-एक कर उभरती हैं, जिनसे दारु-वीणा का असाध्य संगीत उपजा होगा। कविता में एक पूरा अत्यंत समृद्ध बहु-ध्वनि आर्केस्ट्रा है अग-जग के नैसर्गिक सुर-तालों का। उस आर्केस्ट्रा को मैंने पता नही कितनी बार सुना है अपने भीतर कविता का अचरज रचते। प्रियंवद के मन में उपजे ये स्मृति-बिम्ब जन्मों-जन्मों के हैं। वस्तुतः मानुषी अवचेतन में समाहित ये ध्वनियाँ केवल प्रियंवद की अनुभूति में ही नहीं हैं। वे तो उस समग्र मानव-समुदाय की सामूहिक स्मृति की गूँजें हैं, जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी मानुषी आस्तिकता का पोषण करती रही हैं। वे अनायास हमें प्राप्त हैं, हालाँकि हम उन्हें अक्सर भुलाये रखते हैं। अहसास के उस धरातल पर हम तभी पहुँच पाते हैं, जब कोई प्रियंवद जैसा शब्द-साधक अवचेतन की उस असाध्य वीणा को साधकर हमें अपनी सही इयत्ता से रू-ब-रू कर देता है। कविता के इस अंश को पढ़ते समय मुझे श्रीमद्भगवतगीता के 'विभूतियोगो नाम दशमोध्याय' के पाठ के जैसी रोमांचक सात्त्विक अनुभूति होती रही है। वैसा ही सर्वात्मा का अभिज्ञान, वैसा ही संपूर्ण सृष्टि से तादात्म्य का वासुदेव-भाव 'असाध्य वीणा' के इस अंश में है। यह जो 'मुझे स्मरण है' का काव्य-भाव है, वही तो समस्त आस्तिकता का मूल भाव है। इस अंश में वस्तुतः कवि के जन्म की अवचेतनीय गाथा कही गयी है और कविता का यही हिस्सा सर्वाधिक काव्यमय है। इसकी समापन-पंक्तियाँ कवि के दृष्टा-साक्षी होने की ही साक्षी देती हैं -

"मुझे स्मरण है
और चित्र प्रत्येक / स्तब्ध, विजड़ित करता है मुझको
सुनता हूँ मैं
पर हर स्वर-कम्पन लेता है मुझको मुझसे सोख -
वायु-सा नाद-भरा मैं उड़ जाता हूँ।...
मुझे स्मरण है -
पर मुझको मैं भूल गया हूँ :
सुनता हूँ मैं -
पर मैं मुझसे परे, शब्द में लीयमान।"

और फिर इसी 'मुझ से परे, शब्द में लीयमान' मंत्रोच्चार जैसी काव्य की परा-स्थिति से उपजता है समूचे समर्पण का पूजा-भाव, जिसमें किरीटी-तरु की 'नादमय संसृति' के 'रस-प्लावन' में डूबने, उसमें संपूर्ण विलय हो जाना संभव हो पाता है। 'मुझे ओट दे - ढँक ले - छा ले / मेरे गूँगेपन को तेरे सोये स्वर-सागर का ज्वार डुबा ले' के महाभाव में स्थित हो जाने पर ही तो कविता की यह प्रार्थना - स्थिति बन पाई है -

"आ, मुझे भुला
तू उतर बीन के तारों में
अपने से गा / अपने को गा -
अपने खग-कुल को मुखरित कर
अपनी छाया में पले मृगों की चौकड़ियों को ताल बाँध
अपने छायातप, वृष्टि-पवन, पल्लव-कुसुमन की लय पर
अपने जीवन-संचय को कर छन्दयुक्त
अपनी प्रज्ञा को वाणी दे !"

यही है वह प्रार्थना की भाव-स्थिति, जिससे ऋषियों की वाणी से ऋचाएँ उपजतीं थीं। इसी से उमगी थीं आदिकवि की छंद-लयमय पहली कविता और महर्षि वेदव्यास की श्रीमद्भागवत एवं श्रीमद्भगवतगीता के अपौरषेय अस्ति-भाव। प्राचीन योरोपीय कविता में भी स्वप्न के माध्यम से कविता के महाभाव की प्राप्ति की उद्भावना की जाती रही थी। 'असाध्य वीणा' का कवि भी ऐसी ही ऋषि-आस्तिकता की उद्भावना करता है।

कविता में 'असाध्य वीणा' के सृष्टि-संगीत से उपजे अलग-अलग भाव-संज्ञानों की बात की गयी है। ये भाव-संज्ञान अलग-अलग जीवन-सन्दर्भों से उपजते हैं एवं एक ओर वे श्रोता-पाठक की कला के प्रति अपनी-अपनी परिसीमित रुझान तथा दृष्टि का द्योतन करते हैं तो दूसरी ओर कला के सर्वव्यापी प्रभाव को भी व्याख्यायित करते हैं। अलग-अलग भाव-अनुभूति और मानसिक-आत्मिक संस्कारों वाले व्यक्तियों की आन्तरिकता को वह सृष्टि-संगीत अलग-अलग उद्वेलित करता है। राजा की राजसिक वृत्तियों में 'जयदेवी यशःकाय / वरमाल लिये/ गाती थी मंगलगीत / दुन्दुभी दूर कहीं बजती थी' की आकृतियाँ अचानक सात्त्विक भावावेश में राजर्षि भाव में परिणित हो जाती हैं -


"राजमुकुट सहसा हलका हो आया था, मानो हो फूल सिरिस का
ईर्ष्या, महदाकांक्षा, द्वेष, चाटुता
सभी पुराने लुगड़े-से झर गये, निखर आया था जीवन-कांचन
धर्मभाव से जिसे निछावर वह कर देगा।"

रानी को भी अपने 'मणि-माणिक, कंठहार, पट-वस्त्र, मेखला-किंकिणि' के असली स्वरूप 'सब अंधकार के कण' का ज्ञान हो जाता है और यह भी कि 'आलोक एक है / प्यार अनन्य'। सात्त्विक अनुभूतियों के इस उदय ने उन दोनों के मन का संस्कार किया और उन्हें जीवन की तमाम पदार्थिक आपाधापी की व्यर्थता का अनायास आभास हो गया उस दैवी क्षण में। यह तो हुई राजा-रानी की बात, किन्तु जिनका मानसिक धरातल उतना उदग्र नहीं था, उनका भी संस्कार तो हुआ, पर वे अपने सीमित सांसारिक दायरे में अनुभूत एक नई सुखानुभूति के पार नहीं जा पाये। वैसे वे 'सब डूबे, तिरे, झिपे, जागे - / हो रहे वशंवद, स्तब्ध : / इयत्ता सबकी अलग-अलग जागी / संघीत हुई / पा गयी विलय'। अहं का विलयन भी अलग-अलग स्तर का है। कविता का प्रभाव इसी प्रकार श्रोता-पाठक की अनुभूति के स्तर के अनुरूप अलग-अलग होता है। 'असाध्य वीणा' का जो महाशून्य-महामौन से उद्भूत संगीत है, 'वह तो सब कुछ की तथता' था, क्योंकि 'वह महामौन / अविभाज्य, अवाप्त, अद्रवित,अप्रमेय / ... शब्दहीन / सबमें गाता है'। यही तो कविता या संगीत या अन्य किसी भी कला-रूप की ब्रह्म-सत्ता का रहस्य है। कविता की संप्रेषणीयता का प्रश्न भी इसी 'सब कुछ की तथता' से जुड़ा हुआ है।
कविता का अंत आकस्मिक एवं चौंकाने वाला लगता है, जैसे कविता के चरम-बिंदु पर पहुँचने के साथ ही अचानक उसमें व्याघात आ गया हो और जो कला का अतीन्द्रिय लोक कवि ने रचा था, वह अकस्मात बिखर गया हो अथवा किसी महास्वप्न से अचानक ही जागना हो गया हो; पंक्तियाँ एकदम साधारण हो गयी हों और कविता अधूरी रह गयी हो -
"नमस्कार कर मुड़ा प्रियंवद केशकम्बली / लेकर कम्बल गेह-गुफा को चला गया
उठ गयी सभा / सब अपने-अपने काम लगे / युग पलट गया
प्रिय पाठक ! यों मेरी वाणी भी मौन हुई "

मेरी राय में, कविता का यह अकस्मात समापन 'सब कुछ की तथता' को ही पाना है, पुनः साधारण हो जाना है; जीवन की दैनिकता की ओर वापसी है - 'सब अपने-अपने काम लगे'; साथ ही 'युग पलट गया' यानी युगांत हो गया अर्थात वह जो 'असाध्य वीणा' को साधने की युग-वेला थी, वह स्थायी नहीं थी। सृष्टि-संगीत को सुनना, उसे समोना, उसमें समाना कुछ क्षणों का अहसास हो सकता है, युग-परिवर्तन का नहीं। इसीलिए युग यानी समय 'पलट' अर्थात लौट गया अपनी साधारणता की ओर। कवि की वाणी भी इसी से मौन हो गयी। आंग्ल कवि डब्ल्यू. एच. ऑडेन ने अंतिम रोमांटिक कवि डब्ल्यू. बी. यीट्स के देहावसान पर लिखी अपनी श्रद्धांजलि-कविता में कहा है - 'पोयट्री मेक्स नथिंग हैपेन' यानी कविता से कुछ नहीं होता। अज्ञेय भी संभवतः यही बात कहना चाह रहे हैं इन समापन-पंक्तियों में। हाँ, प्रियंवद बदल गया है पर 'असाध्य वीणा' अब भी वैसी ही असाध्य है अन्यों के लिए। फिर कोई साधक-ऋषि आयेगा और इसे साधेगा। तब तक कवि की वाणी भी मौन रहेगी।

५ दिसंबर २०११

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