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निबंध

 

‘दिनकर’ की प्रेम प्रतिमा उर्वशी
डॉ. राजेश श्रीवास्तव 'शम्बर'
 


‘मर्त्य मानव की विजय का तूर्य हूँ मैं
उर्वशी! अपने समय का सूर्य हूँ मैं
सूर्य का एक नाम दिनकर भी है। उर्वशी को सम्बोधित करके दिनकरजी संभवत: समय को पहचानने और अपने ही बारे में कुछ कहना चाहते हैं। अपने सम्पूर्ण साहित्य में दिनकरजी ने कहीं भी स्वयं को सूर्य नहीं कहा है। कहा है तो पुरुरवा के माध्यम से ही और वह भी उर्वशी को सामने रखकर। इसके लिए उन्होंने उर्वशी का चयन क्यों किया? यह प्रश्न भी अत्यंत महत्वपूर्ण है।
 

नारी पात्रों के उच्छृंखल चरित्र को अमानवी पात्रों में देखा जा सकता है। मानव जीवन को भोगने की आकांक्षा मन में लिए अप्सराएँ संसार के किसी भी बंधन को नहीं मानती। वे अपूर्व सुंदरी, मनमोहनी मुक्त प्रेम की जीवित प्रतिमाएँ हैं। इनका मन संयम से परे तथा एक सीमा तक उच्छृंखल है। वे संसार के दुख और पीड़ाओं को न समझती हैं और न समझना चाहती हैं। इनका कार्य तो मात्र पुरुषों के हृदय में लालसा एवं कामनाओं को जन्म देकर रहस्यमयी सागर में भटका देना है। किसी के लिए समर्पित हो जाना इनके स्वभाव में नहीं।

जहाँ प्रेम राक्षसी भूख से क्षण क्षण अकुलाता है
प्रथम ग्रास में ही जीवन की ज्योति निगल जाता है।
धर देता है भून रूप को दाहिक आलिंगन से
छवि को प्रभाहीन कर देता ताप तप्त चुम्बन से
पतझर का उपमान बना देता वाटिका हरी को
और चूमता रहता फिर सुन्दरता की ठठरी को। (उर्वशी)

दिनकर जी ने अप्सराओं के इस मिथक को भी तोड़ने का प्रयास किया है कि वे अप्सरा होने के कारण संसार के नियमों की अनदेखी कर रहीं हैं। उर्वशी की रचना के पीछे दिनकर जी का मन्तव्य कुछ अलग रहा है। उन्होंने उर्वशी को प्रेम की पराकाष्ठा पर पहुँचाया है। उर्वशी में प्रेम की तीव्रता है। वह समाज के सभी बंधनों का विरोध अप्सरा होने के कारण नहीं करती, बल्कि वह प्रेम के नए स्वरूप की पराकाष्ठा में जीने के लिए आतुर है। अप्सरा होने के बाद भी उसके मन में प्रेम का एक सांसारिक दृष्टिकोण देखा जा सकता है। पुरुरवा के मुँह से अनासक्ति की बातें सुनकर उसे बहुत गहरा आघात लगता है। वह पुरुरवा के हृदय में आसक्ति उत्पन्न करने के लिए अपने हृदय को खोलकर रख देती है।
आ मेरे प्यारे तृषित! श्रान्त! अन्त: सर में मज्जित करके,
हर लूँगी मन की तपित चँदनी, फूलों से सज्जित करके
रसमयी मेघमाला बनकर मैं तुझे घेर छा जाऊँगी
फूलों की छाँह तले अपने अधरों की सुधा पिलाऊँगी। (उर्वशी)

प्रेम को प्रतिष्ठा प्रदान करते हुए वह स्थापित करना चाहती है कि प्रेम से मात्र नारी का ही नहीं पुरुष का भी उत्थान होता है।
किसने कहा तुम्हें, जो नारी नर को जान चुकी है
उसके लिए अलभ्य ज्ञान हो गया परम सत्ता का
और पुरुष जो आलिंगन में बाँध चुका रमणी को
देशकाल को भेद गगन में उठने योग्य नहीं है। (उर्वशी)

दिनकरजी मानते हैं कि प्रेम का स्वरूप सदैव उदात्त होता है। उसे वासना आसक्ति और रति की क्षुद्र सीमाओं में नहीं बाँधा जा सकता। प्रेम एक व्यापक और विशाल मनोवृत्ति है। इसे मनोरंजन की संकीर्ण धारा के रुप में नहीं देखा जाना चाहिए। प्रेम में मानवता के सत्य का शाश्वत स्पन्दन होता है प्रेम क्षणिक हो ही नहीं सकता। वह स्थिर निस्सीम और चिरंतन होता है। प्रेम में मात्र पाने का ही सत्य नहीं होता, वरन उसमें त्याग तथा दूसरों को प्रसन्नता प्रदान करने का भाव भी रहता है। इसी कारण से उसे शाश्वत कहा गया है और यही कारण है कि प्रेम की सीमा मृत्यु की सीमा से भी परे होती है।

उर्वशी की भूमिका में दिनकर जी लिखते हैं - पुरुरवा और उर्वशी का प्रेम मात्र शरीर के धरातल पर नहीं रुकता, वह शरीर से जन्म लेकर मन और प्राण के गहन, गुह्य लोकों में प्रवेश करता है। रस के भौतिक आधार से उठकर रहस्य और आत्मा के अन्तरिक्ष में विचरण करता है। दिनकरजी की प्रेम सम्बधी अवधारणा में गहरी दार्शनिकता है। प्रेम के द्वारा प्रेमी को वह स्थान प्राप्त हो सकता है जो योगियों को साधना के उपरांत मिलता है। वे मानते हैं -
जगत प्रेम प्रथम लोचन में,
तब तरंग नियमन में।

स्त्री के मातृत्व एवं भार्या स्वरूप पर दिनकरजी ने उर्वशी में औशीनरी के माध्यम से कहने का प्रयास किया है कि गृहणी के अतंर में तृषा और ज्वाला नहीं होती। वह समर्पण की प्रतिमूर्ति होती है। उर्वशी द्वारा पुरुरवा को अपना लिए जाने से दुखी होकर औशीनरी अपने पति की अनुचरी तथा सहधर्मिणी बनकर ही रह जाती है। औशीनरी इसका प्रतिकार करती है। वह पुरुरवा से ही नहीं वरन स्त्रियों से भी शिकायत रखती है-
ये प्रवंचिकाएँ, जाने क्यों तरस नहीं खाती हैं
निज विनोद के हित कुल वामाओं को तड़पाती हैं।

औशीनरी अप्सरा उर्वशी से पूछती है कि आखिर मैंने तुम्हारा कौन सा अहित किया है जो तुमने सर्वस्व छीन लिया और मुझे जीवन भर एक विरहणी की भाँति जीने को विवश कर दिया। फिर वह उर्वशी को दोषमुक्त करते हुए अपने ही मन को समझाती है कि नारी भी आखिर क्या करे। पुरुष है ही इतना कमजोर कि नारी के सौंदर्य के आगे उसकी एक नहीं चलती। उसकी सारी वीरता एक क्षण में ही समाप्त हो जाती है। नारी के सौंदर्य के वशीभूत होकर पुरुष अपने सिंह रुप को छोड़कर मेमने की भाँति नारी के चरणों में लोटने लगता है।
पर न जाने बात क्या है?
इन्द्र का आयुध पुरुष जो झेल सकता है, सिंह से बाँहें मिलाकर खेल सकता है
फूल के आगे वही असहाय हो जाता, शक्ति के रहते हुए निरुपाय हो जाता
विद्ध हो जाता सहज बंकिम नयन के बाण से, जीत लेती रूपसी नारी उसे मुस्कान से
मैं तुम्हारे बाण का बींधा हुआ खग, वक्ष पर धर सीस मरना चाहता हूँ
मैं तुम्हारे हाथ का लीला कमल हूँ, प्राण के सर में उतरना चाहता हूँ

दिनकर की सम्पूर्ण काव्य साधना में उर्वशी को मील का पत्थर माना जाता है। यह आधुनिक युग को एक नई दृष्टि प्रदान करने वाला प्रबंध काव्य है। उर्वशी को प्रत्येक भाषा के कवियों ने अपने काव्य की नायिका बनाया है। उर्वशी को सम्पूर्ण प्रतिष्ठा दिलाना एक दुष्कर कार्य था जिसे दिनकरजी ने कर दिखाया। लेकिन उनका काव्य चर्चित होने के साथ विवादास्पद भी बना रहा।

उर्वशी का आरम्भ अप्सराओं की उस चिन्ता से होता है कि उर्वशी को पृथ्वीवासी राजा पुरुरवा से प्रेम हो गया है। मेनका, रम्भा और सहजन्या का मानना है कि सुरलोक अमर है यहाँ के निवासियों को व्यंजनों की गंध लेकर ही तृप्त होना पड़ता है। परन्तु मृत लोक नश्वर है। वहाँ के निवासी अपने क्षणिक जीवनकाल में ही सम्पूर्ण आनन्द का भोग कर लेते हैं। मेनका को उर्वशी का राजा पुरुरवा की ओर आकृष्ट होना तनिक भी नहीं भाता। वह कहती है कि अप्सराओं का जन्म किसी एक के लिए नहीं होता। पृथ्वावासियों से प्रेम करने पर नारी को माता बनना पड़ता है जिससे उसका सारा सौंदर्य नष्ट हो जाता है। यदि उर्वशी भी पृथ्वी पर जाने का प्रयत्न करेगी तो उसके साथ भी यही होगा। -
गर्भभार उर्वशी मानवी के समान ढोयेगी?
यह शोभा, यह गठन देह की, यह प्रकांति खोयेगी?
जो अयोनिजा स्वयं, वही योनिज संतान जनेगी?
यह सुरम्य सौरभ की कोमल प्रतिमा जननि बनेगी?
किरणमयी यह परी करेगी यह विरूपता धारण?
वह भी और नहीं कुछ केवल एक प्रेम के कारण? (उर्वशी)

राजा पुरुरवा की पत्नी औशीनरी उर्वशी के इस प्रेम प्रसंग को जानकर दुखी होती है, किन्तु उनकी सखी मदनिका उन्हें दिलासा देती है। पुरुषों का हृदय बडा विचित्र होता है, उसके हृदय में जब नारी के लिए प्रेम भाव जागृत होता है तब वह चाहे अजेय केसरी ही क्यों न हो, बेसुध होकर सुन्दरी के चरणों में गिर जाता है। पुरुष उस नारी के वश में रहता है जो उसे अतृप्ति के रस में निमज्जित किए रहती है। पुरुरवा ऐसे प्रेमी का प्रतीक है जो माँगना और छीनना दोनों प्रवृत्तियों के विरोध में है। उर्वशी भी अपने प्रेमी के इस संकल्प से भयभीत हो जाती है। -

तन से मुझको कसे हुए अपने दृढ आलिंगन में,
मन से किन्तु, विषण्ण दूर तुम कहाँ चले जाते हो?
उर्वशी की चिन्ता यह है कि स्वर्ग की जिस शीतलता को छोड़कर वह पुरुष के उत्तप्त रुधिर के प्रति समर्पण करने आई थी वही देवलालसा में डूब गया तो उसका पृथ्वी में आने का क्या लाभ? वह पुरुरवा के द्वंद्व को सुलझाने का प्रयास भी करती है। उसके राग और वैराग्य को पाटने का प्रयास करती है।

पृथ्वी पर दोनों का मिलन होता है और निष्काम काम की स्थापना होती है किन्तु भरतमुनि के श्राप के कारण उनका बिछोह होता है। डॉ. भारत भूषण अग्रवाल कहते हैं कि उर्वशी काम प्रेरणा के सही और साहसपूर्ण अनुगमन एवं प्रतिपालन द्वारा व्यक्ति के पूर्णत्व अभियान का जयघोष है।

दिनकरजी ने उर्वशी के माध्यम से प्रेम के सत्य पर दार्शनिक पक्ष रखते हुए चिन्तन किया है। वे अप्सरा उर्वशी को अपना प्रधान पात्र इसलिए भी बनाते हैं कि जीवन, संसार और प्रेम की सहज भूमि पर विचार मंथन किया जा सके। सांसारिकता से परे प्रेम का एक संसार जिसे देखने और संजोने का हर कोई यत्न करता है, हमारे आसपास हो। एक ऐसा विशाल हृदय जिसमें दया माया ममता मधुरिमा और विश्वास भरा हो। प्रसाद जी की 'श्रद्धा' से बहुत अलग होकर भी उर्वशी प्रेम को नए रूप में परिभाषित करने में सफल होती है। कमोवेश दिनकरजी का उद्देश्य भी यही है।

२० अप्रैल २००९

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