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निबंध

भगवान महावीर
--मनोहर पुरी


जैनियों के २४वें तीर्थंकर भगवान महावीर का जन्म ईसा से ५९९ वर्ष पूर्व चैत्र शुक्ला त्रयोदशी को ५४३ वर्ष विक्रम पूर्व वैशाली गणतंत्र के लिच्छिवी वंश के महाराज श्री सिद्धार्थ और माता त्रिशला देवी के यहाँ हुआ। यह वह समय था जब भारत अंधविश्वासों के अंधकार में डूबने लगा था। पशुबलि और हिंसा का प्रचलन बढ़ रहा था। मिथ्याभिमान ने मानवीय मूल्यों को धूल धूसरित कर दिया था। परस्पर सहयोग और सौहार्द का स्थान ईर्ष्या और द्वेष ने ले लिया था। समन्वय की संस्कृति जातिवाद और वर्ण विभाजन के शिकंजे में कस रही थी। धर्म पुस्तकों में सिमट कर रह गया था। धन लिप्सा और भौतिक भोग विलास के समक्ष त्याग और अपरिग्रह बौने हो गए थे। ऐसे अंधकारमय समय में क्षितिज पर अहिंसा, सत्य, त्याग और दया की जो किरणें भगवान महावीर के जन्म के फलस्वरूप फूटीं उन्होंने समाज का सारा अन्धेरा तिरोहित करके सभ्यता और संस्कृति के सूर्य की रक्षा की। ऐसे अंधकार से प्रकाश की ओर लाने वाले महापुरुष को निरन्तर स्मरण रखने के लिए भारत के कोने कोने में, जहाँ एक-दो जैन मतावलंबी भी निवास करते हैं, महावीर जयंती का पर्व बहुत धूमधाम से मनाया जाता है।

भगवान महावीर के जन्म स्थल को लेकर विद्वानों में भले ही मतभेद हो परन्तु इतना निश्चित है कि जब वह भारत की धरा पर अवतरित होकर जन कल्याण में प्रवृत हुए उस समय ईराक में जराथुस्त्र, फिलिस्तीन में जिरेमिया और ईराजकिल, चीन में कन्फ्युसियस और लाओत्से तथा यूनान में पाइथागोरस, सुकरात और प्लेटो जैसे चिन्तकों के विचार जन-जन को आन्दोलित किए हुए थे। भारत में भगवान महावीर एवं भगवान बुद्ध अपने अपने ढंग से तात्कालिक ज्वंलत दार्शनिक समस्याओं के समाधान प्रस्तुत कर रहे थे।

भगवान महावीर का बचपन का नाम वर्धमान था। बाल्यकाल से ही वह साहसी, तेजस्वी और ज्ञान पिपासु और अत्यन्त बलशाली होने के कारण महावीर कहलाए। विद्याध्ययन के पश्चात उनका विवाह यशोदा नामक सुन्दर राजकन्या से हुआ और उन्हें प्रियदर्शन नामक कन्या रत्न भी प्राप्त हुआ। परिवार मोह महावीर को अधिक समय तक मोह-माया में बाँध कर नहीं रख पाया फलत: माता-पिता के स्वर्ग सिधारने के पश्चात ३० वर्ष की युवावस्था में दीक्षा लेकर वह तपस्या के लिए निकल पड़े। गहन वनों में ज्ञान की खोज करते हुए उन्होंने कठोर तपस्या की और वस्त्र एवं भिक्षा-पात्र तक का त्याग कर दिया।

अहिंसा और अपरिग्रह की वह साक्षात मूर्ति थे। वह सबको समान मानते थे और किसी को भी कोई दु:ख देना नहीं चाहते थे। अपनी इसी सोच पर आधारित एक नूतन विज्ञान भगवान महावीर ने विश्व को दिया। यह था परितृप्ति का विज्ञान। वास्तव में विज्ञान ने जब-जब कोई नई खोज अथवा आविष्कार किया मानव की प्यास अथवा आवश्यकता में बढ़ोतरी ही हुई। इच्छा और आवश्यकता प्रत्येक प्राणी के साथ जुड़ी हैं। जब व्यक्ति अपने जीवन को इच्छा से संचालित करता है तो निरन्तर नई आवश्यकताएँ पैदा होने का सिलसिला चल निकलता है। जो मानव के लिए कष्टों का घर होता है। इच्छा आवश्यकता को और आवश्यकता इच्छा को जन्म देती है। भगवान महावीर इस अन्तहीन सिलसिले को समाप्त करना चाहते थे। उन्होंनें कहा कि प्राणी अपने लिए सुख चाहता है, दु:ख किसी को भी प्रिय नहीं। इसलिए संसार का कोई भी प्राणी वाध्य नहीं है। यह सिद्धांत अहिंसा की प्रासंगिकता को त्रैकालिक सिद्ध करने में सक्षम हुआ। उन्होंने शरीर को कष्ट देने को ही अहिंसा नहीं माना बल्कि मन, वचन कर्म से भी किसी को आहत करना उनकी दृष्टि से अहिंसा ही है।

अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह को पूर्णतया अपने जीवन में उतार कर महावीर 'जिन' कहलाए। जिन से ही जैन बना है। जो अपने को जीत लेता है, वह जैन है। इस प्रकार जो काम जयी है, तृष्णा जयी है, इन्द्रिय जयी है, भेद जयी है वही जैन है । भगवान महावीर ने अपनी इन्द्रियों को जीत लिया और जितेन्द्र कहलाए।

भगवान महावीर के विचारों को किसी काल, देश अथवा सम्प्रदाय की सीमा में नहीं बाँधा जा सकता। यह प्राणी मात्र का धर्म है। महावीर ने धर्म का मर्म अनेकान्त और अहिंसा बताया। उन्होंने कहा धर्म का हृदय अनेकान्त है और अनेकान्त का हृदय है समता। समता का अर्थ है परस्पर सहयोग, समन्वय, सद्भावना, सहानुभूति एवं सहजता। उन्होंने कहा कि सबकी बात शान्तिपूर्वक सुनी जानी चाहिए यदि ऐसा होगा तो घृणा, द्वेष, ईर्ष्या का स्वयं ही नाश हो जाएगा। उन्होंने साधन और साध्य दोनों की पवित्रता और शुद्धि पर बल दिया। वर्तमान युग में भी महात्मा गांधी ने इसका राजनीति तक में सफल प्रयोग किया।

भगवान महावीर ने माना कि अपरिग्रह के बाद भी गृहस्थी की कुछ न कुछ आवश्यकताएँ होती हैं। इसलिए गृहस्थियों को न्यायपूर्वक धन कमाना चाहिए और आवश्यकता से अधिक धन उन लोगों को वितरित कर देना चाहिए जिनको उसकी आवश्यकता है। अपने विचारों में सर्वत्र समता का उन्होंने गुणगान किया। सब मानव समान हैं। फलत: दास प्रथा को उन्होंने मानवता की अवज्ञा माना जिसे किसी भी स्थिति में स्वीकार नहीं किया जा सकता।

भगवान महावीर वर्ण व्यवस्था को जन्म पर आधारित करके स्वीकार करना नहीं चाहते थे। उन्होंने कहा, ''कोई भी व्यक्ति जाति अथवा वर्ण से ऊँच-नीच नहीं होता, गुण और कर्म के आधार पर ही उसकी महत्ता और लघुता का अंकन होता है।'' समाज में स्त्री की समानता के वे प्रबल पक्षपाती थे। स्त्री को समानता का दर्जा देते हुए उन्होंने कहा कि स्त्री करुणा और वात्सल्य की प्रतिमूर्ति होती है। उसे हीन और उपेक्षित मानना अनुचित ही नहीं बल्कि अहिंसा ही है। व्यवहार रूप में उन्होंने स्त्रियों और शुद्रों को अपने धर्म संघों में समान अवसर प्रदान करके विश्व के सम्मुख आदर्श प्रस्तुत किया। उन्होंने हर आदर्श को पहले 'जिया तथा किया` और फिर कहा। कथनी और करनी में अन्तर न होने के कारण ही वे अनुकरणीय आदर्श के रूप में अभिन्दनीय और वन्दनीय हो गए।

एक ऐसा व्यक्ति, अभाव और असफलताएँ ही जिसका भाग्य बन चुकी हों तथा पुरुषार्थ के बावजूद जिसको महत्वाकांक्षा की मंज़िल प्राप्त नहीं होती, यदि वह निराशा के नश्तरों की चुभन से पीड़ित और अभावों से आहत होकर वैराग्य ग्रहण कर लेता है तो इसमें न तो कुछ उल्लेखनीय है और न ही अनुकरणीय। वर्द्धमान नाम का कोई राजकुमार, वैभव जिसके चँवर डुलाता हो, सुविधाएँ जिसके पाँव पखारती हों, ऐश्वर्य जिसकी आरती उतारता हो, वह यदि सब कुछ स्वेच्छा से त्यागकर, वैराग्य धारण करके वनविहारी हो जाता है तो निस्संदेह वह घटना अलौकिक भी है, असाधारण भी है, अविस्मरणीय भी है, अनुकरणीय भी। वैभव को ठुकराने वाले, विलास से विरक्त रहने वाले, आत्मसाधन के माध्यम से आत्मज्ञान और कैवल्यज्ञान प्राप्त करने वाले ऐसे राजकुमार ही वर्धमान से महावीर हो जाते हैं और ऐसे महामानव की ही मनाई जाती है महावीर जयंती। १५ अक्तूबर सन ५२७ ई. पूर्व दीपावली के दिन इस युग के अंतिम चौबीसवें तीर्थकर भगवान महावीर ने ७२ वर्ष की आयु में अपनी भौतिक देह पावापुरी में त्याग कर निर्वाण प्राप्त किया।

२१ अप्रैल २००८

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