| 
                            
                            हिंदी कविता के समकालीन 
                            परिदृश्य का हम दो दृष्टियों से अवलोकन कर सकते हैं। 
                            एक तो हिंदी कविता की गुणवत्ता या कहें दशा-दिशा की 
                            दृष्टि से और दूसरे उसके परिवेश की दृष्टि से। प्रारंभ 
                            में ही यह भी उल्लेखनीय है कि हिंदी कविता का संसार या 
                            क्षितिज बहुत फैलाव लिए हुए है। एक ओर देश की धरती पर 
                            हिंदी और हिंदीतर प्रदेशों में रची गई अथवा जा रही 
                            कविता है तो दूसरी ओर देश के बाहर प्रवासी और भारतवंशी 
                            कवियों के द्वारा संभव कविता है। रूप और शैलियों की 
                            दृष्टि से भी देखें तो हिंदी कविता को समृद्ध पाएँगे। 
                            यहाँ काव्य नाटक और लंबी कविताएँ भी हैं और ग़ज़ल, गीत 
                            और छंदबद्ध रचनाएँ भी खूब लिखी जा रही हैं। लक्ष्मी 
                            शंकर वाजपेयी, अशोक चक्रधर आदि अच्छी रचनाएँ दे रहे 
                            हैं। नरेश शांडिल्य की अच्छी ग़ज़लों का संग्रह 'मैं 
                            सदियों की प्यास' हाल ही में प्रकाशित हुआ है। पिछले 
                            दिनों वाणी प्रकाशन से प्रकाशित दिविक रमेश का 
                            'खंड-खंड अग्नि' काफ़ी चर्चित रहा है। देश की भूमि पर, 
                            विशेष रूप से हिंदी अंचल में ही देखें तो एक साथ कई 
                            पीढ़ियाँ काव्य रचना में तल्लीन दिखाई देती हैं। 
                             त्रिलोचन, रामदरश 
                            मिश्र, कैलाश वाजपेयी आदि सक्रिय हैं तो अशोक वाजपेयी, 
                            विष्णु खरे, भगवत रावत, मंगलेश डबराल आदि के साथ अन्य 
                            दो कनिष्ठ और नई पीढ़ियों के भी कितने ही कवि हिंदी 
                            कविता को भरपूर योगदान दे रहे हैं। हिंदी में अशोक 
                            सिंह द्वारा अवतरित 'नगाड़े की तरह बजते शब्द', वाली 
                            संताल आदिवासी निर्मला पुतुल और 'क्या तो समय' वाले 
                            अरुण देव इधर के कवि हैं और दोनों ही 1972 के जन्मे 
                            हैं। कुछ और कवियों में बोधिसत्व, हेमंत कुकरेती, 
                            प्रताप राव कदम आदि युवा कवि भी ध्यान खींचते हैं। एक 
                            कवि हैं बद्रीनारायण। युवा प्रतिभाओं में बद्रीनारायण 
                            का नाम अग्रिम पंक्ति में है। उनका कविता संग्रह 'शब्द 
                            पदीयम' उनका दूसरा कविता-संग्रह है। नि:संदेह ये 
                            कविताएँ उनकी आगे की कविताएँ हैं और अधिक परिपक्व हैं। 
                            बद्री नारायण उन कवियों में से हैं जो लोक से ताक़त 
                            लेते हैं। वे कथनों को मुहावरी जामा पहनाने में समर्थ 
                            हैं। यह सामर्थ्य भाषा को मोम बना देने वाली ताक़त से 
                            आता है जो बद्री में है: 
                            चिड़िया और हिरणी के बारे में सोचना 
                            अंतत: शिकारी के बारे में सोचना है 
                            अथवा 
                            मैं कटी लकड़ी हूँ 
                            जो खोजती है पेड़ों को 
                            कविताओं में सहजता और 
                            स्पष्टता के लिए विख्यात त्रिलोचन 'जीने की कला' और 
                            'घर' के साथ इस आयु में भी सक्रिय हैं - दुनिया को 
                            बचाने की फ़िक्र में। अशोक वाजपेयी ने कितनी ही खूबसूरत 
                            प्रेम कविताएँ दी हैं। अशोक जी सच्चे मायनों में 
                            प्रयोगशील कवि कहे जा सकते हैं। भाषा के साथ भी वे 
                            बहुत बार सार्थक प्रयोग करने से नहीं चूकते। उनके एक 
                            संग्रह 'इबादत से गिरी मात्राएँ' में एक-एक पंक्ति की 
                            30 कविताएँ हैं जो कवि का भाषा पर विलक्षण अधिकार सिद्ध 
                            करती हैं। उनकी कविताएँ स्वयं कवि की अपनी 
                            कविता-परंपरा को ही नहीं बल्कि हिंदी कविता को समृद्ध 
                            करने में समर्थ हैं। एक कविता है 'सरनाम सिंह की 
                            मृत्यु पर'। यह एक अद्वितीय कविता है। मनुष्यता के 
                            बेहतरीन रूप को यह कविता इस तरह फोकस में लाती है कि 
                            मनुष्यता का उद्घोष करने वाली सैकड़ों कविताओं पर भारी 
                            पड़ जाती है। एक अंश है : 
                            पर तुम्हारी मृत्यु 
                            के दो दिनों बाद यह सौभाग्य है कि हम जीवित हैं, 
                            लेकिन यह सच है कि तुम्हारे मरने में कुछ हमारा भी मर 
                            गया, 
                            और यह क्या था हम जीते जी कभी नहीं जान पाएँगे- 
                            हम तुम्हें भुलेंगे ताकि हमें 
                            अपना कुछ मरना याद न आए, सरनाम। 
                            विष्णु खरे अकेले और 
                            अनूठे कवि हैं। उनके यहाँ आवेश या उत्तेजनापूर्ण 
                            विषयों पर भी कमाल की धैर्यवान और ठंडी-ठंडी ठहरी हुई 
                            प्रौढ़ शैली मिलती है। ज़रा भी 
                            हड़बड़ी नहीं। अपनी राह पर अपनी धुन में जाता हुआ एक 
                            यात्री-लेकिन पूरे माहौल के प्रति सचेत। शायद इसीलिए 
                            कवि की कविता अपना एक सहज साँचा बनाती है और अपने असर 
                            का एक ख़ास मिज़ाज़ तैयार करती है - झटकाभर देकर फुस 
                            नहीं हो जाती। एक कविता है 'पुनरवतरण'। इस कविता में 
                            यीशु के बहाने, आब्लीक शैली में जिस प्रकार शांति, 
                            सद्भाव, मानव-प्रेम आदि चाहनेवालों को, सता-विचारकों 
                            द्वारा घरविहीन बना दिए जाने की विडंबना को व्यक्त 
                            किया गया है यह समझ के स्तर पर गहरी छाप छोड़ता है। 
                            कविता की कुछ पंक्तियाँ हैं: 
                            ''हालाँकि इस धरती पर हमें तुम्हारी ज़रूरत है यीशु 
                            हालाँकि हम तुम्हारा वचन याद करते हैं और तुम्हारी सख़्त 
                            ज़रूरत है 
                            लेकिन मैं वह जगह सोच नहीं पाता जहाँ तुम अवतरित होगे 
                            और सुरक्षित रह सको। 
                            रामदरश जी उन गिने 
                            चुने लेखकों में से एक हैं जिन्होंने कहानी क्या, 
                            उपन्यास क्या, संस्मरण क्या, जीवनी क्या और कविता 
                            क्या, न जाने कितनी ही विधाओं में बहुत अधिक लिखा है। 
                            अच्छी बात यह है कि अधिकता ने उनके स्तर को अधिक आघात 
                            नहीं पहुँचाया है। उनकी कविताएँ 
                            बहुत अपनी और अपने परिवेशानुभवों को समेटे हुए सहज हैं 
                            और गहरे अर्थबोध से संयुक्त हैं। कहीं भी बनावटीपन 
                            नहीं। कवि की स्मृति में अपना गाँव-गवाहंड सदा बसा है। 
                            और उनकी कविताओं को वहाँ से बहुत ताक़त 
                            मिलती है। 'कोयले और चूल्हे' का यह अंश भीतर तक छू 
                            जाता है: 
                            'आसान दिनों में 
                            अभिजात हँसी हँसता हुआ गैस का चूल्हा 
                            हमारे साथ चलता रहता है 
                            लेकिन जब जाड़े के मुश्किल दिन आते हैं 
                            तब आँगन के कोने में उपेक्षित उदास-सा पड़ा 
                            कोयले का चूल्हा जाग जाता है हमारी आँखों में।' 
                            भगवत रावत एक समर्थ 
                            कवि हैं भले ही आलोचकों की निगाह में उतने नहीं चढ़ सके 
                            हैं। चुनी हुई या निर्वाचित कविताओं के द्वारा ऐसे 
                            पाठक, जो पूरे साहित्य को पढ़ने का समय नहीं निकाल 
                            पाते, कवि की उत्कृष्ट देन से जानकारी प्राप्त कर सकते 
                            हैं। स्वयं कवि की भी अपनी काव्य-यात्रा की उपलब्धियों 
                            का पता चलता है। मानवीय चेतना से भरपूर भगवत रावत की 
                            कविताओं में से एक कविता का अंश है: 
                            सच पूछो तो 
                            इतने से कामों के लिए आया था पृथ्वी पर 
                            और भागता रहा यहाँ से वहाँ। 
                            हिंदीतर प्रदेशों में 
                            भी हिंदी कविता काफ़ी फल-फूल रही है, भले उसकी ओर 
                            अपेक्षित ध्यान देने की ज़रूरत बनी हुई है। अरविंदाक्षन, 
                            पद्मजा घोरपड़े, प्रतिभा मुदिलियार, क्षमा कौल जैसे 
                            अनेक कवि-कवयित्रियाँ हैं जिन्होंने अच्छी कविताएँ 
                            लिखी हैं। बाहर रह रहे प्रवासी एवं भारत के मूलवासी 
                            भारतीयों में आज अनेक हिंदी साहित्य सृजन में न केवल 
                            संलग्न हैं बल्कि अच्छा लिख रहे हैं और उनके लेखन को 
                            सहज ही लेखन की केंद्रीय धारा में सम्मिलित किया जा 
                            सकता है। तेजेंद्र शर्मा, दिव्या माथुर, डॉ. कृष्ण 
                            कुमार, उषा राजे सक्सेना, सुषम बेदी, डॉ. गौतम सचदेव, 
                            अनिल जनविजय, डॉ. पुष्पिता, निखिल कौशिक, हेमराज 
                            सुंदर, डॉ. सत्येंद्र श्रीवास्तव, पद्मेश गुप्त आदि 
                            अनेक कवियों के नाम गिनाए जा सकते हैं। 
                            यदि कहूँ कि बावजूद 
                            निराशा भरे अनेक स्वरों के और बावजूद पाठकीय उपेक्षाओं 
                            की मार के रूदन के, समकालीन हिंदी कविता का श्रेष्ठ 
                            विश्व की किसी भी श्रेष्ठ कविता से कमतर नहीं है, न ही 
                            कलात्मक विशद अनुभवों की दृष्टि से और न ही विविध एवं 
                            सहज सशक्त अभिव्यक्ति कौशल की दृष्टि से तो ऐसे वचन को 
                            अतिशयोक्ति मानने वालों के पास प्राय: कविता से इतर ही 
                            तर्क हुआ करते हैं। यह कोई छिपी हुई बात नहीं है कि 
                            प्रतिवर्ष सैंकड़ों कविता संग्रह प्रकाशित होते हैं और 
                            कितनी ही पत्र-पत्रिकाओं में एक बड़ी संख्या में 
                            कविताएँ छपती हैं। इतनी बड़ी संख्या को एक साथ अध्ययन 
                            के दायरे में लाना असंभव है। उनकी हम तक या हमारी उन 
                            तक संपूर्ण यात्रा निस्संदेह कठिन है। इसीलिए मुख्यत: 
                            बात प्रसिद्ध और महत्वपूर्ण कवियों की कृतियों तक ही 
                            सीमित रह जाती है। 
                            आगे बढ़ने से पूर्व 
                            हिंदी कविता के परिवेश पर भी दृष्टि डालनी चाहिए। 
                            परिवेश के अंतर्गत इस कविता के फलने फूलने वाली 
                            स्थितियों के बारे में बात की जा सकती है। परिवेश बहुत 
                            उत्साहवर्धक तो नहीं हैं। नि:संदेह पत्र-पत्रिकाओं, 
                            प्रकाशकों एवं संपादकों की भरमार के बावजूद। सार रूप 
                            में बता दूँ कि हिंदी कविता में आज तीन प्रकार के कवि 
                            हैं -- एक वे जो 'जाने' जाते हैं। दूसरे वे जो 'माने' 
                            जाते हैं और तीसरे वे जो 'जाने-माने' जाते हैं। सबसे 
                            सौभाग्यशाली कवि दिखने में तो तीसरी श्रेणी के कवि हैं 
                            लेकिन असल में हैं वे दूसरी श्रेणी वाले कवि ही, 
                            क्यों कि 'माने' की श्रेणी में आने के बाद 'जाने-माने' 
                            की श्रेणी में उनका प्रस्थान आसान हो जाता है। दूसरी 
                            श्रेणी में वे कवि होते हैं जिनकी ओर लाड़-प्यार वाला 
                            ध्यान, कुछ प्रभावशाली आलोचक, केंद्रित 
                            करते हैं। प्राय: इन्हें ही संस्थाओं के फल-फूल 
                            प्राप्ति का सौभाग्य प्राप्त होता है। बड़े प्रकाशकों 
                            के पिछ्छलग्गूपन का आस्वाद भी 
                            इन्हें ही मयस्सर होता है। पत्र-पत्रिकाओं की विशिष्ट 
                            शोभा भी इन्हीं से बढ़ाई जाती 
                            है। पाठ्यक्रमों में भी ये ही 
                            अवलोकित होते हैं। ये ही वे होते हैं जिन्हें अन्य 
                            समर्थ कवियों की कुंठा का कारण बनाने के भी भरपूर 
                            प्रयत्न चलते रहते हैं, 
                            इत्यादि, इत्यादि। ऐसे परिवेश की पहुँच 
                            अपनी स्वदेशी धरती पर फल-फूल रहों के साथ, बाहर की 
                            धरती तक भी होती है। मुख्यधारा में वहाँ के रचनाकारों 
                            का प्रवेश भी प्राय: इसी परिवेश पर निर्भर करता है। 
                            हाँ, इतना अवश्य है कि पहली श्रेणी के कवियों में से 
                            कुछ, और वे बहुत कम कुछ होते हैं, जल्दी ही ऐसे परिवेश 
                            के चक्रव्यूह को तोड़ने में समर्थ भी पाए जाते हैं। फिर 
                            भी 'जाने' से 'जाने-माने' का रास्ता 'माने' से 
                            'जान-माने' के रास्ते से बहुत लंबा 
                            और कठिन होता है। 'जाने' वालों की स्थिति 'माने' की 
                            श्रेणी प्रदान करने वाले समर्थों के निकट लगभग वैसी ही 
                            होती है जैसी वेदों, उपनिषदों आदि की। जिन्हें जानते 
                            तो हैं पर पढ़ते नहीं। यही कारण है कि आज जहाँ तक कसौटी 
                            का सवाल है वह अत्यंत अविश्वसनीयता की ओर अग्रसर है। 
                            पत्रिका हो या आलोचक, प्रकाशक हो या पुरस्कार, संस्था 
                            हो या फिर कोई अन्य माध्यम इस बात की गारंटी नहीं रह 
                            गया है कि उसके द्वारा कभी-कभार प्रकाशित-प्रचारित 
                            समर्थ कवि की प्रतिभा के प्रति भी सहज ही आँख मूँद कर 
                            विश्वास कर लिया जाए। मज़ाक के लिए बताऊँ कि जब मुझे 
                            लगभग 37-38 साल की छोटी उम्र में ही 'सोवियत लैंड 
                            नेहरू' जैसा उस समय का बड़ा पुरस्कार मिला था तो एक 
                            भेंटकर्ता ने पूछा था, 'कहो दिविक भाई, यहाँ हाथ कैसे 
                            मारा?' और इस प्रसंग को विराम देते-देते यह भी लिख दूँ 
                            कि बहुत बार यह भी होता है कि यदि किसी समर्थ रचनाकार 
                            को 'कृपालुओं' की इच्छा के विरुद्ध, अपवाद स्वरूप कोई 
                            मान्यता मिल भी जाए तो फिर पूरी ताक़त उस मान्यता को 
                            निरस्त करने यानी उस रचनाकार को धूल चटाने में झोंक दी 
                            जाती है। और इसका एक कारगर तरीक़ा 
                            होता है - 'घनघोर उपेक्षा'। आप मानते रहें, पाठक मानते 
                            रहें पर वे कृपालु नहीं मानेंगे तो नहीं मानेंगे। और 
                            आपका, शेष तो छोड़िए, विशेषांकों तक में प्रवेश निषिद्ध 
                            कर दिया जाएगा। जब तुलना ही नहीं तो मनमाने निर्णय से 
                            कौन रोक सकता है। 
                            फिर भी, फिर भी, 
                            हिंदी कविता के शिखर, जैसा प्रारंभ में कहा था, सशक्त 
                            और ऊँचे हैं। और इसे संभव करने वाले उपर्युक्त तीनों 
                            ही श्रेणियों के कवियों में उपलब्ध हैं। 
                            सबसे बड़ी बात यह है कि इस समय की कविता पहले की कविता 
                            वाली नारेबाज़ी, बड़बोलेपन, शोर और उत्तेजना के अतिरेक, 
                            सबको कोसों दूर छोड़ आई है। सीमित दायरे उसे पसंद नहीं 
                            हैं चाहे वे कथ्य के हों या अभिव्यक्ति के। सूक्ष्म से 
                            सूक्ष्म, निजी से निजी और स्थानीयता की महक से भरे 
                            अनुभव भी आज की कविता का कथन हैं और विशाल से विशाल 
                            तथा व्यापक से व्यापक वैश्विक अनुभव भी आज की कविता से 
                            अछूता नहीं है। दृष्टि भी आज के कवि की एकांगी या एक 
                            दिशा गामी नहीं है बल्कि वह सच्चे मायने में प्रगतिशील 
                            है और संतुलित भी। प्रेम हो या राजनीति, ठेठ आदिवासी 
                            और ग्रामीण जीवन हो या कस्बाई और महानगरीय, रसोई हो या 
                            पाँचसितारा होटल, संपन्न हो या दलित, आक्रामक हो या ठग 
                            कोई भी उसके अनुभव के दायरे से बचा नहीं है। अपने समय 
                            के समाज और देश की संपूर्ण धड़कन इस समय की कविता में 
                            उपस्थित हैं, वह भी अपने संपूर्ण रूप और विविध गति 
                            में। सोच और मार (वार) का एक अद्वितीय रास्ता इस कविता 
                            के पास है। इसके लिए उसके पास अपनी तरह के 
                            अभिव्यक्ति-औज़ार भी हैं। लोक (अर्थात लोकजीवन, 
                            लोकभाषा, लोककथाएँ आदि), मिथक आदि से ताक़त लेने में 
                            उसे गुरेज नहीं है। वह प्रहार करती है लेकिन सार्थक 
                            एवं सकारात्मक। सृजनात्मकता में आज की कविता का अटूट 
                            विश्वास है अत: वह निषेध और ध्वंस को छोड़ कर चलती है। 
                            वह प्रकृति में होने वाले उन छोटे-छोटे, महत्वहीन समझे 
                            जाने वाले व्यापारों को सामने लाकर अपनी इस दृष्टि का 
                            परिचय भी देती है और उसी राह समाज को चलाने की अपेक्षा 
                            भी करती है :  
                            जब चोंच में दबा हो 
                            तिनका 
                            तो उससे ज़्यादा खूबसूरत 
                            कोई पक्षी नहीं होता। 
                            (दिविक रमेश) 
                            पक्षी की चोंच में 
                            तिनके के दबा होना सृजन और निर्माण की समझ को सामने 
                            लाता है। आज के कवि का मुख्य स्वर है ही विध्वंस और 
                            मृत्यु के खिलाफ़। बाबरी मस्जिद का संदर्भ हो या, 11 
                            सितंबर अमेरिका का, गुजरात का हो या इराक युद्ध का, या 
                            फिर उत्तर प्रदेश की निठारी का, सब उसे बेचैन करते 
                            हैं। दिव्या माथुर के संग्रह का ही शीर्षक है 11 
                            सितंबर। सच तो यह है कि समय के दबाव से जन्मी मनुष्य 
                            की जितनी बेचैनियाँ और दबाव हो सकते हैं सब आज की 
                            कविता में प्रमुखता से मौजूद हैं। राजनीति की 
                            विसंगतियों के, बहुत ही ठहरे हुए तरीके से, आज की 
                            कविता परखचे उड़ाने में सक्षम हैं। दो अंश देखिए: 
                            देश हमारा कितना प्यारा 
                            बुश की आँखों का तारा 
                            हम ही क्यों अमरीका जाएँ 
                            अमरीका को भारत लाएँ 
                            (मनमोहन, जिल्लत की रोटी) 
                            हम अणु युग की ताक़त 
                            का दुख नहीं चाहते 
                            धरती पर विस्फोट नहीं चाहते 
                            हम थोड़ी-सी धरती और थोड़ा-सा आकाश चाहते हैं 
                            हम धरती का प्यार चाहते हैं 
                            हम तितली और फूलों का प्यार चाहते हैं। 
                            (पंकज चतुर्वेदी, एक ही चेहरा) 
                            इस कविता ने संबंधों 
                            की खोती चली गई 'आत्मीयता' की वापसी का सफल प्रयत्न भी 
                            किया है। माँ, पिता, बहन, भाई, बेटियाँ, मित्र आदि पर 
                            केंद्रित संभवत: सबसे अधिक कविताएँ इसी दौर ने संभव की 
                            हैं। साथ ही, यह भी कि इसी समय में स्त्री और दलित पर 
                            केंद्रित विशिष्ट विमर्शात्मक कविताएँ भी उपलब्ध हुई 
                            हैं। प्रवासी कवियों में एक कवि हैं - अनिल जनविजय। 
                            उनकी कविताओं का संग्रह है -- राम जी भला करें। कितनी 
                            ही कविताओं में कवि का स्त्री-विमर्श मौजूद है: पुरुष 
                            की सबसे बड़ी ताक़त है स्त्री। कवि की अभिव्यक्ति काफ़ी 
                            सहज और मौज-मस्ती वाली है। बानगी देखिए: 
                            मृत्यु -- मृत्यु ने 
                            आलिंगन में बाँधा 
                            और चूमा मुझे कई बार 
                            पर एक दफ़ा भी 
                            उसने मुझसे 
                            किया न सच्चा प्यार। 
                            कविताओं में मौजूद एक भाषागत लय भी आकर्षित करती है। 
                            इसी प्रकार नीलेश 
                            रघुवंशी एक चर्चित कवयित्री हैं। अपनी प्रारंभिक 
                            कविताओं से ही वे चर्चा में आ गई थीं। उन्होंने अपनी 
                            कविताओं का अपनापन अर्जित कर लिया है। इनका एक संग्रह 
                            है 'पानी का स्वाद'। 
                            स्त्री जगत के इतने सच्चे और टटके अनुभव कम ही 
                            कवयित्रियों में मिलते हैं जितने नीलेश के यहाँ। इनकी 
                            कविताओं की बड़ी ताक़त यह है कि ये प्रचलित और चर्चित 
                            हिंदी कविताओं में खो नहीं जाती। एक कविता है - ढेर 
                            सारे काम। यह एक दुर्लभ कविता है -- 
                            क्या तुम मार्च के अंत या अप्रैल के शुरू में आओगे? 
                            अब तो ईर्ष्या होने लगी है तुमसे 
                            ढ़ेरों काम याद आ रहे हैं इन दिनों 
                            तुम्हारे लिए कपड़े, मालिश की व्यवस्था 
                            एक आया ढूँढ़नी है अभी से, ताकि जब आफ़िस 
                            जाऊँ तो वह तुम्हें अपनी-सी लगे 
                            गर्भवती स्त्री और शिशुपालन जैसी किताबें पढ़ती हूँ इन 
                            दिनों 
                            ढ़ेर सारे नाम खोजती फिरती हूँ 
                            हर दिन दूध वाले की जान खाती हूँ 
                            दिन-भर इन्हीं चकल्लसों में उलझी रहती हूँ 
                            फिर भी काम हैं कि ख़त्म होने का नाम ही नहीं ले रहे। 
                            हिंदी की जिन गिनी-चुनी 
                            कवयित्रियों ने पिछले कुछ वर्षों की सशक्त हिंदी कविता 
                            को संभव किया है उनमें कात्यायनी का नाम अग्रणी है। 
                            'जादू नहीं कविता' इनका यद्यपि तीसरा संग्रह है लेकिन 
                            इसमें उनकी 1987 से 1997 के बीच लिखी गई वे कविताएँ 
                            हैं जो पिछले दो संग्रहों में शामिल नहीं हो सकी थीं। 
                            इस कवयित्री के आदर्श पाब्लो नेरूदा, नाज़िम हिकमत जैसे 
                            कवि हैं और इनकी प्रगतिशील दृष्टि सामाजिक-राजनैतिक 
                            परिवर्तन की प्रक्रिया में आस्था रखती है। इसलिए 
                            यथास्थिति के प्रति एक विद्रोह इनकी कविताओं में 
                            प्राय: मिलता है। कविताओं में जहाँ स्त्री सुलभ 
                            स्त्री-पीड़ा है तो उत्पीड़ित मनुष्य का दु:ख और उसका 
                            संघर्ष भी है। इनमें हर भ्रम का पर्दाफ़ाश करते हुए सच 
                            तक पहुँचने की कोशिश और समझ है। 
                            स्मृति स्वप्न नहीं 
                            आशाएँ भ्रम नहीं 
                            कविता जादू नहीं 
                            सिर्फ़ कवि हम नहीं। 
                            इस कवयित्री का कविता-कैनवास भी काफ़ी विस्तृत है। 
                            आलोचकों, पुरस्कारों, बड़े कवियों आदि से संबद्ध कुछ 
                            दिलचस्प कविताएँ भी यहाँ हैं: 
                            बड़े कवि लगातार सोचते 
                            हैं 
                            और वे सोचते हैं 
                            कि सिर्फ़ वे ही सोचते हैं 
                            या कि जो वे सोचते हैं 
                            वह सिर्फ़ वे ही सोचते हैं। 
                            वे लगातार सोचते हैं 
                            और सोचना उन्हें अकेला कर देता है। 
                            एक छोटी-सी घटना या 
                            कि एक छोटा-सा स्मृति खंड अनामिका की कविता में एक 
                            वैचारिक मन:स्थिति का प्रेरक होकर आता है। ये कविताएँ 
                            भीतर से बाहर और निजता से समाज की ओर फैलती हैं। 
                            संग्रह की कुछ अच्छी कविताएँ स्त्री और बच्चे पर 
                            केंद्रित हैं। 'ऋषिका' कविता का एक अंश उद्धृत है:-- 
                            माँ हूँ मैं, मेरे भरोसे ही 
                            बीमार पड़ता है चाँद! 
                            जाओ, अब दूध पिलाऊँगी मैं, 
                            सोओ कि इसे सुलाऊँगी मैं 
                            उफ, करवट फेरने की जगह करो 
                            मत खींचा-तानी बेवजह करो। 
                            अनामिका के पास दृश्य-बंधों को सजीव करने वाली भाषा 
                            है, बिंबधर्मिता पर इनकी अच्छी पकड़ है। 'जाड़ा और 
                            संबंध' ऐसी कविताएँ हैं, जहाँ व्यक्ति की यातना भाषा 
                            के भीतर से ऐसे रिस-रिस कर आती है जैसे आम की गुठली को 
                            देर तक चूसने पर भी स्वाद आता रहता है। भाषा की यह 
                            गुठली को देर तक चूसने पर भी स्वाद आता रहता है। भाषा 
                            की यह विशिष्टता अनामिका की अपनी विशिष्टता है। 
                            इसके अतिरिक्त दलित 
                            केंद्रित भी अनेक ऐसी कविताएँ इस दौर में उपलब्ध हैं, 
                            जिन्हें हिंदी कविता को मौलिक योगदान कहा जा सकता है। 
                            'सूरजपाल चौहान की अनेक कविताएँ ऐसी ही हैं। उनकी एक 
                            कविता है 'मेरा गाँव' : 
                            मेरा गाँव, कैसा गाँव? मेरा गाँव, कैसा गाँव, 
                            न कहीं ठौर, न कहीं ठाँव। न कहीं ठौर, न कहीं ठाँव॥ 
                            कच्ची मढ़ैया, टूटी 
                            खटिया उनके आँगन गइया, बछिया 
                            घूरे से सटकर मेरे आँगन सूअर, मुर्गियाँ 
                            बिना फँस का मेरा छप्पर 
                            मेरा सिर उनकी लाठी 
                            मेरे घर न पेड़ की छाँव। बेगारी करने को गाँव। 
                            मेरा गाँव, कैसा 
                            गाँव? उनका दूल्हा चढ़ घोड़ी पर 
                            न कहीं ठौर, न कहीं ठाँव। घूमे सारा गाँव-गली 
                            मेरी बेटी की शादी पर 
                            उनका खेत, उन्हीं का बैल कैसी आफ़त आन पड़ी 
                            और उन्हीं का है टयूबवैल जिन पैरों चल घोड़ी चढ़ आया वो 
                            मेरे हिस्से मेहनत आई अलग पड़े हैं दोनों पाँव। 
                            उनके हिस्से है आराम। मेरा गाँव, कैसा गाँव? 
                            मेरा गाँव, कैसा गाँव? न कहीं ठौर, न कहीं ठाँव। 
                            न कहीं ठौर, न कहीं ठाँव। 
                            दारू की बोतल के भीतर 
                            ब्याह-बारात का काम कराते सिसकी भर-भर रोता गाँव 
                            देकर जूठन बहकाते फटे-पुराने चिथड़ों जैसा 
                            जब मरता है कोई जानवर सूखे तन पर लिपटा गाँव। 
                            दे-देकर गाली उठवाते मेरा गाँव, कैसा गाँव? 
                            दिन-रात गुलामी कर-करके न कहीं ठौर, न कहीं ठाँव। 
                            थक गए बिबाई फटे पाँव। 
                            मेरा गाँव, कैसा गाँव? 
                            न कहीं ठौर, न कहीं ठाँव। 
                            यों समकालीन हिंदी 
                            कविता में अवसाद और चिंता के स्वर भी बहुत मिलते हैं। 
                            इस वर्ष साहित्य 
                            अकादमी पुरस्कार वरिष्ठ कवि ज्ञानेंद्रपति को मिला है। 
                            उनके चौथे संग्रह 'संशयात्मा' (2004) पर। थोड़ी चर्चा 
                            इस पर भी। ज्ञानेंद्र पति को पहले पहल पहचान सीरीज़ के 
                            अंतर्गत अशोक वाजपेयी ने प्रकाशित किया था। कहा जा 
                            सकता है कि पुरस्कार के माध्यम से यह कवि उपेक्षा की 
                            मार से थोड़ा उभरा है। हालाँकि अब भी इनसे ज़्यादा 
                            उपेक्षित कवि मौजूद हैं। इनका संग्रह 'भिनसार' भी 
                            चर्चा में है। ज्ञानेंद्रपति की कुछ बेहतरीन कविताएँ 
                            राजनीतिक क्रूरताओं और आत्म व्यंग्य के कठिन स्वरों का 
                            दस्तावेज़ हैं। उनकी कविताओं में संबंध के प्रति 
                            आत्मीय भाव भी पूरे विवेक के साथ अभी जमा हुआ है। उनकी 
                            कविताओं में 'देशज' का सौंदर्य देखते ही बनता है। 
                            चलते-चलते चार कवियों 
                            का और ज़िक्र करना चाहूँगा। एक हैं मॉरिशिस के हेमराज 
                            सुंदर जिनकी कविताओं के संग्रह का नाम है - 'अस्वीकृति 
                            में उठे हाथ', दूसरे हैं सुंदर चंद ठाकुर जिनका 
                            कविता-संग्रह है, 'किसी रंग की छाया, तीसरे हैं, डॉ. 
                            कृष्ण कुमार जिनके चार कविता-संग्रह प्रकाशित हो चुके 
                            हैं - और चौथे हैं केरल के अरविंदाक्षन जिनके संग्रह 
                            का नाम है - 'घोड़ा'। 
                            सोमदत्ता बखौरी की 
                            पीढ़ी के बाद, अभिमन्यु अनत के शब्दों में, 'हेमराज 
                            सुंदर ने - अपने समय के नवोदित कवियों में कविता के नए 
                            तकाज़े की पहल की है।' वस्तुत: इनकी कविताओं में आक्रोश 
                            तो है लेकिन मात्र उत्तेजना एवं कुंठा नहीं। कुछ 
                            पंक्तियाँ हैं -- 
                            एक है सूर्य एक है चंद्रमा 
                            धरती-गगन एक है 
                            परी तालाब से सागर तक फैला 
                            सारा मॉरिशस एक है। 
                            सुंदरचंद ठाकुर एक 
                            सशक्त कवि हैं जिनके पास अपना एक भाषा-मुहावरा है। कुछ 
                            ही पंक्तियाँ देखें: 
                            मेरी नींद में सपने ख़त्म नहीं होते 
                            मेरी आँख में उम्मीद अटकी रहती है 
                            मेरे पाँव में लिपटी रहती हैं यात्राएँ 
                            मेरे हाथ कभी खाली नहीं रहते। 
                            (मैं आदमी हूँ) 
                            स्पष्ट है कि ये 
                            पंक्तियाँ एक बहु वांछनीय परिवेश की ओर तो इंगित करती 
                            ही हैं, आज समेत किसी भी समय के किसी भी 'विमर्श' को 
                            स्वर देने में भी समर्थ हैं। कुछ और पंक्तियाँ देखें: 
                            'हत्यारा खून से लिख रहा है प्रार्थना 
                            मंच पर खड़ा है मसखरा 
                            ---- 
                            कविता की तरह थी यहाँ एक स्त्री 
                            उसकी चुप्पी दिनों दिन बढ़ती ही जाती थी 
                            ---- 
                            समारोह में बँटते थे प्रशस्ति-पत्र - पुरस्कार 
                            कविताओं में बढ़ता जाता था व्यापार। 
                            ---- 
                            उसके ऊपर एक पंखा 
                            उसकी नींद की रखवाली करता घूमता रहता है। 
                            दृश्य से जा चुकी वह 
                            चिड़िया 
                            अभी बची हुई है वहाँ 
                            उसके पंजों के नीचे दबी घास 
                            खुल रही है धीरे-धीरे 
                            वातावरण में 
                            उसकी कूक की अनुपस्थिति मौजूद है। 
                            स्त्री को थकान लगती थी और नींद आती थी 
                            पुरुष उससे एक कप चाय की फ़रमाइश करता था। 
                            कृष्ण कुमार के यहाँ 
                            ऊँचे मूल्यों के स्खलन की चिंता को लेकर बहुत ही अच्छी 
                            और गंभीर काव्याभिव्यक्तियाँ हैं। वे तीखे सवाल उठाती 
                            हैं। उनके पास रूढ़ि भेदक दृष्टि है। ऊपर से लग सकता है 
                            उनके यहाँ अध्यात्म ही अध्यात्म है लेकिन गहरे में 
                            सामाजिक विसंगतियों, मूल्य-स्खलन आदि का व्यंग्यपरक 
                            एवं संवेदनात्मक परिदृश्य मौजूद है। 
                            अरविंदाक्षन की 
                            कविताओं की मूल चिंता पृथ्वी के सौंदर्य को विनाश से 
                            बचाने की है। धरती को नष्ट करने वाले धूमकेतुओं से कवि 
                            सावधान करना चाहता है। 
                            कहा जा सकता है कि 
                            हिंदी कविता निरंतर गतिशील है और एक से एक शिखर संभव 
                            करने को लालायित भी। बावजूद गद्य की चुनौतियों के, उसे 
                            सामने लाने में आज तो कितने ही 'वैब जाल' भी सशक्त 
                            भूमिका निभा रहे हैं। हर जागरूक
                             पाठक 
                            और रचनाकार इन वैबजालों से आज परिचित है। इनके माध्यम 
                            से हिंदी कविता पूरे विश्व के हिंदी रचनाकारों और 
                            पाठकों को एक साथ जोड़ने की महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही 
                            है। अनुभूति, अभिव्यक्ति और हिंदी नेस्ट (बोलोजी) 
                            अत्यंत महत्वपूर्ण हिंदी वेब जाल हैं। और अंत में कवि 
                            त्रिलोचन के शब्दों में 'हिंदी कविता उनकी कविता है 
                            जिनकी साँसों में आराम नहीं था।' 
                            १ सितंबर २००७  |