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साहित्यिक निबंध

मंच के हंस : बलबीर सिंह रंग
-निर्मला जोशी
 


हिंदी गीत को मुहावरों से बचाकर मौलिक चिंतन का धरातल देने वालों के नाम अगर लिए जाएँ तो स्व बलबीर सिंह रंग का नाम सबसे पहले आता है। क्योंकि जिस गीतकार पीढ़ी ने गीत को मंच पर प्रतिष्ठित करने के लिए स्पर्धा का वातावरण बनाया वे सारे गीतकार आयु, अनुभव और सृजन में स्व रंग जी से काफ़ी पीछे रहे हैं। रंग जी के बाद स्व रमानाथ अवस्थी, स्व रामावतार त्यागी नीरज, भारत भूषण, स्व मुकुटबिहारी सरोज, स्व रूपनारायण त्रिपाठी आदि-आदि अनेक नाम उभरे, परंतु इन नामों के पहले हिंदी गीत की चर्चा स्व बलबीर सिंह रंग और स्व गोपाल सिंह नेपाली के बिना अधूरी रहती है या यों कहा जाए कि रंग के बिना हिंदी गीत का कोई रंग ही नहीं होता, तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। गीत की चर्चा करने वाले ईमानदार समीक्षक और समालोचक गीत पर कुछ लिखते या कहते समय स्व रंग और नेपाली को नहीं भूलते।

यह एक आश्चर्यजनक संयोग है कि १९११ में उत्तर प्रदेश के एटा जिलांतर्गत ग्राम नगला कटीला में एक किसान परिवार में जन्म लेने वाले बलबीर सिंह रंग के साथ स्तरीय कवि सम्मेलनों के मंच पर अच्छी ख्य़ाति अर्जित करने वाले गीतकारों ने कविता पाठ का सुअवसर प्राप्त किया और यह क्रम बरसों तक चलता रहा। ग्राम्य जीवन से जुड़े रहकर अपने कवित्व को जीवित रखने का भी उनका संकल्प अत्यंत महत्वपूर्ण समझा जाना चाहिए। रंग जी को अपने अच्छे गीतकार होने का कोई गर्व नहीं था, किंतु किसान होकर भी उनमें गीत का जो बीज उग कर वृक्ष बन गया था उस पर उन्हें गर्व अवश्य था। एक संवेदनशील गीतकार और कृषक के मन से निर्मित सामंजस्य को उन्होंने अपने राष्ट्रीय कविता संग्रह 'सिंहासन' में भी व्यक्त किया है और लिखा है कि 'मैं परंपरागत किसान हूँ, धरती के प्रति असीम मोह और पूज्य भावना किसान का जन्मजात गुण है, यही उसकी शक्ति है और यही उसकी निर्बलता। मैं स्वीकार करता हूँ कि मुझमें भी यही संस्कार सबसे प्रबलतम रूप में रहा है, आज भी है। ग्रामीण जीवन की वेदनाएँ, विषमताएँ और हास-विलास दोनों ही
मेरी कविता की प्रेरणा और पूँजी है।'

इसमें दो मत नहीं कि स्वतंत्रता के बाद हिंदी गीत परिष्कृत ऊर्जा और नये संस्कारों के साथ उत्तरोत्तर विकास करता रहा। लेकिन रंग जी के ज़माने में गीत केवल गीत ही हुआ करता था, गीत में नये-पुराने की कोई बात नहीं थी। जो श्रेष्ठ है उसे अंगीकार करना बदलते रहने के परिवेश का एक दर्शन ही है। रंग जी का विश्वास रहा है कि पुराने को ही और अधिक परिष्कृत, संस्कारित और विकसित कर नया रूप दिया जाए। उनका विश्वास है-
वह नहीं नूतन कि जो प्राचीनता की जड़ हिला दे
भूल के इतिहास का आभास ही मन से मिटा दे
जो पुरातन को नया कर दे मैं उसे नूतन कहूँगा।
इसलिये रंग जी और उनके बाद की पीढ़ी ने गीत को केवल गीत समझकर जिया। उनके समकालीन और उनकी अंगुली पकड़कर मंच पर चढ़े अनेक गीतकार शिल्प और कथ्य की दृष्टि से रंग जी तक नहीं पहुंच सके। नीरज के 'कारवां गुज़र गया' या बच्चन के 'इस पार प्रिये' की तरह एक समय में रंग जी का यह गीत गीत-प्रेमियों के मन और कंठ में प्रतिष्ठित हो गया था-
तुम्हारी शपथ मैं तुम्हारा नहीं हूँ
भटकती लहर हूँ किनारा नहीं हूँ।

हिंदी गीतिकाव्य के उद्गम काल से सौंदर्य परक रचनाओं में प्रेम को अत्यंत सरल शब्दों और नये प्रतीकों में गाया गया है छायावाद के पूर्व और बाद में गीतिकाव्य की एक पीढ़ी ने एक पंक्ति से गीत उठाकर उसे अंतिम पंक्ति तक प्रेम भाव से अभिसिंचित किया। इन सभी कालों में प्रेमाभिव्यक्ति का शिल्प और भाव अलग-अलग रहे। शब्द के माध्यम से इंगित करने की रंग जी की प्रतिभा इन सभी से अलग थी। उनका अपना अलग ही मौलिक काव्य रूप है जैसे उन्होंने एक गीत में कहा है-
किसी के गीत का लेकर सहारा तुम्हें अब गुनगुनाना आ गया है।
तुम्हारे साथ निर्झर गा रहे हैं तुम्हारी कीर्ति के घन छा रहे हैं।
कहीं तो प्रार्थना पर भी नियंत्रण कहीं तन मन लुटाए जा रहे हैं।
उचटती नींद की निधि मत बिखेरो तुम्हें सपने सजाना आ गया है।

जहाँ दु:ख और सुख का आत्म दर्शन हमें रंग जी की पीड़ा की गहराइयों में ले चलता है वहाँ इन पीड़ाओं को श्रेष्ठ भी बना देता है-
दु:ख का अनुभव करना ही दुख
सुख का अनुभव करना ही सुख
मेरी नज़रों में संस्तति के
सुख दुख की थाह यहीं तक थी
क्या मेरी राह यहीं तक थी।
रंग जी की रचनाओं में जीवन के प्रति आसक्ति का भाव सबसे हटकर एक अलग रंग पैदा करने की सामर्थ्य रखता है, काल का कठोर सामना करने को वह हमेशा तत्पर दिखाई देते हैं। जीवन के इस सत्य का रूप रंग जी के जीवन में एक यात्रा से अधिक कुछ नहीं है-
आएँ हैं तो जाना होगा शाश्वत नियम निभाना होगा
सूरज रोज़ किया करता है चलने की तैयारी
करो मन चलने की तैयारी।

रंग जी के गीतों में उनके स्वाभिमान, विनम्रता और उदार हृदय की झलक इन पंक्तियों में दृष्टव्य है-
पराजय क्यों करूँ स्वीकार, मुझसे यह नहीं होगा,
किसी के प्रति रहूँ अनुदार मुझसे यह नहीं होगा।
स्वयं को मान लूँ अवतार मुझसे यह नहीं होगा।
इस प्रकार उनकी कई रचनाओं में एक पंक्ति का बार-बार दुहराव गीत के सौंदर्य में एक प्रकार का चमत्कार उत्पन्न करता है।

हिंदी कविता के पाठक और कविता के समीक्षक, समालोचक इस बात से इंकार नहीं कर सकते कि रंग जी ने गीतों और ग़़जलों को एक साथ ईमानदारी से जिया। ग़़जलों में अगर उन्होंने उर्दू का शब्द प्रयोग किया तो उनकी हिंदी ग़़जलें भी हमेशा उल्लेखनीय कही जाती रहीं। सही अर्थों में हिंदी ग़़जल का उदगम रंग जी से ही हुआ। यह बात अलग है कि रंग जी के सृजन का सही मूल्यांकन उस समय नहीं हो सका।

रंग जी के गीतों का कथ्य व्यक्तिवादी न होकर सार्वजनीन अधिक है। उन्होंने जीवन के तिलमिला देने वाले दर्द को भी बहुत सौम्यता से अभिव्यक्त किया। रंग जी के गीत और ग़़जल छांदसिक दृष्टि से भले ही पृथक लगें किंतु उनकी रागात्मकता और संगीतात्मकता में एकदम सामीप्य है, इसलिये दोनों में भेद कर पाना कठिन है। जैसे-
हमने तनहाई में जंज़ीर से बातें की हैं
अपनी सोई हुई तकदीर से बातें की हैं
रंग का रंग ज़माने ने बहुत देखा है
क्या कभी आपने बलबीर से बातें की हैं।

यह एक ऐसी ग़़जल का नमूना है जिसमें शब्द चयन की दृष्टि से हिंदी-उर्दू का गंगा-जमुनी ताल-मेल है, अब उनके शुद्ध हिंदी गीत की पंक्तियाँ देखिए-
हर समय हर बात तुमसे क्या कहूँ मैं,हर कोई हर बात कह पाता नहीं है।
और हर आघात सह पाता नहीं है
क्या करूँ मजबूर है जलयान मेरा, हर लहर के साथ बह पाता नहीं है।
आज भी इस प्रश्न को लेकर छिड़ा है, सिंधु में उत्पात तुमसे क्या कहूँ मैं।

स्वर्गीय रंग जी के गीतों की दिशाओं में उलझन और भटकन न होने से उनके गीति तत्व को खोज लेना किसी भी कविता-प्रेमी के लिए आसान है। वास्तव में रंग जी ने ग़़जलों को दो तरह का आयाम दिया एक ओर तो उनकी ग़़जलों में हिंदी-उर्दू का सम्मिश्रण है जैसे-
तुमको मेरी ख़बर कहाँ होगी
ऐसी मुझ पर नज़र कहाँ होगी
रात काटी तेरे ख्यालों में,
अब न जाने सहर कहाँ होगी
तो दूसरी ओर-
ऋतु सुहानी हुई हुई न हुई
आग पानी हुई हुई न हुई।
जैसी ग़़जलों में शुद्ध हिंदी का स्वर गूँजता है। यह एक आश्चर्य मिश्रित सत्य है कि रंग जी ने गीत और ग़़जल का सृजन साथ-साथ किया। वह ग़़जल के लिए किसी मदरसे में नहीं गए और गीत के लिए उन्होंने छंद विधान के किसी विद्यालय में दाखिला नहीं लिया। शब्दों को कई अर्थों में अपने गीतों में प्रयुक्त करने में वह एक सिद्धहस्त गीतकार थे। उनका एक अत्यंत लोकप्रिय गीत है-
अब मुझको तुमसे मिलने की, आशा कम विश्वास बहुत है।
क्या चिंता धरती यदि छूटी, उड़ने को आकाश बहुत है।
उनके गीतकार कवि का मन इस गीत में दो प्रकार की स्थितियों को ढो रहा है। मिलन की आशा कम होते हुए भी विश्वास उन्हें संबल प्रदान करता है।

स्व बलबीर सिंह रंग के व्यक्तित्व और कृतित्व में अनूठा साम्य रहा है। उनके गीत हमारी उस धारा के गीत हैं जो उत्तर छायावाद के बाद रचे गए। उस समय के प्राय: सभी कवि गीतकारों का छंद-विधान समरूप होते हुए भी भावपक्ष और भाव भूमि पृथक-पृथक थी। स्व रंग जी ने हिंदी उर्दू ग़़जलों के साथ मुक्तकों का भी सृजन किया लेकिन उनके गीत शुद्ध, किंतु बोलचाल की भाषा में रचे गए गीत हैं। इन गीतों में संप्रेषण का मौलिक गुण है तो रचनाकार की विशुद्ध मानसिकता भी इनमें बोलती हैं।

यह एक सुखद पक्ष है कि उस समय गीत को गीतकार द्वारा जिया जाता था। आज, जब भी रंग जी के बाद वर्तमान गीतकारों के नामों की चर्चा होती है, तब अनेक को रंग की पाठशाला का छात्र माना जाता है। एक विशेषता रंग जी के गीतों में यह भी है कि उनकी गीत प्रस्तुति का सौंदर्य नितांत मौलिक था, उन्होंने अपनी एक हिंदी ग़़जल में कहा है-
रंग के बाद संवारेगा कौन महफ़िल को
कोई तो नाम बताओ बड़ी कृपा होगी।

२४ अप्रैल २००६

  
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