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निबंध

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मन बहलाव वसंत के
— पूर्णिमा वर्मन
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वसंत की शीतोष्ण वायु जैसे ही तन मन का स्पर्श करती है, समस्त मानवता शीत की ठिठुरी चादर छोड़ कर हर्षोल्लास मनाने लगती है। वैदिक काल से वर्तमान काल तक प्रत्येक युग के भारतीय साहित्य में वसंत के मनबहलावों का मनोरंजक वर्णन प्राप्त होता है। इनसे पता चलता है कि प्राचीन काल में वसंत में 'वन विहार' 'झूला दोलन', (झूले पर झूलना), 'फूलों का शृंगार' और 'मदन उत्सव' मनाने की अदभुत परंपरा थी।

'अवदान कल्पलता' नामक ग्रंथ में वाराणसी के राजा कलभु के सपरिवार वसंतकालीन - विहार और वन केलि का वर्णन है। कहा गया है कि वह देर तक क्रीडा कौतुक कर, थक कर सो गया। इसी बीच उसकी प्रिय रानी मंजरी फूल तोड़ती हुई दूर निकल गयी। वहाँ महामुनि क्षांतिवादिन तपस्या कर रहे थे। उन्हें देख कर वह ठगी-सी रह गई। तभी राजा उसे ढूँढता हुआ वहाँ आ पहुँचा और रानी को उस अवस्था में देखकर क्रोध से पागल हो गया। उसने मुनि के हाथ पैर कटवा दिए। फलस्वरूप राज्य में भारी अकाल पड़ा। बाद में मुनि ने राजा को इस आपत्ति से उबारा।

'पिंड नियुक्ति' में चंद्रानना नगरी के राजा चंद्रवतंस के वसंत विहार के संबंध में एक रोचक कथा मिलती है। नगरी के पूर्व तथा पश्चिम में सूर्योदय तथा चंद्रोदय नाम के दो बगीचे थे। राजा ने वसंत काल में क्रीडा कौतुक के अभिप्राय से सूर्योदय उद्यान में विहार का निश्चय कर के घोषणा करवाई कि उस दिन नागरिक सूर्योदय उद्यान में न जाएँ। सूर्योदय उद्यान पर पहरे लगा दिए गए। रात में अचानक राजा को प्रात:कालीन धूप का ख्याल आया अत: यात्रा का कार्यक्रम सूर्योदय उद्यान के स्थान पर चंद्रोदय उद्यान में परिवर्तित कर दिया गया।

चंद्रोदय उद्यान में अंत:पुर की रानियों को राजा के साथ क्रीडा कौतुक करते हुए अनजाने ही अनेक नागरिकों ने देख लिया। इन नागरिकों को पहरेदारों ने पकड़ लिया। दूसरी ओर कुछ नागरिक जो पहले ही सूर्योदय उद्यान में राजा के क्रीडा कौतुक को देखने जा छिपे थे, वे भी पकड़ लिए गए। अंत में जिन्होंने राजाज्ञा का उल्लंघन किया था वे दंडित किए गए, शेष छोड़ दिए गए।

जातक ग्रंथों में राजा शुद्धोदन की रानियों द्वारा लुंबिनी उद्यान में शालभंजिका पर्व मनाने का बड़ा सुंदर वर्णन है। कपिलवस्तु और देवदह नगरों के बीच सघन शालवन में वसंत के स्पर्श के कारण प्रत्येक पत्र और पुष्प में सिहरन हो रही थी। हर शाख नवपल्लवित किसलय व पुष्पों से झुक गई थी। ऐसा मोहक दृष्य देख देवियाँ रह न सकीं और महादेवी सहेलियों सहित वसंत विहार को निकलीं। एक मंगलमय शाल वृक्ष की टहनी को पकड़ने के लिए उन्होंने हाथ उठाया तो वह स्वयं ही झुक गई। महादेवी ने उसे थाम लिया। ऐसी अवस्था में महादेवी को प्रसव पीड़ा का अनुभव हुआ।

'शिशुपाल वध' महाकाव्य में रैवतक पर्वत पर यादवों की वन केलि का खूब विस्तृत वर्णन है। 'नाया धम्म कहाओ' नामक प्राकृत भाषा के ग्रंथ में चंपा नगरी के दो संपन्न व्यापारी पुत्रों जिनदत्त और सागर दत्त की देवदत्ता नामक अत्यंत सुंदर और संपन्न गणिका के साथ उद्यान यात्रा का विस्तृत और शृंगारिक वर्णन है।

'पद्मचूड़ामणि' में कुमार गौतम की रनिवास सहित उद्यान यात्रा का मनोरम वर्णन मिलता है। संक्षेप में- मन बहलाव के लिये स्त्रियाँ कभी फूल पत्तियाँ चुनतीं, कभी उनके गहने बनातीं, कभी अशोक पर पैरों से प्रहार करतीं और कभी मौलश्री पर सुरा के कुल्ले करतीं। कभी केशों को फूलों से सजातीं, आम की कोपलें तोड़तीं, शेफाली और सिंदुवार के तिलक लगातीं ओर कभी प्रियतम के कानों में फूल खोंस कर उसे हृदय से लगातीं।

'जैन हरिवंश' का कथन है कि उद्यान यात्राएँ वन विहार और सैर सपाटे प्राय:वसंत काल में ही होते थे, जबकि स्त्री पुरुष एक साथ एकत्र होकर मद्यपान करते थे। फूलों को चुनने और सजाने से संबंधित अनेक प्रकार के वसंतकालीन मनोरंजन भारतीय साहित्य में मिलते हैं।

कलिदास के 'मालविकाग्निमित्र' नाटक में महादेवी धारिणी ने मालविका को पाँव के प्रहार से अशोक वृक्ष को पल्लवित कुसुमित करने का कार्य सौंपा और सफल हो जाने पर मुँह माँगा पुरस्कार देने का वचन दिया।

बाणभट्ट की 'कादंबरी' में कादंबरी अपनी सखियों से कहती है कि जिस अशोक वृक्ष को लात मार कर मैंने पाला था उसकी कोपलें कोई न तोड़े।

'पद्मपुराण के उत्तरखंड में 'कुंकुम क्रीडा' का वर्णन हुआ है। कश्मीर की प्रशंसा में कहा गया है कि केसर की प्रचुर उपज होने के कारण वहाँ घर के आँगनों में केसर इस प्रकार उड़ता है कि उनसे सूर्य और चंद्र मंडल भी लाल हो जाते हैं।

जैनों के 'उत्तर पुराण' में वसंतकाल में झूले पर झूल कर मन बहलाने का वर्णन मिलता है। 'जैनहरिवंश' में लिखा गया है कि झूलते समय नागरिक हिंदोल राग गाते थे।

'कुमार पाल चरित' में 'दोला उत्सव' का सजीव और शृंगारिक वर्णन है - एक ही झूले पर बैठ कर पति पत्नी बेधड़क गीत गा रहे थे। स्त्रियाँ मदमत्त थीं, उनके नूपुर झूले की गति के साथ बज रहे थे। जब कभी वे अपने पैरों से अशोक वृक्षों को छू देतीं उनकी कलियाँ खिलने लगतीं।

संस्कृत साहित्य में माघ शुक्ला पंचमी को मदनोत्सव के रूप में मनाए जाने के सुंदर वर्णन मिलते हैं। श्री हर्ष की रत्नावली नाटिका में मदनोत्सव का बड़ा ही सजीव वर्णन है। नागरिकों ने इतना अधिक सुगंधित केसर और कुंकुम बिखराया कि संपूर्ण नगर सोने सा पीला हो गया। ऐसा प्रतीत होता है कि छठी शताब्दी से ही उत्तर भारत में मदनोत्सव सार्वजनिक रूप से मनाया जाने लगा था। इसको मनाते समय लोग वय, लिंग और सामाजिक स्थिति को भुला देते थे। केशों को पुष्पों से सजा कर वे हल्दी चावल और कुंकुम का चूर्ण बिखराते तथा रंग खेलते।

भास के 'चास्र्दत्त' नाटक में 'कामदेवानुयान' नामक एक जलूस का वर्णन है, जिसमें कामदेव के एक चित्र के साथ संगीत नृत्य करते हुए अनेक नागरिक सम्मिलित होते हैं।

राजशेखर की 'काव्यमीमांसा' और भोजराज के 'सरस्वती कंठाभरण' में माघ शुक्ला पंचमी के दिन मनाए जाने वाले सुवसंतक या मदनोत्सव का उल्लेख मिलता है। इन वर्णनों में पिचकारी से रंग डालने और कीचड़ फेंकने के वर्णनों से ऐसा प्रतीत होता है कि वर्तमान होली जैसा उत्सव वसंत पंचमी से ही प्रारंभ हो जाता था और तब से रंग और गुलाल का यह उत्सव फाल्गुन पूर्णिमा तक चलता रहता था।

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