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                        बात १९५५ के पहिले वाले बनारस की है जब भोजन की पंगत 
                          ज़मीन पर बिछाई गई टाटपट्टी पर होती थी। पत्तल पर पूड़ी, 
                      कचौड़ी, समोसा और ऐसे ही कुछ नमकीन परोसे जाते थे और साथ में 
                      सूखी सब्ज़ी, चटनी और अचार होता था, ठेठ पक्की रसोई। कुल्हड़ 
                      और कसोरे का अपना विशिष्ट स्थान होता था। कुल्हड़ मोटी परत 
                      का मिट्टी का करिया सा प्याला होता जिसमें रसगुल्ले, रबड़ी 
                      या गुलाबजामुन जैसे रसदार मिष्ठान परोसे जाते। कसोरा भी मिट्टी की उथली कटोरी होती 
                          जिसमें आलू का रस्सा या दही बुँदिया परोसी जाती। पंगत 
                          समाप्त होने पर पत्तल, कुल्हड़ और कसोरे कूड़े पर फेंक 
                          दिए जाते, साथ में पानी के लिए दिया गया पुरवा भी। पुरवा 
                          पतली परत का मिट्टी का प्याला होता। दूध वालों की 
                          दुकानों पर मिलने वाला दही या शाम को मिलने वाली मलाई 
                          ऐसे ही अलग-अलग आकार के पतली परत वाले गुलाबी पुरवों में 
                          मिलती। जिस दिन हमने ज़मीन पर पलथी मारकर खाना छोड़ा और डायनिंग 
                          टेबल पर आ गए, पंगत, टेबल पर स्टेनलेस की थाली, कटोरी 
                          में होने लगीं और अंतत: 'स्वरुचि भोज' के लुभावने नाम 
                          से प्लास्टिक की प्लेट्स और कटोरियों में 'गिद्ध भोज' की 
                          खड़ी पंगत होने लगी ठीक उसी दिन से हमारी अनेक भारतीय 
                          परंपराओं का चरमराना शुरू हुआ। उसे हम संस्कृति का 
                          विखंडन तो नहीं कह सकते परंतु परंपराओं का अखिल भारतीय 
                          स्तर पर टूटना तो कही सकते हैं। कूड़े के ढेर पर पड़ी 
                          झूठी पत्तलें और टूटे कुल्हड़, कसोरे और पुरवे चिढ़ पैदा 
                          करते थे तो अब साबुन के मटमैले पानी से भरी नांद में 
                          डुबकी लगाकर "गंगा स्नान" से शुद्ध होने वाली प्लेट्स और 
                          प्यालियाँ घिन पैदा करती हैं। भोजन की परंपरा के बाबत यह 
                          भी मालूम होना चाहिए कि दक्षिण भारत में ब्राह्मण भोजन 
                          केले के दोनों और पत्तलों पर होता है। बनारस में भी यही 
                          परंपरा रही और शायद आज भी है। जेठाजी का फाटक और फाटक रंगीलदास के बीच लगने वाली भैरो 
                          बाज़ार की सँकरी गली के दोनों ओर के ऊंचे पाटों पर 
                          तरकारी-भाजी की दुकानें लगती थीं। वहीं पर केले के 
                          पत्तों के बंडल भी बिकते थे। दामोदर भट अयाचित नामक 
                          ब्राह्मण भैरो बाज़ार की गली में सुबह ६ से ८ तक चक्कर 
                          लगाते रहते। जो भी केले के पत्तों का बंडल ख़रीदता, 
                          दामोदर भट उसका पीछा करते उसके घर तक पहुँच जाते। दोपहर 
                          बारह बजे दरवाजे पर हाज़िर। चाहे विवाह भोज हो या 
                          मृत्यु भोज, आमंत्रण हो या न हो, ब्राह्मण को क्या संकोच? 
                          खाने की पंगत में बैठ जाते और तबीयत से भकोसते। वैसे भी 
                          ब्राह्मणों को मध्याह्न भोजन मिल ही जाता। बालाजी मंदिर, 
                          गंगा महाल, गणेश मंदिर, केदारघाट आदि स्थानों पर उनके 
                          लिए अन्न छत्र थे। "छत्रे भोजन मठे निद्रा" अनेक की 
                          दिनचर्या थी। आगे चलकर बालाजी मंदिर में ग़रीबों के लिए 
                          अन्न छत्र चलाया जाने लगा। इस परिवर्तन का हम युवाओं 
                          द्वारा पुरजोर स्वागत किया गया। नील भांडेश्वर मंदिर में 
                          धन्यवाद ज्ञापन की सभा आयोजित की गई थी। गुजरातियों द्वारा संचालित श्री गोपाल मंदिर, भैरोनाथ 
                          गली में ही था। गली में खुलने वाला छोटा सा फाटक और भीतर 
                          मंदिर का फैला अहाता। गोपालजी को दोपहर को लगने वाला भोग 
                          बाद में मंदिर के अहाते के पीछे वाले दरवाज़े पर बेचा 
                          जाता था। घी से तर दो पूड़ियाँ, एक दोना सब्ज़ी और एक 
                          करछुल मीठी बुँदियाँ। कीमत दो आने (आज के दस पैसे)। बंबई 
                          या अन्य शहरों में आज मिलने वाली पाव-भाजी का अधिक 
                          पौष्टिक और स्वादिष्ट रूप। ग़रीबों की कतार लग जाती। हम 
                          लोग भी कभी-कभी कतार में लग कर दुअन्नी वाला प्रसाद 
                          ख़रीदते और खड़े-खड़े खाते। शुद्ध घी का तर माल। भैरो बाज़ार रंगीलदास के फाटक पर समाप्त होता था और वहाँ 
                          से शुरू होता था चौक की ओर जाने वाला ठठेरी बाज़ार। घर 
                          से विश्वविद्यालय जाने का १२ किलोमीटर का रास्ता इसी 
                          ठठेरी बाज़ार से जाता था। घर से चौक तक हाथ में साइकल 
                          लेकर पैदल जाना पड़ता था, बैठकर जाने की गुंजाइश नहीं 
                          थी। ठठेरी बाज़ार की गली भी संकरी थी। चौक से साइकल सवार 
                          होकर बाँस फाटक, गौदौलिया, मदनपुरा दुर्गाकुंड, अस्सी और 
                          लंका होते हुए सीधे बनारस हिंदू विश्वविद्यालय। बी ए़च 
                          य़ू पंडित मदनमोहन मालवीय जी का साकार संकल्प। "बसी है 
                          गंगा के रम्य तट पर यह सर्व विद्या की राजधानी।" 
                          विश्वविद्यालय विभिन्न राज्यों से आए अपने विषयों के 
                          दिग्गजों का मिलन स्थल था। विभिन्न राज्यों से अध्ययन 
                          हेतु आए छात्र एक छोटे भारत का निर्माण करते थे। वैसे भी भारत के एक-एक प्रांत का विशेष संबंध काशी के 
                          एक-एक मुहल्ले से हैं। पंजाब का लाहौरी टोला, बंगाल का 
                          बंगाली टोला, मद्रास का केदारघाट, हनुमान घाट, 
                          महाराष्ट्र का दुर्गाघाट, पंचगंगा घाट, गुजरात का चौखंबा, 
                          सूनटोला और नैपालियों का नैपालीखपरा। इन मुहल्लों में 
                          हिंदी तो बोली ही जाती है परंतु साथ-साथ उस राज्य विशेष 
                          की भाषा सभी समझते हैं और बोल भी लेते हैं। बाबा 
                          विश्वनाथ के दर्शन और गंगा स्नान के लिए कोने-कोने से 
                          लोग आते रहते हैं। काशी संपूर्ण भारत का मैका है। यहाँ 
                          बाबा हैं और मैया है। यहाँ जन्म यदि सुंदर हैं तो 
                          मृत्यु अधिक सुंदर है।बाँस फाटक के ढाल के पहिले यहाँ की कारमाइकल लायब्रेरी 
                          है और इसी के बगल से कुछ सीढ़ियाँ नीचे की ओर उतरती हैं। 
                          सीढ़ियाँ उतरते ही सामने आती है ज्ञान वापी की मस्जिद। 
                          मस्जिद की बाईं ओर से जाने वाली गली थोड़ी घूमकर (शार्ट 
                          कट से) बाबा के मंदिर द्वार पर पहुँच जाती है। दाहिनी ओर 
                          से शुरू होती है "बिसनाथ जी" की गली। संपूर्ण भारत के 
                          "सौंदर्यबोध" का स्थान। "जिन लाहौर नहीं देखा" के 
                        तर्ज़ 
                          पर कहें तो जिसने "बिसनाथ गली" के चक्कर नहीं लगाए वह 
                          बनारसी कैसा?
 तमिलनाडु से लेकर कश्मीर तक की युवतियों का, बाबा के 
                          दर्शन और बाद में इस गली के दोनों ओर की लुभावनी दुकानों 
                          पर मार्केटिंग करता नयन सुखदाई सौंदर्य। बंगाल, आसाम, 
                          गुजरात, महाराष्ट्र चारों ओर से आई बाबा बिसनाथ की गली 
                          में विचरण करती तरूणाई। अखिल भारतीय सौंदर्य स्पर्धा में 
                          "मिस इंडिया" के चयन के लिए जिन मापदंडों का प्रयोग किया 
                          जाता हो उन निकषों का, सौंदर्य परखने की सभी कसौटियों का 
                          हम आसानी से प्रयोग करते थे। शाम अच्छी तरह गुज़रती। 
                          संकरी गली का संकरापन नहीं अखरता था। आपातकाल में संजय 
                          गांधी ने काशी के जिलाधीश को इस गली को चौड़ा करने का 
                          आदेश दिया। उ प़्र स़रकार बेख़बर थी। बुलडोज़र गली के दोनों मुहानों पर आ गए थे। बाबा के 
                          दर्शनार्थ पधारी श्रीमती पुपुल जयकर ने श्रीमती इंदिरा 
                          गांधी से तत्काल संपर्क कर यह हादसा रुकवाया। यह बाद 
                          का इतिहास सभी ने पढ़ा होगा। आज भी ज्ञान वापी मस्जिद से 
                          लेकर दशाश्वमेध तिमुहानी तक जाने वाली यह संकरी रौनक 
                          यथावत है। एक ओर जहाँ "बिसनाथ गली" सौंदर्य बोध कराती तो दूसरी ओर 
                          काशी के अस्सी से लेकर राजघाट तक गंगा स्नान के लिए जुटा 
                          भारत वर्ष श्रद्धा बोध को व्यक्त करता है। सभी की एक ही 
                          आस, गंगा में डुबकी और बाबा के दर्शन। निवासी कोंकण का हो 
                          या केरल का, उत्तर भारत का हो या दक्षिण भारत का। पुण्य 
                          सलिला में यह अंतर घुल जाता। एक ही घोष "जय गंगे 
                          भागीरथी" "हर-हर महादेव"। शवदाह एक अनुष्ठान
                          काशी में शवदाह भी संपूर्ण भारत को, जीवन के अंतिम पड़ाव 
                          पर, एक सूत्र में पिरोता है। "पुनरपि मरणं पुनरपि जननं" 
                          से छुटकारा अर्थात मोक्ष। यदि बिसनाथ की गली नहीं भूलती 
                          तो मणिकर्णिका घाट का महाश्मशान भी नहीं भूलता। काशी में 
                          देहत्याग के लिए व्याकुल, भारत के कोने-कोने से आने वाले 
                          लोग। लक्ष्मी अम्मा, तपनदा, गणपतराव, मेहता, लाला भगवान 
                          दीन और गोमांगो सभी। आस्था है कि, काशी में देहत्याग 
                          करने वाले के कानों में साक्षात भूतनाथ तारक मंत्र का 
                          उपदेश देते हैं। संपूर्ण मोक्ष। शिवलोक में विसर्जन! दहन 
                          के लिए कोई समय की पाबंदी नहीं। चौबीसों घंटे शिव 
                          अनुष्ठान होता है। मां गंगा की गोद में शव को नहलाया, 
                          चिता पर सुलाया और स्मशान के डोम से अग्नि ख़रीदकर, 
                          मंत्राग्नि और संभव न हो तो भडाग्नि। भगवान शंकर 
                          शवयात्रा को "लीड" करते हैं। ऐसी यात्रा को देख लोग नारा 
                          लगाते हैं "हर-हर महादेव" साक्षात शंकर तांडव करते शव ले 
                          जा रहे हैं। एक अद्भुत कल्पना। एक रम्य 
                        चिंतन। चिता सज गई (देख तमाशा 
                          लकड़ी का), शव को गंगा में डुबोया, स्नान संपन्न। वहीं 
                          पर डोम से अंगार ख़रीदा, (शव हेतु अंतिम क्रय।) दाग दिया 
                          और ज्वालाएँ आकाश की ओर। पहचानने वाले सीढ़ियों पर 
                          "स्मशान वैराग्य" में लिप्त तीन चौथाई जलने पर शेष शव 
                          "गंगा प्रवाहित"। "शिव हविर्भाग" एक मोहक नाम। गंगाजल 
                          से ज़मीन धो दी और वापस चल दिए। न अस्थि संचय और न अस्थि 
                          विसर्जन। गंगाजल से स्थान धो डालना आवश्यक, दूसरा शव 
                          कतार में हैं। सधन, निर्धन, भाषा, वर्ण, धर्म, प्रांत, 
                          स्त्री-पुस्र्ष कोई अंतर नहीं। सभी केवल शव हैं। किस 
                          चिता का भस्म बाबा विश्वनाथ को लगेगा मालूम नहीं भस्म तो 
                          भस्म हैं। मृत्युबोध की अनावश्यक भयावहता सामान्य रूप ले 
                          लेती है। आसपास के शव भी दहन के लिए लाए जाते। टिकटी पर 
                          कसा, एक्के के एक ओर बंधा लटकता शव और एक्के में बैठे 
                          शववाहक। चौक में शव को उतार कर कंधे पर ले लिया जाता। 
                          कचौड़ी गली होते हुए मणिकर्णिका घाट की ओर! काशी की कचौड़ी गली में दोनों ओर हलवाइयों की दुकानें 
                          होती हैं और बीच-बीच में किनरवाब वाली ज़री की दुकानें। 
                          पान और दूध की दुकानें तो हर गली में होती। बनारसी साड़ी 
                          के धन्ना सेठ व्यापारी इन्हीं दुकानों में पूड़ी, कचौड़ी 
                          और गरम जलेबी का नाश्ता कर, मघई पान की गिलौरी मुँह में 
                          दबाकर निकल जाते कुँजगली की अपनी-अपनी बनारसी साड़ी की 
                          दुकानों पर। मदनपुरा के गरीब मुस्लिम जुलाहे अपनी बुनी 
                          या सेठ द्वारा बुनवाई साड़ियाँ लेकर आते। एक ओर बुर्राक 
                          धोती-कुर्ते में अंगूठियाँ चमकाते सेठ और दूसरी ओर 
                          फटेहाल दरिद्र जुलाहे उस समय सौ रुपयों में ख़रीदी 
                          साड़ी बाद में एक हजार में बिकने सेठ के हाथों चढ़ जाती। 
                          मणिकर्णिका घाट का "स्मशान वैराग्य", "महाजनी सभ्यता" में 
                          बदल जाता। ऐसी है अविनाशी काशी से जुड़ी यादें और तस्वीरें भारतीय 
                          मान्यता के अनुसार जो दोषों को रोक दे उसे "वरुणा" और 
                          जो पापों से मुक्ति दे उसे "असी" कहते हैं। यही क्षेत्र 
                          कहलाता है "वाराणसी"। स्वयं महाश्मशान होने के कारण यहां 
                          की मिट्टी बाहर नहीं जाती। इस मिट्टी से बने कुल्हड़, 
                          कसोरे और पुरवे यहीं की मिट्टी में समा जाते हैं। यहां 
                          की इन छोटी-छोटी संगत-असंगत तस्वीरों से ही भारत की 
                          संपूर्ण तस्वीर बनती है।   |