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                    नगरी हिरण्याकश्यप की
 
 
                    
					—डॉ 
					अशोक शुक्ला 
                     
                    
                        
					 जो शहर 
					हिरण्याकश्यप की नगरी के रूप में जगत प्रसिद्ध है, उसका नाम है 
					’हरदोई’ यानी ‘हरि-द्रोही’। किंवदंती है कि यहाँ का शासक 
					हिरण्याकश्यप ईश्वर की भक्ति से इनता बैर रखता था कि उसके 
					राज्य में भगवान राम का लेना पाप समझा जाता था। इतना ही नहीं 
					वह तो राम का नाम लेने वालों को सरेआम मौत के घाट तक उतार देता 
					था। यह खौफ समाज में इतने गहरे विद्यमान था कि इस क्षेत्र की 
					स्थानीय कन्नौजी मिश्रित बोली में ‘र’ शब्द का उच्चारण तक करने 
					में संकोच करते थे। इस दहशत का असर यह हुआ कि इस क्षेत्र ने 
					स्वयं प्रचलित शब्दों का एक नया कोश ही गढ लिया और यहाँ 
					‘हल्दी-मिर्चा’ जैसे सामान्य शब्दों को भी ‘र’ के प्रभाव से 
					मुक्त करते हुये ‘हद्दी-मिच्चा’ कहना आरंभ किया था जो आज तक 
					अपने उसी स्वरूप में विद्यमान है। ‘र’ के प्रभाव से मुक्त 
					शब्दों के कुछ और भी उदाहरण हैं स्वयं ‘हरदोई’ को स्थानीय भाषा 
					में ‘हद्दोई’ कहा जाता है।
 होली का जो त्यौहार समूचे भारत में उमंग और उत्साह के साथ 
					मनाया जाता है उसका मूलाधार भी इसी क्षेत्र में निहित है। कहा 
					जाता है कि ईश्वर की भक्ति से बैर रखने वाले हिरण्याकश्यप के 
					घर पर ईशभक्ति के लिये जग प्रसिद्ध भक्त प्रहलाद का जन्म हुआ। 
					हिरण्याकश्यप ने अपने पुत्र प्रहलाद के मन से ईशभक्ति को 
					समाप्त करने के लिये अनेक उपाय किये परन्तु जब वह अपने समस्त 
					उपायों में विफल होता गया तो अंततः उसने अपने ईशभक्त पुत्र की 
					जीवन लीला ही समाप्त करने का क्रूर निर्णय ले लिया।
 
 
  अपने 
					इस क्रूर निर्णय को सार्वजनिक करने के बाद उसने इसे लागू करने 
					का उत्तरदायित्व अपनी बहिन होलिका को दिया। यह तय हुआ कि समूची 
					प्रजा को एकत्रित कर लिया जाय ताकि उसके राज्य में ईश्वर भक्ति 
					में लीन रहने वाले व्यक्ति का हश्र समूची प्रजा देख सके और 
					उससे सबक भी ग्रहण कर सके। यह निर्णय हुआ कि प्रहलाद को जलती 
					हुयी चिता में झोंककर मार डाला जाय। लकडियाँ मँगाकर चिता तैयार 
					की गयी और हिरण्याकश्यप की बहिन होलिका को इस महत्वपूर्ण 
					राजकीय निर्णय को लागू करने का दायित्व दिया गया। 
 होलिका ने एक अग्नि-रोधी आवरण ओढ कर स्वयं को सुरक्षित कर लिया 
					और प्रहलाद को गोद में उठाकर चिता में जलाकर नष्ट करने के लिये 
					चिता में प्रवेश किया। भक्त प्रहलाद ने आँखें बंद कर ईश्वर का 
					ध्यान लगा लिया। उपस्थित जन समुदाय के दहश्त के साथ इस समूचे 
					घटनाक्रम को देखरहा था। कुछ ही देर में धू धू करती चिता में 
					अग्नि-रोधी आवरण ओढकर प्रवेश करने वाली होलिका जलकर भस्म हो 
					गयी और आँखें बंद कर ईश्वर के ध्यान में रत भक्त प्रहलाद का 
					बाल भी बाँका नहीं हुआ।
 
 वह दिवस फाल्गुल माह का अंतिम दिवस था। कालान्तर में जब भगवान 
					ने नरसिंह रूप घारण कर हिरण्याकश्यप का वध कर दिया तो फाल्गुन 
					माह के अंतिम दिन अर्ध रात्रि में होलिका के दहन की परंपरा को 
					उत्साह के साथ जोड़ दिया गया और इसे राक्षसी प्रवृति के संहार 
					के रूप मनाये जाने की प्रथा का आरंभ हुआ जो अब होली के त्यौहार 
					के रूप में समूचे भारत में उमंग और उत्साह के साथ मनाया जाता 
					है।
 
 भक्त प्रहलाद को जिस स्थान पर पर जलाकर मार डालने का यत्न किया 
					गया था उस स्थान पर कालान्तर में एक कुआँ खुदवाया गया और इस 
					स्थान को मृत्योपरांत संपन्न किये जाने वाले कर्मकाण्डों के 
					लिये आरक्षित कर दिया गया ।
  समय 
					बीतने के साथ इस कुएँ के चारों ओर तालाब खोदा गया और यह स्थान 
					प्रहलाद घाट के नाम से जाना जाने लगा। स्थानीय प्राधिकारी 
					द्वारा इस तालाब का सौंदर्यीकरण भी कराया गया है। यह स्थल 
					वर्तमान में संलग्न चित्र में प्रदर्शित स्थिति में है। 
 इस स्थल पर अनेक पुराने फलदार वृक्ष भी लगे हैं जो अपनी 
					जरावस्था में पहूँच चुके हैं। इसी स्थान पर एक पुराना पीपल का 
					पेड़ अब भी अपनी अनेक विशेषताओं के साथ खडा है जिसमें प्रमुख 
					विशेषता यह है कि इस पीपल के पेड़ में विभिन्न देवी देवताओ की 
					आकृतियाँ स्वतः प्रसफुटित होती रहती हैं । वर्तमान में ऐसी ही 
					कुछ आकृतियों के चित्र यहाँ संलग्न हैं। अपनी जरावस्था में 
					पहुँच चुके आम के एक वृक्ष में विद्यमान आरपार झाँकती खोह। 
					समीप ही नरसिंह भगवान का मंदिर भी है।
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