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संस्मरण



तुम जीते रहोगे हमारे साथ...
- अंकिता प्रधान


अंग्रेजी में एक शब्द होता है "एलेजि" और उर्दू में "मर्सिया", हिंदी में हम उसे शोकगीत कहते हैं, कई बार कुछ बहुत महान लोगों के लिए शोकगीत लिखे गए और कई बार कुछ आम लोगों ने दूसरे आम लोगों के लिए महान शोक गीत लिखे। मुझे व्यक्तित्व की जिस महानता पर विश्वास है, तुम मेरे संक्षिप्त जीवन में मिले महानतम व्यक्तियों में से एक थे। आठ अरब के संसार का बहुत सूक्ष्म सा हिस्सा था जो तुम्हारे वैभव को जान पाया पर इससे तुम्हारा सौष्ठव ज़रा भी कम नहीं होता।

तुम्हारे जिजीविषा से भरे जीवन के बारे में शोकगीत या श्रद्धांजली लिखा जाना अन्याय है , तुम पर प्रेमकाव्य लिखे जाने चाहिए। तो कहने का सार है कि ये लेख, कुछ भी हो ,श्रद्धांजलि या शोक साहित्य नहीं है । संस्मरण है, स्मृति है या कसीदा है। एक लेखक के हैसियत से नहीं, बस एक अदने से प्रसंशक की हैसियत से।

तुम्हारा नाम विक्रांत रखा गया, पर सच यह है कि तुम बहुत सी चीजों से डरते थे, तुम्हें डर था कि तुम जीवन भर प्रेम तलाशते रह जाओगे, तुम्हें डर था कि किसी दिन तुम अपनो को उनके हिस्से का सुख नही दे पाओगे, तुम्हें हर समय डर लगा रहता कि कहीं तुम किसी के लिए असुविधा का कारण तो नहीं बन रहे, तुम डरते थे कि किसी दिन तुम्हारे मित्रों को तुम्हारी ज़रूरत हो और तुम उपलब्ध न हो पाओ! शायद इसी भय ने तुम्हें हमेशा परफेक्शन के इतने करीब रखा। दुनिया मे आखिर कितने लोग होते हैं जिन्हें नाकाम नहीं नकारा रह जाने का डर होता है?

तुम आम सी दुनिया के एक आम से व्यक्ति थे, दुनिया के किसी महान नेतृत्वकर्ता, विचारक, कलाकार या लेखक के गुणों का हजारवाँ हिस्सा भी तुम्हारे अंदर नहीं था। दुनिया बदल देने का जज़्बा तुम्हारे व्यक्त्वि में कभी दिखा ही नहीं, पर तुम्हारे बारे में शायद लिखा जाना जरूरी है, क्योंकि तुम जैसे आम लोग जो लीडर नहीं होते, लीडर बनाते हैं।

जाने कितने हारे हुए लोगों का हाथ पकड़ कर तुमने कहा होगा कि यार तू कर सकता है! एक बार और कोशिश कर! मुझे भरोसा है तुझ पर! तुम्हारे जैसे लोगों ने अकेले दांडी यात्रा करके देश में क्रांति नहीं लाई पर जिस दिन कभी गाँधी थके हुए अपने पैरों में पड़े फफोलों को देख कर कराह रहे होंगे वहाँ तुम्हारे जैसा एक व्यक्ति मरहम लेकर खड़ा होगा.

तुम्हारे अंदर औरों की पीड़ा समझ लेने की अद्भुत क्षमता थी, इतनी कि तुमने सुहानुभूति और समानुभूति के बीच का अंतर लगभग समाप्त कर दिया था। ये समझना मुश्किल है कि इतनी करुणा तुम कहाँ से ले आये थे, कोरोना काल मे तुमने एक पुराने कुक को कुछ हज़ार रुपये भेज दिए औऱ उसका ज़िक्र तक भूल गए और एक दिन जब वो कुक तुम्हें याद आया तो इस बात पर आया कि "यार बड़ा खुशमिजाज सा कुक था हमारा , मुझे फोन करके कह रहा था कि सर हैदराबाद आइए तो मेरे घर ज़रूर आइयेगा"।

मुझे लगता है कि वो जो दस बीस हज़ार के साथ तुमने अपनी करुणा साझा कर दी थी, वे याद रखेंगे उसे, औऱ डालते रहेंगे रोज़ हींग की जगह तड़के में।
तुम्हारे जानने वालों से अगर पूछा जाए कि तुम्हारे मुख से सबसे अधिक बार निकला शब्द क्या था,मुझे विश्वास है कि सबका एक साझा जवाब होगा ‘‘ हाँ मै समझ सकता हूँ।‘‘ कई दफा तुम ज़रूरत से ज्यादा समझदार थे, वे लोग, जिन्होनें तुम्हारे हृदय को हर कोण से चोटिल करके छोड़ा, उनके बारे में तुमने बहुत कम ही बात की, और जब की, तो अंत में जोड़ा- ‘‘पर मै समझ सकता हूँ‘‘l
मैंने अपने जीवन में तुम्हारे जैसा फेमिनिस्ट नहीं देखा, तुमने कभी सड़क पर उतर कर नारे नहीं लगाए या सोशल मीडिया पर कैंपेन चलाने की कोशिश नहीं की। मगर तुमने जब भी किसी स्त्री के बारे में बातें की, तुम्हारी बातों में गौरव झाँकता रहा। किसी फाश मसखरे पर तुम्हें हँसता नहीं पाया गया। वो स्त्री जिसने तुमसे प्रेम किया और वो जिसने तुमसे छल किया, दोनों के ही प्रति तुम्हारी बातों में उतना ही सम्मान रहा। तुम बहुत समय से विवाह के लिए लड़कियों से मिलते रहे तो एक बार तुमसे पूछ लिया गया कि तुम आख़िर ढूँढ़ क्या रहे हो? और तुमने बहुत साधारण से लहज़े में एक क्रांतिकारी बात कह दी थी, "मैं कोई ऐसी लड़की ढूँढ़ रहा हूँ, जिसके पास मुझसे पूछने को ढ़ेरो सवाल हों।"

एक ऐसे देश में जहाँ लड़कियों को उनके पहले रुदन के साथ ही शांत करा देने की परंपरा रही है, उसी मिट्टी पर खड़े होकर तुम्हारे मुख से ये सुनना कि तुम्हें सवाल पूछती लड़कियों से प्रेम करना है, मेरे लिए एक ऐतिहासिक घटना थी! दुनिया मे मैंने बड़े से बड़े किरदारों को सवालों से मुँह फेरते देखा है, सवाल किसे ही पसंद होते है? शायद उन्हें जिन्हें अपनी चेतना और उसकी शुचिता पर पूरा विश्वास होता है। इसलिए तुम्हें महान होने के लिए किसी अद्वितीय प्रतिभा, नेतृत्व क्षमता या प्रसिद्धि की ज़रा भी दरकार नहीं थी, तुम्हारा आत्मविश्वास तुम्हारा सबसे बड़ा आकर्षण था।

मेरी समझ में कोई मर्द सबसे अधिक आकर्षक तब लगता है जब वो अपनी हथेली पर समर्र्ण और आत्मविश्वास बराबर मात्रा में लेकर खड़ा हो। तुम एक आकर्षक पुरुष इसलिये भी थे क्योंकि तुमनें बड़ी सहजता से अपने अंदर का स्त्रीत्व बचा रखा था, महीनों बाद जब तुम अपनी ढाई साल की भतीजी से मिले और उसकी आँखों मे स्नेह की जगह तुम्हें असमंजस दिखा, तुम उस दिन रोये थे, एक पिता की तरह नहीं,एक माँ की तरह रोए थे । मैंने किसी पुरुष में इतनी ममता पहली बार देखी।

तुम्हारे पास इस विपुल संसार को देने के लिए नेह और संवेदना हमेशा बची रही, भिखारियों के बढ़े हुए हाथ देखकर तुम लगातार जेब टटोलते रहे, औरों के आँसू देख कर तुम अक्सर उदास होते रहे, तुम्हें मैने कई बार कहते सुना कि "फलां को अगर ये मिल जाता तो कितना अच्छा होता।"
"मैं अगर मदद कर पाता तो कितना अच्छा होता"।

तुम्हारे बारे में लिखते लिखते यह बोध हो रहा है कि मैंने तुम्हें ईश्वर बना दिया है, मगर सच तो यही है कि तुम महज़ एक मामूली इंसान ही थे, जो यदाकदा धार्मिक था, ईश्वर पर थोड़ा बहुत विश्वास करता था, मगर जिसे मानवता पर पूर्ण विश्वास था। यही तो होता है ना इंसान होना? हाँ एक बात और थी जो तुम्हें इंसान बनाती है वो ये है कि तुमने प्रेम किया, धोखा खाया, टूटे, रोये, गलतियाँ की, मगर हाँ, गलतियाँ दोहराई नहीं।
फ़ैज़ साहब ने लिखा था
"कुछ इश्क़ किया कुछ काम किया
काम इश्क़ के आड़े आता रहा
और इश्क़ से काम उलझता रहा
फिर आख़िर तंग आ कर हमने
दोनों को अधूरा छोड़ दिया"
तुमने अगर ये कविता लिखी होती तो ये इतनी जटिल नहीं होती, क्योंकि तुमने काम से कभी आशिक़ी नहीं की, तुमने काम किया ताकि तुम आशिकी निभा सको। मगर मज़े की बात ये है कि तुमने काम भी इस मुखलिसी से किया कि तुम्हें तुम्हारे हिस्से की तरक्की मिलती रही! पर जैसा कि फ़ैज़ साहब लिखते हैं कि आखिर में तुमने भी दोनों को अधूरा छोड़ दिया!

जीते जी तुम चीजों को अधूरा छोड़ने के पक्ष में कभी नहीं रहे। वो चीजें जो तुम पूरी नहीं कर सकते थे उन्हें शुरू करने से लगातार बचते रहे तुम! और शुरू हो चुके किस्सों को कहानी बनाने की ज़िद में कई साल लगा दिए तुमने। ७ साल, 4 शहर, 5 ब्रेकडाउन्स लगे तुम्हें ये सीखने में कि पहले खुद से प्रेम करना ज़रूरी है। ये सीखना ज़रूरी है कि आखिर कोई हमारे प्रेम के योग्य है भी या नहीं। मुझे किशोर विक्रांत के विषय मे ज्यादा कुछ मालूम नहीं है,मगर परिस्थितियों ने जिस सुंदर पुरूष का निर्माण किया था , उसका प्रेम दुर्लभ था, अमृता प्रीतम की भाषा मे कहूँ तो तुम उन पुरुषों में से नहीं थे जो दो मुलाकातों के बाद अपना इश्क हथेली में इलाइची की तरह पेश कर दो! तुम्हारा प्रेम पाने के लिए शृंगार की नहीं साधना की आवश्यकता थी।
मगर इसका मतलब ये ज़रा भी नही है कि तुम्हारा प्रेम पर विश्वास कम था, तुम तो उन चंद लोगों में से हो जिसने कभी प्रेम के आगे हथियार नहीं डाले! तुमने जब पकड़ा प्रेम को कस कर पकड़ा, तुम्हें मालूम था कि ये आखिरकार दुखों से भरा पूरा दुरूह जीवन कैसे बस प्रेम के सहारे सहल बन पड़ता है!
मैंने कितनी ही बार तुम्हें फ़ोन पर किसी की तस्वीर देख कर खुशी से उछलते देखा औऱ कहते सुना कि "मैंने एक बार बताया था ना कि फलां और फलां प्रेम में हैं, यार आख़िरकार अब जाकर उनकी शादी हो रही है! देखो ना,कितने खुश लग रहे हैं ये लोग!" यह कहते हुए तुम जब मुस्कुराते थे तो तुम्हारी आँखो का आकार आधा हो जाताऔर उससे निकलने वाला तेज दुगुना!
गीत चतुर्वेदी ने लिखा है कि औरों की प्रेम कहानी हमें तभी अच्छी लगती है जब स्वयं हमारे अंदर प्रेम भरा हो। तुम्हारे अंदर प्रेम का सागर मैंने तब देख लिया था जब तुमने मुझे पार्वती और महादेव की कहानी सुनाई थी।( नहीं,नहीं!वो पार्वती नहीं जो 31 हज़ार वर्षों से कैलाश पर्वत पर शिव के साथ ध्यान में मग्न हैं ,वो पार्वती जो 31 वर्षों से उसके घर काम पर आती है, जिसके आर्य का असल नाम उसके छोटे से कस्बे में किसी को मालूम नहीं है, मगर उसे सब महादेव बुलाते हैं , पार्वती का महादेव उसे अक्सर शाम को साइकिल पर लेने आता है और अंधेरे के कारण वे अक्सर अपना दुपहिया ढुलाते पैदल घर जाते हैं। (और ये बात उसे दुनिया की सबसे रूमानी बात लगती है)

कितनी ही बार लोगों की प्रेम कहानियाँ सुनाते हुए तुम ऐसे भावुक हो गए जैसे वो तुम्हारी अपनी ही कहानी हो! जाने कितनी ही बार तुम लोगों की नाकामयाबी के पीछे के दुर्भाग्य और कामयाबी के पीछे के संघर्ष की पैरवी करते मिले।

ये बात मेरी समझ से बाहर है कि आखिर क्यों तुम जैसे व्यक्ति को इस दुनिया मे इतना कम वक़्त मिला, जबकि तुम जैसों के होने से ही इस दुनिया की खूबसूरती बची हुई है। मेरा धर्म और उसके दर्शन पर कभी विश्वास नहीं रहा मगर अक्सर, पहाड़ो को पालीथिन से लदते देख, नदियों को कचरे से पटते देख, जंगलों को जलते देख, सफेद बादलों में काले धुंए को मिलते देख और तुम्हारे जैसे लोगों को मरते देख, मुझे लगता है कि वाकई दुनिया कयामत के दिन की ओर बढ़ रही है, या कलियुग वाकई में पृथ्वी को घुप्प अंधेरे की ओर धकेल रहा है और एक दिन सच मे ये दुनिया पीड़ा से पूरित और रस से रहित हो जाएगी।

मगर विडंबना ये है इस नैराश्य के तिमिर में भी एक तुम्हारा ही जीवन दर्शन है जो मुझे जिजीविषा देता रहता है। ठोकरों के बाद भी तुम आशावादी बने रहे, ज़िंदगी से उम्मीदों में शदीद रहे, अपना ये संक्षिप्त जीवन तुमने जिस पूर्णता से जिया है, उसके बारे में मौन रहना अन्याय है। ये सच है कि तुम्हारी मृत्यु की पीड़ा को भुला पाना मुश्किल है, मगर तुम्हारे जीवन को और उसकी सार्थकता को भूला पाना नामुमकिन है, क्योंकि हमारे संसार मे तुम मरे एक दिन थे ,पर जिये पूरे ग्यारह हजार आठ सौ पांच दिन! और इसलिए तुम हमेशा रोते हुए नहीं याद किये जाओगे, कभी कभी तुम्हारी बात करते हुए खिल आएगी मुस्कान, कभी किसी निराश क्षण में जब हम बस हार मानने को होंगे तो तुम्हारी हिम्मत याद आ जाएगी और हमारी बुझी हुई आँखे चमक उठेंगी, असमंजस के क्षणों में हम सोचा करेंगे कि तुम होते तो क्या करते, और एक दिन तुम्हारे जाने की पीड़ा और तुम्हारे सानिध्य की स्मृतियों का सुख हमारे साथ साथ चलने लगेंगे। तुम जीते रहोगे हमारे साथ साथ....

 

१ दिसंबर २०२३

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