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संस्मरण



वह दीपावली की रात
- डॉ. भावना कुँअर


छुट्टियों का इंतजार हम सभी बच्चों को बड़ी बेसब्री से रहता था, क्योंकि इन छुट्टियों में दादा-दादी के गाँव जाने का मौका मिलता था। हम साल में एक बार दादा-दादी के पास जाते थे और एक बार नानी के पास जो दिल्ली में रहती थीं। मेरे पास अनगिनत यादों के पिटारे हैं। कुछ यादें आपके साथ साझा करती हूँ। एक बार हम सभी बहन-भाई छुट्टियों में इकट्ठा हुए दादा के गाँव में, जिसमें मेरी बुआ जी के बेटे और बेटियाँ भी थीं। वे लोग हमें ऐसे-ऐसे गेम खिलाते जिनका हमने नाम भी कभी नहीं सुना होता। स्टम चौंगला, गेंद और पिट्टू, गिल्ली-डंडा, छुपम-छिपाई, कीरा-काटी ये और भी कई गेम थे जो हमने दादी के गाँव जाकर ही सीखे।

एक बार का किस्सा साझा करती हूँ। बात दीपावली की थी हम सब बच्चे गाँव गए। वो हमारी गाँव में पहली दीपावली थी।पापा-मम्मी ने बहुत सारे पटाखे और कंदील खरीदकर हमें दिए थे जिनको लेकर हम गाँव गए थे।
तब गाँवों में इतनी रोशनी नहीं हुआ करती थी। जितनी थी उसमें लाइट ज्यादा देर तक आती नहीं थी। हमने पहले तो खूब जी भरकर पटाखे चलाए। फिर दादी माँ और दीदी के हाथ का बनाया हुआ खूब स्वादिष्ट खाना खाया, उस खाने में जो दादी माँ का प्यार था, वह बहुत अलग ही था, जिसका स्वाद आज भी उस दिन को याद करके आ जाता है। अब दादी तो हैं नहीं उनकी याद बहुत आती है। मुझसे दादी माँ को कुछ खास ही लगाव था।

अँधेरा फैल चुका था और पटाखे भी सारे खत्म हो गए थे। अब हम सबका मन फिर से पटाखे चलाने का हुआ। रात काफी हो चुकी थी, गाँव में लोग जल्दी ही सो जाते हैं। दादी माँ हम सबको सोने को कहकर खुद सोने चली गईं, पर हम शैतानों का दिमाग तो खुराफात में लगा हुआ था। हमारे दिमाग में शैतानियाँ खलबली मचा रहीं थीं। हम सब भाई-बहनों ने एक योजना बनाई कि सब छतपर चलते हैं। हम सब भाई-बहन सीढ़ी की मदद से दबे पाँव छत पर पहुँच गए। अपने बचे-खुचे छोटे-छोटे बम लेकर। बड़े बम तो थे नहीं और हमें बड़ा धमाका करना था अब दिमाग में नये नये विचार आने लगे। सबने अपने दिमाग के घोड़े दौड़ाए और हमारे चचेरे भाई के दिमाग में एक धाँसू योजना आ ही गई।

वह दबे पाँव नीचे गया और बहुत सारे घड़े उठा लाया। अब छोटे-छोटे बम उसने उसमें रखे और बड़ा-सा ढक्कन उस घड़े के मुँह पर रख दिया। जैसे ही बम चलाया बहुत जोरों का धमाका हुआ। जब तेज धमाका होता हमें बड़ा मजा आता। हमने एक-एक करके चार घड़े फोड़ डाले। इतने घड़े फोड़ने के बाद हमने ध्यान से सुना तो पता चला कि गाँव के लोग इकट्ठा हो गए हैं और शोर मचा रहे हैं कि- “डकैत आ गए, डकैत आ गए", इतना शोर सुनकर हमारी दादी माँ भी जाग गईं। उन्होंने हमें कमरे में देखा और हमें बिस्तर में ना पाकर घबरा गईं और दबी आवाज में हमें पुकारने लगीं। सब लोग चिल्ला रहे थे -"डकैत आ गए, डकैत आ गए, पकड़ो-पकड़ो।" अब हमारे भी डर के मारे पसीने छूटने लगे। हम सभी बहन-भाई बहुत बुरी तरह डर गए और हम सब आनन-फानन में नीचे की तरफ दौड़ने लगे।

लोगों का शोर हमारी ही तरफ बढ़ रहा था, किसी ने गाँव से कई फायर भी किए, जिससे डर कर डकैत भाग जाएँ। हम चुपचाप कमरे में दुबक गए, हमारी दादी माँ ने जब हमें देखा तो हम सबको दबोच लिया और कमरे का दरवाजा बन्द कर लिया। थोड़ी देर में ही बहुत सारे लोग हमारी छत पर आ गए और बोलने लगे- "डकैतों की आवाजें यहीं से आ रही थीं और उनके पास बारूद भी था, देखो उन्होंने बारूद जलाया है तभी यहाँ इतनी तोड़-फोड़ हुई है, वे लोग वहाँ फूटे हुए घड़ों को देखकर ऐसा कहने लगे। वे लोग कह रहे थे कि जब हमने फायर किया तो वो लोग डरकर भाग गए।

अब ये सुनकर तो हमारी सिट्टी-पिट्टी गुम हो गई। अरे! ये क्या हो गया, गाँव के इतने सारे लोग हमारी इन फालतू की शैतानियों से अकारण इतना परेशान हुए। हम सब डर के मारे दम साधे एक तरफ खड़े रहे और एक दूसरे को आँखों-आँखों में इशारा करने लगे कि कोई कुछ नहीं बोलेगा कि कोई डकैत-वकैत नहीं थे ये तो हम लोगों की शरारत थी।

गाँव के सभी लोग जो इकट्ठा हुए थे वे कह रह थे- “अरे! देखो इनके बच्चे तो शहर से आए हुए हैं, बेचारे कितने डरे हुए हैं, इन बेचारों को क्या पता कि गाँव में डकैत आ जाते हैं। ये तो अच्छा हुआ कि हम सही समय पर आ गए वरना न जाने कैसी अनहोनी हो जाती।” हमारी दादी माँ तो बस गीता का पाठ किए जा रही थी और मन ही मन कुछ कहे जा रही थी। जैसे-तैसे रात कटी।

सुबह होते ही दादी माँ ने हम भाई बहनों को डकैतों के डर से शहर भिजवाने का इंतजाम कर दिया, हम वापस नहीं जाना चाहते थे, बहुत रोए-गिड़गिड़ाए पर दादी माँ पर कोई असर नहीं हुआ क्योंकि वे बहुत डर गईं थीं।

आज इतने बरसों बाद मेरा वो गाँव न तो गाँव जैसा दिखता है, ना ही अब वो घर है, ना दादा हैं, ना ही दादी माँ है, बस यादें ही हैं, जो जहन में शेष बचीं हैं। हाँ जब कभी दीपावली आती है और कोई संस्मरण की बात करता है तो ये संस्मरण ताजा हो जाता है। विदेश आए बाईस साल हो गए एक बार गाँव गई थी और वहाँ का बदला नजारा देखकर दिल बहुत दुःखी हुआ था। जहाँ दादा-दादी संग इतनी यादें जुड़ीं थी वहाँ बस सन्नाटा पसरा मिला। काश! वो वक्त, वो बचपन एकबार फिर से लौट आए और लौट आएँ वो अपने और उन अपनों का प्यार।

१ नवंबर २०२३

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