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संस्मरण

1
नतमस्तक हुआ हिमालय
-शशि पाधा


“सो जाएगी कल लिपट कर तिरंगे के साथ अलमारी में
देश भक्ति है साहब... तारीखों पे जागती है”
२६ जनवरी, गणतन्त्र दिवस के दिन तुषार ने यह उद्गार अपने व्हाट्स ऐप स्टेटस पर लिखे थे। अब सोचती हूँ क्यों लिखे थे, किन परिस्थितियों में लिखे थे? वो तो उन दिनों कश्मीर के जंगलों में खूँखार आतंकवादियों से जूझ रहा था। हो सकता है किसी शाम उसने टी वी पर उन दिनों कुछ अराजनैतिक तत्वों द्वारा देश में फैलाई जा रही अराजकता से आहत हो कर अपने मन के आक्रोश को शब्दों में ढाला हो! कौन जाने? किन्तु इन शब्दों में जो ललकार, जो उद्बोधन के स्वर थे, उनकी गूँज से तो कोई भी अछूता नहीं रह सकता।

अमेरिका में रहते हुए मैं भी उन दिनों दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में होने वाली देश द्रोही घटनाओं से बहुत आहत थी। टीवी पर बार-बार किसी कन्हैया कुमार के भाषण को दोहराया जा रहा था। राजनीति के दाँव-पेच से अनभिज्ञ, अपनी नासमझी में कुछ भावुक छात्र-छात्राएँ भी देशद्रोही नारे लगा रहे थे। वे सब पार्लियामेंट में हुए आतंकवादी हमले के मास्टर माइंड अफज़ल गुरू को फाँसी की सज़ा घोषित होने का विद्रोह कर रहे थे। भारत से मीलों दूर रहते हुए इन सभी गतिविधियों को देखते हुए मन बहुत क्षुब्ध था। देश की राजधानी के प्रमुख विश्वविद्यालय की युवा पीढ़ी को आतंकियों ने अपने कुप्रभाव से सम्मोहित कर लिया था। दुखी होकर मैं टीवी बंद करने ही जा रही थी कि एक तस्वीर देख कर चौकन्नी हो गई।

टीवी पर ‘९ पैरा स्पैशल फोर्सेस’ के कमान अधिकारी की पत्नी श्रीमती शिल्पा यादव अन्य सैनिकों के बीच खड़ी किसी स्त्री को सहारा दे रही थी। हज़ारों लोग खड़े थे। मेरी दृष्टि तिरंगे में लिपटी शव पेटी को कस कर अपनी बाहों में समेटते हुए, विलाप करती माँ पर स्थिर हो गई। आस-पास खड़े लाल टोपी धारी सैनिकों को देख कर समझ गई थी कि हमारी पलटन ने आज एक और वीर योद्धा खो दिया है। तभी एंकर ने कहा, “आज कश्मीर के पाम्पोर शहर में एक बिल्डिंग में छिपे हुए चार आतंकवादियों से लोहा लेते हुए भारतीय सेना के दो कैप्टन और एक हवलदार शहीद हो गए। हृदय गति वहीं रुक गई, पता नहीं अब किसका नाम लेती है...

तभी शव पेटी पर लिखा नाम पढ़ लिया – कैप्टन तुषार महाजन। आँखें नम हो गईं और मन दो वर्ष पहले पलटन के साथ बिताए सुखद पलों की ओर चला गया। हम तुषार से अभी पिछले वर्ष ही तो मिले थे। मेरे पति ने झट से एल्बम से उस रात्रि-भोज की तस्वीरें निकाली। हम दोनों ही अपलक तुषार की तस्वीर देख कर उसे मौन श्रद्धांजलि दे रहे थे।
याद आ रहा था कि एक साल पहले ९ पैरा मैस में रात्रि भोज के बाद जब हम अपने कमरों में वापिस लौट रहे थे तो मुझे कुछ चुप देख कर मेरी देवरानी ने मुझसे प्रश्न किया, “दीदी आप मैस में बहुत प्रसन्नचित थीं, अब अचानक कहाँ खो गई हो?”

जाने क्यों मैंने कह दिया, “इन सब युवाओं को हँसते–खेलते, देखते हुए मुझे बहुत खुशी होती है। कल इनमें से दो अधिकारी कश्मीर में किसी अभियान के लिए जा रहे हैं। बस उन्हीं की सुरक्षा के लिए प्रभु से प्रार्थना कर रही थी।” जानती थी कोई भय, कोई आशंका नहीं थी, फिर भी कुछ था जिसे शब्दों में बताना असंभव था। आज मुझे उस रात की स्मृतियाँ फिर से झझकोर रही थीं। आगामी वर्ष हमारी पलटन अपना ५०वाँ ‘स्थापना दिवस’ मना रही थी। मैंने उसी समय तुषार के माता-पिता से मिलने का निर्णय ले लिया था।

१ जुलाई को होने वाले समारोह में तुषार के माता-पिता भी सम्मिलित थे। तुषार के बहुत से मित्र उनको घेरे बैठे थे ताकि उन्हें उसकी कमी न खले। फिर भी वे दोनों मूक दर्शक से सभी कार्यक्रमों को देख रहे थे। मुझे उन्हें देख कर अहसास हो रहा था कि वो वहाँ होते हुए भी कहीं और थे। शायद अपने बेटे की स्मृतियों में खोए थे।

कार्यक्रम के बाद, अगले दिन मैं और मेरे पति दोनों तुषार के माता-पिता से मिलने उनके घर गए। मुझे उनसे बहुत कुछ पूछना था, तुषार के विषय में बहुत सी बातें करनी थी। मैं भी दो पुत्रों की माँ हूँ। उन्हें बड़ा होते देखते हुए मुझे उनकी बहुत सी महत्वाकांक्षाओं का, सपनों का आभास उनके बचपन के क्रियाकलापों से ही हो गया था। उनकी जिद्द, उनकी शरारतों से मैं भली-भाँति परिचित थी। आज तुषार के माता-पिता से मिल कर मैं तुषार के बचपन से लेकर अब तक के जीवन के बारे में बहुत कुछ जानना चाहती थी।

तुषार के पिता श्री देवराज जी रिटायर्ड प्रिंसिपल हैं और उसकी माँ आशा रानी जी भी किसी शासकीय दफ्तर में अधिकारी हैं। उन दोनों ने हमारा बड़ी आत्मीयता से स्वागत किया। हम उनकी बैठक में तुषार की बड़ी सी तस्वीर के सामने बैठे थे। समझ नहीं आ रहा था कि बात कहाँ से आरम्भ करूँ। फिर भी बात करनी थी, वही तो करने आई थी। मैंने उन दोनों की ओर देखते हुए पूछा, “सुना है तुषार बचपन से ही एक मेधावी छात्र था। आप उसके बचपन के विषय में कुछ साझा करना चाहेंगे? देवराज जी ने बड़े गर्व से कहा, “पढ़ाई में तो बहुत योग्य था ही, उसे कोर्स के अलावा अन्य पुस्तकों को पढ़ने का भी बहुत शौक था। ५वीं कक्षा तक आते-आते उसने भागवत गीता को कई बार पढ़ लिया था और वह उससे उदाहरण भी देता था।

मैंने वहीं रोक कर कहा, “हो सकता है उस पर उन्हीं दिनों अर्जुन और अभिमन्यु के चरित्र का प्रभाव पड़ा हो ?”
मेरी ओर चकित हो कर देखते हुए देवराज जी बोले, “हमें इस बात का कभी अनुमान नहीं हुआ। अब आप कह रही हैं तो लगता है सत्य ही होगा। पास बैठे उसके मित्र श्वेत केतु ने कहा, “आंटी, शहीद भगत सिंह के चरित्र से तुषार बहुत प्रभावित था। स्कूल में फैंसी ड्रेस शो में वो अधिकतर भगत सिंह, गाँधी, नेहरु ही बनता था। भगत सिंह के वीर व्यक्तित्व से वो इतना प्रभावित था कि अपने फेसबुक प्रोफाइल में भी उसने अपनी फोटो के स्थान पर भगत सिंह की तस्वीर ही लगाई हुई थी।”

अभी तक चुप बैठी आशा जी ने कहा, “हाँ, याद आ रहा है। उन दिनों दूर दर्शन पर ‘स्वराज’ सीरियल चल रहा था। कितना भी व्यस्त हो, उसे देखना नहीं भूलता था। उसके सारे खेलों में भी फौजियों का जीवन आ ही जाता था। वो आर्मी स्कूल उधमपुर में पढ़ता था, इसीलिए उसके अधिकतर मित्र भी फौजी बच्चे ही थे। शायद यही उसकी नियति थी।” तुषार के पिता ने उसके विद्यार्थी जीवन के विषय में बताते हुए कहा, “तुषार बहुत बुद्धिमान छात्र था, बहुत मेहनती भी। मैं चाहता था कि वो आई.ए.एस. की तैयारी करे। इसके लिए उसने कोचिंग भी ली थी। लेकिन उसका मन तो कहीं ओर था। हमें बिना बताए ही वो ‘एन.डी.ए.’ की परीक्षा देने के लिए चला गया था।”

आशा जी वही बता रहीं थी जो हर माँ अपने बच्चे के लिए कहती है, “बहुत ज़िद्दी था; एक बार जो ठान लेता था, वही करता था। हमने उससे कहा कि तुम्हारा बड़ा भाई पहले से ही विदेश में है। अगर तुम भी फौज में चले जाओगे तो हम अकेले हो जाएँगे। तो तपाक से उत्तर दिया था उसने, “मैं पैदा ही देश सेवा के लिए हुआ हूँ। देखते, सुनते नहीं आप रोज़ कश्मीर में क्या कुछ घट रहा है? कितने लोग मारे जा रहे हैं? माँ, किसी को तो कुछ करना है न। माँ, मुझे मत रोको क्योंकि, मैंने यही सोच कर रखा है।”

उसके मित्र श्वेतकेतु ने उसके स्वभाव के निर्णायक बिंदु पर प्रकाश डालते हुए कहा, “ आँटी, क्लास कैप्टन, स्कूल हैड ब्याय, हर प्रतिस्पर्द्धा में वो फर्स्ट ही आता था। हर जगह वो बस ऊँचाई को छूना चाहता था। जब हम तीसरे स्टैंडर्ड में थे तो वार्षिक उत्सव पर हमें एक गाना गाना था - ‘ कर चले हम फ़िदा जानो मन साथियों / अब तुम्हारे हवाले वतन साथियों।’ यह जनाब तो एक बार इतने भावुक हो गए कि कहने लगे, “देखना, रियल लाइफ में मैं यही करूँगा, अपने देश के लिए कुछ भी करूँगा।” हम सब उसके जोश को देख कर हँसने लगे। मैंने उससे कहा, “ओए! यह तो ड्रामा हो रहा है। पर बड़ा कठिन था उसको उस जज्बे से बाहर लाना।”

पहली बार आशा जी ने हँसते हुए कहा, ‘छोटू’ बचपन से ही सिपाही बन कर दुश्मन को मारने के खेल खेलता था, जैसे सभी बच्चे खेलते हैं। डांस भी बहुत करता था बचपन में। मेरी आँखों के सामने उसके बचपन के यही चित्र घूमते रहते हैं। मैं कई बार शून्य में भी उसे देखते हुए पूछती हूँ, “कहाँ चले गए, क्यों चले गए तुम? अभी तो बहुत कुछ बाकी था करना तुझे और देखना हमें।” हम सब थोड़े भावुक हो गए थे। बात करते हुए आशा जी ने उसे उसके बचपन के नाम ’छोटू’ से याद किया था। और मैं सोच रही थी अपने देश की सुरक्षा के लिए इतना बहादुरी का काम करने वाला तुषार अपने माँ के लिए तो सदा के लिए ‘छोटू’ ही रहेगा।

‘छोटू’ के बचपन की कहानियों में कुछ और जोड़ते हुए श्वेतकेतु ने कहा, “कभी कभी बहुत मसखरी करता था। अटल बिहारी बाजपेयी जी की हूबहू नकल करता था। उनकी कविता ‘ऊँचाई’ उसे बहुत पसंद थी। उसे पढ़ते हुए हँस पड़ता था और कहता था, “इसीलिए भगवान ने मुझे इतना लम्बा नहीं बनाया।” माँ ने भी हँसते हुए कहा, “हर रोज़ आँगन में लगी बार पर लटकता था और फिर मापता था अपनी लम्बाई। उसे डर था कि कद छोटा रह गया तो फौज में नहीं जा पाएगा शायद।” मुझे स्वयं अटल जी की यह रचना बहुत पसंद है। मैंने आशा जी से कहा, “उसे तो किसी और ऊँचाई को छूना था, जहाँ कोई विरला ही पहुँच सकता है। शायद वो वही सोचता होगा उस समय।”

सैनिक के लिए पर्वत सा हौसला रखने के उपमान दिए गए हैं, सूर्य से तेज की बात कही गई है। आज आशा जी की आँख से वही भाव प्रतिबिंबित हो रही थे, जो कभी उन्होंने अपने लाडले बेटे को पलते-बढ़ते हुए देखे होंगे। ऊँचाई की बात हो रही थी तो पिता श्री देवराज जी ने कहा, “तुषार को एक और शौक, जुनून था। वो हरले डेविडसन मोटर साइकल लेना चाहता था। बहुत जिद्द करता था कि वही लेना है। हमने कहा भी कि कार ख़रीद ले, मोटर साइकल चलाने में बहुत ख़तरा है। लेकिन बात नहीं मान रहा था। एक दिन मन की बात बता ही दी। कहने लगा, “मैं सियाचिन ग्लेशियर की बर्फ से ढकी चोटियों पर मोटर साइकल चलाना चाहता हूँ। मैं ‘मान सरोवर झील’ के दुर्गम रास्तों पर मोटर साइकल से जाना चाहता हूँ। कार में वो बात कहाँ?”
मैंने भी उत्सुकता वश पूछ लिया, “तो ख़रीद ली थी उसने मोटर साइकल?”
बड़े शांत स्वर में पिता ने कहा, “नहीं, समय ने प्रतीक्षा नहीं की। कश्मीर में आतंकवाद चरमसीमा पर था। उसकी पलटन की दो टीम तो सदा ही वहाँ पर तैनात रहती थीं। बस वो भी वहीं चला गया।”

माँ थोड़ी सी भावुक हो गईं थी, जैसे बच्चे की जिद्द पूरी न करने पर हर माँ-बाप को थोड़ा पछतावा होता है। कहने लगीं, “हमने कहा जब अगली बार छुट्टी आएगा तो ले लेना। किन्तु उसका यह अरमान पूरा ही नहीं हुआ। हाँ, उसकी एक फोटो है हमारे पास। किसी मित्र की मोटर साइकल पर बैठा हुआ है। आशा जी किसी एल्बम से वो फोटो निकाल कर लाईं। कहने लगीं, “देखिए न, कितना खुश लग रहा है वो यहाँ।”

तुषार के माता-पिता एवं मित्र से बात करते हुए मुझे उसके दृढ़ संकल्प और महत्वाकांक्षाओं, के विषय में जानते हुए एक युवा सैनिक के भीतर तक झाँकने का अवसर मिला था। हैरान हो रही थी कि लगभग ४५ वर्ष पहले मेरे पति का भी यही सपना था। उन्होंने भी किसी दोस्त की मोटर साइकल खूब चलाई थी क्योंकि तब यह आसानी से नहीं खरीदी जा सकती थी। मुझे यह भी याद आ रहा था कि जब भी हम कभी छावनी की बैचलर अकोमोडेशन के पास से गुजरते थे तो बरामदे में चम-चम करती दो-चार मोटर साइकल अवश्य दिखाई देती थीं। पूरे सप्ताह हरी वर्दी या, कैमोफ्लाज की वर्दी पहनने वाले युवा सैनिक हर रविवार को अच्छी से अच्छी पोशाक पहन कर, मोटर साइकल पर सवार हो कर, हवा से बातें करते हुए सैर सपाटे को निकल जाते थे। मैं भी दो बेटों की माँ हूँ न, मुझे उनका वो रूप बहुत भाता था।

बातों का सिलसिला चल ही रहा था कि आशा जी कुछ फल और मेवे लेकर आ गईं। कहने लगीं, “लीजिए, तुषार को बहुत अच्छा लगेगा। वो मुझे बहुत आग्रह करके हर चीज़ खिलाता था। कहता था, इतना काम करती हो, नौकरी भी, घर का भी। कुछ खाया भी करो। उसका प्यार जताने का यही तरीका था।” उनकी बात सुन कर मैं सोचने लगी - एक माँ अपने २७ वर्षीय बच्चे के जीवन के विषय में कितना कुछ अपने अंदर समेट कर बैठी होगी। आज मुझसे बात करते हुए उन्हें जाने क्या-क्या याद आ रहा होगा। मैं तो अभी सोच ही रही थी कि उन्होंने बड़े चाव से कहा, “उसे गाजर का अचार बहुत पसंद था। जाने से पहले बोल गया था कि भेज देना। मैंने बहुत कहा था कि यहीं से तो जा रहे हो, कुछ पल के लिए घर आ जाओ, मिल भी लेना और अचार भी ले लेना, पर नहीं माना था। कहने लगा, “पलटन का नियम नही तोडूँगा। कनवॉय के साथ जा रहा हूँ, घर नहीं आ सकता।”

मैं भी थोड़ी हैरान हो रही थी क्योंकि उसका घर जम्मू-श्री नगर राज मार्ग से एक-ढेढ़ मील ही अंदर था। आ सकता था।
देवराज जी बोले, “असूलों का बहुत पक्का था, नहीं आना था उसे आख़िरी समय हमसे मिलने। शायद हमारे भाग्य में यही लिखा था।”
कितनी चीज़ें रह गई होंगी, पैकटों में बँधी बँधाई और एक माँ की ममता कितनी आकुल हुई होगी उस दिन। भारी स्वर से कहने लगी, “कुछ दिन बाद एक लड़का श्री नगर जा रहा था। मैंने गाजर का अचार और कुछ अन्य चीज़े उसके और उसके दोस्तों के लिए भेजी थीं। जिस दिन उसका यह पाम्पोर वाला ऑपरेशन हुआ, वो लड़का अभी रास्ते में ही था। नहीं पहुँच सका उसके पास।” बात तो केवल अचार की हो रही थी किन्तु मैं उससे परे उनकी आँखों में तैरते वो अधूरे सपने देख रही थी जो एक माँ के हृदय में हर पल दस्तक दे रहे होंगे।

अपनी पत्नी को भावुक होते देख कर देवराज जी बोले, “जितना बहादुर था उतना ही दयावान, कोमल भी। हमारे घर के आँगन में ‘ऐरोकेरिया‘ का पेड़ थोड़ा बड़ा हो गया था। दीवार टूटने का डर था। हम उसे काटना चाहते थे। लेकिन नहीं काटने देता था। कहता था पहले इसकी जगह पाँच और पेड़ लगवाओ तभी काटना। चलिए आपको उसके हाथ से रोप हुए वो पाँच पेड़ दिखाऊँ।”
बाहर छोटे से लॉन में वो ५ पौधे मुस्करा रहे थे। जैसे उसके वहाँ होने का अहसास करा रहे हों। मैंने उन्हें धीमे से छुआ। वो धीमे से हँसे, शर्माते हुए बिलकुल वैसे जैसे तुषार हँसी को भी छिपा कर हँसता था।
लॉन से अंदर आते हुए आशा जी ने मुझे तुषार का कमरा दिखाया। सामने दीवार पर तुषार की बड़ी सी तस्वीर लगी थी। उसके ठीक नीचे दो लोहे के संदूक, जूते, टोपी आदि बड़े करीने से रखी हुई थीं। पूछा नहीं, किन्तु जानती थी कि उन्हें अभी तक खोला नहीं गया था।

“तो यह तुषार का कमरा होगा”? मेरे पूछने पर कहने लगीं, “जी, फरवरी में शादी तय की थी। दिसम्बर में जब छुट्टी आया था तो यह तैयार किया था। दो साड़ियाँ भी लाया था मेरे लिए रानीखेत से। कहता था पहन के दिखाओ। एक तो मैंने पहनी थी, दूसरी रख दी थी उसकी शादी में पहनने के लिए। जहाँ भी जाता था मेरे लिए उपहार अवश्य लेकर आता था।
माँ हूँ न, कुछ उत्सुकता वश पूछ लिया, “आप उसकी होने वाली पत्नी से मिल चुकी थीं ?”
“नहीं, कभी नहीं, पर बता चुका था कि उसने जम्मू में कोई लड़की पसंद कर ली थी। हमने भी सोचा था कि शादी से पहले मिल लेंगे।”
“ओह! तो वो लड़की?” अभी अधूरा ही प्रश्न किया था मैंने कि आर्द्र स्वर में आशा जी ने बताया, “अंतिम संस्कार के बाद एक लड़की आई थी घर में। चुपचाप मेरे पास आकर बैठ गई थी। मैंने सोचा कोई मित्र होगी। मेरे दोनों हाथ पकड़ कर वो कहने लगी, “मुझे इस घर में आना तो था किन्हीं अन्य परिस्थितिओं में, उसके साथ लेकिन... खूब रो रही थी वो। मुझे अपने से ज़्यादा उस पर दया आ रही थी। मैंने उसे बड़े प्यार से गले लगाया और कहा, “बेटी घर जाओ। कभी कभी मिलती रहना और वो सर झुकाकर चली गई थी।”

आशा जी उस दारुण पल को फिर से दोहरा रही थीं। हम दोनों ही भावविह्वल हो रो रहे थे। वो तुषार के अधूरे सपने को याद करती हुईं और मैं उन दोनों युवाओं के लिए जिन्होंने न जाने कितने सपने बुने होंगे। तब तक तुषार के पिता उससे जुड़ी बहुत सी चीजें ले आए थे। गुजरात में रहने वाली एक लड़की ‘विधि’ ने तुषार के महाबलिदान के बाद उसकी एक पेंटिंग बना कर भेजी थी। साथ ही पाँच हजार रुपये। लिखा था, ‘आप जो भी उनके नाम से करेंगे, उसमें यह छोटी सी भेंट मिला लें। किसी जज की बेटी थी। उसने टीवी पर पाम्पोर के इस अभियान को देखा था। बहुत अच्छी पेंटिंग थी। मैं सोच रही थी कि हजारों मील दूर उस लड़की को कितना दुःख हुआ होगा। न जाने कितने लोग आहत हुए होंगे उस दिन?

स्मृतियों की पिटारी खोलती हुई आशा जी ने कहा, “एक दिन मध्य प्रदेश से एक लड़का मिलने के लिए आया था। वो कभी कैलाश-मानसरोवर की यात्रा में तुषार के साथ मिला था। टीवी पर तुषार की तस्वीर देख कर पहचान गया और हमसे मिलने चला आया। जब जाने लगा तो मैंने उसे तुषार का एक नया कोट भेंट किया। मैंने जब उससे कहा कि यह उसने अपनी शादी के लिए बनवाया था। तुम पहन लोगे तो मुझे अच्छा लगेगा तो उसने उसी समय पहन कर हमें दिखाया था।”
देवराज जी ने एक पत्र दिखाया जो कभी तुषार ने पाँचवीं क्लास की अपनी टीचर को उनकी पोस्टिंग के समय लिखा था। उसके बलिदान के बाद टीचर ने उस पत्र की फोटो-कॉपी बनवा कर भेजी थी। उधमपुर में रहने वाली एक संवेदनशील कवयित्री ने भी एक कविता के रूप में उसे श्रद्धांजलि दी थी।

श्वेतकेतु जो बचपन से ही तुषार का मित्र था, कहने लगा, “आंटी, मैं तुषार से लंबा हूँ न, मुझे उसके कपड़े पूरे नहीं आते, नहीं तो मैं उसके सारे कपड़े पहन लेता। मेरे पास उसका बहुत कुछ है, पर वो नहीं है।”
अचानक जैसे माँ को कुछ याद आया। कहने लगीं, “बड़ा दयावान था। कहता था जब मैं हायर रैंक पर जाऊँगा तो एक ‘पिग्गी बैंक’ खोलूँगा। उसमें हर रोज़ खुद भी और सबसे कह कर एक रुपया जमा करूँगा। यह राशि मैं शहीदों के बच्चों की पढ़ाई के लिए उनके परिवारों को दूँगा। वो शायद नहीं जानता था कि वह स्वयं वीर शहीदों की सूची में अपना नाम लिखवा लेगा।”
बड़े सपने थे तुषार के और उसके साथ ही जुड़े थे उसके माता-पिता, मित्रों के सपने। पर वो तो सपनों की इस दुनिया को पार करके वीरों की नगरी में चला गया था। मुझे गीता का वो श्लोक याद आ रहा था जो श्री कृष्ण ने अर्जुन के लिए कहा था—‘ हतो व प्राप्यसि स्वर्गम्, जित्वा व भोग्यसे महिम...‘

वीर तुषार स्वर्ग में रहते हुए भी जन-जन के ह्रदय में रह रहा है। श्वेतकेतु बता रहे थे, “ आंटी, हम सब उधमपुर वासी चाहते हैं कि यहाँ के रेलवे स्टेशन को तुषार का नाम मिले। हम उसका एक स्मृति स्थल भी बनवाना चाहते हैं लेकिन अभी तक कुछ नहीं हो रहा है। मैं कितनी बार सरकारी कार्यालयों में चक्कर लगा चुका हूँ। आश्वासन तो मिलते हैं पर होता कुछ नहीं। श्वेतकेतु थोड़ा भावुक हो गया था। आँखें गीली और भर्राए हुई आवाज़ में बोला, “मैं उसके लिए कुछ नहीं कर सका। अगर वो होता तो वो मेरे लिए धरती-आसमान एक कर देता। उसमें इतनी मोटीवेशनल पावर थी। वो पहाड़ को भी हिला सकता था। बातें तो बहुत थीं साझा करने को। २७ वर्षों के उसके जीवन की कितनी निधियाँ उसके माता-पिता के पास होंगी। किन्तु विदा तो लेनी ही थी। मैं और मेरे पति उनसे विदा लेकर चले आए। लेकिन, अपने साथ बाँध के लाए बहुत सी ममता, बहुत सा दुलार, तुषार का बचपन, मित्रों का गौरव और एक लड़की का अधूरा सपना।

तुषार की इस जीवन गाथा का एक महत्वपूर्ण पक्ष था जिसके विषय में मैं उन सैनिकों से मिल कर जानना चाहती थी जो उस दिन, उस अभियान में उसके साथ थे। पलटन के एड्जुडेंट मेजर दीपक उपाध्याय, जो तुषार के अभिन्न मित्र भी थे, उन्होंने मेरी यह इच्छा भी पूरी की। अगले दिन ही मेरी भेंट नायक लक्ष्मण सिंह, लांसनायक अजय कुमार और लांस नायक राकेश कुमार से हुई। अभिवादन की औपचरिकता के बाद मैंने उनसे कहा, “आप तीनों उस महा अभियान के दिन तुषार के साथ थे। उस आतंकी मुठभेड़ के विषय में आप मुझे बतायेंगे?

नायक लक्ष्मण ने तुरंत कहा, “मैम, तुषार साहब पाम्पोर में नहीं थे उस समय। वो दूसरी टीम के साथ बाँदीपुरा में थे। २० फरबरी को सूचना मिली थी कि पाम्पोर में ६/७ आतंकवादियों ने सी.आर.पी.एफ. की गाड़ियों पर अंधाधुंध गोलियाँ बरसाई थीं। वहाँ के स्थानीय लोगों ने भी गाड़ियों पर पत्थर से वार किया था। इसी अफरा-दफरी में तीन आतंकवादी तो कहीं भीड़ में गुम हो गए और तीन सामने की सरकारी ई.डी.आई. बिल्डिंग में घुस गए थे। अत: कैप्टन तुषार साहब की टीम को उस बिल्डिंग में घुसे आतंकियों को मार गिराने का आदेश मिला।

मैंने उत्सुकता वश पूछा, “क्या आपके पास बिल्डिंग का कोई मैप था?
लांस नायक अजय ने कहा, “नहीं मैम, बाहर से हम केवल यह देख सकते थे कि बिल्डिंग की चार मंजिले हैं। आतंकी कितने थे और कहाँ छिपे थे इस बात का पता किसी को नहीं था। तुषार साहब रात को वहाँ पहुँचे थे। आते ही उन्होंने बड़ी सूझ-बूझ एवं ट्रेनिंग के आधार पर अंदर घुसने की योजना तैयार कर ली। सुबह १२ बजे एक पार्टी अंदर गई। साहब के साथ लांस नायक ओम प्रकाश और सूबेदार लाल सिंह भी अंदर गए थे। पहली मंजिल पर कोई आहट नहीं थी। जब वे दूसरी मंजिल पर चढ़ रहे थे, किसी छिपे हुए आतंकी ने उन पर गोलियाँ बरसाई। लांस नायक ओम प्रकाश बुरी तरह घायल हो गए थे। तुषार साहब ने उस समय अपनी जान की कोई परवाह नहीं की। ऊपर की मंज़िल से गोलियों की बौछार आ रही थी। किन्तु अपने साथी को बचाने के लिए उन्होंने खुद को जोखिम में डाल दिया और स्वयं उसे बिल्डिंग से बाहर लाने में सफल हुए। साहब घायल ओम प्रकाश को उस बिल्डिंग से बाहर तो ले आए किन्तु नियति को कुछ और ही मनज़ूर था। हॉस्पिटल जाते समय रास्ते में ही ओम प्रकाश शहीद हो गए थे।”

वे तीनों कुछ देर के लिए अपने खोए साथी को मौन श्रद्धांजलि दे रहे थे। मैं जानती हूँ कि किस प्रकार अपने मित्र को घायल अवस्था में और फिर शहीद होते देख कर बाकी टीम के सैनिकों को कितना कष्ट हो रहा होगा। किन्तु सैनिक तो किसी और मिट्टी का बना होता है। भावनाएँ ताक पर रख कर वो लक्ष्य पूर्ति के लिए तैयारी में जुट जाता है।
नायक लक्ष्मण बता रहे थे, “नायक ओम प्रकाश की शहादत के बाद ऑपरेशन कुछ समय के लिए स्थगित कर दिया गया। तुषार साहब के नेतृत्व में एक बार फिर से बिल्डिंग की छानबीन की योजना बनाई गई। शाम को लगभग ४:३० बजे पहले बिल्डिंग पर ग्रनेड फेंके गए ताकि अगर शत्रु उत्तेजित हो कर फायर अवश्य करेगा तो उससे अनुमान होगा कि आतंकी किस फ्लोर पर है। बीच-बीच में जवाबी फायर आ रहा था लेकिन उससे फ्लोर का पता नहीं चल रहा था। तुषार साहब के साथ हवलदार महेश ने अंदर जाने के लिए वालंटियर किया। दोनों दाएँ-बाएँ फायर करते हुए बिल्डिंग के अंदर घुस गए। हमने बाहर से फिर से ग्रनेड फ़ेंक कर आग लगाने का प्रयत्न किया। किन्तु आग नहीं लग रही थी।

“क्यों नहीं लग रही थी?” मेरे इस प्रश्न के उत्तर में राकेश ने कहा, “दोनों ओर कमरे थे और बीच में लम्बा सा बरामदा था, सीढ़ियाँ थी, शायद इसलिए आग नहीं लग रही थी। परिस्थिति को समझते हुए तुषार साहब तथा महेश ओट लेते-लेते आगे बढ़ रहे थे। दो फ्लोर साफ़ हो चुके थे। अनुमान यही था कि शत्रु तीसरी मंजिल पर हो सकता है। तुषार साहब दोनों और फायर करते हुए आगे बढ़े और महेश ग्रनेड फेंकते रहे। इन्हें आता देख शत्रु बिलकुल चुप बैठा रहा। वहाँ से किसी गोली की कोई आवाज़ नहीं थी। महेश बताते हैं कि हमने शत्रु का सर देख लिया था। पता था कि वो सीढ़ियों की दीवार के पीछे छिपा बैठा था। बाहर से आदेश मिला कि कमरों में प्रवेश करो, तीसरी मंजिल को क्लियर करना है। तुषार साहब ने जैसे ही शत्रु पर वार करने के लिए सीढ़ियों पर पैर रखा, आतंकी ने उन पर गोलियाँ बरसानी शुरू कर दी। शत्रु की गोलियाँ उनके पैरों में लगी थी।”

जानती हूँ कि हर सैनिक अपने सामने हुए अभियान को देखते हुए पूरा अनुमान और निष्कर्ष निकाल लेता है कि ऐसा क्यों हुआ होगा। यह उनके प्रशिक्षण का बहुत महत्वपूर्ण भाग होता है। मेरे सामने बैठे नायक लक्ष्मण ने भी उन निर्णायक पलों के विषय में मुझे बताते हुए कहा, “मेमसाहब, आतंकी ऊपर की मंजिल पर था, उसे नीचे हमारी पोज़ीशन साफ़ दिखाई दे रही थी, हमें नहीं। उसने ऊपर से सीढ़ियों की दीवार की आड़ लेकर साहब पर गोलियाँ दागी। अपने दल को शत्रु के फायर के बिलकुल सामने आते देख साहब और महेश भी जवाबी हमला करते रहे। उन्होंने अपने पैरों में लगी गोलियों की बिलकुल कोई परवाह नहीं की। उस समय शत्रु और उनके बीच कुछ सीढ़ियों का ही तो फ़ासला था। वो अनुमान से छिपे हुए शत्रु पर प्रहार करते हुए सीढ़ियों पर आगे बढ़े। ऊपर छिपे आतंकी ने सीधे उन पर निशाना साधा और उन पर गोली चला दी। गोली साहब के हाथ में लगी। साहब को अब आतंकी के छिपने के स्थान का अनुमान हो गया था। उनके पैर पहले से ही जख्मी थे। अब हाथ में भी गोली लग चुकी थी। उन्होंने उस निर्णायक पलों में शत्रु की ओर आक्रामक प्रहार किया। इस गोला बारी में आतंकी तो वहीं ढेर हो गया। इसी बीच तुषार साहब को भी सर में गोली लगी। वो बुरी तरह घायल हो गए। महेश उन्हें बाहर तक ले आया लेकिन हास्पिटल पहुँचने से पहले ही हमारे साहब ने अंतिम साँसे ले लीं।”

बात कब खत्म हुई, मुझे कुछ अनुमान नहीं हुआ। मैं सोच रही थी... पर्वतों की ऊँचाइयों को छूने की प्रबल इच्छा रखने वाले तुषार ने उस दिन उन पर्वतीय चोटियों को अपने शौर्य के समक्ष नतमस्तक कर दिया। उन पलों में शायद हिमालय भी कुछ झुक गया होगा। मुझे चुप देख नायक लक्ष्मण ने कहा, “मेम साहब जी, इस पूरे अभियान में तुषार साहब ने जिस साहस और शौर्य का परिचय दिया, उसकी गाथा युगों युगों तक केवल ९ पैरा के इतिहास में ही नहीं बल्कि पूरी भारतीय सेना के इतिहास में गौरवपूर्ण अक्षरों में दोहराई जाएगी।” हम सब वहाँ पर मौन बैठे उस पल को पुन: जी रहे थे। मेरे सामने तुषार का हँसता हुआ चेहरा, शव पेटी को अपनी बाहों में समेटे तुषार की माँ का विलाप करता हुआ चेहरा, अपने युवा बेटे को अग्निदाह देते हुए संयम की मूर्त देवराज जी का चेहरा दिखाई दे रहा था। मुझे दिखाई दे रहा था उस अनजान, अनदेखी युवा लड़की का चेहरा जिसके सपने उस अग्नि में धू-धू कर जल रहे थे।

उसी वर्ष तुषार के अदम्य आह्स और वीरता के लिए कृतज्ञ राष्ट्र ने उन्हें मरणोपरांत ‘शौर्य चक्र’ से सम्मानित किया। राष्ट्रपति भवन में स्थित ‘अशोक हाल’ में उनके माता तथा पिता ने बड़े गर्व के साथ वीरता के इस पदक को राष्ट्रपति से ग्रहण किया। जब तुषार की शौर्य गाथा अशोका हॉल में दोहराई गई तो पूरा हॉल तालियों की करतल ध्वनि से गूँज उठा। उद्घोषिका अत्यंत भावपूर्ण शब्दों में बोल रही थी... “कैप्टन तुषार महाजन ने न केवल अपने साथी को बचाने के लिए अपनी जान को जोखिम में डाला, बल्कि अंत तक अप्रतिम नेतृत्व, अदम्य साहस एवं आत्मबलिदान की परम्परा को निभाते हुए सभी बाधाओं को लाँघ लिया और अंतिम आतंकवादी को भी मार गिराया।” मैंने इस भव्य दृश्य को सुदूर अमेरिका में बैठे अपने टीवी स्क्रीन पर देखा तो भाव विह्वल हो गई।

हमें अगले वर्ष फिर से भारत जाने का अवसर मिला। हमारी उधमपुर जाने की इच्छा भी पूरी हुई। जम्मू- कश्मीर राज मार्ग पर बनी उधमपुर छावनी के एक महत्वपूर्ण चौक पर तुषार का स्मारक बना है। उस चौक का नाम भी ‘तुषार चौक’ रखा गया है। यहाँ पर हमारी पलटन और तुषार मेमोरियल ट्रस्ट के मिले जुले प्रयत्नों से तुषार का एक स्मृति स्थल बनाया गया है। हम जब वहाँ पर अपने श्रद्धा सुमन चढ़ाने के लिए गए, गर्व और मान की भावना ने हमें घेर लिया था। हम तो तुषार को जानते थे, लेकिन वहीं पर और भी लोग नतमस्तक हो कर उस वीर स्थल पर श्रद्धासुमन अर्पित कर रहे थे।

मैं ठीक सामने स्थापित तुषार की भव्य प्रतिमा को अपनी ममतामयी आँखों से निहार रही थी। मेरे लिए यह बहुत गौरव के पल थे। उसके संकल्प, वीरता और बलिदान की अमरगाथा का चिह्न यह वीर स्थल न केवल जम्मू-कश्मीर अपितु उस राज मार्ग से गुजरने वाले सभी भारतीओं के लिए प्रेरणा का दीप स्तम्भ बन कर खड़ा था। उन भावुक पलों में एक माँ, एक सैनिक पत्नी और एक प्रबुद्ध भारतीय नागरिक होते हुए मैं केवल यही सोच रही थी... ‘फौज को बिल्डिंग गिराने का आदेश क्यों नहीं मिला था? क्या एक पत्थर की इमारत इतने बहादुर सैनिकों की जान से अधिक मूल्यवान थी? क्या शासकीय अधिकारियों को पता था कि इस भवन में कितने, कमरे, कितनी गैलरियाँ, कितनी घुमावदार सीढ़ियाँ थी? चार मंजिलों वाले इस भवन के कौन से कमरे में शत्रु घात लगाए बैठा था?”
यही प्रश्न तुषार के माता-पिता, मित्र भी पूछते होंगे। किन्तु अभी तक इसका उत्तर किसी से नहीं मिला था।
अन्त में शौर्य की मूर्ति तुषार महाजन के साथ मेरा सीधा संवाद-
तुषार,
तुम हिमालय की चोटियों को छूना चाहते थे
तुम मानसरोवर झील की गहराई मापना चाहते थे
तुम हर शहीद के बच्चे के आँसूं पोंछना चाहते थे
तुम देश को आतंक मुक्त करना चाहते थे -
आज तुम्हारे शौर्य और बलिदान के आगे हिमालय स्वयं नतमस्तक खड़ा है
आज तुमारे कर्तव्य की गहराई को जानते हुए सागर तुम्हारे पैर छू रहा है
आज देश का बच्चा–बच्चा तुम्हें नमन कर रहा है
बचपन से सरदार भगत सिंह को आदर्श मानने वाले तुम, आज भारत के हर बच्चे के आदर्श हो
आज के इस समरोह के अवसर पर सात समन्दर पर बैठे सभी भारतीयों की ओर से
तुम्हें कोटि कोटि नमन
कोटि-कोटि नमन!

१ जनवरी २०१८

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