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पर्व परिचय


गाँव में रामलीला
- सुशील उपाध्याय


गाँव से माँ का फोन आया है कि रामलीला देखने आ जाऊँ। दो दशक हो गए गाँव की रामलीला देखे। लगता है मानो एक युग बीत गया। कितना कुछ बदला है वक्त के साथ। हर बरस रामलीला आती है कि तो अचानक बहुत कुछ याद आने लगता है। यादों का अंतहीन सिलसिला। गाँव की रामलीला महज एक धार्मिक गतिविधि नहीं थी, ये गाँव का सांस्कृतिक संसार था, जिसके साथ एक देहाती रचनाधार्मिता का गहरा गठजोड़ था। इस रचनाधर्मिता का जिक्र मास्टर मित्तरसेन, उनके छोटे भाई ओमप्रकाश, जिन्हें गाँव के लोग अपने बोलने की सुविधा के लिए पासा अमीन करते थे।

बूँदी पाधा और परताप सिंह के नाम लिए बिना पूरा नहीं हो सकता। नामों की यह सूची बहुत लंबी है। रक्षाबंधन के दिन रामलीला का झंडा फहराए जाने के बाद से दिन गिनने का सिलसिला शुरू होता और यह उसी दिन खत्म होता है जब रामलीला का पहला परदा उठता।

गाँव की रामलीला टीम रिहर्सल में जुट जाती, परताप सिंह के घर पर देर रात तक संवाद रटे जाते। कई पात्र ऐसे भी होते जो संवाद नहीं रट पाते, उनके लिए प्राउंट (प्रॉम्ट) का इंतजाम किया जाता और प्राउंट की जिम्मेदारी मास्टर भगवती शर्मा को दी जाती। कुछ पात्र हमेशा निर्धारित होते। परताप सिंह हमेशा रावण ही बनते। मेरे चाचा नकलीराम महीना भर अंगद बने नजर आते। वे रामचरितमानस की चौपाई का सस्वर पाठ करते तो लगता कि जैसे पूरा मंच उन्होंने ही लूट लिया। अंगद-रावण का संवाद जैसे परताप और नकलीराम के बीच की प्रतिस्पर्धा बन जाता। एक के बाद एक जोरदार संवाद और जब रावण सिंहासन से उतरकर अंगद का पैर उठाने आता तो अंगद पीछे हटकर कहता है कि अगर पैर ही पकड़ने हैं तो राम के पकड़ो। तालियाँ बजने लगतीं, परदा गिर जाता।

जब तक मित्तरसेन मास्टर जिंदा रहे, वे ही दशरथ बने। राम वन को जा रहे हैं और दशरथ बने मास्टर मित्तरसेन मंच पर रुदन कर रहे हैं। राम, मत जाओ राम। उनका विलाप लाउडस्पीकर से पूरे गाँव में गूँजता। अक्तूबर की गुलाबी ठंड की रात में दशरथ का विलाप-राम, मत जाओ राम। महिलाएँ सुबकने लगतीं, अचानक सन्नाटा पसर जाता। दशरथ प्राण त्याग देते और उस पूरी रात लगता मानो इसी गाँव से राम को लंका जाना पड़ा है। गाँव के बच्चे दिनभर रामलीला की चर्चा करते। लंका के बारे में बात होती, जहाँ का राजा रावण था। जो इतना बलशाली था कि उसने देवताओं को हरा दिया था, उसके बेटे मेघनाद ने तो ब्रह्मा-विष्णु-महेश को बंदी बना लिया था। बच्चों को अचानक देवताओं की ताकत पर संदेह होने लगता वे रावण की ताकत में भरोसा करने लगते। उन्हें मेघनाद की गर्जना आकर्षित करती। लेकिन, जब मै अपने दलित सहपाठी मेघनाद के बारे में सोचता तो अजीब सी दुविधा का शिकार हो जाता। कौन-सा मेघनाद सच है?

सीता के हरण पर महिलाएँ एक बार फिर सुबकतीं और रावण को गालियाँ देतीं, लेकिन राम के प्रति उनका भरोसा दृढ़ था। उससे भी ज्यादा भरोसा हनुमान पर था और बच्चों को उस दिन का इंतजार था जिस दिन हनुमान लंका को उजाड़ेंगे और रामलीला स्थल, जिसे गँवई बोली में छपाड़ कहते थे, पर केलों की बारिश करेंगे। लेकिन, हनुमान पर भरोसा कई बार डगमगा जाता, क्योंकि वो हमेशा उसी तरफ केले फेंकता जिस तरफ उसके घर के लोग बैठे होते थे। एक-दो केले का लालच लोगों को प्रेरित करता था कि वे लंका-दहन के वक्त उस पात्र से यारी गाँठ कर रखें जो हनुमान का किरदार निभा रहा है। गाँव की रामलीला में हनुमान का जलवा लंका दहन के वक्त ही खत्म हो जाता तब सारा आकर्षण परताप और जगपाल दर्जी में बचता। जगपाल के पास हमेशा ही राम बनने का जिम्मा रहता और उनके बड़े भाई भगवत रामलीला के निर्देशक होते। वे परदे के पीछे से अपनी भूमिका निभाते। भगवत हम सभी के लिए ताऊ थे। उनके साथ मास्टर जनेसर की भूमिका भी महत्वपूर्ण होती। मास्टर जनेसर गाँव का बौद्धिक चेहरा थे। रामलीला शुरु होने से पहले उनका एक संक्षिप्त भाषण होता और रामलीला के उद्घाटन के वक्त बुलाए जाने वाले मुख्य अतिथि का जिम्मा भी उन्हीं के पास होता। वे रामलीला के संचालक थे, सूत्रधार थे।

इस साल बूँदी पाधा और पासा अमीन अपनी संसार-यात्रा पूरी कर गए। बूँदी पाधा और नकली सिंह जैसे कुछ नाम परदे के पीछे के काम सँभालते थे। गाँव की रामलीला नीरस न हो जाए इसलिए कुछ गवैये भी बुलाए जाते थे, एक नकलिया भी होता था। गवैये और नकलिये के चयन का काम नकली सिंह के जिम्मे होता था। वे गवैये की हैसियत उसके द्वारा माँगे जाने वाले पैसे से करते। उनकी मदद करते रोढ़ामल। रोढा़मल गाँव के मशहूर किस्सागो थे। उनके बिना रामलीला के मंचन की कल्पना भी मुश्किल थी। वे उस हरेक किरदार को निभा सकते थे, जिसे ऐन वक्त पर कोई पात्र निभाने से मना कर देता था।

रावण की विद्वता, रामलीला में रस-भंग

रामलीला के दौरान राम का विवाह एक बड़ा उत्सव था। पूरे गाँव में बारात निकलती। बारात में गाँव भर के ट्रैक्टर-ट्रॉलियाँ शामिल होते। गाँव के लोगों के पास ट्रैक्टर ही सबसे बड़ा वाहन था, जिसे वे भगवान की बारात में शामिल कर सकते थे। एक कोने से शुरू होकर दूसरे कोने तक बारात जाती और रास्ते में औरतों के समूह भगवान राम, उनके परिजनों, ऋषियों को भोग लगाते। इस भोग में आमतौर से केले और चून के चक्के (आटे से बनी देहाती मिठाई, कभी-कभी इसमें मावा भी होता है।) होते। मेरे जैसे तमाम बच्चे इस फिराक में रहते कि किसी तरह जटा और दाढ़ी का एक सेट और भगवा कुर्ता मिल जाए तो ऋषि बनकर राम की बारात में शामिल हो लिया जाए। इसके दो लाभ थे। पहला, पैदल चलने की बजाय ट्रैक्टर पर बैठने का मौका मिलता और दूसरा केले-चक्के की दावत की संभावना पैदा होती। मेरे चाचा अंगद थे और ताऊ बद्री पाधा रामलीला की मंडली के कर्ताधर्ता, इसलिए आखिर में एक अदद कुर्ता और जटाएँ मिल ही जातीं। इन्हीं के भरोसे कई बार केले-चक्के की दावत का मौका मिला। उस वक्त लगता जैसे अपनी हैसियत आम बच्चों से अधिक बड़ी है।

गाँव की रामलीला मूलतः पुरुषों का आयोजन थी। इसके नारी पात्र भी पुरुषों द्वारा ही अभिनीत किए जाते। हालाँकि, रामलीला के दर्शक वर्ग में महिलाओं की संख्या काफी होती थी। दस दिन तक हरेक घर के केंद्र में रामलीला ही होती। खेती-किसानी के ज्यादातर काम स्थगित कर दिए जाते और रिश्तेदारों-दोस्तों को न्यौता भेजा जाता कि हमारे गाँव में आकर रामलीला देख जाओ। दशहरे की पहली रात ही राम के हाथों रावण का वध कर दिया जाता, लेकिन कभी मैंने अपने गाँव में रावण को दशहरे के दिन मारे जाते हुए नहीं देखा न उसके पुतले में आग लगाई जाती। वजह पता नहीं क्या रही होगी। लेकिन, मास्टर भगवती शर्मा के पिताजी कहते थे कि रावण ब्राह्मण विद्वान था। उसका भी सम्मान बचा रहना चाहिए। कहीं न कहीं रावण की विद्वता के साथ ब्राह्मणों का जुड़ाव था और रामलीला के कर्ताधर्ताओं में बहुसंख्या ब्राह्मणों की थी, शायद इसीलिए रावण दहन से बचा जाता होगा। गाँव की रामलीला के अंतिम-दृश्य में राम द्वारा लक्ष्मण को निर्देशित किया जाता कि वो रावण के पास जाकर उपदेश हासिल करे। लक्ष्मण रावण के सिर की तरफ खड़ा होकर बात करता है तो रावण कोई जवाब नहीं देता। राम ने लक्ष्मण के इस व्यवहार को विद्वान का अपमान बताया और उनके पैरों की तरफ खड़े होकर उपदेश प्राप्त करने को कहा। इस पर रावण उन्हें बताता है कि वह स्वर्ग तक सोने की सीढ़ियाँ बनाने और आग को धुआँरहित करने के काम को पूरा नहीं कर सका। लक्ष्मण के लिए उपदेश था कि किसी काम को कल के भरोसे मत छोड़ो। रामलीला खत्म होती, लेकिन रावण को बुरे व्यक्ति के तौर पर प्रचारित नहीं किया जाता। यह अनूठा संदेश था उस देहाती रामलीला का।

शहरी समझदारी हासिल होने के बाद इस बात पर हैरत होती है कि कैसे उस गाँव के नाममात्र पढ़े-लिखे लोगों ने रामचरित मानस को संवाद-शैली में लिख लिया था। न केवल चौपाइयों से संवाद बनाए, वरन उनमें गाँव-देहात के सामाजिक मुद्दों को भी शामिल किया। ठेठ कौरवी बोलने वाले गाँव में रामलीला मानक हिंदी में होती थी। गजब का भाषा संस्कार था। आज भी हस्तलिखित प्रतियाँ गाँव में कुछ लोगों के पास हैं। ये सरकंडे की कलम से लिखी गई प्रतियाँ हैं। देहाती लोगों की मान्यता थी कि देवताओं की आशीर्वाद से ही रामलीला का मंचन हो पाता और जब बदनीयती आती है तो फिर रस-भंग होता है।

ऐसे रस-भंग के भी कुछ मौके आए। गाँव के एक दबंग ने एक साल रामलीला का संदूक अपने घर पर रखवा लिया। इस संदूक में रामलीला के ड्रेस से लेकर तीर-तलवार सब कुछ थे। अगले साल रामलीला के वक्त उस व्यक्ति ने इस संदूक को देने से मना कर दिया। गाँव में दो गुट बन और दो रामलीलाएँ भी हुईं। हालत ये हुई कि एक गुट के पास तलवारें थीं तो दूसरे के पास केवल धनुष-बाण। एक के पास राणव का अंगरखा रह गया तो दूसरे के पास केवल दशरथ का। कई पात्रों के मुकुट भी गायब हो गए थे। सामान की बंदरबाँट हो गई और फिर कई साल तक रामलीला पर विराम लगा रहा।

चंपकलाल की प्रेमिका, बाबू दलित का हौसला

गाँव की रामलीला मूलतः सवर्णों की रामलीला थी। किसी दलित को शायद ही कभी रामलीला में पात्र बनने का मौका मिला हो। (रूपचंद को अपवाद मान सकते हैं, जिसके लिए ताड़का बनना निर्धारित था।) पात्र बनने की बात तो दूर, दलित लोग रामलीला देखने भी कम ही आते थे, क्योंकि उनकी बस्ती गाँव के एक कोने पर थी और गाँव के ठीक बीच में होने वाली रामलीला में पहुँचना उनके लिए दुष्कर काम था। बाहरी तौर पर उनके लिए कोई मनाही नहीं थी, लेकिन एक अदृश्य रेखा खींची हुई थी जिसे दलित भली भाँति देख पाते थे। दलितों के मन में कहीं न कहीं एक कसक थी, वे भी अपनी रामलीला चाहते थे।
 
बाबू एक दलित था, जो गाँव की रामलीला के कुछ पात्रों के साथ उठता-बैठता था। बाबू की हिम्मत और हौसले की दाद देनी चाहिए कि उसने दलितों के लिए अलग रामलीला के मंचन का बीड़ा उठाया। जोड़-जुगाड़ से रामलीला का सरंजाम जुटाया गया। दलितों की चौपाल पर चादरें तानकर परदे बनाए गए और मंचन शुरु हो गया। बुनियादी तौर पर यह रामलीला नहीं थी, इसे भक्त रैदास की लीला कहना ज्यादा ठीक होगा। इसके आयोजन का वक्त भी मुख्य रामलीला से अलग था। दलितों के नायकों पर कुछ नाटक, रामलीला के इक्का-दुक्का हिस्से का मंचन करके एक अलग परंपरा खड़ी करना बहुत बड़े साहस का काम था। इसके सभी पात्र दलितों की चमार जाति के थे। रोचक बात यह थी कि वाल्मीकि समुदाय के लोग दलित खुद को सवर्णों के साथ खड़ा पाते थे। कुछ साल दलितों का मंच सजता रहा, बाद में इस पर विराम लग गया।

यह उस वक्त की दलित चेतना है जब कांशीराम और मायावती का उदय नहीं हुआ था और दलितों के लिए बाबू जगजीवन राम ही सबसे बड़े नेता, नायक थे। मैं, अपने भाइयों के साथ एक-दो बार दलितों की रैदास-लीला देखने गया, लेकिन बालमन में रामलीला का जो वैभव समाया हुआ था, वह इसमें नहीं था। पर, आज समझ में आता है कि ३० साल पहले किया गया वो कितना बड़ा काम था और उसके लिए कितने साहस की जरूरत थी।

दोनों लीलाओं में एक समान बात जरूर थी। वह थी, मंचन के साथ सामाजिक मुद्दों को गूँथ देना। श्रवण कुमार की मातृ-पितृ भक्ति नाटक का मंचन रामलीला का अनिवार्य हिस्सा था। नाटक में श्रवण कुमार के समानांतर चंपकलाल का किरदार सृजित किया गया था। श्रवण अपने माँ-पिता को कंधे पर बैठाकर तीर्थाटन करा रहा है और चंपकलाल ने प्रेमिका के कहने पर माँ-बाप को घर से निकाल दिया। नाटक का अंत इस संदेश के साथ होता कि जो अपने माँ-बाप का सम्मान नहीं करेगा, वह कोढ़ी होकर मरेगा। चंपकलाल और उसकी प्रेमिका भी कोढ़ी होकर ही मरते हैं। गाँव का कोई लड़का आँका-बाँका चलता तो उसे चंपकलाल का हश्र जरूर याद दिलाया जाता। ऐसे तीन-चार नाटक दिखाए जाते, जो रामकथा पर लिखी गई किसी भी रचना में शामिल नहीं हैं, लेकिन वे गाँव की रामलीला का अनिवार्य हिस्सा थे और आज भी हैं। दोनों लीलाओं में ऐसी प्रस्तुति होती थी।

रामलीला का मंच बहुत बड़ा नहीं होता, लेकिन रावण की सवारी काफी दूर से आती थी। उसके आने से पहले दरबार का अहलकार सबको होशियार-खबरदार करता और फिर लंकाधिपति, रक्षकुल-शिरोमणि, त्रिदेवजयी रावण की जय-जयकार करता। रावण के साथ मेघनाद भी पहुँचता। मंच पर कोने में विभीषण बैठा दिखाई देता। विभीषण के प्रति गाँव के लोगों के मन में कोई आदर नहीं था। लोग यही कहते, भाई आखिर भाई होता है। विभीषण को रावण के साथ रहकर ही लड़ना चाहिए था। कोई अपने भाई से कैसे दगा कर सकता है? उन देहाती लोगों का यही दर्शन था। इसी दर्शन ने यह सिखाया कि राम के गुणों के साथ रावण की खूबियों को भी देखो। उम्र बढ़ने के साथ समझ और चेतना का विकास हुआ तो कई बार ऐसा लगा कि राम-रावण की लड़ाई दो संस्कृतियों की लड़ाई थी।

यह सही-गलत से ज्यादा दो अलग मूल्यों-मान्यताओं का संघर्ष था। ये प्रश्न आज भी परेशान करता है कि अगर रावण द्वारा सीता का अपहरण गलत था तो फिर लक्ष्मण द्वारा सूर्पनखा के नाक-कान काटना कैसे जायज था। सूर्पनखा जिस रक्ष-संस्कृति से आई थी, वहाँ स्त्रियों को ज्यादा आजादी रही होगी। इसलिए वह बिना लाग-लपेट राम और लक्ष्मण के साथ प्रणय का प्रस्ताव रख देती है। रक्ष-संस्कृति के विकास का प्रमाण रावण के विमान से लेकर लंका के स्वर्णमयी होने तक में मिलता है। इस कन्फलिक्ट ऑफ कल्चर्स में राम विजयी हुए। अगर रावण को जीत मिलती तो शायद रावण द्वारा लक्ष्मण को उपदेश दिए जाने के साथ ही गाँव की रामलीला संपन्न हो जाती। रामलीला का सारा सामान संदूक में पैक करके रख दिया गया है, अगले साल तक के लिए। गाँव के बच्चे अब भी कई दिनों तक धनुष और तीर लेकर खेलते रहेंगे और बडे़-बूढ़े उन्हें डाँटते-फटकारते रहेंगे। मानो धनुष-बाण से खेलने का वक्त भी रामलीला के साथ ही खत्म हो गया है।

कल मेरे सहकर्मी शिक्षक डॉ. राकेश कुमार सिंह ने मुझसे पूछा कि रामायण का कौन-सा पात्र मुझे सर्वाधिक आकर्षित करता है। इस सवाल का उत्तर तो आसान है, लेकिन उसे सार्वजनिक करना खतरे से खाली नहीं है। राम ही नायक हैं, लेकिन राम का नायकत्व क्या रावण की उपस्थिति के बिना स्थापित हो सकता है? रावण के बुरे पहलुओं को प्रचारित किया गया है, इसलिए उसमें खलनायक के अलावा कुछ दिखता ही नहीं। मैं, रावण के प्रति क्यों आकर्षित महसूस करता हूँ, इसका जवाब मेरे गुरु डॉ. भोपाल सिंह पौलत्स्य के व्यक्तित्व में छिपा है। गाँव के स्कूल से निकलकर जब समीपस्थ कसबे के इंटर कॉलेज में दाखिला लिया तो पता चला कि हिंदी के शिक्षक, जिन्हें पूरा कॉलेज संत के रूप में देखता था, रावण के परम भक्त हैं। १२वीं तक आते-आते यह जिज्ञासा चरम पर पहुँच गई कि कोई व्यक्ति रावण का भक्त कैसे हो सकता है। बाद में पता चला कि डॉ. पौलत्स्य रावण के भक्त नहीं हैं, वरन उनके अध्येता हैं। रावण पर उनका चर्चित उपन्यास महात्मा रावण देखने, पढ़ने के बाद यह बात समझ में आई कि रावण न तो दुष्चरित्र है और न ही खलनायक। यह समझ आचार्य चतुरसेन शास्त्री के उपन्यास वयं रक्षामः से और बढ़ी। एक पूरी संस्कृति का वैविध्य वयं रक्षामः में सामने आता है। ये राम की नहीं, रावण की संस्कृति थी। इसे पढ़ते-समझते वक्त एक बार भी ऐसा नहीं लगता कि किसी खलनायक के बारे में पढ़ रहे हैं।

रावण के जिक्र के साथ प्रो. जॉन कॉडवेल की याद आती है। वे अमेरिका की नॉर्थ कैरोलाइना यूनिवर्सिटी में हिंदी-हिंदुस्तानी के प्रोफेसर हैं। अपने छात्र-छात्राओं के लिए हर साल नॉर्थ कैरोलाइना, समर हिल कैंपस में रामलीला का आयोजन कराते हैं। खुद हनुमान बनते हैं और उनके साथी प्रोफेसर डॉ. ताज के पास रावण बनने का जिम्मा है। प्रो. कॉडवेल कहते हैं कि मंचन के प्रारंभिक बरसों में लोगों को यह समझने में वक्त लगा कि इस कथा के नायक राम हैं न कि रावण। वहाँ के दर्शक रावण के वैभव, पराक्रम, दृष्टि, निष्ठा और क्षमता से प्रभावित हैं, राम की चारित्रिक विशिष्टताएँ धीरे-धीरे समझ में आती हैं। जबकि, रावण एक झटके में सबको प्रभाव में ले लेता है।

एक बार फिर गाँव की रामलीला पर लौटता हूँ। १९८६-८७ की रामलीला में एक छोटा साल अभिनय मैंने भी किया था। रामलीला खत्म होने पर पुरस्कार के तौर पर एक छोटी कटोरी (बॉउल) मिली थी। कटोरी के बाहर लिखा है-रामलीला में अभिनय के पुरस्कार स्वरूप। अब भी कटोरी रखी हुई है। पूरी तरह सुरक्षित। मैं अपने बच्चों को दिखाता हूँ तो वे हँसते हैं कि इतनी छोटी कटोरी इनाम में मिली थी। वे उसकी कीमत रुपयों में आँकने की कोशिश करते हैं, जबकि मेरे लिए यह स्मृतियों का दस्तावेज है, प्रमाण है और हमेशा रहेगा। तब भी रहेगा, जब रामलीलाएँ अपना रूप पूरी तरह बदल चुकी होंगी और तब भी जब उन किस्सों को सुनने वाली पीढ़ी अपने दुनियावी कामों में व्यस्त होगी।

१५ अक्तूबर २०१६

 
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