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संस्मरण

८ अगस्त सौवीं जयन्ती के अवसर पर

आज के अतीत
- भीष्म साहनी


ज़िन्दगी में तरह-तरह के नाटक होते रहते हैं, मेरा बड़ा भाई जो बचपन में बड़ा आज्ञाकारी और ‘भलामानस’ हुआ करता था, बाद में जुझारू स्वभाव का होने लगा था। मैं, जो बचपन में लापरवाह, बहुत कुछ आवारा, मस्तमौला हुआ करता था, भीरु स्वभाव बनने लगा था।

अब सोचता हूँ, इसमें मेरे ‘शुभचिन्तकों’ का भी अच्छा-खासा योगदान रहा था, जो बात-बात पर मेरी तुलना बलराज से करते रहते। जिसके मुँह से सुनों, बलराज के ही गुण गाता, "मन्त्री जी के बड़े बेटे और छोटे बेटे में उतना ही अन्तर है जितना नार्थपोल और साउथपोल में है, वह गोरा-चिट्टा है, हँसमुख है, फुर्तीला है, जबकि छोटा मरियल है, उसे तरह-तरह के खेल सूझते हैं, वह लिखता है तो मोती पिरोता है, जबकि छोटा मनमानी करता है, आवारा घूमता है, पढ़ने-लिखने में उसका मन ही नहीं लगता" पर धीरे-धीरे, न जाने कब से और क्योंकर, एक प्रकार की हीन भावना मेरे अन्दर जड़ जमाने लगी। वह गोरे रंग का है, मैं साँवला हूँ, वह हष्ट-पुष्ट है, मैं दुबला हूँ, वह शरीफ है, मैं गालियाँ बकता हूँ, टप्पे गाता हूँ...

अब तक तो हमारा रिश्ता बराबरी का रहा था, यह सब सुनते-जानते हुए भी मैं उससे दबता नहीं था, कोई कुछ भी कहता रहे, मैं अपनी राह जाता था।
पर अब लोगों की टिप्पणियाँ सुन-सुनकर मेरा मन बुझने लगा था।

धीरे-धीरे हमारे बीच पाये जाने वाले अन्तर का बोध मुझे स्वयं होने लगा था और मैं अपने को छोटा महसूस करने लगा था, यहाँ तक कि मैं मानने लगा था कि मैं जिस मिट्टी का बना हूँ उसी में कोई दोष रहा होगा। मैं उससे ईर्ष्या तो करता ही था, पर यह ईर्ष्या मुझे विचलित नहीं करती थी, मैं अपनी धुन में, जो मन में आता करता रहता था। पर अब मैं उससे खम खाने लगा था। अब, एक ओर ईर्ष्या, दूसरे अपने ‘छुटपन’ का बोध, और इस पर उसके प्रति श्रद्धाभाव, यह अजीब-सी मानसिकता मेरे अन्दर पनप रही थी, पहले उसकी पहलकदमी पर चकित हुआ करता था, उसे नये-नये खेल सूझते हैं, मैं उत्साह से उनमें शामिल हो जाता, पर हमारे बीच बराबरी का भाव बना रहता। पर अब तो वह मेरा ‘हीरो’ बनता जा रहा था।

यदि उसके प्रति मेरे अन्दर विद्रोह के भाव उठते तो बेहतर था। तब मैं अपनी जगह पर तो खड़ा रहता। अब तो जो वह कहता वही ठीक था। मैं उसका अनुसरण करने लगा था और चूँकि वह मुझसे प्यार करता था, बड़े भाई का सारा वात्सल्य मुझ पर लुटाता था, मैं उत्तरोत्तर उसका अनुगामी बनता जा रहा था। वह नाटक खेलता तो मैं भी बड़े चाव से उसके साथ नाटक खेलने लगता। वह तीर-कमान चलाने लगता, तो मैं भी वही कुछ करने लगता और इस वृत्ति ने ऐसी जड़ जमा ली कि धीरे-धीरे मेरी दबंग तबीयत शिथिल पड़ने लगी। इस नये रिश्ते को मेरे प्रति उसके स्नेह ने और भी मजबूत किया। जब मैं उससे झगड़ता तो वह मुझे बाँहों में भर लेता। एक साथ, एक ही बिस्तर में सोते हुए, जब मैं गुस्से से उसे लातें जमाता, उसके हाथ नोच डालता तब भी वह मुझ पर हाथ नहीं उठाता था।

इस तरह मेरी अपनी मौलिकता बहुत कुछ दबने लगी थी।
यह श्रद्धाभाव मेरे स्वभाव का ऐसा अंग बना कि धीरे-धीरे हर हुनरमन्द व्यक्ति को अपने से बहुत ऊँचा, और स्वयं को बहुत नगण्य और छोटा समझने लगा।

हम लोग अपने घर में ईश्वरस्तुति के भजन गाते थे, सन्ध्योपासना से जुड़े मन्त्र, नीतिप्रधान दोहे, चौपाइयाँ आदि, पर ये लोग साहित्यिक कृतियों की अधिक बातें करते। अब सोचता हूँ तो दूर बचपन में ही घर में ऐसा माहौल बनने लगा था, माँ के मुँह से सुनी हुई कहानियाँ, विषाद भरे गीत, आर्यसमाज के जलसों में सुनी दृष्टान्त कथाएँ, जलसों पर से ही प्राप्त होने वाले कहानी संग्रह, आदि हमारी रुचियाँ यदि साहित्योन्मुख हुईं तो इसका श्रेय बहुत कुछ हमारे घर के वातावरण को है और उसमें इन फुफेरी बहनों की बहुत बड़ी देन रही। किसी झटके से हम लोग साहित्य की ओर उन्मुख नहीं हुए। इस तरह जब लिखना शुरू किया तो इसके पीछे कोई विशेष निर्णय अथवा आग्रह रहा हो, ऐसा नहीं था। कोई नया मोड़ काटने वाली बात नहीं थी। निर्णय करने का अवसर तब आया था जब साहित्य-सृजन को जीवन में प्राथमिकता दी जाने लगी थी, तब अन्य सभी व्यस्तताएँ गौण होने लगी थीं।

जन्मजात संस्कारों की भी सम्भवतः कोई भूमिका रही होगी। हमारे घर में जब कभी हमारे पूर्वजों की चर्चा होती तो माँ, हमारी दादी के बहुत गुण गाया करतीं। वह तो उन्हें ‘देवी’ कहा करतीं। जब भी उनकी बात करतीं तो बड़े श्रद्धाभाव से। एक घटना की चर्चा तो वह अक्सर किया करतीं:
"तुम्हारी दादी भी कवित्त कहती थीं, ईश्वर भक्ति के। बड़ी नेम-धर्मवाली स्त्री थीं, पूजा-पाठ करने वाली। देवी थीं देवी..." और माँ सुनातीं-
"तुम्हारे पिताजी का छोटा भाई, भरी जवानी में चल बसा था। न जाने उसे क्या रोग हुआ। देखते-देखते चला गया। तुम्हारी दादी के लिए यह सदमा सहना बड़ा कठिन था, पर वह शान्त रहीं। अपने जवान बेटे का सिर अपनी गोद में रखे सारा वक्त जाप करती रहीं।" जात-बिरादरी की औरतें टिप्पणियाँ कसती रहीं- "हाय-हाय, यह कैसी संगदिल माँ है, जवान बेटा चला गया और विलाप तक नहीं करती। रोती तक नहीं।"

इस दिशा में एक और चौंकाने वाला अनुभव ही हुआ। बरसों बाद जब मैं स्वयं कहानियाँ लिख-लिखकर पत्र-पत्रिकाओं को भेजने लगा था और पिताजी मेरे भविष्य के बारे में शंकित-से हो उठे थे तो एक दिन अचानक ही कहने लगे:
"मैंने भी एक बार नॉवेल लिखा था"
मैं चौंका। यह मेरे लिए सचमुच चौंकाने वाली बात थी। पिताजी तो व्यापारी थे और हम दोनों भाइयों को अपने ही कारोबार में शामिल करना चाहते थे।
"आपने कभी बताया तो नहीं", मैंने कहा।
"दसवीं कक्षा की परीक्षा दे चुकने के बाद मैंने वह नॉवेल लिखा था।"
"फिर?"
"फिर क्या...? बात आयी-गयी हो गयी"।
उन्होंने इस लहजे से कहा मानो मूर्खों की-सी हरकतें छोटी उम्र में हर कोई करता है, इसमें अचरज की क्या बात है।
सम्भव है, कहीं-न-कहीं, साहित्य-सृजन में हमारी रुचि किसी हद तक हमें संस्कार रूप में अपने परिवार से मिली हो।
और बलराज की साहित्यिक रुचि तो शीघ्र ही कविता में व्यक्त होने लगी थी-

‘गुलदस्ता से क्यों तूने ठुकरा के मुझे फेंका
गो घास पे उगता हूँ, क्या फूल नहीं हूँ?’

उन्होंने पन्द्रह-एक वर्ष की अवस्था में यह शेर कहा था- और जब भगतसिंह को फाँसी दी गयी, तो बलराज ने पूरी-की-पूरी कविता अंग्रेजी में भगतसिंह की पुण्य स्मृति में कह डाली थी।
हम अपने संस्कार सचेत रूप से ग्रहण नहीं करते। कब, कौन-सी घटना कहीं गहरे में अपनी छाप छोड़ जाये, हम कुछ नहीं जानते।

कुछ यादें मरती नहीं हैं। कुछ घटनाओं-अनुभवों की यादें तो बरसों बाद भी दिल को मथती रहती हैं भले घटना अपना महत्व खो चुकी हो और उसका डंक कब का टूट चुका हो।
ऐसी ही एक याद मेरे हॉकी सम्बन्धी अनुभवों से जुड़ी है।

कॉलेज में दाखिले के दूसरे साल मैं कॉलेज की हॉकी टीम में ले लिया गया था और उस दिन मुझे यूनिवर्सिटी टूर्नामेंट का पहला मैच लॉ कॉलेज के विरुद्ध खेलने जाना था। मेरा दिल बल्लियों उछल रहा था। आखिर मेरे दिल की साध पूरी हुई थी। अब भी उस घटना को याद करता हूँ तो दिल को झटका-सा लगता है।

ऐन जब टीम मैदान में उतर रही थी, और मैं मैदान की ओर बढ़ रहा था तो कप्तान ने मुझे न बुलाकर, मेरी जगह एक अन्य खिलाड़ी अताउल्लाह नून को बुला लिया। मैं भौंचक्का-सा देखता रह गया था।

खेल शुरू हो गया। मैं ग्राउंड के बाहर, खेल की पोशाक पहने, हाथ में स्टिक उठाए, हैरान-सा खड़ा का खड़ा रह गया। फिर मेरे अन्दर ज्वार-सा उठा और मैं वहाँ से लौट पड़ा, साइकिल उठाई और घर की ओर चल पड़ा।

मैं थोड़ी ही दूर गया था जब दूसरी ओर से कॉलेज की टीम का एक पुराना खिलाड़ी, प्रेम, साइकिल पर आता नजर आया। वह मैच देखने जा रहा था। मुझे लौटता देखकर वह हैरान रह गया।
"क्यों? क्या मैच नहीं हो रहा? लौट क्यों रहे हो?"
मैंने केवल सिर हिला दिया। वह आगे निकल गया। मैं बेहद अपमानित महसूस कर रहा था और रोता हुआ घर पहुँचा।

घर लौटते ही मैंने हॉकी-स्टिक को कोने में रखा और मन-ही-मन गाँठ बाँध ली कि अब हॉकी के मैदान का मुँह नहीं देखूँगा। हॉकी स्टिक को हाथ नहीं लगाऊँगा। दो बरस तक बेहद चाव से और सब कुछ भूलकर खेलते रहने के बाद मैंने सहसा ही हॉकी के मैदान की ओर पीठ मोड़ ली और अपने साथी खिलाड़ियों से भी मिलना छोड़ दिया।
कुछ दिन बाद कॉलेज टीम का कप्तान चिरंजीव मिला।
"तुम चले क्यों आये?" उसने बेतकल्लुफी से पूछा।
मैंने कोई उत्तर नहीं दिया।

वह कहने लगा, "उस दिन हमने अता नून को खेलने का मौका दिया। यह कॉलेज में उसका आखिरी साल है इसलिए, उसे कॉलेज कलर मिल जायेगा"।
पर मैं अन्दर-ही-अन्दर इतना कुढ़ रहा था कि मैंने मुँह फेर लिया। कोई उत्तर नहीं दिया। उसे इतना भी नहीं कहा कि अगर यह बात थी तो तुमने मुझे बताया क्यों नहीं।
दिन बीतने लगे। मैंने हॉकी खेलना छोड़ दिया।

अब उस घटना की याद करते हुए मुझे पछतावा होता। मैंने झूठे दम्भ के कारण हॉकी खेलना छोड़ दिया था। जिसे मैं आत्मसम्मान समझ रहा था वह झूठा दम्भ ही था और बड़ा बचकाना निर्णय था और मेरे इस व्यवहार के पीछे एक और कारण भी रहा था। मैं अपने भाई के पद-चिन्हों पर चल रहा था। कुछ ही समय पहले बलराज ने अपने बोट-क्लब से इस्तीफा दे दिया था। वह कॉलेज की बोट-क्लब का सेक्रेटरी था। क्लब के अध्यक्ष प्रोफेसर मैथाई द्वारा इतना-भर पूछे जाने पर कि तुमने क्लब के हिसाब-किताब का चिट्ठा अभी तक दफ्तर में क्यों नहीं दिया, बलराज ने अपमानित महसूस किया, मानो उसकी नीयत पर शक किया जा रहा हो और हिसाब के चिट्ठे के साथ अपना इस्तीफा भी दे आया था।

मैंने जो हॉकी खेलना छोड़ दिया तो वह बहुत कुछ बलराज की देखा-देखी ही था। दम्भ में आकर।
आज याद करने पर मुझे अपनी नासमझी पर गुस्सा आता है। कप्तान द्वारा यह बता दिये जाने पर कि ऐसा क्यों हुआ, मुझे अपना गुस्सा भूल जाना चाहिए था और हँसते-खेलते, हॉकी ग्राउंड पर लौट जाना चाहिए था। हॉकी खेलने में मुझे अपार आनन्द मिलता था और कॉलेज टीम का सदस्य होना मेरे लिए बहुत बड़ी उपलब्धि थी। मुझे कॉलेज कलर मिलता। मेरा आत्मविश्वास बल्लियों ऊपर उठता। कॉलेज टीम के खिलाड़ी तो छाती तानकर कॉलेज के गलियारों में घूमते थे।

यह किस्सा यहाँ खत्म नहीं होता। जब अगले साल मैं एम.ए. का छात्र था तो हॉकी टीम का नया कप्तान, खन्ना, मुझसे आग्रह करने लगा कि मैं हॉकी टीम में लौट आऊँ, और मुझे टीम का सेक्रेटरी बनाया जायेगा, पर मैं नहीं माना। हॉकी से नाता तोड़ना मेरे लिए पत्थर की लकीर बन चुका था। वह भी मेरे रवैए पर हैरान हुआ पर चुप हो गया।

यदि कॉलेज छोड़ने के बाद मुझे पछतावा न होने लगता और मैं अपने को वंचित महसूस नहीं करने लगता, तो यह मामूली-सी घटना बनकर रह जाती, पर यह घटना तो बरसों तक दिल को कचोटती रही। आज भी कभी-कभी मैं नींद में, अपने को सपने में हॉकी खेलते देखता हूँ। इतना बढ़िया खेलता हूँ कि सपने में स्वयं ही अश-अश कर उठता हूँ। ऐसे दाँव खेलता हूँ कि ध्यानचन्द क्या खेलता रहा होगा।

उन्हीं दिनों एक और घटना भी घटी और वह भी दिल पर गहरी खरोंच छोड़ गई।
उस वर्ष मैं होस्टल छोड़कर अपने बहनोई श्री चन्द्रगुप्त विद्यालंकार के साथ ब्रेडलॉ हॉल के निकट उनके घर पर रहने लगा था। होस्टल छोड़ते ही मैं जैसे किसी दूसरे शहर में पहुँच गया था। चन्द्रगुप्त जी हिन्दी के सुपरिचित लेखक थे, लाहौर में उन दिनों अपना प्रकाशन गृह चला रहे थे। जहाँ कॉलेज का माहौल अंग्रेजीयत का था, वहाँ चन्द्रगुप्तजी के घर में हिन्दी साहित्य की चर्चा रहती। गाहे-बगाहे लेखकों का आना-जाना भी होता। वात्स्यायनजी से पहली बार वहीं पर मिलने का मौका मिला। देवेन्द्र सत्यार्थी से भी। उन्हीं दिनों उपेन्द्रनाथ अश्क को भी साइकिल पर बैठे सड़कों पर जाते देखा करता। लगभर हर शाम चन्द्रगुप्तजी के साथ मालरोड पर लम्बी सैर को जाता। चन्द्रगुप्तजी हिन्दी साहित्य की चर्चा करते जो मेरे लिए अभी दूर पार का विषय था, भले ही मेरी एक कहानी और दो-एक कविताएँ कॉलेज की पत्रिका ‘रावी’ में छप चुकी थीं।

एक दिन चन्द्रगुप्तजी ने बताया कि मुंशी प्रेमचन्द कुछ दिन के लिए लाहौर आ रहे हैं और हमारे ही निवास स्थान पर रहेंगे। यह बहुत बड़ी सूचना थी पर मुझ पर उसका ज्यादा असर नहीं हुआ। प्रेमचन्द की विशिष्टता से तो मैं अनभिज्ञ नहीं था, पर जाड़ों की छुट्टियों में मैं घर जाने के लिए एक-एक दिन गिन रहा था। इसमें भी सन्देह नहीं कि उन दिनों मेरे मस्तिष्क पर अंग्रेजी साहित्य हावी था और मैंने उस अवसर के महत्व को गौण समझा। चन्द्रगुप्तजी ने बहुत समझाया कि ऐसा अवसर बहुत कम मिल पाता है, तुम मेरे साथ रहोगे तो हम दोनों मिलकर उनकी देखभाल भी कर सकेंगे। पर मैं नहीं माना और यह कहकर कि भविष्य में भी ऐसा अवसर मिल सकता है, मैं रावलपिंडी के लिए रवाना हो गया।

प्रेमचन्द आये, उसी घर में पाँच दिन तक ठहरे, और जब मैं छुट्टियों के बाद लाहौर लौटा तो वह जा चुके थे। तब भी मुझे कोई विशेष खेद नहीं हुआ।

खेद तब हुआ जब कुछ ही महीने बाद पता चला कि प्रेमचन्द संसार में नहीं रहे और भी गहरा दुख तब हुआ जब एक लम्बे रेल-सफर में ‘गोदान’ पढ़ता रहा और पुस्तक समाप्त हो जाने पर अभिभूत-सा बैठा रह गया। तब इस बात का और भी शिद्दत से अहसास हुआ कि मैं कितना अभागा हूँ जो उस सुनहरे अवसर को खो बैठा।

कभी-कभी सोचता हूँ कि जिन्दगी में मैंने अपनी इच्छाओं से विवश होकर कोई भी दो टूक फैसला नहीं किया। मैं स्थितियों के अनुरूप अपने को ढालता रहा हूँ। अन्दर से उठने वाले आवेग और आग्रह तो थे, पर मैं उन्हें दबाता भी रहता था। मैंने किसी आवेग को जुनून का रूप लेने नहीं दिया। मैं कभी भी यह कहने की स्थिति में नहीं था कि जिन्दगी में यही एक मेरा रास्ता है, इसी पर चलूँगा।

कभी-कभी सोचता हूँ, यदि साहित्य सृजन जीवन की सच्चाई की खोज है तो जीवन के अनुभव इस खोज में सहायक ही होते होंगे। इस तरह जीवन के अनुभवों को गौण तो नहीं माना जा सकता। इस अनुभवों से दृष्टि भी मिलती है, सूझ भी बढ़ती है, लेखक के सम्वेदन को भी प्रभावित कर पाते होंगे। मैं इस तरह की युक्तियाँ देकर अपना ढाढ़स बँधाता रहता था।

 

३ अगस्त २०१५

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