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संस्मरण

 

हम हशमत - भीष्म साहनी
- कृष्णा सोबती


एक शाम भीष्म से हमने फोन पर वक्त तय किया और उनसे मिलने उस रेस्तराँ में जा पहुँचे, इधर-उधर निगाह मारी। मुलाकात क्योंकि पहली थी इसलिए किसी पत्रिका में छपी फोटो का ध्यान कर हम भीष्म साहनी को पहचानने की कोशिश करने लगे। दरवाजे पर टकटकी लगाए सोचने लगे कि अभी कोई लम्बा ऊँचा साहनी अन्दर दाखिल होगा, तो हमें गर्मजोशी से हाथ मिलाना होगा और पाठकों के अन्दाज में कहना होगा- भीष्म साहिब, आपसे मिलने की बड़ी तमन्ना थी। आज पूरी हुई। आने के लिए शुक्रिया।

इन्तजार करते-करते थक गये तो वेटर को याद दिलाई- जरा बाहर देखिए... बरामदे में कोई साहब इन्तजार तो नहीं कर रहे। भीष्म साहनी नाम है।

साथ वाली मेज से आवाज आई- ‘तो हशमत साहब आप ही हैं! इधर आइए, मुझे भीष्म साहनी कहते हैं।
भीष्म ने गर्मजोशी से हाथ मिलाया। हमें लैम्प के नारंगी शेड में एक ऐसा चेहरा दिखा जो भीष्म साहनी न हो, भीष्म साहनी का बेटा हो।

गोरा-चिट्टा जवान चेहरा। आँखों में तलखी ‘न’ के बराबर। हमने यहीं से कुछ-कुछ उनकी उम्र का हिसाब लगाया। यह कि वह खुद अपने बेटे नहीं- अपने बेटे के बाप हैं।

भीष्म के आगे कॉफी का प्याला और हाथ में सिगरेट, नोक-पलक तराशी हुई। चन्द ही मिनटों में हम यह भूल गये कि भीष्म वह चेहरा है जो हम-आप में से किसी का बेटा हो सकता है। किसी का भाई, किसी का भतीजा और हर किसी का दोस्त। कहने का मतलब एक शाम भीष्म से हमने फोन पर वक्त तय किया और उनसे मिलने उस रेस्तराँ में जा पहुँचे, इधर-उधर निगाह मारी। मुलाकात क्योंकि पहली थी इसलिए किसी पत्रिका में छपी फोटो का ध्यान कर हम भीष्म साहनी को पहचानने की कोशिश करने लगे। दरवाजे पर टकटकी लगाए सोचने लगे कि अभी कोई लम्बा ऊँचा साहनी अन्दर दाखिल होगा, तो हमें गर्मजोशी से हाथ मिलाना होगा और पाठकों के अन्दाज में कहना होगा- भीष्म साहिब, आपसे मिलने की बड़ी तमन्ना थी। आज पूरी हुई। आने के लिए शुक्रिया।

इन्तजार करते-करते थक गये तो वेटर को याद दिलाई- जरा बाहर देखिए... बरामदे में कोई साहब इन्तजार तो नहीं कर रहे। भीष्म साहनी नाम है।

साथ वाली मेज से आवाज आई- ‘तो हशमत साहब आप ही हैं! इधर आइए, मुझे भीष्म साहनी कहते हैं।

भीष्म ने गर्मजोशी से हाथ मिलाया। हमें लैम्प के नारंगी शेड में एक ऐसा चेहरा दिखा जो भीष्म साहनी न हो, भीष्म साहनी का बेटा हो।

गोरा-चिट्टा जवान चेहरा। आँखों में तलखी ‘न’ के बराबर। हमने यहीं से कुछ-कुछ उनकी उम्र का हिसाब लगाया। यह कि वह खुद अपने बेटे नहीं- अपने बेटे के बाप हैं।

भीष्म के आगे कॉफी का प्याला और हाथ में सिगरेट, नोक-पलक तराशी हुई। चन्द ही मिनटों में हम यह भूल गये कि भीष्म वह चेहरा है जो हम-आप में से किसी का बेटा हो सकता है। किसी का भाई, किसी का भतीजा और हर किसी का दोस्त। कहने का मतलब यह है कि आप किसी भी कबीले में भीष्म जैसे बरखुरदार को मजबूती से बँधा देख सकते हैं। भीष्म जो है वह सामने है जितनी आँख और सब्र आपके पास है उतना ही सहजपन आप भीष्म के इर्द-गिर्द देख सकते हैं, पा सकते हैं। भीष्म के पास कोई हाशिया नहीं है। कोई परदा नहीं। वह सादगी-पसन्द सादामिजाज इन्सान है।

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जीने के स्तर पर भीष्म के पास एक सुथरा, सुरक्षित, मजबूत चौखटा है जिसने भीष्म के समूचे लेखन और काफी हद तक जीवन-दृष्टि को भी प्रभावित किया है। उनकी अपनी राजनीतिक आस्थाएँ हैं, ‘इंटलेक्चुअल कमिटमेंट’ है। मोटे तौर पर भीष्म को अपने कितने ही साथियों से कहीं ज्यादा सुविधा और समग्रता जिन्दगी में मिली है। छोटी-मोटी सुविधाएँ- अच्छा घर, पढ़ी-लिखी बीवी, किताबों से भरी शेल्फें और रवनाओं को एकसार करती एक बँधी-बँधाई जिन्दगी। जीवन के इस सुरक्षित पैटर्न ने जहाँ भीष्म को पनपने में मदद दी है वहाँ लेखन के लिए जमने की जो जमीन सिर्फ चुनौतियों से बनती है- भीष्म के आगे से दूर कर दी है, हटा दी है। यही वजह है कि लेखन के स्तर पर भीष्म को यह लड़ाई कुछ दूसरे ढंग से लड़नी पड़ती है।

भीष्म मध्यम वर्ग की खरोंचें, जख्म, उसके दर्द और उसके ऊपरी खोल को छू-छूकर, अपने को उस भीड़ से अलग खड़ा कर लेते हैं और नये सिरे से अपनी पुरानी चिर-परिचित जमीन में उन्हें अंकित करने का निर्णय कर डालते हैं।

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हशमत इतना जरूर कहना चाहेंगे कि जिस मध्यमवर्गीय खोखलेपन को भीष्म का लेखन उघाड़ता है, उसे देखने की आँख भी उसे उसी वर्ग से मिली है। ‘चीफ की दावत’ से लेकर ‘भगवान के आदमी’ तक की कहानियों में परिवेश के यथार्थ को भीष्म ने अपनी साहित्यिक मान्यताओं से परे नहीं जाने दिया। यही वह बिन्दु भी है जो भीष्म की रचनाओं को उसके मानसिक घनत्व के बराबर जोड़े रखता है।

इंटलेक्चुअल तल पर दर्जा-व-दर्जा उड़ानों या गहराइयों में खो जाने के साथ जिन्दगी के यथार्थ से हट जाना, प्रतिभा के बल पर अपने को विभाजित कर लेना। अपने पर खुद लीक लगाकर समाज से कट जाना, किसी भी लेखक के लिए विभाजन से बड़ी ट्रैजडी है।

भीष्म ने इस विभाजन से अपने को बचाया है। उसकी नजर कटी नहीं। उसका सोचना अँधेरे और उजाले में डगमगाया नहीं।

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भीष्म की तारीफ में यह कहना जरूरी है कि उसके दोस्तों का बड़ा गुच्छा उसके मिजाज का सबूत है। अंग्रेजी साहित्य पढ़ाने वालों की अमलदारी वाली ऊँची अदा भीष्म में कतई नहीं।

भीष्म का पेशा है अंग्रेजी पढ़ाना और अपनी मादरी जबान हिन्दी में साहित्य-सृजन करना। अंग्रेजी साहित्य के शिक्षकों और पाठकों को हिन्दी की हवा से हो जाने वाले जुकाम से भीष्म ने अपने को आजाद रखा है।

ओफ्फो, किस खतरनाक नुकते को छू लिया हशमत ने! अभी भी अंग्रेजी पर फिदा दोस्तों की बहुत बड़ी कतार है जो मानकर चली है कि हिन्दी पिछड़ेपन की जबान है। इसमें कुछ लिखा भी जा सकता है- इसमें भी उन्हें शक है।

अकादमी पुरस्कार प्राप्त ‘तमस’ का पहला अध्याय पढ़कर भाषा और शिल्प के स्तर पर हिन्दी न बिचारी लगती है, न पिछड़ी। हिन्दी समर्थ है, सुथरी है और जो चाहे व्यक्त कर सकती है।

 

३ अगस्त २०१५

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