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					नमक सत्याग्रह और मेरी माँ 
					
					
					-शीला इंद्र 
					 
                     जब भी 
					अपने उस विशाल परिवार की महिलाओं के बारे में सोचती हूँ, मुझे 
					अपनी माँ सबसे अलग खड़ी दिखाई देती हैं। उनमें ऐसा बहुत कुछ था 
					जो औरों में था ही नहीं। 
					 
					उनका जन्म अक्टूबर उन्नीस सौ तेरह में हुआ था। एक भाई और दो 
					बहने बड़ी और एक भाई छोटे थे। मेरी माँ लीलावती चौथे नम्बर पर 
					थीं। पंद्रह सोलह वर्ष की आयु में आर्यसमाज पाठशाला से विदुषी 
					की परीक्षा सबसे अधिक अंकों से पास कर गोल्ड मेडल पाया था। फिर 
					विशारद की परीक्षा दी, उसे सेकेंड क्लास में पास किया। 
					उन्होंने स्कूल में तलवार चलाना भी सीखी थी। और उसमें 
					सर्वप्रथम आने पर तलवार पुरस्कार में भी मिली थी। और मैं यह 
					लिखने का लोभ संवरण नहीं कर पा रही हूँ, कि माँ ने अपने ददिया 
					ससुर तथा उनके छोटे भाइयों एवं उस विशाल परिवार के सामने तलवार 
					चलाने का प्रदर्शन किया, तो उन्होंने भी कुछ रुपयों के साथ 
					परिवार की तलवार भी उनको पुरस्कार में दी थी। कहा था, ‘इसकी 
					सच्ची हकदार तुम्ही हो दुल्हन।’’ 
					सुसराल की औरतें माँ का मज़ाक उड़ातीं, कहतीं, ‘संभाल कर रहना, 
					हमारे घर में झाँसी की रानी आ गई है।’’ख़ैर यह तो बाद की बातें 
					हैं। 
  
					दस नवम्बर उन्नीस सौ उन्तीस को गाँधी जी उनके शहर बदायूँ आये 
					थे। बड़ा भारी जलसा हुआ था। काफ़ी दिनों से उनके स्कूल की 
					लड़कियाँ दोपहर को अलग अलग दल बना कर घरों में चन्दा जमा करने 
					जातीं। प्रत्येक महिला ने अपनी सामर्थ्य भर चन्दा दिया। एक 
					महिला आवेश में अपने ढेर सारे आभूषण निकाल लाई। और पोटली में 
					बाँध कर माँ के हाथ में पकड़ा दिये, ‘‘लली! ले जाओ, ये मेरे 
					सारे गहने ले जाओ, गाँधी बाबा से कहियो कि इन दुष्ट अंगरेजन को 
					यहाँ से भगाय दें।’’  
					 
					उतने जेवर देख कर सारी लड़कियाँ घबरा गईं। उन लोगों ने उस महिला 
					को समझाया, ‘‘इतना सब कुछ तो आप स्वयं ही बापू के हाथों में 
					दें। तो वे भी प्रसन्न होंगे और आप भी उनके दर्शन कर पायेंगी। 
					हमें तो आप बस कुछ पैसे ही दे दें। क्या जोश था, क्या जज़्बा 
					था, लोगों में, अपने देश को स्वतंत्र कराने के लिये। 
					जब और छात्राओं के साथ माँ ने महात्मा गाँधी को वे रूपये भेंट 
					किये, तो उन्होंने उन सब की पीठ ठोंक कर कहा था, ‘‘हमारे देश 
					को ऐसी ही लड़कियों की आवश्यकता है।’’  
					‘‘बापू ने कहा था, हमारे देश को ऐसी ही लड़कियों की आवश्यकता 
					है...और देखो मैं क्या कर रही हूँ।’’ घर के कामों में व्यस्त 
					माँ! यह वाक्य मैनें माँ के मुख से न जाने कितनी बार सुना था।
					 
					किन्तु एक बात समझ में आती है, कि समय किस प्रकार करवट लेता 
					है। जिस काल में औरतें परेशानी में भी घर से बाहर निकलने में 
					झिझकतीं थीं, उसी काल में उन्हीं परिवारों की बेटियाँ अचानक 
					बापू के आवाह्न पर बाहर घूम घूम कर देश की स्वतंत्रता के लिये 
					चन्दा इकट्ठा करती फिरीं। औरतों की आज़ादी का यह एक अलग रूप था। 
  
					यह वह ज़माना था कि घर घर में पिता का पुत्र और पुत्रियों से भी 
					विरोध चल रहा था। बापू के आवाहन पर सैकड़ों हज़ारों लड़के लड़कियाँ 
					घर से निकल पड़े थे। अपने पिता के अत्यन्त परिश्रम से कमाये धन 
					से ख़रीदे विदेशी कपड़ों की होली जलाने। दूकानों पर पिकेटिंग 
					करने। न किसी को विदेशी कपड़ा बेचने देंगे न किसी को ख़रीदने ही 
					देंगे। उन लाखों युवक युवतियों के प्रयासों से, इंगलैंड की 
					लंकाशायर और मैनचैस्टर की कपड़े की मिलें डूब गईं थीं। घरों में 
					कमा कर धन लाने वाले पुरुष चिल्लाते, बिगड़ते ‘‘क्या मूर्खता 
					है। क्या कपड़ों की होली जलाने और चर्खा कातने से स्वतंत्रता 
					मिल सकती है?’’ उनकी मेहनत की कमाई आग में झोंकी जा रही थी। 
					क्रोध तो आना ही था। 
					 
					माँ जिस समय विशारद की पढ़ाई कर रही थी। स्कूल में गर्ल्स गाइड 
					की ट्रेनिंग दी जाने लगी थी। सब मिला कर कोई आठ-दस लड़कियाँ थीं 
					जिन्हें गर्ल्स गाइड की ट्रेनिंग के लिए बरेली जाना था। गाइड 
					की गहरी नीली धोती तथा सफेद ब्लाउज़ तो बना ही एकाध ढंग की 
					धोतियाँ और नया गद्दा तथा रजाई भी चाहिये थी। बीमारियों तथा 
					परेशानियों के कारण वर्षों से नये कपड़े बनाने का किसी को होश 
					ही नहीं था। लगभग सभी रजाई गद्दे जगह-जगह से फट चुके थे। 
					 
					मेरे नाना जी, मुंशी लालता प्रसाद कपड़े खरीदने बाज़ार गये। सोचा 
					अब लड़की का विवाह ठहराना है सो ऐसे कपड़े ले जायें जो शादी के 
					बाद भी पहन सके। सो उन्होंने कुछ बढ़िया धोतियाँ तथा बढ़िया 
					रेशमी रजाई और अच्छा सा गद्दा खरीद लिया। माँ वह सारा सामान 
					देख कर रोने लगी थीं। नाना जी परेशान, ‘‘अच्छी तो हैं बेटी! 
					इतनी बढ़िया हैं।’’ नाना जी बोले, तो माँ ने सिर हिला दिया, 
					‘‘ये वाली नहीं, बाबूजी मुझे खद्दर की नई धोतिया, और जम्पर 
					चाहियें।’’ स्वदेशी के उस जज़्बे में वे उन विदेशी कपड़ों को 
					पहनने की बात सोच भी नहीं सकती थीं। सो खादी की धोतियाँ आई थीं 
					और खादी के ही जम्पर जल्दी जल्दी उन्होंने स्वयं ही सिले थे। 
					जम्पर क्या उस समय वे लड़कियाँ मर्दों की तरह पूरी बाहों की 
					कमीजें भी पहनती थीं। जिससे शरीर का कोई भी अंग न दिखाई पड़े। 
					बाल बिना माँग के ऊपर की ओर कढ़े हुये। खद्दर का नया रजाई गद्दा 
					बनवाना मुश्किल था, क्योंकि उतना समय नहीं था तो नानाजी खद्दर 
					का कपड़ा ही ख़रीद लाये और माँ ने गद्दे और रजाई के नाप के दो 
					खद्दर के खोल मशीन पर सी लिये। जिन्हें चढ़ा कर वे पुराना गद्दा 
					रजाई ही ले गईं।  
					 
					बरेली के गवर्नमेंट गर्ल्स हाई स्कूल में ठहरना था और वहाँ कई 
					जगहों से बहुत सारी लड़कियाँ आई थीं। नित्य तरह-तरह के 
					कार्यक्रम होते थे। दिन में तो इंगलैंड से आई एक अंग्रेज महिला 
					गाइड की ट्रेनिंग देती, उसकी अंग्रेजी का हिन्दी में अनुवाद 
					करने वाली एक और महिला भी थी। प्रत्येक स्कूल से लड़कियों के 
					साथ एक-एक शिक्षिका भी आई थी।  
					 
					रात में प्रत्येक स्कूल की छात्राएँ अपने-अपने कार्यक्रम पेश 
					करती थीं। आर्य समाज बदायूँ की पाठशाला की छात्राओं ने अपनी 
					तलवार बाजी के जौहर भी दिखाये। लाठी चलाकर भी दिखाई और देश 
					भक्ति के जोशीले गीत भी सुनाये। इन्हीं के दल में इनकी एक लीडर 
					थी ‘गार्गी’, वह कुश्ती के दाँव पेंच भी जानती थी। सबसे बड़ा 
					तमाशा जो वह दिखाती थी वह था कि आगे के बालों की एक लट में 
					रस्सी बाँधती थी और उस रस्सी में भारी सा पत्थर बाँध कर वह 
					पत्थर उठा लेती थी। इन सारी लड़कियों के सभी कार्यक्रमों की खूब 
					प्रशंसा हुई। 
					 
					अभी तक, दिन में जितनी भी ट्रेनिंग दी जाती थी उसके पश्चात् 
					सारी पचास-साठ लड़कियों की साथ में परेड होती थी और उसके पश्चात 
					सभी ब्रिटिश सरकार के झंडे यूनियन जैक को सलाम ठोंकतीं और 
					कार्यक्रम समाप्त हो जाता। 
					 
					ट्रेनिंग का अन्तिम दिवस था। प्रत्येक छात्रा की परीक्षा होनी 
					थी और उन्हें दीक्षा मिलनी थी। एक-एक छात्रा जाती पूछे गये 
					प्रश्नों का उत्तर देती तथा जो विभिन्न कार्य करवाये जाते, 
					जिसे या तो पूरे दल को साथ में या एक अकेली छात्रा को सम्पन्न 
					करने होते थे। फिर वे सामने लहराते यूनियन जैक को सलाम 
					ठोंकतीं। प्रत्येक के कंधे के नीचे वह अंग्रेज महिला बैज 
					लगाती, एक सर्टिफिकेट देती और मुस्करा कर विदा करती। 
					 
					किन्तु जब बदायूँ के आर्य समाज कन्या पाठशाला की छात्राओं का 
					नम्बर आया उन्होंने वह सब करके दिखाया जो पूछा गया। दौड़ना 
					भागना ऊँची कूद, तरह-तरह की गाँठें बाँधना, बड़ी तेजी से बीमार 
					अथवा घायल व्यक्ति को, अपनी लाठी तथा स्कार्फ की सहायता से 
					स्ट्रेचर जैसा बना कर उचित जगह पहुँचा देना। समस्त कार्यो में 
					इन लोगों को प्रशंसा मिली। किन्तु जब यूनियन जैक को सलाम करने 
					की बारी आई तो सबकी सब हाथ नीचे कर के खड़ी रहीं, "हम यूनियन 
					जैक को सलाम नहीं करेंगी हमारा तिरंगा लाइये हम उसी को सलाम 
					करेंगी"।  
					"रोज़ तुम लोग इस झंडे को सैल्यूट करती हो, आज क्यों नहीं कर 
					रही हो"? उसने पूछा। 
					"हमने एक बार भी सैल्यूट नहीं किया"। छात्राओं ने उत्तर दिया। 
					वह ब्रिटिश महिला पगलाने लगी। पैर पटक रही थी "सैल्यूट करो"।
					 
					"नहीं करेंगी" एक ही उत्तर था। 
					"अगर तुम लोग यूनियन जैक को सलाम नहीं करोगी तो हम तुमको 
					दीक्षा नहीं देंगे। हम तुम्हें फ़ेल कर देंगे"। वह औरत बौखला 
					रही थी। उसकी अंग्रेज़ी को वह दूसरी टीचर हिन्दी में बोल कर 
					समझाती थी, साथ में स्वयं भी समझा रही थी, ‘‘इन लोगों से 
					दुश्मनी मत लो, जैसा कह रही है, करो।’’ 
					"आप दीक्षा मत दीजिए, फ़ेल कर दीजिये। हमें जो कुछ सीखना था सीख 
					चुके"।  
					"तुम लोग... तुम लोग तलवार चलाते हो... लाठी चलाते हो, अपना 
					देश का गाना गाते हो... हमको नाम बताओे, तुम्हारे टीचर को हम 
					देख लेंगे। तुम लोग ब्रिटिश सरकार का खि़लाफत करता"। किन्तु 
					लड़कियों ने कोई उत्तर नहीं दिया। 
					सारी लड़कियाँ बिना दीक्षा लिये लौट आईं। किन्तु न जाने क्या 
					हुआ कि तलवार बाजी सिखाने वाले गुरू जी ने अचानक स्कूल आना 
					बन्द कर दिया। घर पर भी वे न थे। अकेले तो रहते ही थे। पता 
					नहीं कहाँ चले गये? लोगों का अनुमान था कि किसी रात में उन्हें 
					पुलिस पकड़ कर ले गई। 
					 
					घर-घर में बहुतेरी स्त्रियाँ, छोटी लड़कियाँ तक चर्खा अथवा तकली 
					पर सूत कातने लगी थीं। और ये सूत जमा करके कपड़ा बनाने के लिये 
					भेजा जाता। आज़ादी की दीवानगी बच्चे बच्चे में थी। 
					क्या कोई विश्वास करेगा कि सन् उन्नीस सौ चालीस इकतालीस में जब 
					मैं बरेली के उसी गवर्न्मैन्ट गर्ल्स हाय स्कूल में पाँचवीं 
					कक्षा में पढ़ती थी, हमारे स्कूल में रोज़ एक पीरियड तकली कातने 
					का होता था। हमारी प्रिंसिपल एक अंग्रेज़ महिला, मिसेज़ अलॉय 
					थीं। 
  
					नमक कानून तोड़ने को बारह मार्च को गाँधी जी ने डांडी यात्रा 
					आरम्भ की थी और छह अप्रैल १९३० को उन्होने हज़ारों लोगों के साथ 
					नमक कानून तोड़ा था। उस समय समस्त भारत बापू के साथ था। 
					जिन लोगों को समुद्र किनारे जाने की सुविधा नहीं थी, वे समुद्र 
					को ही अपने आन्दोलन में खींच लाये थे। जगह-जगह लोगों ने 
					बड़े-बड़े कढ़ाहों में पानी में नमक घोलकर फिर उसे जलाकर सुखाकर 
					नमक तैयार किया। वह एक सिम्बॉलिक विरोध था। अंग्रेज सरकार का 
					नमक क़ानून तोड़ने की ज़िद्द थी। पुलिस के हंटर पड़े। घसीटे गए, 
					जेल गए किन्तु अपनी आन पर डटे रहे। क्या ज़ज़्बा था क्या जोश 
					था। किन्तु मेरी माँ?... साथ की सभी लड़कियाँ वहाँ सत्याग्रह 
					में शामिल थीं किन्तु वह न जा पाई, नाना जी ने डाँटा फटकारा 
					नहीं, किसी प्रकार का हुक्म भी नहीं दिया केवल एक ही बात कही, 
					"बेटी यदि तुम्हें पुलिस पकड़ ले गई, तो मैं...मैं क्या 
					करूँगा"? 
					भाभी ने समझाया, "बीबी जी! बाबूजी जी का दुख और न बढ़ाना, केवल 
					एक महीना ही रह गया है, ग्यारह मई को तुम्हारी शादी हैं"।  
					 
					दिल रो रो कर कह रहा था, कि कुछ नहीं नमक सत्याग्रह में जाना 
					ही है। किन्तु भावना से कहीं ऊँचा कर्तव्य होता है। और उनका 
					सबसे पहला कर्तव्य बाबूजी की परेशानियाँ कम करना था।  |