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संस्मरण

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उनसे मुलाक़ात वो आख़िरी भी न हुई
-अमन दलाल


“कवि देवल आशीष हमारे बीच से जा चुके हैं, हिन्दी साहित्य की वाचिक परम्परा ने सम्भवत: अपना सबसे श्रेष्ठ युवा कवि-गीतकार खो दिया है और श्री देवल का रिक्त हो चुका स्थान अब भरा जा सकेगा ऐसी उम्मीद भी कम ही है।“

लिखने-कहने को तो यह बात बड़ी सहजता से लिखी या कही जा सकती है लेकिन इस बात को पढ़ने और सुनने वाले इसे उसी सहजता से ले पायें, सम्भव नहीं है। मैं भी अब तक नहीं ले पाया हूँ।

दरअसल मेरे साथ तो ये समय का कोई छल है, सबकुछ इतना अकस्मात हुआ कि समझने का अवसर ही नहीं मिल पाया,कई तयशुदा चीज़ें समय अपने अजाने ग्रास में लील गया है, अब सबकुछ बिखरा बिखरा सा लग रहा है,बहुत कोशिशों के बाद भी अपनी स्मृतियों को समेट नहीं पा रहा हूँ जबकि कई बातें रह-रह कर सामने आती हैं और मुझे एक अनमनी व्यथा और गहरे मौन की तरफ धकेल देती हैं, कुछ भी संजोया हुआ नहीं है। लेकिन आज कई चीज़ो के लिये मुझे अपने कान खींचने हैं अपनी बेपरवाही के लिये खुद से सवाल-जवाब करने हैं। इस निष्ठुर दुनिया के बीच खुद से अपनी निश्चिंतता की वजह पूछ्नी है।

ख़ैर ! २००७ नवम्बर २२ को इंदौर अभय प्रशाल में एक कवि सम्मेलन होना था, ’एलिट क्लास’ के उस सम्मेलन में शाम ७ बजे के आसपास मैं बिना किसी पास या निमंत्रण-पत्र के वहाँ पहूँचता हूँ इस मंशा के साथ कि शायद किसी तरह मुझे अन्दर जाने की अनुमति मिल जाए। थोड़ी कोशिश के बाद मै अंदर प्रवेश पाने में सफल भी रहा। मंच बहुत ही सुंदर था जिसपर आयोजनकर्ता संस्था ‘मोर-पंख’ का नाम बेहद खूबसूरती से लिखा हुआ था। मैंने पहले ही बताया कि वो कवि सम्मेलन ‘एलिट-क्लास’ कवि सम्मेलन था जिसमें सभी नाम अपने आप में बहुत बड़े थे। मुन्नवर राना, राहत इंदौरी, अशोक चक्रधर, ओम व्यास और संचालक प्रो राजीव शर्मा के साथ दो कवि और थे, ये दो नाम वो थे जिनको मैं उस समय तक नहीं जानता था एक दादा माणिक वर्मा और दूसरे स्वर्गीय देवल आशीष।

मैं भी आम श्रोता की तरह कवि सम्मेलन सुनने के साथ-साथ अपने पसंदीदा कवि की बारी आने का इंतज़ार भी कर रहा था, संचालक ने श्री देवल को कविता पढ़ने के लिये स्वर दिया, मेरे मन में एक मूर्खताभरा पूर्वाग्रह था कि ये कवि कोई अच्छा नहीं होगा या तो कुछ चुट्कुले सुनायेगा या फिर वीर रस के नाम पर जाने क्या क्या गाकर चला जाए।

इतने में ही श्री देवल ने मंच से सबको नमस्कार किया, मैंने भी अपनी जगह से बुदबुदाकर नमस्कार का उत्तर दिया। एकाएक बिना किसी ख़ास भूमिका के देवल आशीष कान्हा पर लिखा अपना छंद शुरु करते हैं, मनमोहक स्वर, सम्मोहित करने वाली शुद्ध हिंदी, आकर्षक लयता और भाव- भंगिमा लिये श्री देवल की प्रस्तति कुछ ही क्षण में कुछ इस तरह बाँध गयी मानो मेरे मन का हर हिस्सा एक निश्छल भक्ति से सरोबार था, मुझे भान नहीं कि वह भक्तिभाव ईश्वर के प्रति था या श्री देवल के काव्य-व्यक्तित्व से जुड़ा कोई राग था।

पूरे मन से देवल अपना काव्य-पाठ करते रहे और पूरा परिसर उनके छंदों पर झूमता रहा। श्री देवल की एक आदत थी की वो कविता पाठ के बाद थोड़ी देर के लिये मंच से अलग हो जाते थे, उस दिन भी कविता पाठ के तुरंत बाद देवल मंच के पीछे चले गये और उन्हें मंच से पीछे जाते देख कुछ लोग भी उनसे मिलने की लालसा में उस तरफ जाने के लिये उठे। मैं भी पीछे-पीछे चला गया।

देवल अकेले ही मंच के पीछे हवा लेते हुये टहल रहे थे, उनसे मिलने के लिये बढ़े लोगों को शायद पहले ही रोक लिया गया था। अब मुझे लगता है कि उस सादगी भरे इंसान से भी मैं कितना डर-डर के मिला था दरअसल इसका कारण उनकी वो विराट छवि थी जो उनकी कविता ने मेरे अंतस में बनायी थी।

उन्होनें मुझे शायद आते हुये देख लिया था, उन्होनें ख़ुद ही अपने पास बुला लिया और बहुत ही सरलता से मुझसे मिले, मैं उनके साथ अपनी एक तस्वीर चाहता था पर उस समय मेरे न तो मेरे पास कोई कैमेरा था न ही ऐसा मोबाईल फोन था जिससे फोटो उतारी जा सके।

‘सर,क्या आपके फोन से मैं आपके साथ एक फोटो ले सकता हूँ’ मैंने आग्रहवश पूछा।
वे मुस्कुराते हुये बोले-
‘बेटा, हमारे पास तो अपना फोन ही नहीं है, हम तो हमारे साथ आये भाई साहब के फोन से अपना काम चलाते हैं’
वे अपने साथ आये अपने किसी साथी की बात कर रहे थे
मुझे थोड़ा विस्मय ज़रूर हुआ पर मैं भी एक मुस्कुराहट के साथ अफसोस जताते हुये ठहर गया।
‘मैं कोई अभिनेता तो हूँ नहीं बेटा जो मेरे साथ तस्वीर लेना इतना महत्वपूर्ण हो, तुम्हें मेरी कवितायें और शब्द याद रहें यही मेरे लिये बहुत है, तुम अपने साथ मेरी कविता ले जाओ’ देवल बोले
मेरे लिये यह पूरी तरह अनपेक्षित था मैं थोड़ा अटककर बोला ‘ नहीं सर... मेरा मतलब...’
‘कोई बात नहीं, तुम्हें अपनी स्मृतियों में कुछ रखना ही है तो इतना रख लो कि लखनऊ से कोई देवल आशीष आया था’ वो हँसते हुये उसी क्रम में ये बात कह गये
उनकी आभा बहुत ही अनूठी थी, घोर सादगी के बाद भी बहुत आकर्षक थे देवल आशीष
अब तक मैं मुग्ध हो चुका था
देवल लौटकर मंच पर जा चुके थे
मैं तब से ही श्री देवल की कविता और मन दोनों का कायल हूँ।

२००९ से अब तक मैं लखनऊ में ही रहता हूँ, मेरी देवल जी से कई बार फोन पर बात होती रहती थी ,हर बार बहुत आत्मीयता के साथ अपने घर आने का न्यौता देते रहे पर हर बार किसी न किसी कारण वश सम्भव नहीं हो पाया। लेकिन पिछ्ले वर्ष ८ मई को अपने कविता संग्रह के बारे में श्री देवल की प्रतिक्रिया और टिप्पणी लेनें के स्वार्थ के चलते मेरा उनके घर पर जाना हुआ, वो भेंट लगभग ५ घंटे की थी और वाक़ई बहुत अद्भुत थी। कविता और साहित्य से जुड़े उनके अनुभव बहुत सुनाते हुये उन्होनें हर पहलु पर चर्चा की थी और बहुत आत्मीय सत्कार के साथ मुझे ये बात भी समझा दी थी कि वे मेरी कविताओ के बारे में झूठी प्रशंसा क़तई नहीं करेंगे। उस दिन उनकी बातों में वर्तमान कवि सम्मेलनीय परम्परा के प्रति उनका क्षोभ भी साफ नज़र आ रहा था, मुझे उनकी एक बात आज भी नहीं भूलती वो ये कि-- 'अमन, देवल आशीष कविता के रास्ते को तीरथ का रास्ता मानकर आया था पर उसे नहीं पता था ये रास्ता किसी मंडी की तरफ जाता है।'

मुझे याद है उस समय मैंने बात जानबूझकर चर्चा को दूसरी तरफ मोड़ दिया था, मैंने उनसे रुचियों और अपने प्रिय कवियों के नाम जानने के लिये उनसे कई सवाल किये। उन्होंने किसी व्यक्ति विशेष का नाम तो नहीं लिया लेकिन बातों बातों में यह ज़रूर बता गये कि वे भारत दादा (स्व.भारत भूषण) के लिखे गीत 'पाप' के जैसा गीत लिखना चाहते हैं, उन्हें उस गीत ने बहुत प्रभावित किया था। पूरी बातचीत के दौरान वो घर के कई छोटे-बड़े काम भी करते रहे, अपनी छोटी बेटी के साथ खेले भी, सब्जियाँ भी काटीं, अपने बेडरूम मे कूलर में पानी भी भरा और साथ ही बहुत सारे और काम भी करते रहे।

मैं भी आश्चर्य के साथ उनकी हर क्रिया देख रहा था और यही सोच रहा था कि कितने अनौपचारिक हैं देवल, बहुत ही सहज सरल और स्वभाविक थे बिना किसी सामाजिक आडम्बर और दिखावे के साथ भी देवल बहुत प्रभावित करते थे। अचानक ही उनके काम करने की गति में थोड़ी अधिक तीव्रता आ गयी, उन्हें अपनी पत्नी के साथ कहीं बाहर जाना था,मुझे लगा अब उनसे विदा लेने का समय है। मैं भी अपनी पूरी चर्चा को समेटने के कोशिश करने लगा उन्होनें भी मेरी कविताओं पर जल्द टिप्पणी करने का वचन देकर अपनी बात लगभग पूरी कर दी थी। मैं वहाँ से निकलने के लिये उठा ही था कि देवल जी ने मुझे विनोद चंद्र पांडेय 'विनोद' की एक किताब थमा दी और साथ में ये भी कहा--

'अमन, इस किताब को लौटा ज़रूर देना क्योंकि कई लोग किताबें एकबार ले तो जाते हैं पर बाद में न किताब का कुछ पता होता है और न किताब ले जाने वाले की खबर मिलती है और मुझे तो तुमसे आगे भी मिलते रहना ही है।' उस दिन तो मुझे उनकी बात बहुत ठीक नहीं लगी पर अब समझ आता है कि किताब वापिस माँगना दूसरी बार मिलने की मंशा के साथ किया हुआ आग्रह था। उसके बाद उनसे फोन पर कई बार बात हुई पर मैं फिर कभी उनसे मिल नहीं पाया, तब का समय है और आज का समय है मेरे पास अब केवल मलाल है कि मेरे पास उनकी कई सम्भावित स्मृतियाँ बनते बनते रह गयीं, जाने कितनी ही महत्वपूर्ण चीज़ें मुझ तक आते आते रह गयीं। मैंने अपने कमरे के सामान की तरह अपनी स्मृतियों को भी कभी सहेजकर नहीं रखा, जिस तरह एक नितांत बेतरतीबी के चलते कमरे की हर चीज़ अपनी जगह ख़ुद बना लेती है ठीक उसी तरह हर बात, सभी स्मृतियाँ, सारे अनुभव समय के साथ मेरे अंदर अपनी जगह लेते गये जिसमे मेरा कभी कोई दख़ल नहीं रहा।

मेरे लिये अपने थरथराते हाथों से स्मृतियों के पूरे उस बिखराव को समेटकर इकट्ठा करने काम का हमेशा से ही बहुत कठिन रहा है। हालाँकि मैं इस उधेड़बुन में पड़ने की बजाय उस रंग-बिरंगे बिखराव को निहारने में ज़्यादा सुकून महसूस करता हूँ, क्योंकि साधने-समेटने का यह काम कुछ ऐसा है जैसे मुझे एक तालाब के किनारे एक छ्न्नी और कटोरा लेकर बैठा दिया गया है और मुझसे यह उम्मीद की जा रही है कि मै उस छन्नी की मदद से अपने पास का कटोरा पानी से लबालब कर दूँ। यह काम मुझसे नहीं हो पाता और न ही मैं अपनी इस लापरवाही के लिये अपने कान नहीं खींच पाता हूँ।

आज मेरे पास उनसे जुड़ा ज़्यादा कुछ संजोया हुआ नहीं है, मैं इसीलिये ही अपने कान खींचना चाहता हूँ
मेरे पास अब बचा है तो वो बस मलाल है-
मलाल है उन्हें अपनी किताब न दे पाने का
मलाल है उनकी किताब न लौटा पाने का
मलाल है तो बस ये कि-
उनसे तो मेरी आख़िरी मुलाक़ात भी न हुई'

देवल साहित्य जगत के साथ साथ मुझमें भी इस तरह से एक रिक्तता भर गये हैं कि लगता है कि इतना निश्छल व्यक्ति भी मेरे साथ बहुत बड़ा छल कर गया है।

 

१० जून २०१३

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