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संस्मरण

८ जुलाई जयंती के अवसर पर

'गीत लिखा प्रीत लिखा'- 'पुलकित मन' भाई भारतभूषण
-कुमार रवीन्द्र


ईस्वी सन १९८७ - फरवरी मास के अंतिम दिन की वासन्ती शाम - उत्तर प्रदेश के गाज़ियाबाद नगर स्थित महानन्द मिशन कॉलेज के सभागार में डॉ. शंभुनाथ सिंह के द्वारा संयोजित एक-दिवसीय नवगीत अर्द्धशती समारोह के पहले दिन का उद्घाटन एवं विचार गोष्ठी सत्र समाप्त हो चुका है। तीसरे पहर के इस सत्र के उपरांत संक्षिप्त जलपान और फिर रात्रि आठ बजे के नवगीत-रचना गोष्ठी सत्र के लिए प्रतीक्षा। पान के शौक़ीन भाई माहेश्वर तिबारी एवं उमाशंकर तिवारी के साथ कॉलेज के प्रांगण से बाहर निकलते ही स्थित पान के एक छोटे से खोखे पर हम आ गये हैं - हम यानी मैं और योगेन्द्र दत्त शर्मा। पान की उस छोटी-सी दूकान पर काफी गहमागहमी -सभी नवगीतकार। उनमें प्रमुख भाई धनंजय सिंह एवं नईम। हाँ, भाई गुलाबसिंह और श्रीकृष्ण तिवारी भी। एक और मँझोले क़द के अधेड़ उम्र के सज्जन, जिन्हें मैं पहचानता नहीं था। माहेश्वर भाई ने उन्हें चहकते हुए नमन किया और पूछा - 'कहिये दादा! पोते का सुख खूब लूट रहे हैं'। ज़वाब मिला - 'नहीं भइया, अभी तो नाना सुख भोग रहे हैं'। श्लेष अलंकार का एक बहुत ही सुखद प्रयोग। साथ में खनकती हुई सहज निश्छल हँसी। उसी समय पता चला कि वे मेरठ से आये हिंदी के बहु-चर्चित गीतकार भाई भारतभूषण जी हैं। सुदूर हिसार में उनका शुभागमन नहीं हो पाया था, हालाँकि वे कवि सम्मेलनों के एक सिद्ध कवि थे। इसी से मैं उनसे व्यक्तिगत रूप से परिचित नहीं हो पाया था। उनके कुछ गीत प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में पढ़े थे और एक मुक्तछंद की कविता 'राम की जलसमाधि' भी, जो धर्मयुग में प्रकाशित हुई थी और खूब सराही गई थी। मुझे भी उस कविता ने मुग्ध-सम्मोहित किया था। महाप्राण निराला की 'राम की शक्तिपूजा' की याद दिलाती वह कविता, सच में, अनूठी और अद्भुत थी अपनी कहन में।

हाँ तो यह था मेरा पहला संसर्ग आदरनीय भाई भारतभूषण से। शाम के सत्र में मैंने उन्हें और नज़दीक से जानने-समझने-परखने की चेष्टा की, किन्तु उस सामूहिक संपर्क में उनके निकट आना संभव नहीं था। हाँ, इतना अंदाज़ा मुझे अवश्य लग गया कि यह व्यक्ति व्यवसायिक कवि नहीं है और स्वभावतः एक सहज जीवंत व्यक्तित्त्व है। मेरा उनसे वही पहला और आखिरी मिलना था। और फिर वर्षों का अन्तराल। नवगीत के क्षेत्र में मैं सक्रिय होता गया और वे नवगीत में पैठ नहीं कर पाए। संभवतः उन्होंने इसकी कोशिश भी नहीं की। उनके गीत अपने ढंग से अनूठे थे, किन्तु वे नवगीत की परिधि में नहीं आते थे। उनमें एक सहज रागात्मकता का प्रवाह था, जो मुझे आकर्षित करता था। एक गीत प्रशंसक के रूप में मैं उनके गीतों से समय-समय पर रू-ब-रू होता रहा और निश्चित ही वह संसर्ग मेरे लिए सुखद था।

और फिर आया वर्ष २००३। बीसवीं सदी के अंतिम वर्ष यानी ईस्वी सन २००० में मैं दयानन्द कॉलेज, हिसार के परास्नातक अंग्रेजी विभाग के अध्यक्ष पद से अवकाश प्राप्त कर चुका था। उसके बाद के दो-ढाई वर्ष गठिया बाई के कष्टों से जूझता रहा था। ईश्वर कृपा से उससे जब थोड़ी निष्कृति मिली, तब ललक जागी भाव-जगत के उन संदर्भों से जुड़ने की, अन्य व्यस्तताओं के चलते जिनसे संसर्ग अधूरा रह गया था। उन्हीं प्रिय संदर्भों में से एक थे भाई भारतभूषण। मैंने उन्हीं दिनों आये उनके किसी गीत का हवाला देते हुए उनको एक पत्र लिखा, जिसमें पत्राचार के माध्यम से उनसे जुड़ने का आग्रह था। उत्तर में उनका जो पत्र आया, वह आज भी मेरे लिए एक अमूल्य निधि है । २२.०५.२००३ के उनके इस पत्र ने मेरे संकोच को इतनी स्नेहिल आत्मीयता से सहेजा कि मुझे लगा कि जैसे हम जन्मों-जन्मों से परिचित हैं। पत्र के संबोधन मात्र से उन्होंने मुझे नितांत अपना बना लिया। वह छोटा-सा वाक्यांश था 'प्यारे ही प्यारे भाई रवीन्द्र' - आकार में छोटा किन्तु स्नेह का एक पूरा पारावार, जो मुझे अन्दर-बाहर समूचा भिगो गया। पत्र में आगे भी बहुत कुछ, जो मुझे आज भी अपने स्नेह से सहेजता है। हाँ, उस पत्र में आये उनके कुछ वाक्य आज भी कविताई का मर्म मुझे देते हैं। पत्र नहीं वह एक गद्य-काव्य है, जिसका कुछ अंश यहाँ देने से मैं अपने-आप को रोक नहीं पा रहा हूँ। देखें -

"पत्र मिला और मैं पुलक व्याकुल हो गया। आशीष देने योग्य बड़ा मैं नहीं हूँ। यह अवश्य लगा कि मेरी माला में एक मनका और प्रभु ने भेजा है प्रसाद जैसा। ... मैं परंपरागत गीत से अधिक जुड़ा हूँ। नये का आग्रह और ललक तो बहुत है, पर पकड़ नहीं पा रहा हूँ। कहीं-कहीं स्पर्श आ जाते हैं। ... हंस जी का स्मरण बहुत सुखद रहा, आप मिल गये। पर देर हो गई है। मेरे पास अब समय शायद कम ही है। चलो जो भी है उसमें आप भी हैं तो सुख ही है। ... मैंने जीवन भर यही कमाया है और मैं पूर्ण संतुष्ट हूँ। अपनी कविताई को घटा कर भी भरा-पूरा हूँ। ... बस थक गया। ... आज तो मन बहुत छलक उठा था।"

इसी पत्र में एक वाक्य उन्होंने और लिखा था - "किसी गीतकार को समझने के लिए उसके लिखे पत्र पढ़ने चाहिए।" यह वाक्य उनके ऊपर उधृत पत्रांश के बारे में पूरी तरह सटीक है। इससे उनके व्यक्ति और गीतकार, दोनों को जानना-समझना आसान हो जाता है। पहली बात तो यह कि एक व्यक्ति के रूप में स्वभावतः वे अत्यंत प्रेमिल और आत्मीय हैं - 'पुलक व्याकुल' और 'मन बहुत छलक उठा' जैसे वाक्यांश एक ऐसा ही व्यक्ति प्रयोग कर सकता है, जो दूसरों के प्रति प्रेम से लबालब भरा हो। दूसरी यह कि वे अत्यंत विनम्र भाव से अपनी कविताई को आँकते हैं; उसे आत्मीय सुख की प्रक्रिया के रूप में लेते हैं - ' अपनी कविताई को घटा कर भी भरा-पूरा हूँ'। तीसरी यह कि वे उम्र की थकन को स्वीकारते हुए भी उसे जीवन-नियति नहीं मानते। पारंपरिक के बीच नये का आग्रह और ललक, हाँ, यही तो है भाई भारत भूषण की कविताई का मर्म। पूरा पत्रांश स्वयं में एक कविता। पिछले दिनों भोपाल से प्रकाशित 'प्रेसमेन' में ए उनके गीतों पर मैंने पत्र के माध्यम से अपने पुलक की अभिव्यक्ति की। उत्तर में जो उन्होंने लिखा, वह मेरे ऊपर लिखे वक्तव्य को ही संपुष्ट करता है - 'मेरी रचनाएँ ५० वर्ष पुराणी अभिव्यक्ति की देन हैं। कम आयु होती तो आपके पत्र से अहंकार बढ़ जाता। अब ऐसा है जैसे एक प्रिय अनुज अग्रज को ठीक कह रहा है। सुखद है आज के समय में इतनी सहजता सरलता बनी रहे तो भी ठीक है'।

लगभग पाँच वर्षों के पत्र-संसर्ग से मैंने यही जाना-समझा है कि भाई भारतभूषण नितांत सहज-सरल व्यक्ति हैं और यदि कोई मुझसे पूछे कि उनकी कविताई का मर्म क्या है तो मैं केवल एक शब्द का प्रयोग करूँगा और वह शब्द है - 'सहजता'। यह सहजता का काव्य-गुण हर कवि को उपलब्ध नहीं होता। जो व्यक्ति सहज होते-होते स्वयं कविता हो जाता है, वही इसको प्राप्त कर पाता है। भाई भारतभूषण ऐसे ही गीतकवि हैं। गीतात्मकता उनका सहज स्वभाव है और विशुद्ध रागतत्त्व उनकी सहज वृत्ति। किसी प्रयोजन अथवा आन्दोलन के तहत उन्होंने गीत कभी नहीं लिखे या गाये। इसीलिए उनके गीत किसी परिधि में नहीं बँधते। न तो कथ्य की दृष्टि से और न ही शिल्प या कहन की दृष्टि से। उनके प्रारंभिक गीत जीवन के उल्लास से भरे और बड़ी बहर के हैं। किन्तु उनमें भी एहसासों की ऐसी अतल गहराई है कि उनमें समूचा डूबकर ही उन्हें समझा जा सकता है। शृंगारपरक इन पंक्तियों में देखें कितनी गहन भावाकृतियाँ छिपी हुई हैं -

प्राणों से प्राण बदलना ही साँसों को राजतिलक करना
अलकों में चुंबन का गुँथना अँधियारे में दीपक धरना
सब कुछ सहकर भी अनबोली अनछुई नई भोली-भोली
निर्दोष चाँदनी कहती है आजा कोई अपराध करें
जीवन-भर जिसको भुला-भुला तुम याद करो हम याद करें

पारंपरिक इन गीत-पंक्तियों में भी 'प्राणों से प्राण बदलना', साँसों को राजतिलक करना' और 'अलकों में चुंबन का गुँथना' जैसे अनुभूति-बिम्ब इस बात के साक्षी हैं कि इन्हें विरचने वाले कवि की अंतर्यात्रा किन-किन अछूते-अबूझे आलोकों में विचरण कर रही है। ऐसे ही किसी सम्मोहक शृंगार-बोध से उपजी हैं अनूठी अभीप्सा वाली ये गीत-पंक्तियाँ -

मेरी नींद चुराने वाले / जा तुझको भी नींद न आये
पूनम वाला चाँद तुझे भी / सारी-सारी रात जगाये
...
बरबस मेरी दृष्टि चुरा लें / कँगनी से कपोत के जोड़े
...
होंठ थके हाँ कहने में भी / जब कोई आवाज़ लगाये
चुभ-चुभ जाये सुई हाथ में / धागा उलझ-उलझ रह जाये
...
बेसुध बैठ वहीँ धरती पर / तू हस्ताक्षर करे किसी के
नये-नये संबोधन सोचे / डरी-डरी पहली पाती के
'जिय बिन देह नदी बिन बारी'/ तेरा रोम-रोम दुहराये
ईश्वर करे हृदय में तेरे / भी कोई सपना अँकुराये

शृंगार की यह एकदम नई कहन, नई भाषा है, जिसे कवि भारतभूषण साध रहे थे अपने ताज़े-टटके युवा वर्षों में। इस शृंगार का एक और रूप है पवन समर्पण का, जो प्रभु-भक्ति से एकात्म होता है और जिसमें इश्के-हकीकी और इश्के-मजाज़ी का विभेद पूरी तरह मिट जाता है। नीचे के गीतांश में ऐसी ही अनूठी उद्भावना हुई है पावन शृंगारानुभूति की। देखें तो ज़रा -

डर लगता है शीश झुकाते अपने वन्दन सुमन चढ़ाते
कहीं न मेरा भाल कलंकित कर दे पावन चरण तुम्हारे
...
मेरे अपराधी अधरों पर सिर्फ़ तुम्हारा नाम बचा है
माटी की गागर में जैसे गंगाजल भर रही ऋचा है
अगर तुम्हारे स्वर मिल जायें मेरे गीत मन्त्र बन जायें
जीवन हो पूजा की थाली फूल बनें संस्मरण तुम्हारे
दरस तुम्हारा जैसे कोई वैरागी तीरथ पा जाये
या जन्मांध भिखारिन मानस पूनम वाला पथ पा जाये
सकुचाये निर्धन प्रणाम हैं बाट जोहते सुबह-शाम हैं
शायद पल भर को हट जायें संकोची आवरण तुम्हारे

प्रेमानुभूति की यह पावन सिद्धि और फिर कहन का यह अछूतापन भारतभूषण के कवि को विशिष्ट बनाते हैं उनके प्रारम्भिक गीतों में ही। लंबे गीत किन्तु उनमें न तो भरती की कोई पंक्ति और न ही कोई शिथिल भाव-बिम्ब । यही तो है श्रेष्ठ कविताई की कसौटी। भारतभूषण इसी कसौटी की संरचना करते हैं अपने गीतों में। मंच पर काव्य-पाठ के सिद्ध समय में उनके कुछ गीत बेहद लोकप्रिय हुए। उन्हीं में से एक गीत है 'बनफूल' । सहज गिरा-अर्थ को सँजोता वह गीत अनुपमेय है अपनी सीधी-सादी कहन की दृष्टि से। गंभीर अर्थों के खोजी के लिए एक अभूतपूर्व अनुभव भी। जीवन के संपूर्ण दर्शन को समेटता-सँजोता। देखें उस गीत की कुछ अनूठी पंक्तियाँ -

मैं हूँ बनफूल भला मेरा/ कैसा खिलना क्या मुरझाना
मैं भी उनमें ही हूँ जिनका / जैसा आना वैसा जाना
सिर पर अम्बर का सूनापन / जिसकी सीमा का अंत नहीं
मैं जहाँ उगा हूँ वहां कभी / भूले से खिला वसंत नहीं
ऐसा लगता जैसे मैं ही / बस एक अकेला आया हूँ
...
बस आसमान की गरम धूल / उड़ मुझे गोद में लेती है
है घेर रहा मुझको केवल / सुनसान भयावह वीराना

और इसी में जीवन-मालिन का बड़ा ही आकर्षक एवं सटीक रूपांकन -

काली रूखी गदगदा बदन / काँसे की पायल झनकाती
सिर पर फूलों की डलिया ले / हर रोज़ सुबह मालिन आती
ले गई हजारों हार निठुर / पर मुझको अब तक नहीं छुआ
मेरी दो पंखुरियों से ही / क्या डलिया भारी हो जाती
...
कोई पूरब का पाप फला / शायद यों ही हो कुम्हलाना
...
मैं खिला पता किसको होगा / झर जाऊँगा बेपहचाना

ऐसा ही उनका एक और लोकप्रिय गीत है, जिसमें उन्होंने पींजरे में कैद पक्षी के माध्यम से जीवन की विवशताओं और उनसे मुक्ति की आख्या बड़े ही सटीक रूप में कही है। यह आख्या एक संवेदनशील मन की भी है, जिससे 'बादल, बिजली,बरखा, पूनम, अधपकी डाल' के उसके नैसर्गिक संसर्ग छिन जाते हैं और जो अंततः 'बिन पंखों नभ से
(भी) आगे' उड़ जायेगा और तभी उसे 'मुँह बंद पके घावों जैसी ज़िन्दगी' से निज़ात मिलेगी। 'घुँघरू पायल वाला' हाट-संस्कृति का उसका संसार नहीं है और उसके 'बर्फीले' गीत तिरस्कृत ही रह जाने को अभिशप्त हैं। एक ढंग से यह एक कवि की भी नियति-आख्या है।

आज के टकसाली विशुद्ध पदार्थवादी समय में कवि-कर्म एक अभिशाप है। अपने एक गीत में कवि भारतभूषण ने कवि की आज के समय में निरर्थकता का बड़ा ही सशक्त आकलन किया है। उस गीत में आधुनिक वैज्ञानिक बिम्बों का भी प्रयोग उन्होंने किया है। इस दृष्टि से वह गीत नवगीत के क्षितिजों के एकदम नज़दीक आ गया है। देखे उसकी कुछ पंक्तियाँ -

मेरे मन किसी यंत्र का तू / घूमता हुआ पहिया हो जा
अब सत्य, अहिंसा, प्रेम, दया / सब वे टकसाली सिक्के हैं
जैसे स्पुतनिक की खिड़की से / दिखते धरती के इक्के हैं
जुड़जा सोने की संस्कृति से / फेंक दे हाथ का अलगोजा
इंसान उड़ा चन्द्रमा तलक / तू बैठा है पोथियाँ लिये
तकिया कर ले इन ग्रन्थों को / टी. वी. देखते हुए सो जा

आज की इस त्रासक स्थिति से वह रू-ब-रू है, जिसमें 'रोबोट हो गया वर्तमान / इससे क्या प्रेमकथा कहना' का एहसास कवि को व्यथित करता है। जीवन की अनुरागमयी अभीप्साएँ, मानुषी आस्तिकताएँ, मानव की गरिमाएँ जहाँ प्रताड़ित हैं, ऐसे परिवेश से कवि-मन पलायन कर जाना चाहता है। निम्न पंक्तियों में पूरा एक चित्र है आज की नास्तिकताओं और उनसे उपजी निरर्थकताओं का -

कहते अंग, रंग, गंधों से / गड़े हुए धरती में आधे
खंभों की गिनतियाँ घटाते / टूटी नसें थकन से बाँधे
...
घूँट लिये दिन चायघरों ने / कुचली पहियों ने संध्याएँ
परिचय में बस फली नमस्ते / ज़ेब भर गईं असफलताएँ
...
समारोह, मेले, वरयात्रा / भीड़, भोज, स्वागत, शहनाई
सभी ज़गह पीछे चलती है/ अर्थहीन काली परछाईं
धन्यवाद! उत्सवो, विवाहो/ हम अपने घर लौट चले हैं

हाँ यह जो आज की नकली उत्सवी भंगिमा है, उसमें जो निरर्थकताएँ भरी हैं, उनसे अलग होकर एकांत में 'अपने घर' यानी नितांत वैयक्तिक समग्रता में यह वापसी उस आस्तिकता से उपजी है, जो कवि के सात्त्विक मन में आज भी कहीं पुनरुत्थान की प्रतीक्षा में है। किन्तु क्या कवि ऐसा कर पाता है? अपने एक अन्य गीत में भारतभूषण जी ने अपनी इसी असमर्थता की गाथा कही है। वह ईश्वर से क्षमाप्रार्थी है, क्योंकि 'गीत बेचकर' घर में वह 'सीमेंट ईंट लोहा' ले आया है, जो प्रतीक रूप में आज के पदार्थवादी पुरुषार्थ को ही रूपायित करते हैं। आगे की पंक्तियाँ इसकी व्याख्या करती हैं -
भीतर का सुख खोजता फिरा बाहर से सभी दुकानों में
मैं अश्रु बेचकर घर आया प्लास्टिक के गुलदस्ते लाया
...
शब्दों-शब्दों सौन्दर्य गढ़ा नगरों-नगरों नीलाम किया
संतों की संगत छोड़ किसी वेश्या के घर विश्राम किया
मैं प्यार बेचकर घर आया चुटकी भर सुविधाएँ लाया
क्या करना था क्या कर आया हे ईश्वर मुझे क्षमा करना

कविता की यह जो नियति है संतों की - 'संतन को कहा सीकरी सों काम' वाली मुद्रा के द्वारा 'नगरों-नगरों नीलाम' होने और वेश्यावृत्ति अपना लेने की मज़बूरी की, उसका सशक्त आकलन हुआ है उपर्युक्त पंक्तियों में। अपनी कहन में पारंपरिक होते हुए भी इस प्रकार के इधर के भारतभूषण जी के गीत उन्हीं आयामों को छूते हैं, जिनका आज के नवगीत में आग्रह है। इधर के उनके एक गीत की बिम्बाकृतियाँ तो एकदम नवगीत की जैसी ही हैं -

लो एक बजा दोपहर हुई
चुभ गई ह्रदय में बहुत पास/ फिर हाथ घड़ी की तेज सुई
पिघली सड़कें झरती लपटें / झुँझलाई लूएँ धूल भरी
अंबर ताँबा गंधक धरती / बेचैन प्रतीक्षा भूल भरी
...
रिक्शे वालों की टोली में / पत्ते कटते पुल के नीचे
ले गई मुझे भी ऊब वहीँ / कुछ सिक्के मुट्ठी में भींचे
मैंने भी एक दाँव खेला / इक्का माँगा पर खुली दुई

एक सीमेंट पत्थर-शहर की तपती दोपहर की समग्र आकृति है इस गीतांश में। सटीक विशेषणों के प्रयोग ने इस बिम्बाकृति को गहरे अर्थों से भर दिया है -'झुँझलाई लूएँ धूल भरी / अंबर ताँबा गंधक धरती' के इस असामान्य असहज महानगरीय माहौल में 'बेचैन प्रतीक्षा भूल भरी' और भी त्रासक हो जाती है। और फिर आता है 'रिक्शे वालों की टोली में / पत्ते कटते पुल के नीचे' का बिम्ब, जो हमें जोड़ता है जीवन के सहज अनुभवों-एहसासों से। किन्तु उसमें भी कवि का हिसाबी मन 'इक्का माँगा पर खुली दुई' से जूझकर अकेला-अधूरा रह जाता है। 'मुट्ठी में भींचे' सिक्कों से खेले सुख के दाँव की यही तो नियति होती है। यह कविता-अंश पूरी तरह नवगीतात्मक है, इसमें कोई संदेह नहीं है। 'फिर घर धुनिए की ताँत हुआ/ फिर साँस हुई असमर्थ रुई' जैसी समापन-पंक्ति किसी भी नवगीतकार के लिए एक सशक्त चुनौती है, यह भी निश्चित है।

भाई भारतभूषण एक समग्र गीतकवि हैं। गीतात्मकता उनके कवि का मूलभाव है। इसीलिए उन्होंने जब मुक्तछंद में अपनी सर्जनात्मकता को आकार दिया, तब भी उनकी गीतात्मकता अकुंठ-रही। उनकी बहु-ख्यात मुक्तछंद की कविता 'राम की जलसमाधि' उनकी इसी लयात्मक उपलब्धि का एक उत्कृष्ट उदाहरण है। उस कविता में वे उस धरातल को छूते हैं, जिसे महाकाव्यात्मक कहा जा सकता है। ईश्वरत्व एवं मानुषी लीला का उसमें अद्भुत समागम हुआ है। कविता का प्रारम्भ एक अनूठे बाह्य-आंतरिक वातावरण की सृष्टि से हुआ है, देखें -

पश्चिम में ढलका सूर्य / उठा वंशज / सरयू की रेती से / हारा-हारा / रीता-रीता
नि:शब्द धरा / नि:शब्द व्योम/ नि:शब्द अधर/ पर रोम-रोम/ था टेर रहा सीता-सीता

राम की जलसमाधि की यह बेला संपूर्ण समर्पण की है, जिसमें 'देवत्व हुआ लो पूर्णकाम/ नीली माटी निष्काम हुई', किन्तु यही बेला है त्रासक सुधियों की भी, जो बीत गया उसे सहेजने की भी। मानुषी राम विचलित हैं, क्योंकि उनकी 'इस स्नेहहीन देह के लिए/ अब साँस-साँस संग्राम हुई'। जीवन की निरर्थकताएँ और सार्थकताएँ गड्ड-मड्ड हैं इस अंतिम बेला में। एक ओर है राम का मानुषी ऊहापोह , जिसमें 'ये राजमुकुट/ ये सिंहासन/ ये दिग्विजयी वैभव अपार' के समक्ष हैं 'ये प्रियाहीन/ जीवन मेरा' तो दूसरी ओर है उनका लोकादर्श, जिस हेतु कवि का कथन है - 'इन अंचलहीन आँसुओं से/ नहला बूढ़ी मर्यादाएँ/ आदर्शों के जलमहल बना' क्योंकि फिर ‘राम मिले न मिले तुझको / कल ऐसी शाम ढले न ढले'। 'सिमटे/ अब ये लीला सिमटे' के इस जलसमाधि-पर्व में उभरती हैं फिर एक-एककर रामकथा की स्मृति-आकृतियाँ, जो मनोरम भी हैं और त्रासक भी -

फिर लहरों पर वाटिका खिली/ रतिमुख सखियाँ
नतमुख सीता/ सम्मोहित मेघबरन तड़पे'
....
फिर एक हिरन-सी/ किरन देह/ दौड़ती चली आगे-आगे
आँखों में जैसे बान सधा/ दो पाँव उड़े/ जल में आगे
...
फिर/ एक तपस्विनी शांत-सौम्य
धक्-धक् लपटों में निर्विकार/ सशरीर सत्य-सी/ सम्मुख थी
...
दो टुकड़े धनुष पड़ा नीचे/ जैसे सूरज के हस्ताक्षर
बाँहों के चन्दन -घेरे से/ दीपित जयमाल उठी ऊपर
सर्वस्व सौंपता शीश झुका/ लो शून्य राम/ लो राम लहर

जल में धीरे-धीरे समाधिस्थ होते, समाते राम के मन में उपजती ये बिम्बाकृतियाँ संकेतार्थ से सम्पूर्ण रामकथा को समेट लेती हैं। कवि भारतभूषण की शब्द-साधना को पूर्णकाम करती यह रचना हिंदी काव्य-जगत की एक महती उपलब्धि है। पंक्तियों का प्रवाह-उतार-चढ़ाव वैसा ही, जैसा सरयू की लहरों का, जो राम के नीलकमल पाँवों से ऊपर उठकर घुटनों-घुटनों, फिर नाभि-नाभि, भीतर-बाहर, आगे-पीछे 'वक्षस्थल तक' और फिर 'जल पर तिरता-सा नीलकमल/ बिखरा-बिखरा-सा नीलकमल/ कुछ और-और सा नीलकमल हो जाती है। और अंत में 'जल ही जल / जल ही जल केवल' में समाहित हो जाती है सकल सृष्टि, संपूर्ण रामभाव में समर्पित हो जाता है कवि का अंतरंग - ' हे राम-राम' की यह कवि भारतभूषण की काव्य-समाधि, सच में, प्रणम्य है। मेरी राय में, यह एक कालजयी रचना ही उनके कवि के आकलन के लिए पर्याप्त है।

भाई भारतभूषण बाहर-भीतर पूरी तरह एक हैं यानी स्नेह ही स्नेह। यही उनकी कविताई का भी मर्म है। कविता का यह एकांत साधक लोकेष्णा से सदैव दूर रहा। शायद इसी से वह एक संपूर्ण कवि होने के इतने निकट पहुँच पाया। समय की विसंगतियों को उसने समझा है- परखा है, किन्तु उन्हें अपनी कविता पर आरोपित नहीं होने दिया है। 'गीत लिखा प्रीत लिखा ... पुलकित हो गया मैं, आभार', मुझे लिखे पत्र के ये वाक्यांश भाई भारतभूषण के जीवन और कविता, दोनों को परिभाषित करते हैं। सात्त्विक अनुराग का यह कवि हमारी आस्थाओं/ आस्तिकताओं को दुलराता रहेगा अपनी रचनाओं के माध्यम से, इसमें कोई संदेह नहीं है। यश:शरीर से वे हमारे साथ सदैव उपस्थित रहेंगे। उनके स्मृतिशेष अनुरागी मन को मेरा शतशः नमन है।
(स्मृतिशेष भाई भारतभूषण को संबोधित)

भाई, यह क्या
छोड़ गये तुम
गीतों को चुपचाप अकेला

तुमने टेरा
गीत हुआ था सगुनापाखी
सूर-कबीरा-मीरा की
तुमने पत राखी

तुम थे
तब था लगता
जैसे हर दिन हो गीतों का मेला

तुम बिन सूना
गीतों का हो गया शिवाला
तुमने ही था
उसे नये साँचे में ढाला

नेह-देवता
सोच रहे अब
कौन करेगा ऋतु का खेला

तुमने सिखलाया था
कैसे गान उचारें
पतझर-हुए गीत को भी
किस भाँति सँवारें

थाती है
जो छोड़ गये तुम
गीतों का मौसम अलबेला

- कुमार रवीन्द्र

 

२ जुलाई २०१२

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