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संस्मरण

मूर्तियों के आगे की दवा और दंश
--डॉ. सत्येन्द्र श्रीवास्तव


आज २ अक्टूबर है। महात्मा गाँधी का जन्म दिन। शांति और अहिंसा के इस मसीहा की जयंती। उस व्यक्ति की जन्मतिथि जिनके बारे में हमारे युग के प्रसिद्ध वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंस्टीन ने कहा था कि आनेवाली पीढ़ियाँ विश्वास नहीं कर पाएँगी कि धरती पर ऐसा मनुष्य भी कभी जन्मा था।

लंदन के कावेंट गार्डेन के जिस इलाके में मेरा घर है वह इस महानगर के केन्द्र में होते हुए भी शांत रहता है। मेरे घर से कुछ ही दूर पर बड़े होटल थियेटर डांस हाल और कितने सारे क्लब हैं। फिर भी शाम के बाद धीरे धीरे पूरा क्षेत्र बिलकुल शांत और निस्वर हो जाता है। सिर्फ सुबह जब रेलिंग पर दूर से आकर पंछी बैठकर गुटरगूँ करने लगते हैं, तभी इस इलाके की शांति का रंग बदलता है। चूँकि मेरे घर से टेविस्टॉक स्क्वैयर केवल पाँच मिनट की बस यात्रा पर है इसलिये मुझे लगता है कि इस पूरे इलाके पर गाँधी जी की शांतिमय मुद्रा की छाया और रोशनी फैली हुई है।

पर जगत की स्थितियाँ दूसरी तरफ इससे भिन्न हैं। आजकल ज्यों ही समाचार पत्र पढ़ना शुरू करता हूँ या टेलीवीजन चालू करता हूँ तो हर तरफ से जो खबरे आती हैं, उनमें से अधिकांश में दंगे रक्तपात युद्ध और आतंकवादी हमलों के विवरण के अलावा और कुछ नहीं होता। तो जब कभी मन इन सब से आक्रांत हो जाता है, तब मैं सीधे टेविस्टॉक स्कवैयर जाता हूँ और महात्मा जी की मूर्ति के सामनेवाली बेंच पर बैठ जाता हूँ। वहाँ कुछ देर रहने के बाद एक राहत सी मिलती है क्यों कि स्फुट स्वरों में गाँधी जी से वह सब कुछ कह देता हूँ जो किसी अन्य सामाजिक प्राणी के आगे कहने का मुझे आधार नहीं मिलता। कभी कभी अपनी एक कविता की कुछ पंक्तियाँ भी गुनगुना देता हूँ। उनकी मौन मूर्ति के सामने। यह महसूस करते हुए कि उनके होंठों की स्थिति रेशे रेशे में सुख का संचार कर रही है। दवा का काम कर रही है।
हृदय मन को शीशों पर कितना
कुछ उतर रहा
सुख दुख के शत शत कारखानों से गुजर रहा
प्रश्न जो बनकर स्तंभ से दिखे कभी
अब भी हैं पर उन पर संशय ध्वज फहर रहा।

महात्मा गाँधी की इस मूर्ति की स्थापना जून १९६६ में ब्रिटिश प्रधानमंत्री हैराल्ड विल्सन द्वारा की गई थी। मैं उस समारोह में मौजूद था। भारत की आजादी की लड़ाई के संदर्भ में जिन कई अँग्रेज लोगों का नाम एंग्लोब्रिटिश इतिहास में स्वर्ण अक्षरों में लिखा हुआ है, वे भी वहाँ आए थे। ये लोग ऐसे उदारमना ब्रिटिश लोग थे जिन्होंने इंग्लैंड में रहकर भारत की आज़ादी की लड़ाई लड़ी थी। भारत के इन्हीं अंग्रेज मित्रों ने गांधी जी की हत्या के बाद उनकी एक मूर्ति को लंदन में स्थापित करने के लिये प्रस्ताव पास किया था। ऐसे लोगों की वरिष्ठ कमेटी के एक प्रमुख नेता लंदन में बसे हुए भारतीय थे, जिनका नाम था कृष्णा मेनन। ये लेबर पार्टी में काम करते हुए अपने आचार्य हेरल्ड लास्की के प्रभाव से काफी महत्त्वपूर्ण व्यक्ति हो गए थे। वे पहले भारतीय थे जिन्हें यहाँ की मुख्यतः गोरी जनता ने लंदन बारो से चुनाव में अपना प्रतिनिधि चुना था। मैं इसी बारो के एक हिस्से कावेंट गार्डेन में रहता हूँ। इसका मुझे बड़ा गर्व है। इसी इलाके में अनेक भारतीय नेता जैसे सुरेन्द्रनाथ बैनर्जी, रवींद्रनाथ टैगोर महात्मा गाँधी, जवाहरलाल नेहरू रहे और पढ़े थे।

भारत में आधुनिक शिक्षा प्रदान करने वाले शुरुआती विश्वविद्यालयों कलकत्ता, बंबई और मद्रास को लंदन विश्वविद्यालय के माडल पर स्थापित किया गया था। जिस स्थान पर गांधी जी की मूर्ति है और जिसके सामने की बेंच पर बैठकर मैं शान्ति पाता हूँ वहाँ से लंदन विश्वविद्यालय की विशाल बिल्डिंग दिखती है। यहीं से मैंने भी अपनी डाक्टरेट की उपाधि प्राप्त की थी। अतः इस पूरे क्षेत्र से मेरा आत्मिक लगाव है।

मूर्ति स्थापना के समय कृष्णा मेनन भी वहाँ मौजूद थे। हैराल्ड विल्सन ने लेबर पार्टी में किये गए कामों के लिये और महात्मा जी की मूर्ति स्थापना हेतु किये गए प्रयासों के लिये कृष्णा मेनन की भूरि भूरि प्रशंसा की थी। विल्सन ने गाँधी जी के बहुत से विचारों में आस्था रखते हुए यह कामना की थी कि महात्मा जी का शांति और अहिंसा का संदेश सारे जगत में फैले।

तो आज जब २ अक्तूबर २००४ के दिन मैं यहाँ बैठकर अपनी उलझनों को शांत कर रहा था और बीते वर्षों की स्मृतियों की गलियों से गुजर रहा था तो मैंने सोचा कि कैसा हो कि आज मैं विक्टोरिया के कैकस्टेन हाल की तरफ़ भी हो आऊँ जहाँ एक अन्य भारतीय स्वतंत्रता सेनानी ने अद्वितीय कार्य किया था। यह व्यक्ति थे सरदार ऊधम सिंह जिन्होंने जलियाँवाले बाग में हुए अँग्रेजी दमन का बदला इंगलैंड आकर लिया था। जलियाँवाला बाग पंजाब का वह स्थान है जहाँ क्रूर डायर ने लगभग ४०० भारतीयों को गोली का निशाना बनाया और लगभग हज़ार लोगों को घायल किया था। इसी घटना के बाद गाँधी जी ने निश्चय किया था कि भारत से अँग्रेजों को जाना पड़ेगा। तो इसीलिये मैं विक्टोरिया क्षेत्र में स्थित कैक्स्टेन हाल की तरफ गया। अपने उस पत्र के बारे में सोचते हुए जो मैंने वेस्ट मिंस्टर काउंसिल को यह माँग करते हुए लिखा था कि इस हाल में उस भारतीय स्वतंत्रता सेनानी के सम्मान में एक नाम पट्टी लगाई जाए। जैसे इटली के स्वतंत्रता सेनानी मैजिनी गैरीबाल्डी आदि की लगाई गई है। उस पत्र का कभी कोई उत्तर नहीं आया। और जब मैं जब मैं कैक्स्टेन हाल पहुँचा तो देखा कि उस हाल की बिल्डिंग को गिरा दिया गया है और अब उस बहुत महँगे इलाके में उसी जगह पर एक होटल बनाया जा रहा है।

मुझे उस स्थान की ऐसी नियति पर बहुत दुख हुआ, क्यों कि इसी जगह पर बैठकर मैंने अपना पहला ऐतिहासिक नाटक शहीद ऊधम सिंह और उनका समय लिखा था। इसी समय मुझे कुछ वर्ष पहले की एक बात और याद आई। हमारे एक भूतपूर्व प्रधानमंत्री श्री वी पी सिंह कैक्स्टन हाल से की पाँच मिनट की दूरी पर अपने इलाज के सिलसिले में एक होटल में ठहरे हुए थे। मुझे उनकी लघु कविताएँ बहुत पसंद थीं और कभी कभी मैं इन कविताओं को अपने केंब्रिज के विद्यार्थियों को सुनाता भी था। क्यों कि उन्होंने दिलचस्पी दिखाई तो मैंने सोचा कि अगर किसी दिन राजा जी का स्वास्थ्य ठीक रहा तो उनकी उनकी उन छोटी कविताओं को रेकार्ड कर के केंब्रिज यूनिवर्सिटी की आर्काइव में विद्यार्थियों के लिये रख दूँगा। वी.पी. सिंह जी तुरंत राजी हुए और कविताएँ रेकार्ड की गईं। बाद में जब बातचीत हो रही थी तो मैंन उनसे पूछा, कि आपने उस स्थान को देखा है जहाँ ऊधमसिंह ने जनरल डायर को सरे आम गोली मार दी थी। तो वी पी सिंह जी ने पूछा कि क्या वह यहीं है। मैंने कहा कि हाँ कोई पाँच मिनट की दूरी पर। उन्होंने कहा कि कल सुबह जब मार्निंग वाक के लिये निकलूँगा तो अवश्य देखूँगा।

दो अक्तूबर २००४ का दिन पहले गाँधी जी की मूर्ति क सामन बैठा फिर ऊधम सिंह वाले कैक्सटेन हाल पर पहुँचकर जो देखा तो दिमाग बहुत सी यादों और विचारों का युद्धस्थल सा बन गया। तभी मुझे लंदन में शुरू के कुछ दिन याद आने लगे। आज कैक्सटन हाल के ध्वंस पर जो इमारत खड़ी हो रही है उसी ने ऐसी संवेदना जगाई कि मन पिछली यादों में खो सा गया। स्मृतियों को कुछ पृष्ठ यूँ हैं।

अक्तूबर १९५८ लंदन आए कोई २ महीने हो गए हैं। इस बीच लगभग उन तमाम चीज़ों इमारतों को मैं यहाँ देख चुका हूँ जिसका लंदन आने वालों के लिये देखना लाजमी हो जाता है। पर आज अक्तूबर १९५८ के इस खुशहाल मौसम में मुझे वह सब देखने की इच्छा हुई जो इंगलैंड और भारत के ऐतिहासिक संबंधों पर प्रकाश डाले। विशेषकर नगर में खड़ी मूर्तियों को। क्यों कि जब कुछ हफ्ते पहले मैं ब्रिटिश म्यूजियम गया था तो जो देखा उसे देखकर आश्चर्य की सीमा नहीं रही। भारत का कितना कुछ यहाँ मौजूद है- प्राचीनकाल की मूर्तियाँ, मुद्राएँ, वस्त्र और क्या क्या नहीं। इतने अच्छे ढंग से सजा सँवारकर रख दिया गया है मैंने मन ही मन कहा खैर है कि ये चीज़ें यहाँ हैं और सुरक्षित हैं क्यों कि भारत में कुछ ऐसे पापी हैं जो कुछ पैसों के लिये भारत का उच्चतम और अद्वितीय विदेशों में बेच सकते हैं। यह विचार इसलिये आया कि उन दिनो प्रायः ऐसे समाचार मिलते थे कि अमुक बहुमूल्य वस्तु भारत से गायब हो चुकी है और देश के बाहर बेची जा चुकी है।

आज अगस्त १९५८ के दिन में लंदन में घूम रहा हूँ और भारत व इंगलैंड के संबंधों के प्रतीक के रूप में खड़ी किसी मूर्ति या किसी अन्य चीज के दर्शन हों इसका प्रयास कर रहा हूँ। जब इंगलैंड औद्योगिक क्रांति के दौर से गुजर रहा था तब भारत से लूट खसोट कर लाए हुए बेहिसाब धन और कच्चे माल ने इस औद्योगिक महाक्रांति को सफल बनाने में अपनी महत्तवपूर्ण भूमिका निभाई थी। किंतु आज घंटों लंदन के हृदय क्षेत्रों में भटकने बाद भी मुझे ऐसी कोई मूर्ति नहीं दिखी जो भारतीय संस्कृति का प्रतिनिधित्व करती हो। एक कब्रगाह भी नहीं। जो किसी शहीद या सूफ़ी या राष्ट्रीय नेता की याद दिलाती हो। उन भारतीय सैनिकों का की स्मारक भी नहीं जिन्होंने इस देश के लिये अपनी जानें दीं। अपना खून बहाया। शहर में घूमने पर इंगलैंड और भारत के ढाई तीन सौ वर्षों के संबंधों की जो निशानियाँ दिखीं वे थीं उन अंग्रेज सैनिक अफसरों की आदमकद मूर्तियाँ जिन्होंने भारत की पहली क्रांति जिसे १८५७ का गदर भी कहते हैं, का दमन किया था और भारतीयों पर विजय प्राप्त की थी। यहाँ मनुष्य पर मनुष्य के शोषण की कथा थी दंश था।

आज २००४ में ऐसी पृष्ठभूमि में मुझे लगता है कि इस देश में बसे हुए अपने को स्थापित किये हुए सफल और उत्तरोत्तर वृद्धि करते हुए भारतीय नस्ल के लोगों का कर्तव्य है कि वे इतिहास के इन अमर पृष्ठों को पढ़ें देखें और भारतीय स्वतंत्रता क अमर सेनानियों की मूर्तियाँ स्मारक आदि स्वयं स्थापित करें। हम पर अपने देश का एक ऐतिहासिक कर्ज है जिस तरह हमने इस देश में मंदिरों आदि की स्थापना की है उसी तरह यह भी आवश्यक है कि हम यहाँ भारतीय गरिमा के ऐतिहासिक चिह्नों को स्थापित करें और सतत क्रांति की मशाल प्रज्वलित करें।

पुरवाई से साभार

२७ सितंबर २०१०

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