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संस्मरण

दो बैलों की जोड़ी
ज़किया ज़ुबैरी


आज लगभग ५० वर्ष बीत जाने के बाद भी ऐसा अनुभव होता है जैसे कल ही की बात हो, अपने हरे भरे चमन को छोड़कर गोरी गई बिदेस, पर लौट कर नहीं आई। आज भी याद आता है इस अपने प्यारे आज़मगढ़ के एक-एक कोने में सारा-सारा दिन घूमते रहना। रात आने लगती थी तो उदासी छा जाती थी कि अब बाग़ में नहीं जा पाऊँगी, नदी के किनारे नहीं घूम सकूँगी। पानी डाल कर ठंडी की हुई कुएँ की जगत पर नहीं बैठ सकूँगी जो कि आत्मा को शांति देती है।

दो बैलों की जोड़ी कुएँ से पानी खींचने के लिए मोटे रस्से से बाँध दी जातीं, मोठ से पानी खींचने के लिए बाग़ को ज़िंदा रखने के लिए। मैं भी कभी-कभी उनकी इस रस्सी को पकड़कर ऊपर से नीचे जाती थी। थोड़ा-सा बोझ पानी का बंटा लेने के लिए क्यों कि समय बीत जाने के बाद उन बैलों की बड़ी-बड़ी काली-काली आँखें भीगने लगतीं थीं। अपना ही खींचा हुआ पानी उनकी अपनी ही आँखों में उतर आता था। और मैं... मैं बुधराम से इलतेजा करने लगती कि अब इस जोड़ी को आराम करने दो।

जब वे दोनों बैल पीपल के इस विशाल दरख़्त की ओर थके हारे चलते तो मैं उनसे पहले दौड़कर उनकी नांद की ओर पहुँच जाती – उनका चारा देखने के लिए, कि डाला जा चुका है या नहीं। जब बैल गर्दन झुकाए खाने में व्यस्त होते उनके मुँह से लार बहती हुई टपकती रहती। चने खाने से जो ध्वनि पैदा होती, वह कानों को सुकून बख़्शती और चारा चबाए जाने से जो भूसे की ख़ुशबू नाक में जाती तो इससे मेरे अन्दर की माँ जाग उठती और मैं खुश हो जाती। फिर पीपल के उस मोटे तने के दूसरी ओर पहुँच जाती सय्यद बाबा की कब्र पर जलाए गए दिए जमा करने, जो रात भर जलने के बाद काले होकर कब्र पर पड़े, जैसे उस छोटी लड़की की राह तक रहे हों जो उनको उठाकर कब्र को साफ़ कर देती है और दीयों में तीन छेद करके तराज़ू बना लेती और सारे दिन इस इंसाफ़ के तराज़ू से खेलती और साथियों को भी खेलने देती।

आज भी याद है शाम को अबाबील अपने काले-काले पर खोले, ढलते हुए सूरज की रोशनी में चैं-चैं करती या तो मेरी तरह घर जाने की उदासी में अपने घोंसले में बैठे बच्चों को आमद की ख़बर दे रही होतीं। उस समय परों को आसमान में तानकर तीर की तरह उड़ती अंधेरे में ग़ायब हो जातीं। मैं भी थककर घर में जाती तो अम्मी की आवाज़ आती, "आ गईं कमाई करके? ... हाथ पैर ठीक से धोना, फिर खाना मिलेगा!" और मुझे ताज़े दाल चावल की महक भूख से पागल कर देती।

सोते-सोते भी सुबह का इन्तज़ार रहता कि जैसे हफ़ीज़ मन्ज़िल - जो नरोली गाँव से लेकर बड़े पुल तक और टौंस नदी से चलकर मिशन अस्पताल के खावें तक फैली हुई थी – उसका कोना-कोना मेरी राह तक रहा होगा। सुबह के नाश्ते के बाद बाहर भेज दिया जाता – मौलवी साहब से कायदा पढ़ने जो कि वहीं पक्के बने खूबसूरत क्वार्टर में रहते जिनके क्वार्टर के सामने ही तीन बड़े-बड़े शहतूत के दरख़्त शहद की तरह मीठे और एक खटमिट्ठे शहतूत का दरख़्त जिनकी डालियाँ भी बोझ से झूल रही होतीं। सुबह-सुबह बाग़बान चादरें बिछाए हिला-हिलाकर शहतूत झाड़ रहे होते। मैं भी मदद करने में जुट जाती तो अचानक ख़याल आता कि बेले के पौधों पर रखा क़ायदा मेरा इंतज़ार कर रहा है। जल्दी से शहतूत के पत्तों का दोना बना कर उसमें मीठे वाले शहतूत ले मौलवी साहब के पास पहुँच जाती। शहतूत पाकर मौलवी साहब खुश भी होते, शहतूत खा भी लेते पर गिड़गिड़ाने के बावजूद पढ़ाते भी और मारते भी।

बड़े आम के विशाल दरख़्त से छोटे-छोटे तुख़मी आम तोड़ना और खाना आज भी याद है और यह भी याद है कि आज तक इतने मीठे आम फिर कभी नहीं खाए। जज साहब की कोठी के सामने लगे हुए लखनव्वा सफ़ेदे के पेड़ के नीचे बैठ कर ही तो ज्ञान प्राप्त हुआ था। रोज़ वहाँ जाकर चुप बैठा करती थी। शायद सारे दिन में वही समय होता जो बैठकर सोचती बड़ी होकर क्या-क्या करूँगी! ज़िन्दगी का बहुत बड़ा प्लान था कि यहाँ और घने-घने बाग़ लगा दूँगी, अपनी अच्छी सुन्दर-सी कश्ती टौंस नदी में डालूँगी, शीशम के पेड़ों की सरसराहट करती हुई हवा को और पेड़ लगा कर और सरसराहट पैदा करूँगी, घर के सामने लगे हुए गुलाब और स्वीट पीज़ की फूल चारों ओर लगा दूँगी। फिर स्वीट पी की खुशबू निचोड़कर बोतल में भरकर रख दूँगी जिससे सारे साल उन फूलों की खुशबू हर तरफ़ बिखेरी जा सके।

मुझे और मेरे पति सलीम अहमद ज़ुबैरी को आज़मगढ़ की खुशबू का अहसास तो नई दिल्ली के इंदिरा गांधी हवाई अड्डे पर ही हो गया था। इमीग्रेशन विभाग एक ऐसा इलाक़ा है जहाँ आमतौर पर पाकिस्तान नागरिक भारत में और भारतीय नागरिक पाकिस्तान में घबराहट के बिना निकल नहीं सकते। नई दिल्ली के इमीग्रेशन सेक्शन में जब मैं और सलीम पहुँचे और इमीग्रेशन अधिकारी को पता चला कि मैं आज़मगढ़ की बेटी के तौर पर वहाँ जा रही हूँ, तो उसने हम दोनों को एक कमरे में बैठने को कहा। सलीम थोड़ा घबराए कि हमें कमरे में क्यों ले जाया जा रहा है। उस अधिकारी उपेन्द्र राय ने बताया कि वह स्वयं आज़मगढ़ का रहने वाला है। उसने सगे भाई से बढ़ कर हम दोनों का सत्कार किया और चाय नाश्ता करवाने के बाद ही हमें कस्टम हाल से बाहर निकलने दिया। वह स्वयं हमारी ट्राली खींचते हुए हमारे साथ साथ चले।

पूरे बावन साल बाद मैं जब अपने स्वर्ग में आने की योजना बना रही थी तो मन में उमड़ती भावनाओं को शब्दों में व्यक्त कर पाना संभव नहीं है। हालाँकि मेरा जन्म लखनऊ में हुआ फिर भी कहा जा सकता है कि मैं आज़मगढ़ की बेटी हूँ जो आज़मगढ़ में परवान चढ़ी, इलाहाबाद में जवान हुई और बनारस में विद्यावान बनी। माधुरी सिंह जी ने आज़मगढ़ की उसी बेटी को घर वापस आने की दावत दी थी। उनके निमंत्रण ने मेरी आँखों से खारी टौंस की धारा बहा दी। मेरे लिए प्रतीक्षा की घड़ियाँ काटना कठिन हो रहा था। विडंबना यह कि मेरी मेज़बान उसी हफ़ीज़ मंज़िल के एक हिस्से में रहती हैं जहाँ की यादें मेरे दिल में बाबस्ता हैं। मैं हफ़ीज़ मंज़िल की एक वक़्त की मालकिन अपने ही घर मे मेहमान बन कर जाने वाली थी।

बनारस से आज़मगढ़ की यात्रा की अनुभूतियाँ भी बस अपनी तरह की यादें हैं। माधुरी जी ने मेरी एक ऐसी अभिलाषा पूरी करने का निर्णय ले लिया था जिसकी गहराई से संभवतः वह स्वयं भी परिचित नहीं थीं। वे मुझे बनारस से सीधी आज़मगढ़ के राजकीय उच्चतर माध्यमिक बालिका विद्यालय में ले जा रही थीं। मैं मन ही मन अपने स्कूल के चित्र बना रही थी मिटा रही थी। बावन वर्षों पश्चात भी मेरा स्कूल वहाँ खड़ा अपने अस्तित्व का औचित्य सिद्ध कर रहा है। मेरी आँखों के सामने लंदन के स्कूलों की छवि थी जहाँ से मेरे अपने बच्चों ने पढ़ाई पूरी की थी। मेरे मन में कहीं यह कामना भी हूक रही थी कि मेरा अपना स्कूल इतना बड़ा, सुन्दर व महत्वपूर्ण बन चुका हो मैं उसे पहचान ही न पाऊँ। मेरे ख़्याली पुलाव में खेल-कूद के नये साधन व घास के बड़े-बड़े लॉन भी दिखाई दे रहे थे।

हमारे काफ़िले में शामिल थे मेरे शौहर सलीम ज़ुबैरी हमारे दो पत्रकार मित्र अजित राय भारत से और तेजेन्द्र शर्मा लंदन से। बनारस से सफ़ेद रंग की टोयोटा इनोवा में सवार जब मैं अपने स्कूल के मुख्य द्वार पर पहुँची तो पेट और टाँगों का ठीक वही हाल था जो कभी स्कूल के सालाना इम्तहान में जाते समय महसूस होता था। एक तरफ़ अपने बचपन की यादों से सराबोर स्कूल तो दूसरी तरफ़ एक खस्ता हाल इमारत। यह भी नहीं समझ में आ रहा था कि कॉर्पोरेशन का दफ़्तर कहाँ ख़त्म होता है और स्कूल कहाँ से शुरू होता है।

किन्तु इंतज़ाम इतने पुख्ता था के साफ़ पता चल रहा था कि जैसे सारा स्कूल मेरी ही प्रतीक्षा कर रहा हो। स्कूल में अधिकतर अध्यापिकाओं की पीली साड़ियाँ देख कर लगता था जैसे वसंत ऋतु ने स्कूल को अपने घेरे में ले लिया हो। स्कूल की प्रिंसिपल साहिबा ने आगे बढ़ कर मेरा स्वागत किया और मुझे अपने कमरे में ले गईं। वहाँ एक प्लेट में बर्फ़ी करीने से सजा कर रखी थी और साथ ही शीतल पेय। मैं जैसे धरती पर कदम नहीं रख पा रही थी। अचानक प्रिंसिपल साहिबा ने मुझे अपनी कुर्सी पर बैठने की दावत दी। मेरे लिए यह पल यादों की सबसे कीमती धरोहर हैं। जिस कमरे के बाहर सज़ा के तौर पर मेरी शैतानियों को खड़ा कर दिया जाता था, उसी कमरे में अपनी ही प्रिंसिपल की कुर्सी पर मैं विराजमान थी। सलीम और अजित राय इस पल के गवाह थे और शर्मा जी इन पलों को अपने कैमरे में कैद किए जा रहे थे। मैं नहीं जानती थी कि कब तक मेरे आँसू मेरी बात मान कर मेरी आँखों मैं क़ैद रहने की आज्ञा का पालन करते रहेंगे।

सारे स्कूल की कक्षाओं में मुझे प्रिंसिपल स्वयं ले कर गईं। मैंने देखा कि माधुरी जी कहीं खड़ी सलीम और अजितराय के साथ बातें कर रही हैं। फिर मैं किसी दूसरे कमरे में ठेल दी जाती। हर कमरे में लड़कियाँ पढ़ती दिखाई दे रही थीं। मैं कहीं मन ही मन गौरवान्वित भी अनुभव कर रही थी कि मेरे अपने शहर में इतनी लड़कियाँ शिक्षा ग्रहण कर रही हैं। कम से कम सुविधाओं में अच्छी शिक्षा ग्रहण करने का प्रयास! बंदर पचास साल बाद भी स्कूल में मौजूद थे। मैं समझ नहीं पा रही थी कि यह मेरे युग के बंदरों की यह कौन-सी पीढ़ी होगी। वैसे स्कूल बदल चुका था। बहुत से कमरे उस समय नहीं रहे होंगे। प्रिंसिपल अपनी याददाश्त से सोचने का प्रयास कर रही थीं कि मेरे ज़माने में स्कूल का कौन-सा हिस्सा सक्रिय रहा होगा। मैं उस खुशी में वो सभी सवाल भूल चुकी थी जो स्कूल को लेकर मेरे मन में उठ रहे थे।

हमारा अगला पड़ाव था हाफ़िज़ मंज़िल! मैं अंदाज़ लगा रही थी कि शायद वहाँ अम्मी अचानक दिखाई दे जाएँ और मेरी शरारतों के कान उमेठने लगें। फिर वहाँ भावज मुझे अपनी बाहों में छुपा लें। वहाँ के गोल खम्भों वाला बरामदा मुझे अपनी ओर पुकार रहा था। मैं अपने प्यारे से कुएँ, आम के पेड़, शहतूत के दरख़्त, अपने दादा की मज़ार, टौंस नदी के किनारे, अपने धोबी के बेटे और न जाने किस-किस को याद कर रही थी। जब बड़े पुल के पास से गुज़री तो हैरान रह गई। वह पुल तो बहुत ही छोटा हो गया था। भला उसे बड़ा पुल कहा क्यों जाता था? बचपन में मैं उस पुल के गोल दायरों में से पूरी की पूरी गुज़र जाया करती थी। अब तो उसमें से शायद मुँह भी न निकल पाए। वक्त के साथ सब कुछ कैसे बदल जाता है अगर चीज़ें न बदलें तो हम बदल जाते हैं या फिर हालात!

बावन वर्ष बाद भी मैं अपनी हफ़ीज़ मंज़िल का रास्ता पहचान पा रही थी। मैं सोच रही थी कि बस अब माधुरी सिंह की कार दायीं ओर मुड़ेगी और फिर दाईं ही ओर हफ़ीज़ मंज़िल का रास्ता होगा। माधुरी उधर मुड़ीं ज़रूर, हम भी मुड़े, किन्तु सामने एक सीधी सी गली दिखाई दी जिसके सामने डा. सिंह के नाम की पट्टी लगी थी। हफ़ीज़ मंज़िल जैसे अपना रास्ता खुद ही भूल गई थी। हफ़ीज़ मंज़िल का रास्ता अब बन्द हो चुका है। अब वहाँ दीवार खड़ी कर दी गई है। मेरे दिमाग़ में एक ही बात को लेकर उथल पुथल मच चुकी थी – दीवार में रास्ता! कैसे बनेगा? कौन बनाएगा दीवार में रास्ता?

हम अपनी टोयोटा इनोवा को वापस मुख्य सड़क पर ले आए। हमने अपने भतीजे जमशेद को फ़ोन मिलाया। पिछले कुछ दिनों की बातें और यादें हमारे दिमाग़ को मथने लगीं। इंदिरा गान्धी हवाई अड्डे से लेकर इंडिया इंटरनेशनल सेन्टर में रहना, सिरी फ़ोर्ट ऑडिटोरियम में शर्मा जी के कहानी संग्रह बेघर आँखें का विमोचन और डॉ. गोपीचंद नारंग एवं डॉ. नामवर सिंह से भेंट, जामिया मिलिया विश्वविद्यालय में मेरा और शर्मा जी का लेक्चर, वहाँ असग़र वजाहत, राजेन्द्र यादव अब्दुल बिस्मिल्लाह और रहमान मुस्सविर से मुलाक़ात, यमुना नगर के गर्ल्ज़ कॉलेज में मेरा वक्तव्य एवं वहाँ की विद्यार्थियों द्वारा अभिनीत नाटक, करनाल के पुलिस हेडक्वार्टर में विकास नारायण राय द्वारा निर्देशित नाटक १८५७ का मंचन जिसमें ७५० कलाकारों ने भाग लिया, दिल्ली में शर्मा जी के परिवार और मौसेरे भाई से मुलाक़ात – ये सब एक फ़िल्म की तरह पल भर में मेरी आँखों के सामने से गुज़र गए।

अचानक मेरी कार की खिड़की के पास से आवाज़ आई, "छोटी जान...!" और मैं तल्ख़ सच्चाइयों के बीच वापस आ गईं। यह आवाज़ जमशेद की थी – मेरा भतीजा। माधुरी जी ने मुझ से विदा ली और शाम को नेहरू हॉल के कार्यक्रम के लिए समय पर पहुँचने की हिदायत दी। मैं जमशेद के साथ उसकी क्वालिस में बैठ गई। गाड़ी में उसके दोनों बेटे भी मौजूद थे। सलीम और टोयोटा इनोवा हमारे पीछे चल दी। मुख्य सड़क से कच्चे रास्त पर जब जमशेद की कार मुड़ी तो हिचकोले खाने लगी। जमशेद शर्मिन्दा हो रहा था। मैं कच्चे रास्ते के ज़ोरदार हिचकोलों को सहती अपनी मंज़िल की ओर बढ़े जा रही थी।

मैं खेतों को देख रही थी और बीते वक्त को याद कर रही थी। आज स्कूल में मिले स्नेह ने मुझे भावनाओं से ओतप्रोत कर दिया था। मैं सोच रही कि इतनी भावनाओं को मैं कहाँ सँभाल पाऊँगी? मुझे वह पीपल का पेड़ नहीं दिखाई दे रहा न ही बड़ा आम का दरख़्त, "मोहसिन वहाँ एक पीपल का पेड़ हुआ करता था और उधर दूसरी तरफ़ आम का। उनका क्या हुआ।"
"छोटी जान आप तो पचास साल पुरानी बातें कर रही हैं। अब तो कई पेड़ कट चुके हैं।"
अपने प्रिय पेड़ों के कट जाने का दु:ख मुझे भीतर तक भिगो गया। जमशेद की क्वालिस रुकने लगी। मैनें कुछ पलों के लिए आँखें भींच कर बन्द कर लीं। गाड़ी पूरी तरह से रुक गई। जमशेद ने उतर कर मेरी तरफ़ का दरवाज़ा खोला। सबसे पहले जमशेद की पत्नी सीमा आकर मेरे गले मिली। भावज अन्दर बैठी थीं। मैंने भावज को देखा कुछ देर बस ताकती रही, ख़ुद आगे बढ़कर भावज के गले मिली। भावज अपना रोना रोक नहीं पाईं। उनकी कम देखती आँखें भी आँसुओं की धार की तेज़ी को महसूस कर लेती हैं। मैं भावज के हाथ अपने हाथों में लेकर बैठ गई। शर्माजी ने भावज के पांव छुए। अजित राय ने भी वही किया।

कुआँ भर दिया गया था, दादा जान की कब्र झाड़ झंखाड़ों में कहीं ढँक गई थी, दिखाई नहीं दे रही थी, शहतूत के पेड़ भी नदारद थे। गोल खम्भों वाला बराम्दा जिसे लोग दूर-दूर से देखने आते थे, आज भुतहा-सा लग रहा था। कई खम्भे टूट फूट गए थे। रंग पीला पड़ गया था। मकड़ी के घने जाले लटक रहे थे। "ये कैसे हो गया?" मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि इतनी बड़ी जायदाद का मालिक जमशेद, ग़रीबों की ज़िन्दगी जीने को क्यों अभिशप्त है! उस पूरे माहौल में बस एक भावज थीं जो मेरे लिए उस उमस भरी दोपहरी में ठण्डी हवा के झोंके का काम कर रही थीं। वो मेरे बचपन की शरारतों और अम्मी की पिटाई का ज़िक्र करते करते भावुक हुए जा रही थीं। मेरा बचपन उन्हीं के हाथों परवान चढ़ा था।

मेरे लिए अपने आँसुओं को रोक पाना संभव नहीं था। हिचकियों ने भी आँसुओं का साथ दिया। सलीम ने मुझे बहुत बार रोते हुए देखा है लेकिन मेरे इन पलों के आँसुओं से वे भी विचलित हुए बिना नहीं रह पाए। पचहत्तर साल की उम्र में वे अचानक एक नौजवान कन्धा बन कर मेरे आँसुओं की बाढ़ को नियन्त्रित करने लगे। मैं बहुत देर तक सुबकती रही।

जमशेद ने अपनी हैसियत से बढ़ कर हम सबके दोपहर के भोजन की तैयारी की थी। भावज ने अपने हाथों से मेरे बचपन की पसन्द की तरकारी और दाल बनाई थी। हम सबने मिलकर भोजन किया। मेरे लिए जैसे एक मुसलसल सपना चल रहा था। जो मैं कभी सोच भी नहीं सकती थी वो सब अजित राय और माधुरी सिंह ने मेरे लिए सच कर दिखाया था। मेरा मन नहीं चाह रहा था कि मैं हफ़ीज़ मंज़िल से कहीं और जाऊँ। किन्तु शर्मा जी और अजित राय ने इतना कसा हुआ प्रोग्राम बना रखा था कि हर जगह घंटे और मिनटों में रुकना ही संभव था। मेरी इच्छाओं के विरुद्ध घड़ी की सुइयाँ अपनी यात्रा पूरी किए जा रही थीं। मिनट की सुई का हर एक चक्कर मेरा एक घंटा समाप्त कर देता था। शर्मा जी ने इशारा किया और मालूम हो गया कि विदाई का समय आ गया है। हफ़ीज़ मंज़िल का रास्ता रोकती दीवार जैसे मेरे अपने दिल पर बन गई थी। उस बोझ को साथ लिए मैं एक बार फिर अपनी ज़मीन से दूर होने जा रही थी। भावज से एक बार फिर मिली, बच्चों को आशीर्वाद दिया और अबकी बार अपने काफ़िले के साथ बैठी मैं नेहरू हॉल की तरफ़ चल दी।

नेहरू हॉल में आज़मगढ़ ने अपनी बेटी और दामाद के सम्मान के लिए कार्यक्रम आयोजित किया गया था। इस कार्यक्रम की मेज़बान भी माधुरी सिंह की संस्था संगिनी ही थी। मुझे इस कार्यक्रम के लिए कहीं कपड़े बदलने तक का समय तक नहीं मिला था। वो समय मैंने अपनी भावज को दे दिया था। गाड़ी में मैं सबके बाद बैठी। आख़री लम्हे तक हफ़ीज़ मंज़िल की याद को अपनी आँखों के ज़रिये अपने मन में बैठा लेना चाहती थी।

नेहरू हॉल में मेरे स्कूल की प्रिंसिपल, अध्यापिकाएँ, राजनेता, सामाजिक कार्यकर्ता, आम आदमी सभी मौजूद थे। हॉल खचाखच भरा हुआ था। उस पूरे कार्यक्रम में कहीं हिन्दू मुसलमान वाली कोई बातचीत नहीं थी। बस एक शहर अपनी बेटी का बाबुल बन कर स्वागत कर रहा था। सलीम के लिए भी अपने आप में एक अनूठा अनुभव था। शहर के मोअज़िज़ शहरियों ने मेरी उपलब्धियों के बारे में इतना कुछ कहा कि मेरे लिए अपनी भावनाओं पर नियन्त्रण रख पाना बहुत मुश्किल होता जा रहा था। जब सलीम ने मेरे साथ खड़े हो कर पारंपरिक दिया जलाया और उनके गले में चुनरी पहनाई गई, मैं आज़मगढ़ की मिट्टी से और अधिक शिद्दत से जुड़ गई। मेरा जी चाह रहा था कि उस वक्त मेरे सभी भाई-बहन और उनके परिवार भी मेरे साथ होते और देखते कि उनकी सबसे छोटी बहन अचानक बड़ी हो गई है। मुझे अहसास हो रहा था कि मेरी अम्मी कहीं आसपास हैं जो कि अपनी नालायक बेटी पर अचानक गर्व करने पर मजबूर हो गई हैं। अपनी बात कहते कहते मेरी आवाज़ भर्राने लगी और मैंने शर्मा जी से ग़ुज़ारिश की कि वे मेरी लिखी हुई बात श्रोताओं तक पहुँचा दें। उन्होंने मेरी लिखे गद्य को कुछ इस अंदाज़ से पढ़ा कि मेरे समेत सभी उपस्थित जनसमूह को लगा कि मैंने कोई लंबी-सी कविता लिख दी है।

अभी हमारे प्रोग्राम में बहुत कुछ और शामिल था। एक प्रेस कॉन्फ़्रेंस, शहर के डी.एम. के साथ चाय और फिर माधुरी जी के साथ रात का खाना। प्रेस कॉन्फ़्रेंस में मैंने लंदन में हिन्दी और उर्दू के बीच दूरियाँ कम करने के कार्यक्रमों की सूचना दी। डी.एम. के साथ चाय के दौरान भारत के प्रति मेरी इज़्ज़त और श्रद्धा और बढ़ गई जहाँ इतने युवा अधिकारी पूरे शहर के इंचार्ज बनाए जा सकते हैं। और रात के खाने के दौरान माधुरी सिंह के व्यक्तित्व के बहुत से पहलुओं से परिचय हुआ। वहीं उनके पति किशोर सिंह और आज़मगढ़ के नए आर.टी.ओ. डॉ. विक्रम सिंह से भी मुलाक़ात हुई। विक्रम सिंह एक युवा अधिकारी होने के साथ-साथ एक सुलझे हुए कवि और लेखक भी हैं।

हमारे लिए रात को रहने का इंतज़ाम शिवली कालेज के होस्टल में किया गया था। इस कालेज में मेरे बड़े भाइयों ने तालीम हासिल की थी। इसलिए इस कालेज से मेरा एक भावनात्मक लगाव भी है। अगली सुबह मेरे लिए हैरानी भरी थी। शहर के तमाम अख़बारों ने अपने शहर की बेटी के आगमन की ख़बरें प्रमुखता से छापी थीं। बहुत से लोग मिलने आ गए। गोपाल राय तो अपने साथ आँसुओं में डूबी भावनाएँ भी अपने साथ ले आए।

आज़मगढ़ ने बावन सालों बाद मुझे वो सब दिया जो किसी राजा का महल, पश्चिम का देश, या ख़ुद जन्नत भी नहीं दे सकते।

५ मई २००८

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