| तृतीय
            अन्तर्राष्ट्रीय हिन्दी सम्मेलन (यूरोप) डा
            गौतम सचदेव तृतीय
            अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी सम्मेलन दिनांक 21 मार्च से 23 मार्च को
            लंदन में भारतीय उच्चायोग के तत्वावधान में यूके
            हिन्दी समिति द्वारा आयोजित हुआ। इसमें भाग लेने के लिए
            देशविदेश से आये हिन्दी के प्रसिद्ध विद्वानों ने यूरोप में
            हिन्दी साहित्य, हिन्दी से अन्यान्य भाषाओं में अनुवाद और
            उनसे हिन्दी में अनुवाद, एवं हिन्दी के विदेशी भाषा के रूप
            में शिक्षण जैसे गंभीर, व्यापक तथा जटिल विषयों पर अपने
            सारगर्भित विचार तथा आलेख प्रस्तुत किये। सम्मेलन का
            उद्घाटन करते हुए भारत के उच्चायुक्त महामहिम रॉनिन सेन
            ने हमें जो आशीर्वाद और शुभकामनाएं दी हैं, वे भविष्य
            में हमारा सम्बल रहेंगे और इस प्रकार के और भी सम्मेलन
            करने के लिए हमारा प्रोत्साहन करते रहेंगे। भारत से इस
            आयोजन के लिए विशेष रूप से पधारे प्रख्यात कवि एवं
            साहित्यकार और उत्तर प्रदेश विधान सभा तथा उत्तर प्रदेश हिन्दी
            संस्थान के अध्यक्ष माननीय केशरी नाथ त्रिपाठी जी ने अपने
            अध्यक्षीय भाषण में विशेष रूप से उल्लेख किया कि हम अपनी
            राष्ट्रभाषा हिन्दी से विदेशों में अपनी बड़ी उज्ज्वल पहचान
            बना रहे हैं। त्रिपाठी जी ने हिन्दी की संपन्नता का गुणानुवाद
            करते हुए उसकी शक्ति, व्यापक शब्दभंडार, नये शब्द गढ़ने की
            क्षमता और वैज्ञानिक व्याकरण की विशेष रूप से चर्चा की।
            उन्होंने हिन्दी के प्रसार और प्रचार के लिए अनुवाद की
            अनिवार्यता पर बल देते हुए आग्रहपूर्वक कहा कि हम सबमें हिन्दी
            के लिए समर्पणशीलता और प्रतिबद्धता होनी चाहिए। अपने स्वागत भाषण
            में अकादमिक समिति के अध्यक्ष और प्रसिद्ध कवि, नाटककार एवं
            केम्ब्रिज विश्वविद्यालय के भूतपूर्व प्रवक्ता डॉ सत्येन्द्र
            श्रीवास्तव ने हिन्दी के महत्व और गौरव को रेखांकित करते हुए,
            स्थानीय लेखकों की प्रतिष्ठा, रचनाशीलता और अध्यवसाय पर
            बल दिया। इस अवसर पर
            यूके हिन्दी समिति के अध्यक्ष डॉ पद्मेश गुप्त ने ब्रिटेन
            में हिन्दी सम्मेलनों का इतिहास एवं तृतीय अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी
            सम्मेलन की पृष्ठिभूमि बताते हुए कहा कि यूरोप के हिंदी
            प्रेमियों को एक मंच पर इकठ्ठा करने की ओर एक रणनीति बनाने
            योजना के लिए लंदन में तृतीय अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन
            का आयोजन एक महत्वपूर्ण कदम हैं। उद्घाटन समारोह
            में कृति यूके द्वारा संयोजित संगीत, नृत्य और नाट्य
            के अत्यंत नयनाभिराम, श्रुतिमधुर और सरस कार्यक्रमों ने
            सबका मन मोह लिया। सभागार में उपस्थित सहृदय श्रोताओं
            और दर्शकों के मन मयूर उस समय नाच उठे, जब मयूर और
            मयूरी बने कलाकारों ने मंच पर मयूर नृत्य प्रस्तुत
            किया। बाल कलाकारों की सरस्वती वन्दना और रिमझिम
            नृत्यनाटिका एक प्रकार से अमृत की वर्षा ही कर रही थी और वन्दे
            मातरम् के नाट्य ने तो मानो मंच पर देशभक्ति को ही
            साकार कर दिया। लक्ष्मी मल्ल सिंघवी जी के गीत हिन्दी है
            पहचान हमारी, हिन्दी हम सबकी परिभाषा और अनिल शर्मा
            के फूल न पत्ती न तना, भाषा को जड़ मान, स्वभाषा से
            पायेगा तू अपनी पहचान जैसे दोहे, निश्चय ही श्रोताओं
            के मन में अब भी गूंज रहे होंगे। अन्त में गेब्रियल
            सिंगर के संचालन और संगीत निर्देशक विनय के तेरा
            मिलना पल दो पल का, मेरी धड़कनें बढ़ाये जैसे फड़कते
            हुए गीतों ने उद्घाटन समारोह की संध्या को और भी
            मनोहारी बना दिया। दूसरा दिन अकादमिक
            सत्रों का दिन था। इनमें पहला सत्र अनुवाद का था, जिसका
            संयोजन बीबीसी के भूतपूर्व प्रसारक विजय राणा ने किया
            और अध्यक्षता की डॉ सत्येन्द्र श्रीवास्तव ने। विद्वान वक्ता
            थे भारत से आये केहार एविंद, रूस से डॉ लूद्मीला
            वसील्येवा, लंदन से डॉइतेश सचदेव, बर्मिंघम से
            डॉ कृष्ण कुमार और केंब्रिज से लीज़ा क्लैरी। विद्वान
            वक्ताओं ने अपने भाषणों, आलेखों और प्रोजेक्टर के
            माध्यम से जो विषय उठाये, उनमें प्रमुख थे ध्वन्यात्मक
            शब्दों के अनुवाद की समस्या, वैदिक मन्त्रों और महाभारत आदि
            ग्रन्थों में अभिव्यक्त समस्त विचारों, दर्शनों और
            भावों के अनुवाद की समस्या, अनुवाद की सटीकता और रोचकता,
            कविता का अनुवाद, समाज मनोविज्ञान और अनुवाद की
            समस्या, अनुवाद की सटीकता और रोचकता, कविता का अनुवाद,
            समाज मनोविज्ञान और अनुवाद, अपनी भाषा और उसके
            उच्चारण को सुरक्षित रखने का प्रश्न, भाषा और अस्मिता, श्रव्य
            तथा दृश्य पुस्तकें और मूल रचना के अस्तित्व के समकक्ष उसके
            अनूदित रूप का अस्तित्व। वक्ताओं ने ज्यामितिक चित्रों, ग्राफ
            और प्रोजेक्टर के माध्यम से मुद्रित अनुवाद के दृश्य और श्रव्य
            पक्षों को बड़े प्रभावशाली ढंग से स्पष्ट किया, जिसके
            साथसाथ प्रबुद्ध श्रोताओं के प्रश्नों का क्रम भी चलता रहा। भोजन के उपरान्त जब
            यूरोप में हिन्दी साहित्य शीर्षक से दूसरा सत्र आरम्भ हुआ, तो
            उसका कुशल संयोजन प्रसिद्ध लेखक नरेश भारतीय ने किया। सत्र
            की अध्यक्षता भारत से आये प्रख्यात लेखक और विद्वान श्री
            शैलेन्द्रनाथ श्रीवास्तव ने की। वक्ता थे नीदरलैंड से आये
            डॉ मोहन कान्त गौतम, पोलैंड से पधारी डॉ दानूता
            स्ताशिक, हंगेरी से आयी श्रीमती उर्मिला गुप्ता, लन्दन के
            नेहरू केन्द्र की सुश्री दिव्या माथुर, बीबीसी हिन्दी सेवा के
            भूतपूर्व संयोजक कैलाश बुधवार और भारत से आयी सुश्री
            उषा रत्नाकर शुक्ल। विद्वानों ने अपनेअपने देश में हिंदी
            में हो रहे कार्यों, हिन्दी विद्वानों, संस्थाओं, साहित्यिक
            रचनाओं, हिन्दी की स्थिति और संभावनाओं, भारतवंशियों
            और अप्रवासियों के योगदान, रेडियो और टेलिविज़न
            जैसे संचार माध्यमों, पत्रपत्रिकाओं, सांस्कृतिक
            गतिविधियों और भारत के साथ शताब्दियों से स्थापित
            साहित्यिक सम्बन्धों का सोदाहरण विवरण प्रस्तुत किया। भारतीय अप्रवासियों
            और भारतवंशियों के अलगअलग खेमों में बंटे रहने तथा
            हिन्दी के प्रचारप्रसार एवं उसकी रक्षा और पठनपाठन में
            आने वाली अनेकानेक समस्याएं भी उठायी गई। वक्ताओं ने
            इस बात पर गर्व किया कि भारत से बाहर यूरोप में हिन्दी में
            वर्चस्वी एवं रचनात्मक कार्य हो रहे हैं और हिन्दी के विद्यार्थी
            स्नातकोत्तर और पीएचडी के स्तर तक का अध्ययन एवं शोध कर
            रहे हैं, लेकिन उन्होंने इस ओर भी इंगित किया कि इन
            उपलब्धियों के हिन्दी साहित्य के इतिहास में सम्मिलित किये
            जाने की महती आवश्यकता है। हिन्दी अंतर्राष्ट्रीय भाषा हैं और
            अब उसे संयुक्त राष्ट्र भी अंगीकार करे  इसका आग्रह भी
            किया गया। इस सत्र में संसार
            में अंग्रेजी के एक तरह से फैलते हुए सांस्कृतिक साम्राज्यवाद
            और हिन्दी को लेकर व्याप्त हीन भावना के प्रति भी सचेत किया
            गया। अन्त में प्रबुद्ध श्रोताओं ने विविध प्रश्न पूछकर उन
            पक्षों की जानकारी और स्पष्टीकरण भी प्राप्त किये, जो भाषणों
            में इस कारण नहीं आ सके थे, क्योंकि सभी वक्ताओं को
            संक्षेप में बोलने को कहा गया था। जलपान के बाद आरम्भ
            हुए तीसरे सत्र में यूरोप में हिन्दी शिक्षण के स्वरूप और
            समस्याओं का लेखाजोखा प्रस्तुत किया गया। इस सत्र का
            संचालन किया प्रसिद्ध भाषाविद् और भारतीय भाषा संगम
            यॉर्क के डॉ महेन्द्र वर्मा ने और अध्यक्ष थीं केंब्रिज
            विश्वविद्यालय की हिन्दी प्राध्यापिका सुश्री फ्रेंचेस्का ओरेसेनी।
            विषय का प्रवर्तन करते हुए भारतीय उच्चायोग के हिन्दी एवं
            संस्कृति अधिकारी अनिल शर्मा ने इस आवश्यकता पर बल दिया कि
            हिन्दी के शिक्षण के लिए एक आधारभूत ढांचा होना चाहिए,
            जिसके तीन सुदृढ़ स्तम्भ हों  पाठ्यक्रम, अध्यापक और
            संस्थागत सहायता। पाठ्यक्रम प्रासंगिक और उपयोगी हो,
            अध्यापक प्रशिक्षित और कुशल हों और विश्वविद्यालयों जैसी
            संस्थाओं का निरन्तर सहयोग एवं संरक्षण मिलता रहे। इस सत्र
            के वक्ता थे हंगेरी से आये डॉरवि गुप्त, रोमानिया की
            सुश्री सबीना पोपार्लन, म्यूनिख की सुश्री बिलियाना म्युलर,
            यूके के वेद मित्र मोहला और क्रोएशिया के सुनील
            कुमार भट्ट।  सत्र के चर्चित विषय
            थे विविध यूरोपीय देशों में हिन्दी के अध्ययनअध्यापन का
            इतिहास, उसकी वर्तमान स्थिति, विकास और अध्ययनअध्यापन
            में आने वाली समस्याएं, भारतीय धर्म, दर्शन, संस्कृति,
            समाज और संस्कृत एवं अन्य भारतीय भाषाओं का सहवर्ती
            अध्ययन, हिन्दी की पुस्तकें तथा विद्यार्थियों के लिए कक्षाओं से
            बाहर हिन्दी का परिवेश बनाने की समस्या। हिन्दी के राष्ट्रीय और
            अंतर्राष्ट्रीय संदर्भों के माध्यम से उसके एक सामाजिक वस्तु
            और संस्थागत प्रतीक होने को रेखांकित किया गया। वक्ताओं
            ने इस बात पर भी बल दिया कि विद्यार्थियों की हिन्दी में
            वार्तालाप करने की आवश्यकता के अनुरूप पाठय पुस्तकें और सहायक
            सामग्री तैयार की जानी चाहिए। भारत से और इतर स्रोतों से
            इस दृष्टि से जो पाठ्य पुस्तकें एवं सहायक सामग्री उपलब्ध है,
            उसकी कमियों की ओर विशेष ध्यान दिलाया गया। इस
            आवश्यकता पर भी बल दिया गया कि एक मानक पाठ्यक्रम का
            निर्माण होना चाहिए और ब्रिटेन में आरम्भ की गई हिन्दी
            ज्ञान प्रतियोगिताओं का यूरोप में विस्तार किया जाना
            चाहिए ताकि नई पीढ़ी हिन्दी से जुड़े और आगे चलकर
            विश्वविद्यालयों में हिन्दी विद्यार्थियों की कमी न उत्पन्न
            होने दे।  हिन्दी व्याकरण की
            व्यावहारिक जटिलताओं  विशेष रूप से संयुक्त क्रियाओं
            तथा विदेशी विद्यार्थियों के लिए अपनी भाषा के व्याकरण की
            तुलना में इस व्याकरण को ग्रहण करने और समझने में आने
            वाली कठिनाइयों पर विस्तार से विचार हुआ। इस सत्र में
            विद्वान वक्ताओं ने हिन्दी का प्रचारप्रसार करने और उसे
            लोकप्रिय बनाने में हिन्दी फिल्मों के योगदान का उल्लेख भी
            किया। इस सत्र के विद्वान वक्ताओं के पास बताने को इतना कुछ
            था और इतनी प्रचुर सामग्री थी कि सत्र बहुत छोटा प्रतीत हुआ
            और काफी कुछ प्रस्तुत न किया जा सका। प्रायः सभी ने यह
            महसूस किया कि इस प्रकार के विषयों पर अलग से पूरा
            सम्मेलन होना चाहिए। समय की कमी के कारण श्रोताओं की
            जिज्ञासाओं के शमन के लिए भी बहुत कम समय दिया जा
            सका। समय की कमी और
            परिस्थितियों के कारण सम्मेलन में कम्प्यूटर सत्र का आयोजन
            तो न हो सका, लेकिन प्रसिद्ध कहानीकार और कथा यूके के
            महासचिव तेजेन्द्र शर्मा ने मंच पर आकर संक्षेप में अपने
            विचार प्रकट किये। उन्होंने कहा कि हिन्दी में इस समय कम्प्यूटर
            में इस्तेमाल के लिए बहुतसे अलगअलग फौंट चल रहे हैं,
            लेकिन एक फौंट का दूसरे में परिवर्तन न हो पाने के कारण कई
            कठिनाइयां आती हैं। इसलिए आवश्यकता है कि हिन्दी का कोई ऐसा
            फौंट बनाया जाये, जिसमें परस्पर परिवर्तन करना सम्भव हो।
            उन्होंने यह भी कहा कि कम्प्यूटर के प्रति हमें अपनी मानसिकता
            को बदलना होगा। कम्प्यूटर ने जैसे आज पूरे संसार को बदल
            दिया है, उसको दुहराने की आवश्यकता नहीं हैं। कम्प्यूटर सत्र
            कितना उपयोगी होता, यह हम अच्छी तरह जानते हैं, लेकिन
            परिस्थितियों के आगे नतशिर हैं। शायद भविष्य में हम इसपर
            अलग से कोई सम्मेलन करें। जिस लक्ष्य को लेकर इस
            सम्मेलन का आयोजन किया गया, उसमें यह पूर्णतः सफल रहा
            हैं और यह सफलता इस अर्थ में और भी मूल्यवान हैं कि
            इसमें सुधी श्रोताओं ने भी पूरे उत्साह, लगन और धैर्य
            के साथ भाग लिया हैं। तीनों सत्रों के विषय जितने गम्भीर
            थे, श्रोताओं और विद्वानों ने उन्हें उतनी ही लगन और रूचि
            के साथ सुना और विद्वान वक्ताओं से प्रश्न कर, न केवल
            अपनी जिज्ञासाओं का शमन किया, बल्कि इस बात का स्वस्थ
            और सुन्दर परिचय भी दिया कि उन्होंने विषयों को पूरी तरह
            समझा और ग्रहण किया हैं। सम्मेलन का समापन
            समारोह भारतीय उच्चायोग के मंत्री समन्वय श्री
            पीसीहलदर की अध्यक्षता में सम्पन्न हुआ। समापन समारोह
            के मुख्य अतिथि भारत से आए डॉ शैलेन्द्र नाथ श्रीवास्तव ने
            कहा कि इस सम्मेलन ने हिन्दी को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर महत्वपूर्ण
            स्थान दिया है। डॉ गौतम सचदेव ने अपने समापन
            वक्तव्य में कहा कि अनेक दृष्टियों से यह अन्तर्राष्ट्रीय
            सम्मेलन अविस्मरणीय रहेगा और हिन्दी के लिए भारत से बाहर
            के देशों में हो रहे रचनात्मक कार्यों में अमूल्य योगदान
            सिद्ध होगा। डॉ पद्मेश गुप्त ने सिटी बैंक, डैलिफेक्स
            यूनिवर्सिटी, श्री मनहर मथवानी, श्री हरिदास, भारतीय
            विद्या भवन एवं सम्मेलन के सभी पदाधिकारियों एवं
            कार्यकर्ताओं को धन्यवाद प्रस्तुत किया। सम्मेलन के अंत में
            देश विदेश के कवियों के साथ श्री केशरी नाथ त्रिपाठी की
            अध्यक्षता में कवि सम्मेलन का आयोजन किया गया जिसका
            कुशल संचालन श्री भारतेन्दु विमल ने किया।सम्मेलन में श्रीमती उषा राजे द्वारा पारित प्रस्ताव प्रस्तुत किया
            गया।
 प्रस्ताव 1
            यूरोप हिन्दी समिति की स्थापना जिसका केन्द्र लंदन (ब्रिटेन)
            में होगा। इसके संयोजक डॉ पद्मेश गुप्त होंगे और वे
            श्री मोहन गौतम (हालैंड) डॉ सत्येन्द्र श्रीवास्तव (ब्रिटेन)
            और सुश्री लुडविला वसील्येवा (मास्को) के परामर्श से
            समिति का गठन करेंगे। 2
            यूरोप में प्रतिवर्ष एक अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी सम्मेलन के
            आयोजन का निर्णय एवं इसमें सहयोग के लिए भारत सरकार
            से अनुरोध। 3
            सन् 2004 में हॉलैण्ड में चतुर्थ अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी सम्मेलन
            का प्रस्ताव। 4
            हिन्दी के विद्यार्थियों के लिए ब्रिटेन में आयोजित हिन्दी
            ज्ञान प्रतियोगिता का यूरोप में विस्तार। 5
            भारत सरकार से अनुरोध कि वह हिंदी शिक्षण के लिए यूरोपीय
            विद्वानों की सहभागिता और परामर्श से यूरोपीय
            आवश्यकताओं के अनुरूप विभिन्न स्तरों पर मानक पाठ्यक्रम
            प्राथमिकता के आधार पर उपलब्ध कराए। 6
            यूरोप में हिन्दी के रचनात्मक लेखन के प्रकाशन की व्यवस्था के
            लिए प्रकाशक संगठन, केन्द्रिय हिन्दी संस्थान यह सुनिश्चित करे
            कि हिन्दी के लेखकों को उनके अंग्रेजी समकक्षों के अनुरूप
            सुविधाएं एवं मान्यताएं देने के लिए समुचित कदम उठाएं। 7
            यूरोपीय स्तर पर हिन्दी की वेबसाइट का निर्माण। 8
            भारत सरकार से अनुरोध कि कम्प्यूटर के लिए वह हिन्दी का एक
            मानक फॉन्ट पूरे विश्व को उपलब्ध कराए। 9
            हिन्दी साहित्य से यूरोपियन भाषाओं में एवं यूरोपियन
            साहित्य से हिन्दी भाषा में अनुवाद उपलब्ध कराने का प्रयास। 10
            सातवें विश्व हिंदी सम्मेलन, सूरीनाम में यूरोपीय
            विद्वानों की भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए वित्तीय
            सहयोग करने के लिए विश्व हिंदी सम्मेलन के आयोजकों एवं
            भारत सरकार से अनुरोध। 11
            हिन्दी के यूरोपीय विद्वानों एवं विद्यार्थियों को भारत की
            अध्ययन यात्रा की व्यवस्था। 12
            भारत के हिंदी रचनाकारों, शोधकर्ताओं, विद्वानों के साथ
            यूरोपीय हिंदी रचनाकारों, विद्वानों एवं पाठकों के साथ
            प्रत्यक्ष संवाद एवं विचारविनिमय के निमित्त हिंदी
            शिवरों का आयोजन। 13
            यूरोपीय देशों के स्कूलों/विश्वविद्यालयों में एक वैकल्पिक
            विषय के रूप में हिंदी को स्थान दिलाने का प्रयास। 14
            यूरोपीय देशों की स्वैच्छिक हिंदी संस्थाओं के एवं भारतवंशी
            नागरिकों एवं अनिवासी भारतीयों के सहयोग से एक 'हिंदी
            विकास निधि' की स्थापना जिससे हिन्दी के अध्येताओं छात्र वृत्ति
            एवं प्रकाशन के लिए रचनाकारों को आर्थिक सहयोग प्रदान
            करना। 15
            पिछले वर्ष हंगेरी में हुए अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन में
            पारित अकादमिक प्रस्तावों को लागू करने का प्रयास किया जाएगा।
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