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साहित्य संगम 

साहित्य संगम के इस अंक में प्रस्तुत है कमला सरूप की नेपाली कहानी का हिन्दी रूपांतर 'यादों की अनुभूतियाँ' रूपांतरकार हैं कुमुद अधिकारी


बाहर ठंडी हवा के झोंके चल रहे थे और खिड़की खोलने का दिल नहीं कर रहा था। बाहर घना कुहरा छाया हुआ था और अँधेरा होने ही जा रहा था। इसलिए खिड़की से दिखनेवाली खुली व चौड़ी सड़क भी नज़र नहीं आ रही थी। पहले तो शाम होने पर भी काफी लोग चहलकदमी करते दिख जाते थे। पर शायद दिसंबर की शाम होने से लोगों की चहलकदमी बहुत कम हो गई थी। लोग एक्का दुक्का ही दिखाई दे रहे थे।

"मैं जा रहा हूँ।"
तुम्हारे उद्घोष से मैं चौंक गई। वैसे तुम जा रहे हो। खुशी दिल की गहराइयों से हो तो उसकी महत्ता और भी बढ़ जाती है। तुम बोल रहे हो और मैं याद कर रही हूँ, कैसे हमारे बीते हुए दिन इस खाली सड़क जैसे उदास-उदास हैं।

"
लोग अपनी-अपनी जीवन शैली अपनाते हैं पर ग़ौरतलब बात यह है कि तमाम लोगों की जीवन शैली प्रेम में आधारित होनी चाहिए।" एक दिन अचानक रास्ते में मुलाकात होने पर तुमने ये बातें कही थीं। पास ही की दुकान पर चाय पीने के लिए चलने पर तुमने कहा-
"समझीं? लोगों के रिश्ते को ऊँचे मायने में परिभाषित करना चाहिए, ऐसी मान्यता है मेरी।" तुम्हारे सवाल का जवाब तो मुझे नहीं मिला पर मुझे लगा तुम निश्चित ही एक धार पकड़ रहे हो। यह सचमुच अच्छी बात थी, ऐसा महसूस किया मैंने।
"जीवन हमारी परिभाषा अनुसार तो चलने से रहा , आज साफ दिखाई देता है मनुष्य का जीवन भीषण कठिनाइयों से
गुज़र रहा है।" मैंने चाय की पहली चुस्की से भी पहले कहा था।

तुम हँसे थे। मुझे यह लग रहा था कि तुम मुझसे सहमत नहीं हो। यह निश्चय ही मेरे लिए खुशी की बात तो नहीं थी पर मैंने अपने चेहरे पर दुःख की परछाइयाँ आने नहीं दीं क्योंकि मुझे मालूम था, तुम्हारे संग यह छोटी व महत्वपूर्ण मुलाकात, नाहक बर्बाद नहीं करनी थी मुझे।
"हर परिस्थिति में खुश होने के लिए, धैर्य चाहिए।" तुम बोले थे।

"हाँ, हर दुःख व विपत्ति में धीरज ही तो सहारा है।" मैंने भी अपनी जमी हुई भावनाएँ उँडेल दीं।
"पर एक और महत्वपूर्ण बात यह है कि हर परिस्थिति का मतलब यह नहीं होना चाहिए कि जिसे झेला न जा सके।" मैं बोलती रही थी। तुमने बातें जारी रखने के लिए एक-एक कप और चाय पीने का प्रस्ताव रखा और फिर हम दूसरा कप चाय पीने लग गए।

"ठंड में चाय पीने का मज़ा ही कुछ और है। है न?" मैं हँस दी थी तुम्हारे सवाल पर। मैंने कहा-
"अब चलें? अँधेरा बढ़ने लगा है।" हम वहाँ से उठने लगे और तुम्हारा चलना मैं स्तब्ध देखती रही। मेरे पास तुम्हारे अनेक सवालों के जवाब नहीं थे।

उसी तरह हमारी अगली मुलाकात अचानक ही एक व्यस्त घर से बहुत दूर शहर की सड़क पर हुई थी। वास्तव में मुझे कभी यकीन नहीं था कि हमारी मुलाकात उस शहर में भी हो सकती है। "मैं घूमने के लिए आया हूँ" बिन पूछे ही तुम कह गए थे। "मैं भी घूमने ही आई हूँ।" मैंने भी तुम्हारे सुर में सुर मिलाया था। "फिर एक साथ घूमने चलें?" तुम्हारे प्रस्ताव को मैं नहीं ठुकरा सकी थी और कैसे हम दोनों हाथ में हाथ लिए घूमे थे।

मैं अब याद कर रही हूँ, कैसे शाम को तुम मेरे लिए गुरांस के फूलों का गुच्छा ले आए थे और साथ में शुभकामना कार्ड भी। मैं वैसे भी झूम उठी थी और सच कहूँ, तुम्हारा दिया हुआ कार्ड व सूखे हुए ही सही वे गुरांस के फूल, अब भी कमरे भर सजाकर रखे हैं मैंने। शायद वो कार्ड व फूल ही आखिरी उपहार थे मेरे लिए तुम्हारी तरफ से।

दूसरे दिन सवेरे ही हम साथ-साथ घूमने निकल गए थे। शायद वही आखिरी सुबह थी हमारे साथ की। उसके बाद बहुत वर्षों तक हमारी मुलाकात नहीं हुई थी। सवेरे की ओस, हाथ भर गुरांस के फूल और मीठी सी ठंडी हवा के साथ हमने कैसे तीन घंटे लंबा रास्ता पार किया, पता ही नहीं चला था।

"मैं चाहता हूँ, इस सुबह जैसा ताज़गी भरा और इन गुरांस के फूल जैसा सुंदर हो तुम्हारा जीवन।" तुम कवि की तरह बोलने लगे थे और मैं आहिस्ता-आहिस्ता मंद-मंद हवा में चलने लगी थी।
"उस उगते हुए चाँद को देखो तो।" होटल की छत पर पैर रखते ही तुम चिल्ला उठे थे। मैंने देखा आधी रात में कैसे चाँद उजाले और सुख का प्रतीक बनकर झिलमिला रहा था।

"देखो, यह जीवन तो क्षणभंगुर है। मगर यह चाँद हमारे मर जाने के बाद भी इसी तरह चमकता रहेगा और मनुष्य को
शांति व शीतलता प्रदान करता रहेगा।" तुम भावुक हो चले थे और कैसे मैं चमकते हुए चाँद को निहारती ही रह गई थी। मुझे पता ही नहीं चला। मेरी आँखें नम हो चली थीं और तुमने मेरे आँसू पोंछ दिए थे। फिर मालूम पड़ा मैं रो रही थी। तुम्हारे हाथों का स्पर्श सच कहूँ तो अब भी महसूस कर रही हूँ।

"ओहो, एक दिन तो हम सब मर जाएँगे।" मैं यों ही उदास हो चली थी। मेरी उदासी को अनदेखा कर तुम हँसने लगे थे।
"सुनो-मैं ज़्यादातर घर की छत पर बैठकर चाँद की कविताएँ लिखता रहता हूँ। इस तनावग्रस्त जिंदगी में चाँद के सुकून का महत्व ही कुछ और है। काश! सारे जीवित लोग प्रेममय जीवन जीते तो इस संसार का महत्व ही कुछ और होता। सच, लोग इतने हिंसक क्यों होते हैं? क्यों एक दूसरे का कत्ल करते हैं, निर्ममता की पराकाष्ठा में क्यों सजातीय की हत्या करते हैं? क्यों इतना पीड़ादायक जीवन जीते हैं लोग? मैं तो यही चाहता हूँ, व्यर्थ में आदमी को मरना न पड़े और हर जीवित आदमी का जीने का हक सुनिश्चित हो।"

तुम्हें देखकर व तुम्हारी बातें सुनकर मैं हँस दी थी। पीड़ादायक हँसी हँसना कितना कष्टकर होता है यह महसूस किया है मैंने।
 
तुम्हा
रे अनेक सवालों के जवाब मेरे पास नहीं हैं। फिर भी मैं याद कर रही हूँ। वाह!क्या गज़ब का वक्त था वह, लगता था वक्त को स्तब्ध पकड़े रहूँ। सच्ची, मैंने उस दिन सोचा था, यह रात कभी न बीते और सुबह कभी न आए। "चाँद जैसा ही सूखा व उन्मुक्त जीवन जी पाते, कितना अच्छा होता न?" मैं तुम्हारे इस सवाल पर सिर्फ सिर हिला पाई थी और शब्द जैसे खो से गए थे। मन भावुक बन गया था। "सुना तुमने, चाँद हर आदमी को शीतलता प्रदान करता है क्योंकि चंद्रमा का अर्थ है शांति, और शांति से बड़ी चीज़ इस धरती पर दूसरी नहीं हो सकती। बातें तो ख़त्म नहीं हो रही थीं पर चूँकि रात गहरा गई थी इसलिए हम अपने-अपने कमरे की तरफ सोने के लिए चल दिए थे। मुझे रात भर नींद नहीं आई थी और कानों में तुम्हारे ही शब्द गूँज रहे थे। खिड़की खुली हुई थी और शीतल पवन के झोंके कमरे को ही शीतल कर रहे थे। मैं रात भर बिन सोए सिर्फ चाँद को देखती रही थी।
 
"मैं जा रहा हूँ, उम्मीद करता हूँ, हमारी मुलाकात फिर होगी, वैसे तो मैं इस मुलाकात को जीवन भर सहेजकर रखूँगा। हर सुबह तुम्हें सुख और अतृप्त आनंद दे, यही कामना करता हूँ।" विदाई का हाथ हिलाते हुए तुमने कहा था। तुमसे बिछड़ कर बस में राजधानी लौटते वक्त मन संवेदनशील हो चला था।

राजधानी लौटने के बाद कई महीनों तक हमारी मुलाकात नहीं हो सकी। हम दोनों व्यस्त हो गए। जीने के लिए जी तोड़ परिश्रम करने की बाध्यता थी तुम्हें भी, और मुझे भी। पढ़ाई के लिए विदेश चलने से पहले मैं तुमसे मिलना चाहती थी। मैं समझती थी ऐसी मुलाकातें हमारी मित्रता की गाँठ को मज़बूत करेंगी व गौरव बढ़ाएँगी। बहुत लंबे समय के लिए अपनी मातृभूमि और स्वजनों को छोड़कर जाने पर मन में टीस उठ रही थी और मन खाली हो रहा था। "आदमी अकेला जन्म लेता है और अकेला मरता है। जीवन व मृत्यु के बीच के बचे हुए दिन दोस्ती के लिए महत्वपूर्ण होते हैं।" मेरी माँ हमेशा हमें समझाया करती थीं।

तुमसे मिलने मैं सवेरे ही साधारण कपड़ों पर तुम्हारे किराए के कमरे की तरफ दौड़ चली थी। घर से तुम्हारे घर की दूरी करीब घंटे भर की थी और एक चौरस्ता भी पार करना पड़ता था पर दो घंटे दौड़ लगाकर ढूँढ़ने पर भी न तुम्हारा कमरा मिला, न तुम मिले थे। मैं उदास-उदास लौट चली थी। सड़क के चारों ओर तुम्हारा कमरा ढूँढते वक्त मुहल्ले की सभी औरतों ने खिड़कियाँ खोलकर मुझे घूरा था। बाद में पता चला सब औरतें मेरे खिलाफ मोर्चा बाँधे खड़ी थीं। मैं तुमसे मिलना चाहती थी और छोटी सी ही सही सुंदर कविता तुम्हें उपहार में देना चाहती थी।

"मुझे मालूम पड़ा तुम कल पढ़ाई के लिए बहुत दूर जा रही हो, हो सकता है हमारी मुलाकात न हो। छह-सात बरस तो लंबा अरसा है, हो सकता है एक दूसरे को भूल जाएँ।" तुमने फोन किया था। लगता था तुम जल्दबाज़ी में थे। तुमने ज़्यादा बोले बिना ही रिसीवर रख दिया था। "तुम जहाँ भी रहो खुश रहो। तुम्हारी हर सफलता की कामना मैं करता हूँ। अगर ईश्वर ने चाहा तो हम फिर मिलेंगे।"

फोन पर तुम्हारे कहे हुए अंतिम शब्द थे ये। आज वर्षों बाद तुम भी कहीं बाहर जा रहे हो, अचंभा तो नहीं हुआ पर बीते हुए दिन इस ख़त्म न होती सड़क की तरह याद आते रहे। आँखों से बहते आँसू पोछने का असफल प्रयास कर रही हूँ।

२४ मार्च २००५

  
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