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					1क्या उपन्यास लेखन सिखाया जा सकता है?
 -महेन्द्र 
					राजा जैन
 
 पिछले नवम्बर
					(२०००) में मेलकाम ब्रेडवरी की असामयिक मृत्यु के बाद 
					ब्रिटेन के साहित्य जगत के साथ ही पत्र -पत्रिकाओं में ब्रिटेन 
					के कुछ विश्वविद्यालयों में चलाए जा रहे 'रचनात्मक लेखन' 
					सम्बन्धी पाठ्यक्रमों के पक्ष -विपक्ष में बहस चल रही है।
 ब्रिटेन में आज हर तीसरा या चौथा व्यक्ति उपन्यास लिखना चाहता 
					है, उपन्यास लिखकर प्रसिद्ध होना चाहता है या यह भी कहा जा 
					सकता है कि किसी अन्य क्षेत्र में चोटी तक पहुँचा व्यक्ति भी 
					अपने नाम के साथ 'उपन्यास लेखक' जुड़ा देखना चाहता है। (पर 
					इससे आप यह न समझें कि ब्रिटेन का हर तीसरा या चौथा व्यक्ति 
					उपन्यास पढ़ता या खरीदता है या पढ़ना चाहता और खरीदना चाहता 
					है।)
 
 शायद यही कारण है कि आज ब्रिटेन के विश्वविद्यालयों में 
					'रचनात्मक लेख' पाठ्यक्रमों की भरमार है। मैं नहीं जानता कि 
					भारत के किसी विश्वविद्यालय में भी रचनात्मक लेखन का कोई कोर्स 
					है या नहीं। पर पत्र-पत्रिकाओं में 'कहानी लेखन महाविद्यालय' 
					नामक किसी संस्था का विज्ञापन देखने को अक्सर मिलता है जिससे 
					पता चलता है कि अपने देश 
					में भी अब कहानी या उपन्यास लिखने की 'कला' सिखाई जाने लगी 
					हैं।
 
 अँग्रेजी में तो इस विषय की एक दर्जन से अधिक पुस्तकें ब्रिटेन 
					के किसी भी सार्वजनिक पुस्तकालय में आसानी से मिल जाती हैं। 
					वस्तुत: इस प्रकार की पुस्तकें लिखकर प्रकाशित करने का वहाँ एक 
					स्वतंत्र उद्योग ही बन गया है। वहाँ 'हाउ टू बुक्स' लिमिटेड 
					नामक एक प्रकाशन संस्था ही बन गई है जिसने अब तक अन्य विषयों 
					पर 'हाउ टू' पुस्तकों के अतिरिक्त अलग-अलग विषयों की लेखन कला 
					पर भी कई पुस्तकें प्रकाशित की है तथा इस प्रकार की कुछ 
					पुस्तकों के अब तक एक से 
					अधिक संस्करण भी निकल चुके हैं।
 
 ब्रिटेन में रचनात्मक लेखन का सबसे पुराना और सर्वाधिक 
					प्रतिष्ठित कोर्स ईस्ट एँग्लिया
 विश्वविद्यालय में हैं। इस कोर्स की शुरूआत प्रसिद्ध लेखक और 
					उपन्यासकार मेलकाम ब्रेडवरी ने की थी। उन्होंने अमेरिकी 
					विश्वविद्यालय में चलाए जाने वाले इस प्रकार के कोर्सों से 
					प्रभावित होकर ही ब्रिटेन में यह कोर्स शुरू किया था। वे 
					वस्तुत: केवल इस कोर्स को समझने के लिए ही कुछ समय अमेरिका में 
					रहे भी थे। साहित्य क्षेत्र में की गई उनको इन सेवाओं के लिए 
					ब्रिटेन की महारानी एलिजाबेथ ने उन्हें 'सर' का खिताब भी दिया 
					था। लेकिन उनके द्वारा स्थापित यह कोर्स और अन्य 
					विश्वविद्यालयों द्वारा चलाए जा रहे इस प्रकार के कोर्स नए 
					लेखकों के लिए कितने 
					उपयोगी हैं, इस बात पर आजकल पत्र -पत्रिकाओं में काफी चर्चा हो 
					रही हैं।
 
 इस संबंध में 'तूलिप फीवर' की लेखिका डेबारोह मोगाच का कहना है 
					कि उपन्यास लिखने के लिए लेखक में प्रतिभा होना जरूरी है। पर 
					कोर्स से यह लाभ जरूर होता है कि लेखन में कुछ सुधार हो जाता 
					है। लोग सही स्थान पर कामा आदि लगाना सीख जाते हैं। प्रतिष्ठित 
					एवं स्थापित लेखक भावी लेखकों की क्षमता का अनुमान नहीं कर 
					पाते और न ही यह समझ सकते हैं कि नए लेखकों को इस प्रकार के 
					कोर्स से कितना लाभ हो सकता है। समान रूचि के लोगों से 
					मिलने-जुलने और आपस में अपने विषय की बातें करना सभी लेखकों के 
					लिए बहुत उपयोगी होता है।
 डेबोरोह 
					मोगाच एवन फाउण्डेशन द्वारा चलाए जाने वाले कोर्स में छात्रों 
					को पढ़ा भी चुकी हैं। एक सप्ताह के इस कोर्स की फीस ३०० पौंड 
					(लगभग २०,००० रू ) हैं। वे मानती हैं कि यदि किसी में लिखने की 
					क्षमता नहीं है तो उससे ऐसा कहना आसान नहीं हैं। अमेरिका में 
					चलाए जा रहे कोर्सों से पता चलता है कि लोगों को उपन्यास लिखना 
					सिखाया जा सकता है। पर 'अवर फादर्स' उपन्यास के लेखक तथा बुकर 
					पुरस्कार एवं व्हाइटब्रेड पुरस्कार की शार्ट लिस्ट में शामिल 
					किये जा चुके लेखक एण्ड्रू ओ'हागन इससे सहमत नहीं हैं। उनका 
					कहना है कि अमेरिकी कोर्सों में लोगों को स्वयं लिखना नहीं 
					सिखाया जाता, वरन् यह सिखाया जाता है कि स्थापित, प्रतिष्ठित 
					मृत लेखकों के समान किस प्रकार लिखा जाए। वहाँ 
					प्रेत लेखन या घोस्ट राइटिंग पर 
					अधिक ध्यान दिया जाता है।
 'जस्ट फ्रेंण्ड्स' नामक सफल उपन्यास की लेखिका रोबिन सिसमेन 
					स्वयं प्रकाशक रह चुकी हैं। अत: इस विषय का उन्हें अच्छा अनुभव 
					है। उनके इस उपन्यास का नायक एक उभरता नया कहानी लेखक हैं। यह 
					जानते हुए भी कि इस प्रकार के कोर्सों से छात्रों को कोई लाभ 
					नहीं होता, वह एक अमेरिकी विश्वविद्यालय में इस कोर्स का 
					ट्यूटर हैं। सिसमेन का कहना है कि उन्होंने कभी ऐसे किसी लेखक 
					का लिखा कोई उपन्यास प्रकाशित नहीं किया जिसने उपन्यास लेखन का 
					कोर्स किया हो। उनके विचार से अमेरिका में चलाए जाने वाले इस 
					प्रकार के कोर्सों का वहाँ बुरा प्रभाव पड़ा है और मीलों दूर 
					से इसे देखा जा सकता है। इन कोर्सों में प्रकाशित लेखक जो कुछ 
					लिखते हैं, उसमें कोई जान नहीं होती। न तो उनकी भाषा में कोई 
					दम होता हैं, न कथानक में। शैली की दृष्टि से भी उनका लेखन 
					नीरस एवं बेजान होता है।
 
 कई लिटरेरी एजेण्ट और प्रकाशक भी ईस्ट एँग्लिया विश्वविद्यालय 
					द्वारा चलाए जा रहे कोर्स से संतुष्ट नहीं हैं। वे इसे एक 
					प्रकार की गुटबन्दी मानते हैं। पिछले वर्ष (१९९९) बुकर 
					पुरस्कार की शार्ट लिस्ट में इस कोर्स की एक स्नातक ट्रेजा 
					एजोपार्डी का पहला उपन्यास भी शामिल कर लिया गया, तो उन्हें 
					बड़ा आश्चर्य हुआ। इसके विपरित एक अन्य लिटरेरी एजेण्ट ए पी 
					वार के डेरके जान्स तथा प्रकाशक जोनाथन केप के डेन फ्रेंकलिन 
					(जो स्वयं इस विश्वविद्यालय के स्नातक हैं) इस प्रकार के 
					कोर्सों के बड़े हिमायती हैं। कर्टिस ब्राउन नामक एक एजेन्सी 
					ने तो मैन्चेस्टर विश्वविद्यालय में इस 
					कोर्स में सर्वाधिक अंक पानेवाले 
					विद्यार्थी के लिए प्रतिवर्ष एक हजार पौंड का पुरस्कार भी दे 
					रखा है।
 
 इन कोर्सों के संबंध में सबसे बड़ी विडम्बना यह है कि कई 
					विश्वविद्यालयों में इन कोर्सों के लिए ऐसे लोगों को ट्यूटर 
					रखा गया है जिनकी अभी तक कोई पुस्तक नहीं छपी है। कार्डिफ, बाथ 
					औ ससेक्स विश्वविद्यालय इनमें प्रमुख हैं। इस संबंध में 'ए 
					आथर' पत्रिका में कुछ समय पूर्व एक सर्वेक्षण प्रकाशित हुआ था 
					जिससे पता चलता है कि कुछ कोर्स तो केवल सप्ताहान्त (शनिवार और 
					रविवार) के ही होते हैं तथा कुछ कोर्सों में मद्यपान की शिक्षा 
					भी शामिल है। निश्चय ही इस 
					प्रकार के कोर्सों को गंभीरता से नहीं लिया जा सकता।
 
 इन कोर्सों की उपयोगिता को संदिग्ध बनाने में कुछ सीमा तक 
					स्वयं इन कोर्सों को चलाने वाले लोगों की भूमिका भी असंदिग्ध 
					नहीं कही जा सकती। बेरी उन्सवर्थ और डेविड लाज दोनों ही बुकर 
					पुरस्कार प्राप्त लेखक हैं। डेविड लाज के उपन्यास ' थिंक्स' का 
					नायक रचनात्मक लेखन पढ़ाने वाला शिक्षक है। उसके माध्यम से लाज 
					ने इस प्रकार के कोर्सों की बखिया उधेड़ी हैं तो बेरी उन्सवर्थ 
					ने अपनी रचनाओं में इन कोर्सों के अध्यापकों एवं छात्रों पर 
					अच्छा व्यंग्य किया है। कहा जा सकता है कि जिस प्रकार अन्य 
					विषयों में आज अच्छे एवं निष्ठ अध्यापकों की कमी है, उसी 
					प्रकार इन कोर्सों को चलाने वाले अच्छे अध्यापक भी विरल हैं। 
					एवन फाउण्डेशन की हिलेरी मेण्टले की राय में जो लोग इन कोर्सों 
					में प्रवेश लेते हैं, उनमें लिखने की योग्यता और क्षमता तो 
					होती है पर आत्मविश्वास की कमी के कारण वे अच्छा नहीं लिख 
					पाते। इन कोर्सों के माध्यम से उनमें आत्म-विश्वास जागृत होता 
					है। यह आत्मानुग्रह नहीं वरन एक प्रकार का उपचार है। उपन्यास 
					लिखने के लिए कुछ कौशल की आवश्यकता होती है, जैसे कथानक का 
					गढ़न। यह इन कोर्सों में आसानी से सिखाया जा सकता है। इन 
					कोर्सों के अधिकांश ट्यूटर तो महिलाएँ हैं ही, पढ़नेवालों में 
					भी अधिकांशत: महिलाएँ ही 
					होती हैं।
 
 उपन्यास लेखक फ्रांसिस किंग का मत है कि कोई भी कार्य करने में 
					नए लोगों को सलाह की आवश्यकता होती हैं। पर जहाँ तक उपन्यास 
					लेखन की बात है, यह पढ़कर और दूसरों, विशेषकर उपन्यास लेखकों 
					से बात कर के ही सीखा जा सकता है। उपन्यास लिखना भी सिखाया जा 
					सकता है - यह सोचना मात्र ही बेवकूफी है। ईस्ट एँग्लिया 
					विश्वविद्यालय से जिन लोगों ने रचनात्मक लेखन का कोर्स किया 
					है, उनमें से जो लोग अभी लिख पा रहे हैं, उनकी संख्या उँगलियों 
					पर भी नहीं गिनी जा सकती। और जिन लोगों ने वास्तव में कुछ 
					अच्छा लिखा हैं, वे बिना यह कोर्स किए भी ऐसा ही लिखते। लेखन 
					कला जन्मजात होती हैं, उसे सीखा या प्राप्त नहीं किया जा सकता।
 
 जो कुछ भी हो, इस सम्बन्ध में और कुछ न सही, यह तो निश्चित ही 
					कहा जा सकता है कि केवल कुछ लिख लेना ही पर्याप्त नहीं होता। 
					असली समस्या तो लिखने के बाद प्रकाशक ढंूढ़ना और उसके द्वारा 
					पांडुलिपि स्वीकृत कर लिए जाने की होती है। और जैसा कि बहुतों 
					को पता होगा, प्रकाशक सामान्यत: किसी नए लेखक की कृति छापने को 
					जल्दी तैयार नहीं होता।
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