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रचना प्रसंग

नवगीत परिसंवाद-२०१२ में पढ़ा गया शोध-पत्र

उत्तर प्रदेश में नवगीत का भविष्य
-मधुकर अष्ठाना


साहित्य समाज से आगे चलकर परिवर्तन का मार्ग बनाता है पूरे समाज को चिन्तन की नयी दिशा देता है, साहित्य उपदेशक या प्रवाचक नहीं है किन्तु ऐसा वातावरण बनाता है जिसमें प्रतिरोध एवं प्रतिकार के अंकुर जन्म ले सकें एवं अव्यवस्था के विरुद्ध आक्रोश ऊर्ध्वगामी हो, किन्तु इस तथ्य के विपरीत वही साहित्य मात्र कुछ लोगों के मनोरंजन के लिये लिखा जाता है तो वह ऊर्ध्वगामी होकर समाज की प्रगति में अवरोध उत्पन्न करता है और एक परिधि में बन्दी रहकर नकारात्मकता को प्रोत्साहन देता है, अभिजातवर्गीय मनोरंजन वादी किरकिरे साहित्य की मानव विरोधी प्रवृत्ति के विरुद्ध सम्पूर्ण विश्व में बदलाव आया जिसका प्रभाव कहीं जल्द और कहीं देर से आया, भारत में इस बदलाव की लहर देर से आई और गीतों में तो और भी विलम्ब से यह परिणामित हुई, इस बदलाव के प्रथम चरण में छायावादोत्तर गीतों में मामूली नयापन दिखाई पड़ा जिसमें प्रतिरोध और प्रतिकार का स्वर अलक्षित रहा।

वास्तव में गीतों में पविर्तन दूसरे चरण में आया जब लघुमानव के शोषण उत्पीड़न की व्यथा कथा के गीत मुखरित होने लगे, इस क्रम में नूतन कथ्य के अनुकूल भाषा की तलाश प्रारम्भ हुई। गीत ने भाषायी परिवर्तन और नयेपन के लिये नगरीय भाषा के साथ देशज शब्दों की युगलबन्दी को प्रोत्साहित किया, इस गीत में मुहावरों-लोकोक्तियों के योग से नये प्रतीकों और बिम्बों को गति मिली। दोहों की संक्षिप्तता, गजलों की व्यंजना और नयी कविता के विचारों ने इस गीत को नया तेवर और धार दी। जहाँ तक प्रतिरोध प्रतिकार का प्रश्न है यह पूँजी लोक गीतों के रूप में भारत जैसे ग्राम-देश में अकूत विद्यमान है जो पूर्णरूपेण भारतीय संस्कृति, संस्कार एवं परम्परा की देन है।

इस नये परिवर्तित रूप को अधिकांश रचनाकारों ने नवगीत के रूप में स्वीकार किया जिसमें साधाराण जनता के सुख-दुख, राग-विराग, शोषण-उत्पीड़न, जीवन-संघर्ष, जिजीविषा, त्रासदी, विसंगति, विषमता, विघटन, विद्रूपता, विद्वेष, मानवीय सम्बन्धों में बिखराव, मानवता का क्षरण और संस्कृति का पतन आदि का यथार्थ और वास्तविक चित्रण होने लगा जिसकी आत्मा में सम्वेदना रही एवं थोड़े बहुत परिवर्तन के उपरान्त भी यही क्रम गतिशील है। यदि नवगीतकार श्रीनिर्मल शुक्ल के शब्दों में कहें तो नवगीत खौलती सम्वेदनाओं को वर्ण-व्यंजना है, दर्द की बाँसुरी पर धधकते हुए परिवेश में भुनती जिन्दगी का स्वर संधान है, वह पछुवा के अंधड़ में तिनके की तरह उड़ते स्वास्तिक की कराह है।" मैं भी जानता हूँ कि नवगीत भावनाओं के खेत में उपजी सम्वेदनाओं की वह फसल है जिसमें पीड़ा की खाद पड़ती है और आँसुओं की सिंचाई होती है। समसामयिक सन्दर्भों की गहन सम्वेदना और अपने परिवेश को अभिव्यक्ति देता यह नवगीत साठ वर्ष से भी अधिक समय को मुखरित कर चुका है और अब भी समाज में जागरण लाने तथा अव्यवस्था के विरुद्ध पूरी क्षमता के साथ आक्रामक है।

नवगीत किसी वाद का प्रवर्तक नहीं है बल्कि मुक्त मानसिकता के साथ मानवता का पोषक है और मानवीय दृष्टिकोण से अपने समय की जाँच परख कर प्रस्तुत करता है। इस शब्द सम्वेदना के यज्ञ में सैंकड़ों रचनाकारों ने अपने विशिष्ट चिन्तन के साथ योगदान दिया है और भविष्य में भी यह क्रम कहीं रुकने वाला नहीं प्रतीत होता है। रागात्मक अन्तश्चेतना से उपजी सम्वेदना का यह छान्दसिक स्वरूप अनवरत रचनाकारों की कृतियों तक ही नहीं सीमित रह गया बल्कि आम आदमी की जबान पर भी चढ़ रहा है। इसके विकास और विस्तार के लिये हमें अपने दृष्टिकोण को असीमित रखते हुए उन सभी गेय एवं नवतायुत काव्य रूपों को नवगीत की परिधि में लाने का प्रयास करना चाहिये जिनमें प्रगतिशीलता व्याप्त है और उनकी कहन एवं कथ्य में भी समानता है एवं भाषा-शिल्प में भी लगभग एकरूपता दिखाई पड़ती है। नवगीत में उन तत्वों के संतुलन और सामंजस्य की बारीकियों पर भी ध्यान देना आवश्यक है। यदि इसे अन्तर्देशीय रूप देना है तो सहज भाषा छान्दसिकता क्षेत्रीय बोलियों का दाल में नमक के बराबर ही उपयोग आवश्यक है अन्यथा विपरीत दशा में ऐसे नवगीत विशेष क्षेत्र में ही सिमट कर रह जायेंगे।

आज ऐसे गीतकार जो परम्परा के साथ, अपनी अभिजात गीत शैली के द्वारा गहराई से जुड़े थे, उनमें भी नवगीत का प्रबल प्रभाव देखा जा रहा है और नवगीत का कथ्य अपनी परम्परागत शैली में ही लिखने लगे हैं ऐसे भी गीतकार हैं जिन्होंने देर से ही सही नवगीत की अव्यवस्था को समझा और अपनी भाषा शिल्प में परिवर्तन ले आए। इनके अतिरिक्त अनेक युवा रचनाकार भी नवगीत की ओर बढ़े हैं और अपनी पहचान बनाने का प्रयास किया है। नवगीत के क्षेत्र में विशेष रूप से उत्तर प्रदेश, बिहार और मध्यप्रदेश की भूमिका पूर्व से आज तक सशक्त रूप से स्थापित होती रही है। इस क्रम में उत्तर प्रदेश में नवगीत के भविष्य को आपके समक्ष प्रस्तुत करना ही मेरा ध्येय है।

उत्तर प्रदेश में प्रारम्भ से ही नवगीत को उर्वर भूमि मिली, इस प्रदेश में पुराने हों अथवा नये नवगीतकार संख्या में सर्वथा अधिक रहे हैं और यह स्थिति वर्तमान में भी ज्यों की त्यों बनी हुई है। कबीर, तुलसी, सूर, जायसी के समय से लेकर आज तक उत्तरप्रदेश हिन्दी का हृदय बना हुआ है। विधा कोई भी हो यह प्रदेश अग्रणी रहा है। नवगीत के प्रारम्भिक काल में यहीं पर स्मृति शेष डॉ. शम्भुनाथ सिंह, चन्ददेव सिंह, ठाकुर प्रसाद सिंह, रवीन्द्र भ्रमर, रमानाथ अवस्थी, रामावतार त्यागी, भारतभूषण, उमाशंकर तिवारी, बालकृष्ण मिश्र, नीलम श्रीवास्तव, माधव मधुकर, देवेन्द्र बंगाली, उमाकान्त मालवीय, दिनेश सिंह, कैलाश गौतम, प्रतीक मिश्र आदि जैसे रचनाकारों ने नवगीत को विविध रूप और विविध प्रयोगों के माध्यम से नया आयाम दिया।

वर्तमान में सर्वश्री वृजभूषण सिंह गौतम ‘अनुराग’, प्रो. देवेन्द्र शर्मा ‘इन्द्र’, शचीन्द्र भटनागर, जगत प्रकाश चतुर्वेदी, रामदेव लाल, माहेश्वर तिवारी, श्याम नारायण श्रीवास्तव, रविन्द्र गौतम, देवेन्द्र शर्मा, कुमार रविन्द्र, राधेश्याम शुक्ल, श्याम निर्मल, ब्रजनाथ, राम सनेही लाल शर्मा, शिव बहादुर सिंह भदौरिया, अवध बिहारी श्रीवास्तव, श्रीकृष्ण तिवारी, सुरेन्द्र वाजपेयी, गुलाब सिंह, वीरेन्द्र आस्तिक, योगेन्द्र दत्त शर्मा, निर्मल शुक्ल, मधुकर अष्ठाना, भारतेन्दु मिश्र, सूर्य देव पाठक ‘प्रयाग’, गणेश गम्भीर, ओम धीरज, शीलेन्द्र कुमार सिंह चौहान, ओमप्रकाश सिंह, विनय भदौरिया, जय चक्रवर्ती, सुधांशु उपाध्याय, यश मालवीय आदि के अतिरिक्त भी अनेक नवगीतकार हैं जो हैं जो उत्तर प्रदेश के ही कितु वर्तमान में प्रदेश से बाहर बस गये हैं जिनमें बुद्धिनाथ मिश्र, अश्वघोष, विष्णुविराह, मयंक श्रीवास्तव, राधेश्याम बन्धु, पूर्णिमा वर्मन, महेन्द्र नेह आदि महत्वपूर्ण हैं।

इनके अतिरिक्त भी ऐसे अनेक नवगीतकार हैं जो हैं तो उत्तर प्रदेश के निवासी किन्तु अन्य प्रान्तों में निवास कर रहे हैं और नये रचनाकार जिनकी कम से कम एक कृति प्रकाशित हो गयी है अथवा प्रकाशन की प्रतीक्षा में है, उनकी भी संख्या उत्तर प्रदेश में सर्वाधिक है। ऐसे रचनाकारों में सर्व श्री योगेन्द्र वर्मा ‘व्योम’ अवनीश सिंह चौहान, आनन्द गौरव, संजय शुक्ल, शैलेन्द्र शर्मा, रामनारायण, रमाकान्त, राजेन्द्र बहादुर ‘राजन’, रामबाबू रस्तोगी, विनोद श्रीवास्तव, सत्येन्द्र तिवारी, विनय मिश्र जयशंकर शुक्ल, जयकृष्ण शर्मा तुषार, राजेन्द्र वर्मा, देवेन्द्र ‘सफल’ अभय मिहिर, अनिल मिश्र, राजेन्द्र शुक्ला ‘राज’, कैलाश निगम, मृदुल शर्मा, अनन्त प्रकाश तिवारी, निर्मलेन्दु शुक्ल, अमृत खरे आदि महत्वपूर्ण हैं। यदि खोज की जाये तो यह संख्या लगभग दूनी हो सकती है। नवगीतात्मक रुझान वाले रचनाकारों की संख्या तो इसके दूने से कम नहीं होगी। तीसरी पीढ़ी के अपेक्षाकृत कुछ रचनाकारों से मैं परिचित कराना चाहूँगाः-

डॉ. अवनीश कुमार सिंह चौहान

अंग्रेजी विषय में पी.एच.डी. डॉ. अवनीश मुरादाबाद में तीर्थंकर विश्वविद्यालय में अंग्रेजी विभाग में प्रवक्ता हैं वे नये पुराने सुप्रसिद्ध नवगीत पत्रिका के सम्पादन के साथ ही वेब पत्रिका पूर्वाभास व गीतपहल के समन्वयक एवं सम्पादक हैं। देश की पचासों पत्रिकाओं में उनकी रचनाएँ प्रकाशित हो चुकी हैं तथा दर्जनों सहयोगी संकलनों में उनके गीत हैं। देश की अनेक संस्थाओं ने तो उन्हें सम्मानित किया ही है, विदेश में भी उनके कार्य एवं सृजन पर अनेक सम्मान एवं पुरस्कार मिल चुके हैं। गीत के सम्बन्द्ध में अपने विचार व्यक्त करते हुए वे कहते हैं- ‘‘आम गीत किसी देश-विदेश की भौगोलिक सीमाओं तक सीमित नहीं रहा बल्कि समसामयिक स्थितियों परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए अपने कायान्तरण के बाद नवगीत के रूप में सम्पूर्ण सृष्टि की बात बड़ी बेबाकी से कर रहा है जिसमें समाहित है वस्तुपरता, लयात्मकता, समष्टिपरकता एवं अभिनव प्रयोग, इसलिये वर्तमान में नवगीत प्रासंगिक एवं प्रभावी विधा के रूप में अपनी विशिष्ट पहचान बनाये हुए है। सामाजिक विसंगतियों विद्रूपताओं को देख-सुन कर जब कभी मेरा मन अकुलाने लगता है अथवा कभी प्रेममय, शांतिमय या आनंदमय स्थिति में अपने को पाता हूँ तो मन गाने लगता है और मैं उन शब्दों को कलम बद्ध कर लेता हूँ।’’ उदाहरणार्थ डॉ. चौहान का एक नवगीत प्रस्तुत हैः-
‘‘बिना नाव के माझी देखे
मैंने नदी किनारे

इनके-उनके ताने सुनना, दिन भर देह जलाना
तीस रुपैया मिले मजूरी नौ की आग बुझाना
अलग-अलग है रामकहानी
टूटे हुए शिकारे

बढ़ती जाती रोज उधारी ले-दे काम चलाना
रोज-रोज झोपड़ पर अपने नये तगादे आना
घात सिखाई है तंगी में
किसको कौन उबारे

भरा जलाशय जो दिखता है केवल बातें घोले
प्यासा तोड़ दिया करना दम मुख को खोले-खोले
अपने स्वप्न भयावह कितने
उनके सुखद सुनहरे‘‘

श्री राजेन्द्र शुक्ल ‘राज’

हिन्दी विषय से एम.फिल., साहित्य रत्न श्री राजेन्द्र शुक्ल ‘राज’ वर्तमान में हिन्दी प्रवक्ता के पद पर एस. के. डी. एकेडमी इन्टर कालेज लखनऊ में कार्यरत हैं। छन्दों की पृष्ठभूमि से निकले श्री राज की नवगीत कृति ‘मुट्ठी की रेत’ प्रकाशनाधीन है। वे निरन्तर पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहे हैं। इन्टरनेट पत्रिका अनुभूति में भी इनके गीत आये हैं। इसके अतिरिक्त, आलेख, संस्मरण, भेंटवार्ता तथा समीक्षा आदि भी प्रकाशित होते रहे हैं। पत्रकारिता एवं रंग कर्म में भी उन्होंने प्रयास किया है, लगभग एक दर्जन संकलनों में सहभागी के रूप में संकलित हैं। लखनऊ नगर की अनेक साहित्यिक संस्थाओं से जुड़े श्रीराज ‘सर्वजन हिताय’ साहित्यिक समिति के संयोजक हैं जिसकी मासिक गोष्ठियाँ अविच्छिन्न रूप से हो रही हैं। गीत को श्री राज साहित्य सर्वोत्तम विधा मानते हैं जबकि वे छन्दों में भी बेहद कुशल हैं। उनका यह भी कहना है कि गीत के संशोधित, परिवर्धित रूप में अपनी विगत पीड़ाओं को समष्टिगत रूप देना ही वास्तविक नवगीतकार का मुख्य रचनाधर्म है और ऐसी स्थिति में यथार्थता के साथ परिवेश का चित्रण सहज ही होता है। सृजन में रचनाकार का निष्पक्ष एवं ईमानदार कथ्य ही उसे समाज से जोड़ता है उदाहरणार्थ उनका एक नवगीत मैं यहाँ पर उद्धृत कर रहा हूँ:-
‘‘मुश्किल में मुस्कान हमारी क्या बोलूँ
संकट में पहचान हमारी
क्या बोलूँ

नालन्दा में लंदन पेरिस, कुटियों में
हम, बाजारी लाश खोजते दुखियों में
आसमान छू लिया मगर गिर गये बहुत
ग्रहण लगा बैठे धरती की खुशियों में
कैसी रही उड़ान हमारी
क्या बोलूँ

हमने थामा शास्त्र,शस्त्र को छोड़ दिया
प्यासा आया पास, तो गला रेत दिया
ऐसा तंत्र रचा विचार की मौत हुई
अपनी पीढ़ी को हमने बस पेट दिया
छवि है लहूलुहान हमारी
क्या बोलूँ’’

श्री संजय शुक्ल

स्नातक अध्यापक प्राकृतिक विज्ञान के पद पर शिक्षा विभाग, दिल्ली में कार्यरत हैं। अनेक लब्ध प्रतिष्ठ साहित्यिक पत्रिकाओं में उनकी रचनायें प्रकाशित होती रही हैं। नवगीत के अतिरिक्त गजल और समीक्षक के रूप में भी उनकी प्रसिद्धि है। दूरदर्शन और आकाशवाणी से भी उनके गीत-नवगीत प्रसारित होते हैं। अनेक साहित्यिक संस्थाओं ने उन्हें सम्मानित किया है। छन्दोबद्ध सृजन के प्रबल पक्षधर श्री शुक्ल मानते हैं कि ‘‘अपने भोगे यर्थार्थ से उपजी लौकिक-अलौकिक कल्पनाओं की कवि द्वारा की गयी कलात्मक, लयात्मक स्वर-ताल से सुसज्जित गीत रचना श्रोता और पाठक को मुग्ध करती है। नवगीत में अपने समय को अभिव्यक्त करने का संकल्प लिया है जो एक चुनौती है इसलिये दूर-दूर तक इसमें खुरदुरापन पसरा हुआ है। वैश्वीकरण, उपभोक्तावाद और लिजलिजे विज्ञापन के युग में कोमल, सरल, सरस, बिम्बों-प्रतीकों के माध्यम से अपने परिवेश को व्यक्त करना अब सम्भव नहीं रहा। कवियों ने नये सन्दर्भों, नये विमर्शों को पौराणिक एवं ऐतिहासिक आख्यानों से जोड़ कर अपने सृजन को समृद्ध तो किया ही है साथ अर्थवत्ता को व्यापकता प्रदान की है। कवि अपनी समृष्टि और ईश्वर प्रदत्त प्रतिभा से स्वान्तः सुखाय और लोक मंगल के लिये भाव प्रवण मार्मिक गीतों के साथ-साथ सत्ता की अराजकता पर व्यंग्य गीत लिख रहे हैं और लिखते रहेंगे।’’
उदाहरणार्थ श्री संजय शुक्ल का एक नवगीत प्रस्तुत हैः-
‘‘ठीक बरस भर बाद सुखनवाँ घर को लौट रहा
सम्भावित प्रश्नों के उत्तर
मन में सोच रहा

पूछेगी अम्मा बचुआ क्यों इतने सूख रहे
पीते प्यास रहे अपनी क्या खाते भूख रहे
कह दूंगा अम्मा शहरों की उल्टी रीति रही
वही सजीले दिखते जिनके
तन में लोच रहा

बहुत तजुर्बा है आंखें सब सच-सच पढ़ लेंगी
गरजें बापू का मन बातें क्या-क्या गढ़ लेंगी
कह दूंगा फिर भी बिदेश में मरे न मजदूरी
नहीं अधिक खटने में
मुझको भी संकोच रहा

बहिना की अंखियाँ गौने का प्रश्न उठायेंगी
भौजी दद्दा की दारू का दंश छिपायेंगी
दिल घबराया तो मनने कुछ सुखद कल्पना की
झुकी हुई दादा की मूँछें
मुन्ना नोंच रहा

चाहेंगे मनुहार प्रश्न कुछ भोले, कुछ कमसिन
हमला बाजारों से लाया बेंदी-हेयरपिन
सिल्की जोड़ों के जैसा फिर प्यार व्यार होगा
रंगमहल सा देख रेल का
जनरल कोच रहा’’

उपर्युक्त उद्धरणों और नवगीतकारों का चिन्तन, भाषा, शिल्प और कथ्य की कहन स्पष्ट रूप से इंगित करता है कि ये होनहार दिखे एक दिन वटवृक्ष बनेंगे और नवगीत को आगामी सदी तक ले जायेंगे। नवोदित नवगीतकारों के सृजन में, उनकी चुनौतियों, उनके परिवेश, राष्टप्रिय एवं वैश्विक परिदृश्य तथा आम आदमी का जीवन-संघर्ष, उसकी जिजीविषा आदि के साथ विसंगतियों तथा विद्रूपताओं की अभिव्यक्ति नूतन प्रतीक-बिम्बों के साथ एक ताजगी का अनुभव कराती है जिसमें वर्तमान पीढ़ी का आक्रोश, प्रतिकार तथा प्रतिरोध स्पष्ट रूप से परिलक्षित होता है। नये नवगीतकारों का दृष्टि कोण जहाँ पुराने नवगीतकारों से भिन्न है वहीं उनकी सोच का दायरा भी विस्तृत है और प्रायः अधिकांश अपनी जमीन तथा अपना मार्ग स्वयं निर्धारित कर रहे हैं। उनके सृजन में कहीं भी छायाप्रति दिखने की गुंजाइश नहीं है। नवगीत के लिये निश्चित रूप से यह शुभलक्षण हैं जो विद्वान नवगीत के भविष्य के प्रति निराशा व्यक्त करते हैं उनसे सहमत होना सम्भव नहीं है। जब तक नवता तथा गेयता के प्रति समाज में अभिरुचि एवं आकर्षण रहेगा, लोकगीत रहेंगे, संगीत विद्यमान रहेगा, तब तक नवगीत की उपस्थिति चेतना को झकझोरती रहेगी और नये-नये नवगीतकार नवगीत को नया रूप-सौन्दर्य और समसामयिक यथार्थबोध अलंकृत कर आगे बढ़ाते रहेंगे।

 

१ अप्रैल २०१३

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