प्रवासी
हिंदी कहानी- कुछ प्रश्नों के उत्तर
-पूर्णिमा
वर्मन
हाल
के वर्षों में विदेशों में रची जाने वाली हिंदी कहानी
के विषय में अनेक प्रश्न उठाए जाते रहे हैं। जिनमें से
प्रमुख हैं-
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विदेशों में
रहने वाले ऐसा क्या रच रहे हैं जिसे इतना
विशेष समझा जाए। |
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उनका शिल्प इतना
बिखरा हुआ क्यों है? |
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उनके कथानक इतने
अजीब क्यों हैं? |
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वह भारतीय
साहित्य की बराबरी नहीं कर सकता।
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उसकी घटनाएँ दिल
को नहीं छूतीं। |
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उनकी भाषा
बनावटी है। |
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सारे हिंदी
साहित्य में प्रवासी कहानी का स्थान कहाँ है? |
विदेशों में रहने वाले ऐसा क्या
रच रहे हैं जिसे इतना विशेष समझा जाए-
प्रवासी कहानी हिंदी के अंतर्राष्ट्रीयकरण का सबसे
मजबूत रास्ता है। हिंदी साहित्य का एक रास्ता
विश्वविद्यालयों से होकर गुजरता है जो अध्ययन और गंभीर
किस्म का है, जिसे सब लोग नहीं अपनाते हैं। दूसरा
रास्ता फिल्मों से होकर गुजरता है जो अक्सर सस्ता और
हवा हवाई समझा जाता है, जिसके लिये यह भी समझा जाता है
कि वह समाज की सही तस्वीर नहीं प्रस्तुत करता। प्रवासी
हिंदी कहानी का रास्ता इन दोनों के बीच का मज्झिम
निकाय है जो समांतर फ़िल्मों और सुगम संगीत की तरह
हिंदी के अंतर्राष्ट्रीय करण का रास्ता बना रहा है।
इसमें विदेशों में बसे भारतीयों और हिंदी पढ़ने वाले
विदेशियों को वह अपनापन मिलता है जो अन्यत्र दुर्लभ
है।
उनका शिल्प इतना बिखरा हुआ
क्यों है?
प्रवासी कहानी का शिल्प अपना अलग शिल्प है। वह हिंदी
कहानियाँ पढ़ पढ़कर विकसित नहीं हुआ है। वह अपने
अनुभवों अपनी अपनी भाषाओं और अपनी अपनी परिस्थितियों
से पैदा हुआ है। इसलिये वह बहुत से लोगों को वह अजीब
लगता है। वह अजीब इसलिये भी है कि वह नया है इसलिये
वेब पर हिंदी पढ़नेवालों को खूब लुभाता भी है। बहुत सी
चीजें जो शुरू में अजीब लगती हैं बाद में वही लोग
उन्हें शौक से अपनाते हैं, जो प्रारंभ में उनकी आलोचना
करते थे। प्रवासी कहनियों के के संबंध में यह सच होने
वाला है।
उनके कथानक इतने अजीब क्यों
हैं?
प्रवासी लेखकों की कहानियों के कथानक अजीब नहीं हैं,
वे अलग है, उनके सोचने का तरीका, उनका परिवेश, उनका
रहन सहन, बहुत सी बातों में आम भारतीय से अलग है। उनका
यह अलगपन उनकी कहानियों में भी उभरकर कर आता है। यह
प्रवासी कथाकारों की कमजोरी नहीं शक्ति है। तभी तो
सामान्य अंतर्राष्ट्रीय पाठक इनके देश, परिस्थितियों,
संवेदनाओं और परिणामों से अपने को सहजता से जोड़ लेता
है। इतनी सहजता से जितनी सहजता से वह भारत की हिंदी
कहानी से खुद को नहीं जोड़ सकता।
वह भारतीय साहित्य की बराबरी
नहीं कर सकता
प्रवासी कहानियों के संबंध में यह कहा जाता है कि वे
भारतीय सहित्य की बराबरी नहीं कर सकतीं। यह बात बिलकुल
सही है। न तो भारतीय कहानी प्रवासी कहानी की बराबरी कर
सकती है न ही प्रवासी कहानी भारतीय कहानी की। दोनों के
अपने अपने क्षेत्र हैं और दोनों अपने क्षेत्र में
विशेष स्थान रखती हैं। काल स्थान और परिस्थिति के
अनुसार साहित्य का अपना महत्व होता है। जब प्रवासी
कथाकार किसी विदेशी गली का वर्णन कर रहा होता है तो वह
गली उसकी संवेदनाओं में बस कर कलम से गुजरती है। जब कि
पर्यटक उस गली से बहुत कुछ देखे समझे बिना निकल जाता
है। अनेक बार प्रवासी कहानी की समीक्षा करने वाले
भारतीय आलोचक प्रवासी साहित्य को पर्यटक की दृष्टि से
देखते हैं और एक दूसरे पर वार करने की मुद्रा में रहते
हैं। जबकि जरूरत इस बात की है कि हम एक दूसरे के मार्ग
दर्शक बनें और उन्हें अपनी अपनी गलियों की सैर कराएँ
और हिंदी कहानी के विस्तार में नए आयाम जोड़ें।
उसकी घटनाएँ दिल को नहीं छूतीं
यह तो स्वाभाविक ही है। जिन परिस्थितियों से भारतीय
लेखक या पाठक नहीं गुजरा उसको प्रवासी कहानी की घटनाएँ
नहीं छुएँगी। ठीक उसी तरह जैसे भारतीय कहानियों की
बहुत सी घटनाएँ प्रवासी या विदेशी पाठकों के मन को
नहीं छूतीं या उन्हें अजीब लगती हैं।
अंतर्राष्ट्रीयकरण के इस दौर में अपना सा न लगना बहुत
जल्दी दूर हो जाने वाला है। व्यापार और मीडिया ने मोटी
मोटी सब बातों का तो वैश्वीकरण कर दिया है। लेकिन
संवेदनाओं रिश्तों और सोच का वैसा वैश्वीकरण नहीं है।
पिछले दस सालों में जिस तरह पिजा सबको अपना लगने लगा
है, प्रवासी कहानी भी भारतीय संवेदना के स्तर पर सबको
छूने लगेगी।
उनकी भाषा बनावटी है
प्रवासी कहानी की भाषा बनावटी होने के बहुत से कारण
हैं। प्रवासी लेखक भाषा के एक गंभीर संकट से गुजरता
है। जिन घटनाओं और परिस्थितियों से वह गुजरता है
उन्हें हिंदी में कैसे व्यक्त किया जाय वह विश्लेषण की
एक गंभीर समस्या होती है। भारतीय लेखक के लिये यह
अपेक्षाकृत आसान है। गाँव की परिस्थिति है तो वैसी
भाषा का प्रयोग कर लिया, शहर की परिस्थिति है तो
अंग्रेजी का तड़का मार दिया, बंगाली पंजाबी सब भाषाओं
का प्रयोग हिंदी में किया जा सकता है और पाठक उसको
सहजता से समझ भी लेते हैं।
लेकिन अगर सभी काम हिंदी से इतर भाषाओं में हो रहे
हैं, जिसमें अंग्रेजी का प्रयोग भी न के बराबर है तो
उसको कैसे व्यक्त किया जाय कि वातावरण बन जाए, जो कहा
गया है उसका ठीक से रूपांतर हिंदी में हो जाए वह काफी
मुश्किल है। और यह काम और भी मुश्किल हो जाता है अगर
लेखक अंग्रेजी भाषी देशों में नहीं रहता है। वह इस
ऊहापोह से गुजरता है कि अपने देश की भाषा का प्रयोग
कहाँ करे कितना करे, किस तरह करे।
हिंदी कहानी को अगर अंतर्राष्ट्रीय होना है तो उसे एक
सामान्य हिंदी विकसित करने और उसमें लिखने की आवश्यकता
है, जिसमें गाँव प्रांत या अंग्रेजी जैसी भाषा का
प्रयोग बहुत ही कम हो। अभिव्यक्ति के साथ पिछले १०-१५
वर्षों से वेब पर रहते हुए मैंने जाना है कि हिंदी
कहानी के लगभग ३० प्रतिशत पाठक चीन कोरिया जापान और
सुदूर पूर्व इंडोनेशिया तथा पूर्वी योरोप के देशों में
बसते है जो अँग्रेजी नहीं जानते हैं। इसलिये जिस
प्रकार भारत में हिंदी कहानी में अंग्रेजी स्वीकृत हो
जाती है अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर नहीं होती है।
विषय- कथानक- परिस्थितियाँ
और भाषा शैली के वे बहुत से घटक हैं जो भारत में आसानी
से स्वीकृत हो सकते हैं लेकिन अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर
स्वीकार नहीं किये जाते। अब वह समय भी आ गया है जब
हिंदी कथाकार अपना लक्ष्य भारत में अपनी पहचान बनाने
की बजाय अपनी अंतर्राष्ट्रीय पहचान और लोकप्रियता की
ओर भी ध्यान दें।
सारे हिंदी साहित्य में प्रवासी
कहानी का स्थान कहाँ है
किसी भी विस्तार के बिना केवल बिन्दु रूप में
कुछ बातें कहूँगी
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हिन्दी की
प्रवासी कहानी को भारती में स्वीकृति की तलाश
करने का संघर्ष अब नहीं करना चाहिये। उसकी
अपनी पहचान है और यह पहचान समय के साथ उसे
अपने आप स्वीकृति दिला देगी।
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हिंदी कहानी के
रास्ते हिंदी भाषा तथा भारतीय साहित्य और
संस्कृति की लोकप्रियता बढ़ाने के लिये
प्रवासी हिंदी कहानी का हिंदी साहित्य में
महत्वपूर्ण स्थान है।
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अंतर्राष्ट्रीय
पाठक की रुचि और समझ की कहानी को
अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर समझदारी के साथ
प्रस्तुत करना आज की बड़ी आवश्यकताओं में से
एक है। इसके द्वारा हम हम भाषा और देश को
मजबूत करने का महत्वपूर्ण काम कर सकते हैं। |
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हिंदी साहित्य
को विश्व के कोने कोने में पहुँचाने और विश्व
का कोना कोना हिंदी साहित्य में लाने का
महत्वपूर्ण काम केवल प्रवासी साहित्य ही कर
सकता है। |
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