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रचना प्रसंग


नवगीत का शृंगार बोध
-कुमार रवीन्द्र


शृंगार मनुष्य की आदिम संज्ञा है : उसके प्रवृत्तिमूलक संज्ञान का सबसे आकर्षक एवं सम्मोहक स्वरूप है। मनुष्य की रागात्मक वृत्ति की सर्वोत्कृष्ट परिणति शृंगार में ही होती है। आज के आपाधापी भरे समय में दैहिक-पदार्थिक आग्रह के तहत हमारी स्वस्थ शृंगार वृत्ति का क्षरण हो गया है और उसके गर्हित पक्ष यानी मात्र वासनात्मक पक्ष की ओर ही हमारा ध्यान रह गया है। स्वस्थ सात्त्विक शृंगार का भाव, जो अपने उत्कृष्ट स्वरूप में भक्ति एवं श्रद्धा में परिणत हो जाता है, आज के संज्ञान से तिरोहित हो गया है। दैहिक आकर्षण, जो अंततः भाव-समाधि और आध्यात्मिक अनुभूति में परिवर्तित हो जाता है, आज मात्र एक उत्तेजक मशीनी काम-क्रीड़ा बन कर रह गया है। कविता किंवा संपूर्ण साहित्य से इस रसराज की रसानुभूति के तिरोहित हो जाने का संकट उपस्थित हो गया है। यह आज के समय की संभवतः सबसे बड़ी त्रासदी है। बीसवीं सदी के प्रसिद्ध अंग्रेजी कवि टी. एस. एलियट ने अपनी सर्वश्रेष्ठ काव्यकृति 'वेस्टलैंड' में हमारी आज की सभ्यता की इस त्रासदी का बड़ा ही सटीक अंकन किया है। मनुष्य आज एक बंजरभूमि में भटकन की स्थिति में है और इसका मुख्य कारक उसके जीवन से सहज शृंगार के आस्तिक भाव का तिरोभूत हो जाना है।

अक्सर यह आरोप सही मान लिया जाता है कि नवगीत में शृंगार का अंकन विरल है और नवगीत एक विशुद्ध बौद्धिकतापरक काव्य-विधा है। अस्तु, उसमें रागात्मक संवाद की गुंजाइश कम ही रह गई है। वस्तुतः पारंपरिक शृंगार की जो रीतिकाल से प्राप्त सर्वमान्य संज्ञाएँ या भंगिमाएँ रही हैं और जिनकी पुनरावृत्ति छायावादोत्तर स्वच्छंद कविता में देखने को मिली, वे अधिकांशतः नारी के दैहिक आकर्षण एवं उसके भोग्या स्वरूप पर ही केन्द्रित रहीं। बच्चन के 'निशा निमंत्रण' के गीतों में इससे प्रस्थान की चेष्टाएँ दिखाईं तो दीं, पर वे भी 'साथी', 'सखी' आदि संबोधनों के बावज़ूद नर-नारी की आम जीवन-व्यापारों में सहज सहभागिता को सही परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत नहीं कर पाईं। नारी को जो एक भोग्यसामग्री मानने की पारंपरिक दृष्टि रही थी, जिसमें नारी-देह को मात्र एक जिन्स के रूप में देखा गया था , उसका नये जीवन-सन्दर्भों के अनुरूप संस्कार नहीं हो पाया। हालाँकि छायावाद के अंतर्गत नारी-मन की उदात्त व्याख्या कहीं-कहीं की गयी थी, पर नारी के पुरुष-समांतर सहभागी रोप का चित्रण अधिकांशतः प्राचीन भारत या पौराणिक पात्र-छवियों तक ही सीमित रहा। और नवगीत पूर्व तक पहुँचते-पहुँचते वह संज्ञान भी धूमिल पड़ गया। 'नई कविता' से तो नारी लगभग अनुपस्थित ही हो गयी। उसके समानांतर उपजे 'नवगीत' के प्रारंभिक दौर में नारी-मन की आकृतियाँ वैसे तो कम ही रहीं, पर जहाँ-जहाँ भी वे अंकित हुईं, उनमें एक नई दृष्टि का आभास हुआ। कालान्तर में नवगीत ने जो विशद भाव-भंगिमाएँ अपनाईं, उनमें शृंगार की भी नई उद्भावनाएँ हुईं। प्रसाद के महाकाव्य 'कामायनी' की श्रद्धा जैसी किन्तु उससे नितांत अलग जीवन-संघर्ष में बराबर की हिस्सेदार एक सहचरी नारी की परिकल्पना नवगीत में हुई। नवगीत ने नर-नारी संबंध को मात्र दैहिक अथवा आध्यात्मिक धरातल से हटाकर एक नैतिक-रागात्मक आधार दिया। नवगीत की इस आधुनिक एवं नितांत अभिनव दृष्टि का परिचायक बना वह सहज कामभाव, जो मनुष्य के रागात्मक संज्ञान से ही उपजता है और उसी से हमें जोड़ता है। पारस्परिक वासनारहित लीलाभाव, जो संपूर्ण श्रृष्टि में परिव्याप्त आकर्षण की मूल संचेतना है, नवगीत की शृंगार दृष्टि का पर्याय बनी। कहन के धरातल पर नवगीत ने नये-नये बिम्बों की उद्भावना कथ्य के सभी प्रसंगों में की है। एकदम ताज़े-टटके बिम्बों के प्रयोग ने नवगीत के शृंगार-बोध को नई भंगिमाएँ ही नहीं दीं, अपितु उसकी अभिव्यक्ति की अभिनव संभावनाओं के द्वार भी खोले।

निराला के परवर्ती गीतों में कविता के छंद-प्रसंग को कहन के नये आयाम तो दिये ही, उनके माध्यम से शृंगार की अभिव्यक्ति के नये धरातल भी प्रस्तुत हुए। उन्हीं की भावभूमि से उपजा नवगीत का सहज स्वस्थ शृंगार-बोध। नवगीत ने निराला की इन बहु-उद्धृत शृंगारपरक गीत-पंक्तियों को नई भाव-अनुभूतियों एवं नये सन्दर्भों से जोड़कर शृंगार की नई-नई उद्भावनाएँ प्राप्त कीं -

बाँधो न नाव इस ठाँव, बन्धु ! / पूछेगा सारा गाँव, बन्धु !
यह घाट वही जिस पर हँसकर / वह कभी नहाती थी धँसकर
आँखें रह जातीं थीं फँसकर / कँपते थे दोनों पाँव, बन्धु !
वह हँसी बहुत कुछ कहती थी / फिर भी अपने में रहती थी
सबकी सुनती थी, सहती थी / देती थी सबको दाँव, बन्धु !

उसी कालखंड में माखनलाल चतुर्वेदी के गीतों में भी नई कहन के संकेत आ रहे थे, जिनमें शृंगार की भी छवियाँ कहीं-कहीं उमग जातीं थीं। बच्चन और नरेंद्र शर्मा की श्रृंगारिक कहन में भी नई भंगिमाएँ यदा-कदा देखने को मिल जाती हैं। नई कविता के प्रवर्तक अज्ञेय की 'काँगड़े की छोरी', 'तुम्हारी पलकों का कँपना', शमशेर बहादुर सिंह की 'निंदिया सतावे मोहे संझही से सजनी' , केदारनाथ अग्रवाल की 'माँझी न बजाओ वंशी' और 'धीरे उठाओ मेरी पालकी', शंभुनाथ सिंह की 'टेर रही प्रिया तुम कहाँ', गिरिजा कुमार माथुर की 'पिया आया बसंत फूल रस के भरे', नागार्जुन की 'झुकी पीठ को मिला / किसी हथेली का स्पर्श / तन गयी रीढ़', भवानी प्रसाद मिश्र की 'बूँद टपकी एक नभ से', धर्मवीर भर्ती की 'तुम्हारे पाँव मेरी गोद में' जैसी गीत-प्रस्तुतियाँ उसी भावभूमि से उपजीं थीं, जिनसे बाद में नवगीत की श्रृंगारिक कहन का विकास हुआ यानी प्रयोगधर्मी बिम्बात्मक अभिव्यंजना दृष्टि। किन्तु नवगीत ने कहन की जो दिशा ली और कथ्य के धरातल पर भी जो फ़िलवक्त से जुड़ी बिम्बात्मक दृष्टि अपनायी, उसने इन पूर्ववर्ती श्रृंगारिक भाव-भंगिमाओं को बहुत पीछे छोड़ दिया।

ईस्वी सन १९५९ में ठाकुर प्रसाद सिंह के संताली अनुभूतियों के गीतों के संग्रह 'वंशी और मादल' के आगमन से पहले चरण के प्रकृतिपरक भंगिमा वाले नवगीत को जो जनजातीय संस्कार मिला, उसने सहज रसानुभूति की कविता के लिए नई ज़मीन तैयार की। उन गीतों में वनजातियों का सहज-सरल शृंगार भाव कहीं प्रच्छन्न तो कहीं प्रत्यक्ष रूप में बार-बार अभिव्यक्त हुआ। देखें उस ऐतिहासिक संग्रह के कुछ शृंगारपरक गीतांश --

पर्वत पर आग जला वासन्ती रात में
नाच रहे हम-तुम हाथ दिए हाथ में
... ... ...
आओ रे लाज भरे / खेलो सब खेलो
ओठों पर वंशी हो , हवा हँसे झर-झर
पास भरा पानी हो, हाथों में मादर
फिर बोलो क्या रक्खा / दुनिया की बात में / हाथ दिए हाथ में

साखू की डाल पर उदासे मन / उन्मन का क्या होगा
पात-पात पर अंकित चुम्बन / चुम्बन का क्या होगा
मन -मन पर डाल दिए बंधन / बंधन का क्या होगा
पात झरे, गलियों-गलियों बिखरे

एक ओर सम्मोहक सहज रोमांस की की ये अनुभूति-आकृतियाँ और दूसरी ओर उद्दाम वासना की यह अभीप्सा -

जामुन की कोंपल-सी चिकनी ओ !
मुझे छिपा आँचल में / जाड़ा लगता है क्या भीतर आ जाऊँ
फूलों की मह-मह-सी रानी ओ / मुझे ढाँक बालों में
बादल घिरते हैं क्या भीतर आ जाऊँ

आदिम जनवासी जीवन में सहज एवं खुले श्रृंगारानुभूति की ये उत्तेजक छवियाँ 'वंशी और मादल' के माध्यम से जब नवगीत में अवतरित हुईं, तो अज्ञेय के शब्दों में हिंदी कविता में 'नये वातायन ' खुलते दीख पड़े। इन गीतों की लयात्मकता में जो सहजता हे और उनकी भाषिक संरचना में जो झर-झर झरते सोतों का प्रवाह है, उसने निश्चित ही नवगीत को एक नई ऊर्जा, एक नई अर्थवत्ता से भर दिया। ठाकुर भाई के इन गीतों की कहन आज भी अनुपमेय बनी हुई है। रामचन्द्र चन्द्रभूषण की ये गीत-पंक्तियाँ ऐसी ही सहज लयात्मकता को साधती हैं। हालाँकि इनकी भाषिक संरचना नागरी एवं क्लासिकी है, किन्तु इनमें भी शृंगार का भाव-जगत वही है -

शब्द ये चमेली के / किस पौरी पर धर दूँ
मिले नहीं समाचार / गीत की हवेली के
... ... ...
उड़े / पद्मपाखी के मौन उड़े / अर्थ जुडे
किसी चित्रवर्णा के
'फूलन-मड़वे' निहुरे / परस मिले / संदली हथेली के

इनमे शृंगार की अनुभूति अधिक गहराई से उपजी है और वह नैसर्गिक सम्मोहनों से जुड़कर उपस्थित हुई है। देवेन्द्र कुमार की कहन भी इससे बहुत अलग नहीं है। देखें उनके एक प्रसिद्ध गीत का अंश -

सोलह डैने वाली चिड़िया / रंगारंग फूलों की गुड़िया
कहीं बैठकर लिखती होगी / चिट्ठी मेरे नाम
देव उठाती, सगुन मनाती / रात जलाती घी की बाती
दोनों हाथ दूर से झुककर / करती चाँद-प्रणाम
सुनो ! सुनो ! खेतों की रानी
तालों में घुटने भर पानी
लंबी रात खड़ी कुहरे में / खिड़की पल्ले थाम

इसमें आये सांस्कृतिक संकेत हमें ग्राम्य-सभ्यता के परिवेश से जोड़ जाते हैं। यह नवगीत का वनों से, वन-संस्कृति से ग्राम्य परिवेश की ओर आगमन का संकेतक है।

सोम ठाकुर इस 'सोलह डैनों वाली चिड़िया' एवं 'फूलों वाली गुड़िया' की चिट्ठी का उत्तर यों देते हैं -

सुर्ख सुबह / चंपई दुपहरी / मोरपंखिया-शाम
रँग-रँग से लिख जाता मन, पत्र तम्हारे नाम
बाँहों के खालीपन पर यह /बढ़ता हुआ दबाव
चेहरे पर थकान के जाले / बुनता हुआ तनाव
बढने लगे देह से लिपटी यादों के आयाम

शृंगार जीवन के संघर्षों एवं उनसे उपजे तनाव और थकन से जुड़कर यहाँ एक सामाजिक मुद्रा अपनाने लगा है।

शिवबहादुर सिंह भदौरिया शृंगार को ऋतु-परिवर्तन से जोड़कर देखते हैं। उनके यहाँ शृंगार ऋतुराज की वह भंगिमा है, जिसमें

फूल-पत्तों के नये शृंगार थे / प्यार के पाँवों पड़े उपहार थे
खिलखिलाते खेत, हिलती डालियाँ / आम से हँसते हुए दिन आ गये
लग्न की ड्यौढ़ी, बजीं शहनाइयाँ / सजे मडवे के हिलीं परछाइयाँ
भाल के हर ओर फेरे गुनगुने हैं / पाग से - / कसते हुए दिन आ गये
... ... ...
भार से हलके हुए गृहकाज के / फिर अरुणवर्णी गुलालों के तले ... ...

ऋतु-प्रसंग से शृंगार का यह जुड़ाव नईम के गीतों में भी दिखाई देता है } मालवे की धरती से जुड़ी उनकी श्रृंगारानुभूति कई बिम्बाकृतियों को परसती चलती है -

नीले जल झीलों के / बतखों-सी तैर रही / पुरवैया क्वार की सपनों के मन्दिर गढ़ / खेतों मड़ैया चढ़ / रखवाली करती है / मकई औ' ज्वार की
आ जाती घर भीतर / कच्ची ताड़ी पीकर / लीपा-पोती करती / देहरी औ' द्वार की
नैहर के अल्हड़पन / पीहर शर्माए मन / रूठ-रूठ जाती है / बेला में हार की

वीरेंद्र मिश्र इन्हीं दिनों अपने गीतों में प्रणय और शृंगार की एक नई ऋतु रच रहे थे। वह ऋतु थी पारंपरिक और नई कहन के मेल की। अपनी क्लासिकी सांगीतिकता से वे गीत का नव-शृंगार कर रहे थे एक ओर तो दूसरी ओर अपनी एकान्तिक प्रणय-पीर को सामाजिकता के संस्कार भी दे रहे थे। देखें उनका एक गीत-अंश -

आज मुझसे कहा गीत ने / मन किसी रूप का जीतने / मौज से हार जा
... ... ...
सिर्फ तू ही नहीं है दुखी / पी रही पीर चन्दामुखी
आज मुझसे कहा प्राण ने / स्वप्न के भेद को जानने / अश्रु के द्वार जा

नरेश सक्सेना एक नई बिम्ब-भंगिमा तो लेकर आये, पर उनका शृंगार पारंपरिक गीत के दायरे में ही बना रहा। देखें -

रह-रह कर आज साँझ मन टूटे
काँचों पर गिरी हुई किरनों-सा बिछ्ला है
तनिक देर को छत पर हो आओ
चाँद तुम्हारे घर के पिछवारे से निकला है

शृंगार की ये वीरेंद्र मिश्र और नरेश सक्सेना वाली भंगिमाएँ स्वच्छन्दतावादी शृंगार से हटकर तो हैं, किन्तु वे नवगीत में सुगबुगाती एकदम ताज़ी-टटकी चेष्टाओं के बरअक्स उसकी श्रृगार-कहन को कोई नई दिशा नहीं दे पातीं। इस दृष्टि से उनका केवल ऐतिहासिक महत्त्व है।

और इसी बीच शृंगार की एकदम ताज़ी नई भंगिमा देखने में आई उमाकांत मालवीय के गीतों में। 'चन्द्रमा उगा' जैसे गीत में वे शृंगार को हमारी सांस्कृतिक आस्था में बड़े ही मनोरम रूप में खोजते हैं। देखें उस गीत का एक अंश -

चन्द्रमा उगा करवा चौथ का
तुमने भी अर्घ्य दिया होगा मेरे लिए
निर्जल उपवास किया होगा मेरे लिए
प्रियतम परदेस में न सो सका / भरी-भरी आँख ही सँजो सका

वहीँ 'फूल नहीं बदले गुलदस्तों के' जैसे गीत में वे शृंगार को अंतःपुर से निकालकर आम आदमी की दिनचर्या और फ़िलवक्त के सरोकारों एवं रोज़ की चिंताओं से जोड़ देते हैं -

टूटे आस्तीन का बटन / या कुर्ते की खुले सिवन
कदम-कदम पर मौके, तुम्हें याद करने के
फूल नहीं बदले गुलदस्तों के / धूल मेजपोश पर जमी हुई
जहाँ-तहाँ पड़ी दस किताबों पर / घनी सौ उदासियाँ थमी हुईं
पोर-पोर टूटता बदन / कुछ कहने-सुनने का मन ... ...
अरसे से बदला रूमाल नहीं / चाभी क्या जाने रख दी कहाँ
दर्पण पर सिन्दूरी रेख नहीं / चीज नहीं मिलती रख दो जहाँ
चौके की धुआँती घुटन / सुग्गे की सुमिरनी रटन ... ...
किसे पड़ी, मछली-सी तडप जाय / गाल शेव करने में छिल गया
तुमने जो कलम एक रोपी थी / उसमें पहला गुलाब खिल गया
पत्र की प्रतीक्षा के क्षण / शहद की शराब की चुभन
कदम-कदम पर मौके / तुम्हें याद करने के

यह पूरा गीत एक दस्तावेज़ है नवगीत की नई शृंगार-भंगिमा का। पुरानी दृश्यावलियों से एकदम अलग, एकदम अछूती यही वह कथ्य और कहन की यथार्थ-दृष्टि है, जिससे नवगीत नये युग के संपूर्ण भावबोध को एक नया आयाम दे रहा था। इसी प्रस्थान-बिंदु से आगे का नवगीत शृंगार को नाज़ुकखयाली और कोमलकान्त पदावली से बिलगाकर उसे जीवन के कटु एवं विषम यथार्थ से जोड़ पाया।

सात्त्विक प्रणय के प्रसंग नवगीत में जिस अनूठेपन से प्रस्तुत हुए हैं, वैसे पहले की गीतिकविता में कभी नहीं हो पाए थे। कुँअर बेचैन के दो प्रणय-गीतों के निम्न अंश उमाकांत मालवीय की कहन का ही जैसे विस्तार हैं -

तुम्हारे हाथ से टंककर / बने हीरे, बने मोती / बटन मेरी कमीज़ों के
... ... ...
बने झंकार वीणा की / तुम्हारी चूड़ियों के हाथ में / यह चाय की प्याली
थकावट की चिलकती धूप को / दो नैन हरियाली
तुम्हारी दृष्टियाँ छूकर / उभरने और ज्यादा लग गये / ये रंग चीजों के
* * *
हाँ, ज़रा सुनना / वो मेरी पैंट है न / वो फटी है जो अकेले पायचों पर
तुम ज़रा उसमें लगाकर चंद टाँके / इस तरह से जो नई हर कोई आँके
कल थमे वातावरण से मैं निकालूँगा प्रलय कुछ
ले चलूँगा फिर तुम्हें इस भीड़ से कुछ दूर
मुझको माफ़ करना / आज तो इस वक्त काफी देर ग्यारह पर सुई है

ऐसी ही दैनंदिन जीवन से जुड़ी प्रणय-शृंगार की छवि है कुमार रवीन्द्र के इस गीतांश में -

तुम नहीं हो / सिर्फ ये हैं - अलगनी पर सूखते कपड़े
रात-भर / पहने हुए / ये सुबह धोये गये
लग रहे हैं / रौशनी के पंख-से ये नये
कुछ मुलायम / रेशमी हैं - / कुछ बहुत अकड़े
मैं हवा के / द्वीप पर / बैठा हुआ हूँ
कभी सूरज हूँ / कभी कड़वा धुआं हूँ
दिन अकेला है / उसी से हो रहे झगड़े

शृंगार एक ऐसा सम्मोहक भाव-संवाद है दो व्यक्तियों के बीच में, जो उन्हें एकात्म कर जाता है। नवगीत में यह जुड़ाव एक सात्त्विक भाव-बोध बनकर उपस्थित हुआ है। माहेश्वर तिवारी के एक गीत की इन पंक्तियों में इस आस्तिक मनस्थिति को ज़रा देखें -

याद तुम्हारी जैसे कोई / कंचन कलश भरे
जैसे कोई किरन अकेली / पर्वत पार करे
लौट रही गायों के / सँग-सँग / याद तम्हारी आती
और धूल के / सँग-सँग / मेरे माथे को छू जाती
दर्पण में अपनी ही छाया-सी / रह-रह उभरे
जैसे कोई हंस अकेला / आंगन में उतरे

प्रिया के न होने पर प्रिया की याद का जो सम्मोहन है, उसे अन्य कई नवगीतकारों ने अपने-अपने अनूठे ढंग से अभिव्यक्ति दी है। देखें -

फिर सजाये मेज के गुलदान में कुछ फूल
फिर बटोरे देह की पगडंडियों के शूल
फिर लिखे हँसते हुए / गमगीन कुछ संवाद
फिर तुम्हारी याद आई आज ( अश्वघोष )

चादर मैली / कपड़े गंदे / कमरा कूड़ाघर
देखूँ जिधर / तुम्हीं-तुम / मुझको आने लगीं नज़र
गैस खत्म है / डिब्बे खाली / मुश्किल हुई चाय की प्याली
सूख रहे गमलों के पौधे / ढूंढ रहे हैं अपना माली ( मधुकर अष्ठाना )
यादों में एक-दो मूंगफलियाँ / रंगारंग अंतरंग बातें
यादों में तह करके रख लें हम / पार्कों में हुईं मुलाकातें
एक हँसी / फेंककर इधर-उधर / दूबों को सहलाना प्यार से
पल्लू को स्वतः खिसकने दिया / माथ झुका गन्धिल आभार से
कसी हुई पसीजतीं हथेलियाँ / उमड़-घुमड़ गुज़रीं बरसातें ( शांति सुमन )

तुमको घर से गये अभी / बीता पखवारा है
चादर नई खाट पर अब तक / नहीं बिछाई है
वैसी की वैसी आँगन में बिछी / चटाई है
कागज़ का हर टुकड़ा फिरता / मारा-मारा है
... ... ...
ठंडे चूल्हे में अब तक है / थोड़ी राख बची
दर्पण पर सिन्दूरी रेखा नहीं / गई खुरची
जिसके भीतर मुस्काता / आभास तुम्हारा है ( नचिकेता )

यह वसंती साँझ / कुहरिल रूप / उस पर टेरतीं यादें तुम्हारीं
चाँदनी में घुल गयी केसर / मदनगंधा हुईं साँसें
फिर हवा ने गुनगुनाया गीत /फूलों से लदीं शाखें
मंदिरों में जगमगाए दीप / झिलमिल हो गयीं / आँखें तुम्हारी ( श्याम निर्मम )

तुम एक बिसरे गीत-सा मुझको भुला देना
जब नीम का यह ठूंठ डूबेगा अँधेरे में
जब दूर पर लौ झोंपड़ी में टिमटिमाएगी
होगी समेटे गोद में कुछ राग अनजाने
वह एक ख़ामोशी तुम्हारे पास आएगी
यदि यों अकेले में कभी शिशु याद के जागें
दे थपकियाँ चुपचाप तुम उनको सुला देना ( राजेन्द्र गौतम )

नीम-आमों के झरे / तन पर मदीले बौर
एक खजुराहो हुए थे / झुरमुटों के ठौर
बेल-से लिपटे चले / थीं खूब सँकरी वीथियाँ
* * *
नाश्ता भी बन न पाया / व्यर्थ के प्रतिवाद में
शर्ट भी तो प्रेस-लगी / कोई न आई हाथ में
आज ड्यूटी की हुई है देर / जायेंगे नहीं ( वीरेन्द्र आस्तिक )

ये हैं यादों में हुए वे प्रणय-संवाद, जिनमें शृंगार की संचेतना जीवन के खट्टे-मीठे यथार्थों से जुड़कर एक ठोस आकृति पाने का प्रयास करती है। इन संवादों में सूर्योदय हैं तो जीवन के ढलते हुए कालखंड का रोमांस भी है। ऐसा ही एक संवाद-चित्र है सत्यनारायण के इस गीत-अंश में -

घंटी बजी / और फोन पर / मैंने 'हैलो' कहा
वही-वही बिल्कुल / पहले जैसी ही / धुली-धुली
उधर हँसी तुम / और इधर / बगुले की पाँख खुली
बँधी झील में / सहसा पूरनमासी गई नहा
... ... ...
बढ़ी उम्र ने / खींची ही होंगीं / कुछ रेखाएँ
बाल सफेद हुए होंगे / शायद दाएँ-बाएँ
फिर भी होगा / वही चेहरा / था जो कभी रहा

उम्र की ढलान की प्रणयानुभूति कितनी सहज, कितनी परिपक्व, कितनी पावन होती है, उसकी गूँज इस गीतांश की एक-एक पंक्ति में है। संयोग शृंगार की ऐसी ही किन्तु युवावस्था की मादकता से ओत-प्रोत छवि है यश मालवीय के इस गीतांश में -

पोंछकर तन / चाँदनी के तौलिये से
तुम नहाकर पास आईं / रात के दूजे पहर
एक कनखी से तिमिर की स्लेट पर / तारीख डाली
देह भाषा हुई क्षण भर / आहटों ने भी विदा ली
पर्व के क्षण / रोशनी के शावकों से
आ गये फिर घाटियों में / गंध की सीढ़ी उतर

चाँदनी के तौलिये से तन को पोंछने, कनखी से तिमिर-स्लेट पर तारीख डालने, क्षण भर देह के भाषा होने और पर्व के क्षणों के रौशनी के शावकों की तरह गंध-सीढ़ी उतरने के मोहक एवं मृदुल बिम्बों से बुनी गयी इस गीतांश की प्रणयानुभूति कितनी सम्मोहक बन पड़ी है, कहने की बात नहीं है। ऐसे ही मधुर क्षणों की स्मृति से उपजी हैं राधेश्याम शुक्ल की ये लोकगीतात्मक गीत-पंक्तियाँ -

मन में / सगुनचिरैया गाये / पाहुन आये
आँखों-आँखों / पुरी रँगोली / सुधियाँ टीके / कुंकुम रोली
वयःसंधि के खत मुसकाये / उमर मिठाये
देह हुई चाँदनी 'पियासी' / परस गयी मन / धूप कुहासी
रीझ-रीझ / दर्पण बतियाये / छंद सुनाये

नवगीत में शृंगार की सहज आनन्दमयी प्रस्तुति की दृष्टि से जो कुछ नाम उभरकर सामने आये हैं, उनमें एक हैं बुद्धिनाथ मिश्र। उनके गीतों में प्रणय की व्यक्तिगत सुखानुभूति एवं सामाजिक सरोकारों का अद्भुत सामंजस्य हुआ है। वे कहते हैं -

मैंने युग का सारा तमस पिया है, सच है
लेकिन तुमको प्यार किया है, यह भी सच है

आज का युग-संदेश भी यही है - व्यक्तिगत अनुराग के साथ-साथ युग के तमस की संचेतना स्वस्थ सामाजिक उत्तरदायित्त्व बोध का सृजन कर सकती है। बाह्य वातावरण और आंतरिक पर्यावरण के इस संतुलित सामंजस्य से ही आज के नवगीत की युगधर्मी आकृति बनती है और इसी अनुरागमयी 'स्व' से 'सर्व' होती अभीप्सा से सर्वहितकारी आस्था की उद्भावना हो पति है। आदिम सहचर भाव ही आज की बढ़ती संवेदनहीनता का एकमात्र समाधान है।

अवधबिहारी श्रीवास्तव ने 'हल्दी के छापे' शीर्षक अपने गीत-संग्रह में गृहरति की अत्यंत मनोरम छवियाँ अंकित की हैं। उनमें से एक छवि प्रिया के हाथों के हल्दी के छापों की है। देखें -

एक पत्र लिखना हाथों की छापों से
घर की कथा हथेली ही बतलायेगी
... ... ...
कोई छवि थाली में मंगल-दीप लिये
तुलसीचौरे पर अक्षत धर आयेगी
... ... ...
बिजली रचे महावर / गोरे पाँवों में
आँगन की बिछलन में / बचकर चलती है
कैसा जादूभरा गीत / मैं सुनता हूँ
शायद सात सुरों में / पायल बजती है
... ... ...
बालों से खेलती अँगुलियों / की छुवनें
ओठों पर झुकते गुलाब का / सम्मोहन

उनके एक अन्य गीत में कूड़ा बिनती एक लडकी के अभावग्रस्त जीवन के यथार्थ के बीच भी जो रोमांस जीवित है, उसका बड़ा ही मनोहारी चित्र अंकित हुआ है - एक ओर है दो दिनों से चल रही बरसात के कारण घर भर के फाँके से जूझती लडकी के आक्रोश का चित्र और दूसरी ओर है उसके निजी एकांतिक रोमांस की छवि - यथार्थ और रोमांस का यह संयोजन अनूठा बन पड़ा है -

बीड़ी पीता हुआ छोकरा / 'लाल रिबन' देकर भागा है
पिल्ले को सहलाती लडकी आसमान में उड़ने निकली

सहज अनुराग की इस उड़ान में अन्तःपुरी शृंगार से अलग एक सहज उल्लास की सृष्टि हुई है। उपर्युक्त पंक्तियों में जो तटस्थ निजता है, वह इस गीत को पारंपरिक गलदश्रु या वासनात्मक शृंगार से बिलगाती
है। यही तटस्थ निजता आज के गीत की पहचान है। ऐसी ही तटस्थ निजता का चित्र है कुमार रवीन्द्र की इन पंक्तियों में -

नदी का तट / हम खड़े हैं हाथ में ले हाथ / धूप भी है साथ
छेड़ता है / एक उजली हवा का झोंका / तुम्हारे बाल
पास / बरगद की नई कोंपल सिहरती / और बूढी डाल
बज रही है / कहीं वंशीधुन / सुन रहा हूँ मैं तुम्हारी बात
देख लो / पागल हुआ है / छू रहा है / इस जगह को घाम
रेत पर / तुमने लिखा था / जहाँ मेरा नाम
तुम लहर-सी / खिलखिलाती हो / सोचता हूँ उतर आये शाम

रवीन्द्र भ्रमर की ये गीत-पंक्तियाँ भी ऐसे ही उदात्त प्रकृतिपरक बिम्बों से शृंगार की उद्भावना करती हैं -

घर पीछे तालाब / उगे हैं लाल कमल के ढेर
तुम आँखों में उग आयी हो / प्रात गंध की बेर
यह मौसम कितना उदास लगता है - तुम बिन

शुद्ध यथार्थपरक ग्राम्य बिम्बों में रोमांस की सृष्टि करने में गुलाब सिंह, कैलाश गौतम और अनूप अशेष के नाम उल्लेखनीय हैं। कैलाश गौतम की ऐसी ही यथार्थपरक चरित्र-सृष्टि है 'खरपत्तू बो'। देखें उसकी शोख मनोहारी छवियाँ -

छुवन माधुरी, हँसी पाँखुरी, बातें रस की गगरी
जामुन-सी कजरारी आँखें, पुतली जल की मछरी
... ... ...
जैसे आते बौर आम में, वह कोयल हो जाती
रात-रात भर गाँव जागता, ऐसा चहका गाती
सरसों तीसी टेसू सेमल जैसे वस्त्र बदलती
कहीं फुदकती मैना जैसी हिरनी कहीं उछलती
मेले-ठेले भीड़-भाड़ में करती हँसी ठिठोली
रस मिलता जब चुटकी लेती और बोलती बोली
एक नहीं फागुन में सुनती अपने मन का करती
लाल गुलाबी नीले पीले रंगों से घर भरती
... ... ...
घर-घर रँग है घर-घर फागुन घर-घर लहँगा चोली
खरपत्तू बो नहीं रही अब टीस रही है होली

ऐसी ही एक छवि है गुलाब सिंह के एक गीत की भाभी की -

साहब का बेटा / अशीषतीं / होली गा-गा अनाज पीसतीं
दीपक की पीली-पीली लौ में / हल्दी की बरखा से भीजतीं
भाभी का तन-मन / कत्था-चूना पान का
अनूप अशेष अपनी विरह-व्यथा को खेत-खलिहानों से जोड़कर यों अभिव्यक्ति देते हैं -

फूली पीली सरसों / ऐसा लगता / बिना तुम्हारे / हुए खेत में बरसों
भाँटा-फूल / रंग में बोरे / लहके अलसी क्यारी
ऊँचा-डीह / पिपरहा घूरे / मसुरी दीठ उतारी
मन में पाला / लगे अरहरी / सूरज छिपे मदरसों
मन-सी गोर / गुलाबी इच्छा / गदरी पलकें भारी
पात-पात पर / सुधियाँ डोलें / तिनके हँसें अनारी
एक-एक दिन / तिथियाँ लाएँ / आज और कल परसों

लगभग हर नवगीतकार ने कभी-न-कभी जीवन के रोमांस और शृंगार को अपने जीवन में भरपूर जिया है। उपर्युक्त विवेचन से अलग देखें कुछ ऐसी छवियाँ -

रेत से लिखो या जलधार से लिखो
मेरा है नाम, इसे प्यार से लिखो
... ... ...
भरकर पूरनमासी चाँदनी / शिराओं में
बाँहों में धार नदी-निर्झर की जोड़कर
छोड़कर हिरन साँसों के / चन्दन-वन में
हम-तुम बह जायेंगे लहरों को तोड़कर
पल से चाहे छिन से / याकि निमिष भर मन से
दो मंगल अक्षर त्योहार से लिखो ( विनोद निगम )

पीले हरे गलीचे खेतों बीच बिछाये हैं
विहगवृन्द ने कलरव करके / अलख जगाये हैं
सूरज के रथ पर सवार हो / अंबर के पथ से
पुष्पों का धनु लिये हुए / ऋतुराजा आये हैं
सारस-युगल केलि करता है / गाता है फगुआ ( विद्यानंदन राजीव )

आ बैठी / ओठों पर / फागुनी हँसी
सतरंगी चूनर बदनाम हो गई
... ... ...
चुटकी भर / प्यार और / अंजुरी भर रंग
थिरक उठी / कदमों पर / ठंडाई-भंग
कस्तूरी देह / कई धाम हो गई ( ओमप्रकाश सिंह )

इच्छाएँ हो गईं दिगंबर / कुंठाएँ हो गईं पवन
... ... ...
एक पक्ष कृष्ण बजाए वंशी / एक पक्ष राधा की चाँदनी
ऋतुओं के उत्सव लीला रचैं / मलयगंध बहती उन्मादिनी
घटा-घटा रास रच रहे जैसे / उड़ते हैं गोकुल वृन्दावन ( विष्णु विराट )

गीत तो गाये बहुत जाने-अजाने
स्वर तुम्हारे पास पहुँचे या न पहुँचे / कौन जाने
उड़ गये कुछ बोल जो मेरे हवा में
स्यात उनकी कुछ भनक तुमको लगी हो
स्नान के निशि-होलिका में रंग घोले
स्यात कोरी नींद की चूनर रँगी हो
भेज दी मैंने तुम्हें लिख ज्योति-पाती
साँझ-बाती के समय दीपक जलाने के बहाने ( श्रीकृष्ण शर्मा )

बाट तेरी जोहते दी काट सारी / राहें देखते
आँखें दरद के आँसुओं से भीगी हुईं / बरसात वाले बादलों-सी
झुटपुटे में साँझ के कल तुम नहीं थे
दूसरा कोई बटोही आ रहा था / राह पकड़े ( सूर्यप्रताप सिंह )

कभी ग़ज़ल का मुखड़ा बनकर / कभी गीत की लय
पिया प्रेम का झरना / बहता है अविरल अक्षय
छुई-मुई-सी याद तुम्हारी / और निगोड़ी शाम
जाने क्या-क्या लिख जाती है / पत्र तुम्हारे नाम ( जगदीश श्रीवास्तव )

तुझ जैसी बहकती बयार मिले / या कोई जलता अंगार मिले
पुरवइया सपनों तक ले जाये / दर्द पोर-पोर तार-तार मिले
स्वप्न-सुन्दरी तुझको कहने से / हर सपना ही सुहाग हो गया
मौलसिरी तुझको जो कह दिया / फूल-फूल आग-आग हो गया ( दिनेश सिंह )

सुबह-सुबह की धूप बना लूँ / भर दूँ रंग पलाश का
... ... ...
सोंधी हल्दी सनी हथेली / कुमकुम की सौगंध
रह-रहकर आमंत्रित करती / नेहातुर अनुगंध
मन को पावन और बना लूँ / तन को हिम कैलाश का ( निर्मल शुक्ल )

याद आयेगी / दूधिया झरनों सरीखी / यह हँसी की धार
सर्दियों की धूप जैसी / प्यार की ये गुनगुनी बातें
ओस-भीगे पारिजातों की / टहनियों से जुड़ी रातें
कुहासों की नदी में ये / तैरते / दो द्वीप, जल की धार ( अखिलेश कुमार सिंह )

याद करो जब हम तुम दोनों / 'गोविन्दम' के छंद हुए थे
यौवन की पहली पावस में / कस्तूरी की गंध हुए थे
... ... ...
संधि न कोई समझौता था / ठगे गये संवाद कुँवारे
एक अनूठे सम्मोहन में / बँधे-बँधे हम सब कुछ हारे
स्वीकृतियाँ अनबोल रहीं पर / कई नये अनुबंध हुए थे ( सतीश कौशिक }

मुझ तक पहुँची गंध / धूप में / तुमने केश सुखाये होंगे
तुमने ली / अँगड़ाई मन में / इंद्रधनुष उग आए
यमुनाजल में / ताज़महल जैसे- / डूबे-उतराए
मुझ तक पहुँची किरण / ताल में / तुमने दीप सिराए होंगे ( इसाक 'अश्क' )

फिर-फिर संशय के पुल टूटे / जाने कितनी बार
... ... ...
रात-रात भर वासन्ती / तरु से मिलकर रोयी
पतझर की छतरी के नीचे / फिर कलियाँ सोयीं
देवी और देवता रूठे / जाने कितनी बार ( भारतेन्दु मिश्र )

इस आँधी-पानी में / खिड़की पर बैठना
फिर सोचना / क्या-क्या भूल हुई / उम्र की इस नादानी में
उँगलियों के पोर-पोर पर / अंगों के कोमल हस्ताक्षर
रह-रहकर दहक रहे हैं / कंठ और जिह्वा पर चढ़कर
... ... ...
मन में मानसून का घिरना / अंगों में जेठ का महीना
मन को धातु-सा गलाना / जड़ना फिर प्यार का नगीना
प्यार की तुलना / केवड़े से / गंध के दो कीमती दिन ( श्याम नारायण मिश्र )

फागुनी की बाँसुरी / फाग-राग टेरे
मधुमासी के दिन हैं / बस तेरे-मेरे
पक आयीं फसलें / चुकेगा उधार
अब चिंता छोड़कर / हो जा तैयार
विन्ध्याचल की गोरी / प्रेम-पत्र भेजे
ओ बस्तरवासी / कर जा तू फेरे ( सुश्री शरद सिंह )

मेघवती / रतनारी आँखें / देख-देख मन मोर हुआ
... ... ...
मदमय आँखों की / मादकता / सारे बंधन तोड़ गयी
पाप-पुण्य का लेखा-जोखा / चौपालों से जोड़ गयी
झिलमिल / तारों मध्य महकता / अर्धचाँद चितचोर हुआ ( भोलानाथ )

उपर्युक्त सभी उद्धरणों में अलग-अलग किसिम की बिम्ब-संयोजना और कहन-शैली नवगीत में शृंगार-भंगिमाओं की समृद्धि को दर्शाती है। वस्तुतः नवगीत की शृंगार-दृष्टि उसके गैर-पारंपरिक सौन्दर्य-बोध से जुडी हुई है। राजेन्द्र गौतम के अनुसार, " नवगीतकार का नारी-विषयक सौन्दर्यबोध वैयक्तिक न होकर सामाजिक सौन्दर्य चेतना का प्रतिनिधित्व करता है।... ... नवगीतकार ने घर-परिवार से जुड़े नारी-सन्दर्भों की मिठास, संवेग और सामीप्य-बोध को विशेष रूप से अपने गीतों का विषय बनाया है , इसीलिए उसके सौन्दर्य-चित्रण में सांस्कृतिक मर्यादा है ...।".नवगीत में शृंगार अपने उदात्त सहचर-सहचरी भाव में प्रस्तुत हुआ है, न कि उद्दाम या लम्पट वासनात्मक स्वरूप में। एक ओर नवगीत मनुष्य के इस आदिम राग को आध्यात्मिक धरातल तक ले जाता है, तो दूसरी ओर वह उसे जीवन के सख्त एवं खुरदुरे यथार्थों से भी जुडा रखता है। जीवन के कड़वे यथार्थ और संघर्ष के बीच भी एक आत्मीय मिठास बनी रहे, इसके लिए यह लाज़िमी है कि नर-नारी संबंधों में एक प्रेमिल संवाद की स्थिति बनी रहे। नवगीत के शृंगार-बोध का यही अभीष्ट मंतव्य है। यही संवाद आम जीवन की क्रियाओं एवं दिनचर्याओं से जुड़कर नवगीत के इस सम्मोहक प्रसंग को रोचक बनाता है। इसका सांस्कृतिक क्लासिकी धरातल हमें देवेन्द्र शर्मा 'इन्द्र' की इन पंक्तियों में बखूबी देखने को मिलता है -

पुछ गया गुलाल भाल से / पर हृदय रँगा अभी तलक
... ... ...
तुमने मन बाँध ही लिया / अनजाने हर सिंगार से
ज्योत्स्ना की रश्मिगंध ले / स्वप्न झरे हरसिंगार से
उलझा मन धूम जाल से / ज्योति के लिए उठा ललक

धूम्र जाल की उलझन के बीच ज्योति की ललक जगाने का उपक्रम करती शृंगार की यही सात्त्विक आस्था नवगीत की श्रृंगारिक संचेतना को अलगाती है पारंपरिक शृंगार-बोध से। यह आस्था समस्त सृष्टि की जिजीविषा की परिचायक है। नवगीत में शृंगार की प्रस्तुति इसी जिजीविषा से जुड़कर हुई है। और यही है नवगीत के शृंगार-बोध का विशिष्ट मर्म।
 

 

६ फरवरी २०१२

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